Rangun Cripar aur April ki ek udaas raat - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 3

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात

(कहानी : पंकज सुबीर)

(3)

‘‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी हैरान हूँ मैं..... यह गाना मेरा बहुत फेवरेट था लेकिन कुछ समझ नहीं आता था कि ये क्या बात है कि नाराज़ नहीं हूँ बस हैरान हूँ। अजीब सी बात है। बहुत समझने की कोशिश करती थी लेकिन कुछ पल्ले नहीं पड़ता था कि आख़िरकार इसका मतलब क्या है। जब बहुत ज़्यादा उत्सुकता बढ़ गई तो ज़िंदगी ने ख़ुद ही एक दिन समझाने की व्यवस्था कर दी कि ले अब अपने अनुभव से ही समझ ले।’’ शुचि की आवाज़ में हल्का-हल्का दर्द घुल गया था। आवाज़ थोड़ी सी काँप भी रही थी।

‘‘वसंत के बीतने का समय भी जीवन में आ गया था। वसंत मेरे जीवन के लिए एक बीता हुआ मौसम होने जा रहा था। सब कुछ इतनी अचानक हो गया कि कुछ भी सोचने का, समझने का मौक़ा ही नहीं मिला।’’ कह कर शुचि कुछ देर के लिए चुप हो गई। पल्लवी ने कुछ नहीं कहा, उसे समझ आ रहा था कि कहानी अपने सबसे संवेदनशील बिंदु पर पहुँच गई है। यहाँ पर कुछ भी पूछना ग़लत होगा।

‘‘बहुत कुछ नहीं है मेरे पास उस अलगाव के बारे में बताने को। बस ये कि कोई दुनिया थी जो मेरे वसंत को खींच रही थी, खींच रही थी या खींच कर ले गई थी। मेरे पास बस कुछ शेष हो चुके पलों की स्मृतियाँ थीं। उस दुनिया में कोई नया साथी मिल रहा था वसंत को। वह दुनिया संभावनाओं से भरी हुई थी वसंत के लिए।’’ कह कर शुचि फिर कुछ क्षण के लिए चुप हो गई। पल्लवी का मन किया कि वह कह दे कि बाक़ी कहानी कल कह देना आंटी, लेकिन कभी-कभी कल बहुत लम्बा हो जाता है।

‘‘जब भी अपने आप से पूछती हूँ कि क्या वसंत ने मुझे धोखा दिया, तो बहुत दृढ़ता के साथ इसी निष्कर्ष पर पहुँचती हूँ कि हाँ दिया था। जानते, बूझते और सब कुछ समझते हुए धोखा दिया था।’’ शुचि ने कुछ गहरे स्वर में कहा। गर्मी की उदास और ठहरी हुई रात में इस आवाज़ के गहरेपन ने घुल कर अजीब-सा प्रभाव उत्पन्न कर दिया। पल्लवी ने उस प्रभाव को अपने अंदर महसूस किया। शुचि ने अपने मोबाइल की स्क्रीन को उँगली से स्वाइप किया और उसमें कुछ करने लगी। कुछ ही देर में बहुत ही धीमे स्वर में गाना बज उठा -तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं। इतने धीमे स्वर में कि बस मुश्किल से सुनाई ही दे।

‘‘गाने से तुम्हारी रिकार्डिंग पर कोई असर नहीं पड़ेगा। बैक ग्राउंड म्यूज़िक मिल जाएगा कहानी को।’’ शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा ‘‘तूने इजाज़त फ़िल्म देखी है चिंकी ?’’ एक अटपटा-सा प्रश्न किया शुचि ने। पल्लवी ने केवल सिर हिला कर हाँ में उत्तर दिया।

‘‘उसमें माया है और सुधा है। मुझे लगता है कि यह दोनो नाम बहुत सोच-समझ कर रखे गए हैं। प्रेम सचमुच एक माया ही है और हर पुरुष इस माया से निकल कर अमृत की तलाश में जाना चाहता है। अमृत या सुधा की तलाश में। हमारा जीवन इसीका खेल है। आपको प्रेम चाहिए या अमृत। इस खेल की एक दिलचस्प बात यह है कि जब आप प्रेम को छोड़ कर अमृत की तलाश में निकल जाते हैं, माया को छोड़कर सुधा की खोज में निकल जाते हैं, तो प्रेम अधूरा रह जाता है, माया अधूरी रह जाती है। लेकिन यह अधूरापन ही प्रेम को अमर कर देता है। अधूरा प्रेम कभी नहीं मरता। बल्कि जो अधूरा है वही अमर है, जो पूरा हुआ वो तो मर जाता है। तो होता यह है कि अमृत की तलाश में निकलते समय हम अपने पीछे कुछ चीज़ों को अमर कर जाते हैं।’’ शुचि की आवाज़ दर्द में डूबी हुई थी।

