Rangun Cripar aur April ki ek udaas raat - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात - 1

रंगून क्रीपर और अप्रैल की एक उदास रात

(कहानी : पंकज सुबीर)

(1)

हवा में उदासी घुली हुई है। उदासी, जो मौसमों की थपक के साथ पैदा होती है। बाहर वसंत और पतझड़ क्या है, कुछ समझा नहीं जा सकता। जिसे नहीं समझा जा सकता, वह हमेशा सबसे ज़्यादा उदास करता है। हवा में गरमी के आने की आहट भरी हुई है। मगर अभी आहट ही है। भूरी-मटमैली-सी ज़मीन पर उसी के रंग में रँगे हुए उदास पत्ते बिछे हुए हैं। उदास और सूखे पत्ते। कभी हरे थे, भरे थे। पहले हवा को यह झुलाते थे, अब हवा इनको झुला रही है। उड़ा रही है। यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ। हवा का एक झोंका आता है तो इधर-उधर बिखरे पत्ते उसके इशारे पर, उसकी दिशा में उड़ चलते हैं, झोंका रुकता है तो वहीं स्थिर हो जाते हैं। शाख से जोड़ टूट जाए, तो यही होता है। पेड़ों पर कहीं-कहीं कुछ लगभग सूख चुके फूल कह रहे हैं कि वसंत बस अभी विदा ही हुआ है। अब इंतज़ार है एक बरस के बीतने का। जो आएगा, वह भी बीत जाएगा ही। बीतता मार्च और लगता अप्रैल क्यों उदास करता है, यह आज तक किसी की समझ में नहीं आया। शाम धीरे-धीरे गहरी काली हो रही है। मोबाइल के म्यूज़िक प्लेयर पर रोज़ की तरह वही गाना बज रहा है ‘‘नो वन वांट्स टू बी लेफ़्ट अलोन, नो वन वांट्स टू बी ऑन देयर ओन...’’। छोटे से ब्ल्यू टूथ स्पीकर में पूरे स्टीरियो इफ़ेक्ट्स के साथ बज रहा है गाना। यही गाना बजता रहेगा, कुछ बार रिपीट होकर, कई बार रिपीट होकर। आज यह बज रहा है, यह नहीं बजता तो कुछ दूसरे गाने बजते, इसी प्रकार लगातार। तब तक, जब तक कि कोई कॉल न आ जाए मोबाइल पर या फिर शुचि उसे बंद न कर दे। डॉ. शुचि भार्गव। बालकनी के दोनो सिरों के विस्तार के बीच जो कुछ भी है, वह किसी लैंड स्कैप की तरह बिखरा है और उसमें बहुत सी ध्वनियाँ भी साउंड स्कैप के अतिरिक्त प्रभाव के साथ जुड़ रही हैं। मानों किसी क्लासिक मूवी का कोई उदास-सा स्थिर दृश्य रुका हुआ है। बालकनी के दोनों सिरों से लटक रही रंगून क्रीपर इस पूरे दृश्य में अपने लाल, गुलाबी और सफ़ेद फूलों से उदासी का तोड़ने का असफल प्रयास कर रही है। बल्कि उदासी को बढ़ा ही रही है। यदि आप समय के किसी विशेष फ्रेम में फँसे हों, तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप क्या हैं ? आप उसी प्रभाव को बढ़ाते हैं जो उस फ्रेम का प्रभाव है।

डॉ. शुचि भार्गव शहर की प्रतिष्ठित गायनोकोलाज़िस्ट। शाम के इस ख़ास टुकड़े को अपनी तमाम व्यस्तता में से अपने लिए बचा कर रखा है। जब तक कोई इमरजेंसी केस न हो, तब तक इस समय को कहीं और बिताना पसंद नहीं शुचि को। समय बिताने का भी बस यही अंदाज़ है। यही बालकनी, यही लैंड स्कैप और यही कुर्सी। लैंड स्कैप में मौसम आते जाते रहते हैं, लेकिन चीज़ें मानों स्थिर हो गईं हैं। जड़ता जब अच्छी लगने लगे, तो उसको आदत बनने में समय नहीं लगता। इस पूरे उदास दृश्य को मोबाइल पर पहले गाने के बंद होने और उसके तुरंत बाद रिंग आने ने तोड़ दिया। डॉ. शुचि ने मोबाइल की स्क्रीन पर नज़र डाली, नंदा का खिलखिलाता हुआ फोटो चमक रहा था और मोबाइल में फीड किया गया उसका नाम डिस्प्ले हो रहा था ‘‘नंदू काका’’। डॉ. शुचि के चेहरे के भाव कुछ बदले, मुस्कुराहट का कोई बहुत हल्का सा हिस्सा होठों के किनारों पर तैरने लगा।