‘‘मैंने वसंत को बीतते देखा, रीतते देखा। अपने आप को ठगा हुआ-सा महसूस करते हुए। लेकिन मैं अपनी कुसुम मैडम की तरह पूरे जीवन -रंगीला रे या माया की तरह -मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, नहीं गाना चाहती थी। मैं अपने हिस्से के वसंत को अपने पास बाँध लेना चाहती थी। इस तरह कि वो कहीं भी रहे, किसीका भी रहे लेकिन मेरे पास रहे।’’ कह कर शुचि कुछ देर को चुप हो गई। मोबाइल पर अब दूसरा गाना बजना शुरू हो गया है -ख़ाली हाथ शाम आई है। रात धीरे-धीरे गहरा रही है।

‘‘वसंत चाहता था कि हम बिना कोई सीन क्रिएट किए अलग हो जाएँ। तुमने आँधी देखी है ? उसमें संजीव कुमार कहता है सुचित्रा सेन से कि कोई सीन क्रिएट मत करना अलग होते समय। वसंत भी वही चाहता था। वैसे भी हमारे बारे में कुल जमा चार लोगों को ही तो पता था। वसंत को डर था कि उसका अतीत उसकी महत्त्वकांक्षाओं के रास्ते में न आ जाए कहीं। उस समय लोग नैतिकता जैसी बातों के बारे में बहुत सोचते थे। वही नैतिकता, जिसको आजकल मूर्खता कहा जाता है....।’’ कुछ हँसते हुए कहा शुचि ने।

‘‘सुधा... मैं उसे इसी नाम से बुलाती हूँ, वैसे उसका भी कुछ और नाम है लेकिन इजाज़त में रेखा का नाम सुधा ही था। तो सुधा मेरे जीवन के वसंत को ले जा रही थी, सात समंदर पार। जहाँ वसंत के सपने जाने कब से उड़ना चाहते थे। सुधा उन सपनों के लिए सुनहरे पंख लेकर आई थी। पता है चिंकी...? जब रंग सुनहरा हो न तो हमें पता ही नहीं चलता कि ये पंख हैं या फिर ज़ंजीरें हैं। सुनहरा रंग छिपा लेता है सब कुछ। कई बार सुनहरी ज़ंजीरों को भी पंख की तरह पहनना अच्छा लगता है। वसंत ने वो ज़ंजीरें अपने लिए चुनी थीं।’’ शुचि की आवाज़ डूबती जा रही थी। कुछ देर के लिए फिर ख़ामोशी छा गई।

‘‘मैंने कोई सीन क्रिएट नहीं किया। हो जाने दिया वसंत को सुधा का। उसके कंधे ख़ाली कर दिए जिससे वहाँ सुधा सुनहरे पंख लगा सके। वसंत और सुधा की शादी हो गई। शादी के बाद सुधा और वसंत मेडिकल की आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाने वाले थे। यह आगे की पढ़ाई ही वह सुनहरे पंख थे, जो सुधा के पिता वसंत के कंधे पर लगा रहे थे। हालाँकि वसंत के अपने पिता भी सक्षम थे उसको बाहर भेजने के लिए, लेकिन इन्सान हमेशा अतिरिक्त का सुख भोगना चाहता है, अतिरिक्त जो अर्जित से हटकर प्राप्त हो रहा हो।’’ शुचि ने कुछ व्यंग्य के स्वर में कहा। पल्लवी कुछ हैरत में थी कि अभी तक की कहानी में कहीं भी कुछ ऐसा नहीं है, जो उसके उपन्यास के लिए विषय बन सके। एक साधारण सी मिलने-बिछड़ने वाली अस्सी-नब्बे के दशक की प्रेम कथा है, कौन पढ़ना चाहेगा इस उपन्यास को ? क्यों भेजा है मम्मा ने उसे आंटी के पास ?

‘‘सब कुछ ठीक-ठाक हो गया था वसंत के हिसाब से। बस सात-आठ दिन रह गए थे वसंत को सुनहरे पंख लगा कर सात समंदर पार उड़ने में। तब बहुत ख़ामोशी से मैंने सीन नहीं क्रिएट करने की क़ीमत माँगी उससे....। उसकी ज़िंदगी की एक शाम और एक रात अपने लिए।’’ कुछ ठहरे हुए स्वर में कहा शुचि ने। कुछ देर के लिए सन्नाटे में डूब गई बालकनी। बस धीमे स्वर में गाना बजता रहा -आज भी न आए आँसू, आज भी न भीगे नैना.....। पूरा अंतरा उसी सन्नाटे में गूँजता रहा। रात और गहरी हो चुकी है। ऐसा लग रहा है मानों पूरी कायनात गहरी नींद में डूब गई है। रात..... हर तरफ़ बस रात है।

‘‘वो हमारा समय था, जब प्रेम में बस छूना-छुआना हो जाए तो बहुत बड़ी बात हो जाती थी। उसके आगे की तो सोची भी नहीं जा सकती थी। वसंत और मैंने पिछले दो-तीन सालों में एक-दूसरे को ठीक से स्पर्श भी नहीं किया होगा शायद। और अब मैं........’’ कहते हुए शुचि कुछ देर को रुक गई। मानों आगे की बात को कहने का हौसला जुटा रही हो ‘‘अब मैं सब कुछ चाहती थी... सब कुछ.. वसंत के साथ वो शाम और रात बिता कर जीवन भर के लिए कुछ बटोरना चाहती थी।’’ शुचि ने हिम्मत जुटा कर बात को पूरा किया। -रात की सियाही कोई आए तो मिटाए ना...., अब कुछ देर के लिए गाने की आवाज़ थी बस। काफी देर के लिए शुचि ने ख़ामोशी पहन ली। मोबाइल पर बजता गाना भी ख़त्म हो गया।

‘‘वसंत को मैंने कोई च्वाइस नहीं दी थी, बस चाहिए तो चाहिए। उस समय मैं....’’ कह कर फिर शुचि कुछ पल को रुकी ‘‘उस समय मैं वसंत को लेकर एक साथ दो भावों में थी। प्रेम करती थी, दो तीन सालों का प्रेम था उसका मेरा और... और शायद नफ़रत या ग़ुस्से जैसा भी था उसको लेकर मेरे मन में। इसलिए कोई च्वाइस नहीं दी थी उसे मैंने। जो मुझे चाहिए वह सीन नहीं क्रिएट करने की क़ीमत है। वो क़ीमत कहाँ देना है, कैसे देना है, वह भी मुझे नहीं मालूम, वह वसंत का सिर दर्द था। मुझे बस यह मालूम था कि वसंत जो आगे की ज़िंदगी सात समंदर पार शुरू करने जा रहा था, उस ज़िंदगी में सब कुछ मेरे सीन नहीं क्रिएट करने से ही स्मूथ रहने वाला था। मुझे मालूम था कि वसंत की मजबूरी है मुझे मेरी क़ीमत देना।’’ शुचि ने ठहर-ठहर कर बात पूरी की। मोबाइल पर अगला गाना बज रहा था -पल भर में ये क्या हो गया, वो मैं गई वो मन गया....।

‘‘मुझे मेरी क़ीमत देने की व्यवस्था वसंत ने ही की थी। अपने किसी दोस्त के घर। सुधा लंदन जाने के लिए पैकिंग वगैरह करने मायके गई हुई थी। वसंत के दोस्त के घर पर और कोई नहीं था, सब कहीं बाहर गए हुए थे। और हमने एक शाम और रात यहाँ बिताई।’’ शुचि ने ठंडे स्वर में कहा