‘‘हाँ बोल नंदू....’’ मोबाइल के कॉल को स्वाइप कर अटैंड करते हुए कहा डॉ. शुचि ने।

‘‘बस वही डीडी सर की तबीयत का पूछने को कॉल किया था। दो-तीन दिन से कॉल नहीं किया था, तो सोचा आज तेरे प्रायवेट समय में तुझे पकड़ लूँ। कैसे हैं डीडी सर ?’’ उधर से नंदा की खनखनाती हुई आवाज़ आई।

‘‘अब कैसे होंगे इस उमर में ? अस्सी पार की उमर वैसे भी ग्रेस पीरियड होता है, लेकिन अभी दो-तीन दिन से ठीक हैं।’’ कुछ सपाट से स्वर में उत्तर दिया शुचि ने।

‘‘हम्म... तेरे लिए कभी-कभी बहुत दुःख होता है शुचि, ऐसा लगता है जैसे कोई बहुत ख़ूबसूरत कहानी बीच में ही अधूरी छूट गई हो, बिना किसी अंत के...।’’ नंदा ने कुछ प्यार भरे स्वर में कहा।

‘‘सारी कहानियाँ अपना अंत लेकर नहीं आती हैं नंदू, कुछ कहानियाँ अधूरी छूटने के लिए ही होती हैं। जिनका कोई अंत नहीं होता। कभी नहीं... वे अनंत तक, अनंत में भटकती हैं अंत की तलाश में।’’ शुचि के स्वर में दर्द घुल गया।

‘‘ऐसा मत बोल डब्बे... यह तो तेरा अपना फ़ैसला था...’’ नंदा ने कुछ समझाइश भरे स्वर में कहा। दोनों कॉलेज की सहेलियाँ हैं। नंदा का नाम शुचि ने नंदू रखा हुआ था कॉलेज में और नंदा ने शुचि का डब्बा। बाद में नंदू का नंदू काका भी हो गया बतर्ज रामू काका। दोनों ने एक साथ एमबीबीएस किया और फिर एमडी भी साथ-साथ ही किया। अब अलग-अलग शहरों में दोनों गायनोकोलॉजिस्ट हैं। कॉलेज की मित्रता समय के बड़े अंतराल लगभग चौबीस-पच्चीस साल का अंतराल पाट कर अभी भी दोनो को जोड़े हुए है।

‘‘हाँ नंदू, फ़ैसला तो मेरा ही था और मुझे उस पर कोई मलाल नहीं, जो किया ठीक किया। ख़ैर बता चिंकी कैसी है ? कैसा चल रहा है उसका लिखना-पढ़ना ?’’ शुचि ने भी विषय बदल दिया। चिंकी नंदा की बेटी का नाम है। चिंकी घर का नाम है, वैसे नाम पल्लवी है उसका। मेडिकल कॉलेज में पढ़ रही है, मगर साथ में लिखने-पढ़ने का शौक़ भी ख़ूब है। इधर काफी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कहानियाँ प्रकाशित हो रही हैं और प्रशंसित भी।

‘‘ठीक है, उसी के लिए ही आज तुझे फोन किया था... मगर समझ नहीं आ रहा बात कहाँ से शुरू करूँ ?’’ नंदू का स्वर कुछ उलझन भरा हुआ था।

‘‘हमारे बीच यह समझ में नहीं आना कहाँ से आ गया नंदू ? तू ही तो है जिसके सामने पूरी दुनिया खुली पड़ी है मेरी।’’ डपटने के अंदाज़ में कहा शुचि ने।

‘‘नहीं वो बात नहीं है, बस यूँ ही ज़रा..... अच्छा सुन.... लेकिन पहले प्रॉमिस कर कि तू बिल्कुल अन्यथा नहीं लेगी बात को, और हाँ मेरा प्रॉमिस पहले से है कि अगर तू मना करती है, तो मैं बिल्कुल रत्ती भर बुरा नहीं मानूँगी। सब कुछ पहले की तरह रहेगा।’’ नंदा ने उधर से कहा।

‘‘इतनी भूमिका क्यों बाँध रही है नंदू... तू भी अगर फॉर्मेलिटी के चक्कर में पड़ेगी तो मेरे पास बचेगा ही कौन?’’ शुचि ने डपटा।

‘‘नहीं पहले तू प्रॉमिस कर ।’’ नंदा ने ज़िद के स्वर में कहा।

‘‘अच्छा बाबा प्रॉमिस, अब बोल...?’’ शुचि ने उत्तर दिया।

‘‘असल में... चिंकी को किसी कॉम्टीशन में एक उपन्यास लिखकर सबमिट करना है। बड़ा अवार्ड है। मुझसे दस-पन्द्रह दिन से कोई प्लॉट माँग रही है कहानी का.... मेरे पास तो कुछ नहीं है, हाँ लेकिन तू.....।’’ बात को अधूरे में छोड़ दिया नंदा ने।

‘‘इसमें इतना झिझकने की क्या बात है नंदू ? तू सीधे-सीधे ऑर्डर दे सकती है मुझे, तेरे पास अधिकार है। लेकिन नंदू हम जो क्षितिज और पल्लवी को लेकर सोच रहे हैं...।’’ शुचि ने भी बात को अधूरे में छोड़ दिया।

‘‘क्षितिज और चिंकी के बारे में जो कुछ हम सोच रहे हैं, उसके लिए तो यह और भी ज़रूरी है। तू ऐसा नहीं सोचती क्या?’’ कुछ प्रेम के स्वर में कहा नंदा ने।

‘‘हाँ... कह तो तू ठीक रही है। इतने बड़े झूठ पर कोई रिश्ता नहीं टिकाना चाहिए। जैसा तू कहे।’’ शुचि ने उत्तर दिया।

‘‘ठीक है तो मैं संडे को भेजती हूँ चिंकी को तेरे पास। एक दिन में अगर काम हो गया तो ठीक, नहीं तो रुक जाएगी तेरे पास। अपनी कहानी तेरे लिए भी आसान नहीं होगा एक ही दिन में सुना देना। टेक योर ओन टाइम फार दैट.. ओके ?’’ नंदा ने निर्णय के स्वर में कहा और शुचि की ओर प्रश्न भी उछाला।

‘‘ठीक है भेज दे, संडे तक मैं चीज़ों को रीकॉल भी कर लूँगी। अच्छा चल अब बंद करती हूँ, डीडी सर को खाना खिलाने का समय हो गया है। बाय।’’ शुचि ने उत्तर दिया और नंदा का बाय सुनकर कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया।

शाम गहरा चुकी है। शुचि ने साँस छोड़ी और कुर्सी से उठ खड़ी हुई। डीडी सर मतलब शुचि के पति डॉक्टर दीन दयाल भार्गव है, वे मशहूर हैं डीडी सर नाम से। अस्सी पार की उम्र के कारण अशक्त हो गए हैं। एक समय वे शहर के सबसे बड़े गायनोकोलॉजिस्ट थे। मेडिकल कॉलेज में अपने विभाग के हेड रहे, फिर रिटायर होकर अपना नर्सिंग होम खोला और अब जब वे अशक्त होकर घर पर हैं, तो नर्सिंग होम को उनकी पत्नी शुचि सँभाल रही है। पत्नी, जो कभी उनकी छात्रा भी रही है। पहली पत्नी का निधन शादी के आठ-दस साल बाद ही हो गया था, उसके बाद का लम्बा जीवन यूँ ही काटने के बाद जब अचानक उन्होंने अपनी ही छात्रा शुचि से पचास-पचपन की उम्र में शादी की, तो बहुत हंगामा हुआ था। शुचि की उम्र उस समय पच्चीस के आस-पास ही थी। इस विवाह से कोई भी खुश नहीं था। यह उस समय के हिसाब से बहुत ज़्यादा बोल्ड क़दम था। वह अस्सी-नब्बे के दशक का समाज था, जो परंपरा और प्रगतिशीलता के दोराहे पर खड़ा हुआ था। जिसकी आँखों में मुक्ति के जितने स्वप्न थे, मन पर बेड़ियाँ भी उतनी ही पड़ी हुई थीं। उसे स्वप्न से ज़्यादा बेड़ियों से प्रेम था। अब तो उस बात को बहुत समय बीत गया है। धीरे-धीरे समाज और समय दोनो ने इस रिश्ते को स्वीकार लिया है। शुचि और डीडी का एक बेटा है क्षितिज, जो डॉक्टरी पढ़ रहा है। नंदा की बेटी पल्लवी के साथ। एक ही कॉलेज से दोनो साथ-साथ एमबीबीएस कर रहे हैं फिलहाल। पल्लवी के ही शहर के कॉलेज से। क्षितिज हॉस्टल में रहता है वहाँ। पल्लवी और क्षितिज के बहाने अपने रिश्तों को और आगे ले जाने का सोच रही हैं नंदा और शुचि। बल्कि यह कहा जाए तो ज़्यादा ठीक होगा कि ये नहीं सोच रही हैं, बच्चों की ओर से ही इनको संकेत मिला है इस बारे में। यह आज के समय की प्रोफ़ेशनल सोच भी है कि बजाय धर्म, जाति, गौत्र मिलाने के यदि शादी से पहले बच्चों का प्रोफेशनल कॅरियर मिलाया जाए तो ज़्यादा बेहतर होगा।