‘‘यहाँ....?’’ पल्लवी ने कुछ आश्चर्य के स्वर में पूछा।

‘‘हाँ यहीं... वसंत के दोस्त के पिताजी तब यहाँ किसी बैंक में पोस्टेड थे। इस घर में किराए से रहते थे। अब यह मकान हमारा कैसे है, यह कहानी बाद में...। बस ये कि इसी मकान में, इसी बालकनी में और इससे लगे हुए इस ऊपर के कमरे में ही......।’’ शुचि ने बात को अधूरा छोड़ दिया पल्लवी के समझने हेतु। -आई बहारें सिमट कर, कहने लगीं वो लिपट कर... शुचि के चुप होते ही गाने के शब्द गूँजने लगे। कुछ देर तक शुचि चुप रही फिर उसने हाथ बढ़ा कर अपने मोबाइल को उठाया और उसमें बज रहे गाने को बंद कर दिया। गाने के बंद होते ही रात की ख़ामोशी और अधिक गहरा गई।

‘‘इसी बालकनी के पार मैंने उस दिन शाम को गहरा कर रात बनते हुए देखा था। वह भी ऐसी ही रात थी। ऐसी ही मतलब अप्रैल के शुरूआत के दिनों की रात थी। सब कुछ ऐसा ही था। बाहर कुछ पेड़ों पर पतझड़ था, तो कुछ पर वसंत के बीत जाने के निशान थे। वह अप्रैल के भूरे और उदास दिन की शाम थी। यह जो पीपल सड़क के किनारे खड़ा है न, ये उस शाम भी ऐसा ही था। पूरे पत्ते झड़ने के बाद निर्वसन खड़ा था। अप्रैल....। क्यों आता है ये अप्रैल...? अप्रैल की उसी सूनी और उदास शाम में बस मैं और वसंत हम दोनों थे और मेरे कैसेट प्लेयर पर लगातार बजते हुए गाने थे। आधे समय तो एक ही गाना बजता रहा, जिसे मैंने कैसेट में लगातार रिकार्ड किया हुआ था। वही अ ला कार्ट का गीत प्राइस आफ लव। नो वन वाण्ट्स टू बी लेफ़्ट अलोन, नो वन वाण्ट्स टू बी ऑन देयर ओन, बट आई डोण्ट वाण्ट टू बी सेकंड स्ट्रिंग, नेवर नोइंग वाट टुमारो विल ब्रिंग,’’ शुचि ने गाने को कुछ मद्धम स्वर में गुनगुनाया ‘‘गाना बजता रहा और शाम गुज़र कर रात में बदलती रही। मैं और वसंत वहाँ अंदर कमरे में थे और यहाँ इसी बालकनी के इस कैनवस पर उस शाम सूरज वहाँ दूर क्षितिज डूबता रहा।’’

‘‘वसंत के कंधे के एक बालिश्त नीचे पीठ के दाँए हिस्से पर एक बड़ा-सा तिल था, ये उसके जिस्म पर सबसे बड़ा तिल था। इतना बड़ा कि उस पर उँगली फिराओ तो महसूस होता था। गहराती रात के अँधेरे में मेरी उँगलियों ने आते-जाते कई बार उस तिल को महसूस किया। रुक कर, ठहर कर। मेरी उँगलियाँ प्राइस ऑफ लव की धुन पर थिरकती रहीं और महसूसती रहीं वसंत के बदन के एक-एक तिल को -आई वंडर व्हाय इट सीम्स सो स्ट्रेंज, थाट इट वुड नेवर चेंज, आई कुड सी दैट आई वाज़ लूज़िंग यू, एंड आई डिडन्ट नो व्हाट टू डू.... प्राइस आफ लव..... द प्राइस आफ लव.....।’’ शुचि ने बात को फिर गाने की पंक्तियाँ गुनगुना कर किया।

‘‘वसंत के घुँघराले बालों के छल्लों में मेरी उँगलियाँ उतरती रहीं, डूबती रहीं, भटकती रहीं। होंठों के दो जोड़ी आवारा पैर जिस्म की पगडंडियों पर भटकते रहे, जाने क्या तलाश करते हुए, या शायद बिना किसी तलाश में यूँ ही बस.... हर यात्रा किसी उद्देश्य से ही की जाए ऐसा ज़रूरी तो नहीं। कुछ यात्राएँ जीवन में निरुद्देश्य भी करनी चाहिएँ। तो बस वही किया मैंने भी। यह जो रंगून क्रीपर है न, इसके फूलों की ख़ुश्बू गर्मियों की रातों में बहुत ध्यान से महसूसनी होती है, इतनी भीनी होती है कि ज़रा ध्यान और कहीं गया आपका तो आपको यह ख़ुश्बू महसूस ही नहीं होगी। लेकिन उस रात रंगून क्रीपर की ख़ुश्बू को महसूसना नहीं पड़ रहा था, वह पूरे कमरे में फैली हुई थी। उसी ख़ुश्बू ने उँगली थाम कर मुझे बहुत छोटे-छोटे तिल भी गिनवाए जो वसंत के शरीर पर थे। वह एक तिल भी जो वसंत की दाँई आँख के ठीक नीचे था। ‘रंगून क्रीपर’ और ‘प्राइस आफ लव’, ये दोनों उस दिन साथ नहीं देते तो शायद......’’ शुचि ने बात को बीच में ही छोड़ दिया और एक बार फिर ‘प्राइस आफ लव’ की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगी ‘‘नेवर वांटेड टू टेल यू व्हाय, वी मस्ट से गुड बाय, बट आई गाट टू बी माय सेल्फ अगैन, बिकाज़ आई नो अवर लव विल नेवर बी द सेम......’’ गुनगुना कर शुचि कुछ देर को ख़ामोश हो गई। पल्लवी कुछ असहज महसूस कर रही थी शुचि के चुप होते ही। शुचि उसके लिए माँ के समान ही है और अब कहानी जिस मोड़ पर आई है वहाँ असहजता होना स्वाभाविक है।

‘‘एक रात में कई यात्राएँ कीं हमने, हम दोनों ने। हर यात्रा के ख़त्म होते ही मैंने वसंत के शरीर के पसीने की महक में सुधा की ख़ुश्बू को महसूस किया। वह महक मुझे बता देती थी कि मैं अन्य पुरुष के साथ हूँ। इससे पहले वसंत के शरीर की जिस महक को मैंने दूर से ही महसूस किया था, यह वो महक नहीं थी। यह कोई दूसरी महक थी। यह वसंत की ख़ुश्बू नहीं थी। शादी के बाद पुरुष का शरीर दूसरी तरह से महकता है। ये महक अन्य स्त्री को सबसे ज़्यादा परेशान करती है। वसंत के शरीर में भी अब सुधा महक रही थी। कितना अजीब लगता है यह महसूस करके कि वह जो तुम्हारा था, वह अब किसी दूसरी ख़ुश्बू में रच-बस गया है।’’ कुछ दर्द भरे स्वर में कहा शुचि ने।

‘‘वह ख़ुश्बू मेरे अंदर एक अजीब-सा कुछ पैदा कर रही थी। वसंत के प्रति ग़ुस्सा था या कुछ और था वो, लेकिन हाँ वह उस प्यार के ठीक उलट था जो वसंत के प्रति मेरे मन में अब तक था। वास्तव में मैं वसंत के रूप में सुधा से नफ़रत कर रही थी। वसंत के शरीर में बसी उसकी महक से नफ़रत कर रही थी। अलविदा के ठीक पहले की पीड़ा, दर्द से उपजी थी वह नफ़रत या.....। प्रेम हमेशा एक-सा नहीं होता, वह एक-सा हो भी नहीं सकता। -सो गुडबाय माय लव डोंट वेट फार मी, देयर इज़ नथिंग मोर टू से, ईवन नाउ इट्स टू लेट फार मी, बिकाज़ माय हर्ट इज़ ऑलरेडी फार अवे.....’’ प्राइस आफ लव की पंक्तियों को गुनगुनाते हुए शुचि ने बात को समाप्त किया। और उसके बाद एक लम्बी ख़ामोशी दोनो के बीच फैल गई। एक गहरी और ठहरी हुई ख़ामोशी। शुचि ने कुर्सी की पुश्त से सिर टिका दिया और एक लम्बी साँस छोड़कर आँखों को बंद कर लिया। पल्लवी समझ गई थी कि यह उस बीते हुए का नैराश्य है जो आज फिर से छा गया है। उसने कुछ भी कहना ठीक नहीं समझा। रात बहुत ज़्यादा गहरा गई थी। चारों ओर ख़ामोशी फैल गई थी। कुछ देर पहले तक जो इक्का-दुक्का गाड़ियाँ आ-जा रही थीं, अब वो भी सड़क पर नहीं थीं। एक अजीब-सा सन्नाटा चारों तरफ़ पसर गया है, रात का बोझिल सन्नाटा।

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