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संडे को शुचि नर्सिंग होम तभी जाती है जब बुलावा आता है वहाँ से। घर से बहुत दूर भी नहीं है नर्सिंग होम, इमरजेंसी कॉल आने पर यदि पैदल भी निकले तो पाँच मिनट से भी कम समय लगेगा नर्सिंग होम पहुँचने में। संडे का दिन होता है बस अपने ही लिए। डीडी अभी इतने अशक्त नहीं हुए हैं कि सहारा देना पड़े। अपने सारे काम वे ख़ुद ही कर लेते हैं। हाँ यह ज़रूर है कि रहते कमरे में ही हैं। एक वायरलैस डोर बेल का पुश बटन उनके साथ ही रहता है। कोई भी ज़रूरत पड़ने पर उसे दबा देते हैं। घर में काम करने वाले लड़के को बुलाना है तो एक बार और अगर शुचि को बुलाना है तो दो बार। लड़का पूरे समय के लिए ही रखा हुआ है। रात को भी यहीं रहता है। शुचि को अक्सर रात को ही कॉल आता है नर्सिंग होम से, ऐसे में डीडी की देखभाल के लिए किसी का रहना ज़रूरी है। घर कुछ पुराने पैटर्न पर बना हुआ है। कुछ-कुछ फार्म हाउस की तरह। बड़ा-सा ड्राइंग रूम, उससे लगा हुआ बेडरूम और एक गेस्ट रूम। एक तरफ किचिन। बेडरूम के पास से ही सीढ़ियाँ गईं हैं जो ऊपर के कमरे में खुलती हैं। ऊपर बस यही एक कमरा है। पूरा मकान लाल कवेलुओं की छत से ढँका हुआ है। ऊपर के कमरे में एक बालकनी है जो सड़क की तरफ़ खुलती है। बालकनी को चारों तरफ़ से रंगून क्रीपर की लतर ने ढँका हुआ है। लाल-सफ़ेद-गुलाबी फूलों के गुच्छे बालकनी पर छाए हुए हैं। इस बालकनी में ही शुचि का ज़्यादा समय बीतता है। बालकनी से लगा हुआ ऊपर का कमरा शुचि का स्टडी, लिविंग और म्यूज़िक रूम है। सीढ़ी से लगभग जुड़ा हुआ ही नीचे का बेडरूम है जो डीडी का कमरा है।

घंटी की आवाज़ सुन कर जब शुचि दरवाज़ा खोलने बढ़ी तो अनुमान था ही कि पल्लवी ही होगी। और अनुमान सही भी निकला। दरवाज़ा खोला तो सामने पल्लवी खड़ी थी। बड़े फूलों वाला टॉप और जींस पहने, पीठ पर बैग, आँखों पर हल्के आसमानी फ्रेम वाला चश्मा और होंठों पर मुस्कुराहट।

‘‘हाय शुचि आंटी....’’ नज़रें मिलते ही पल्लवी ने आँखें फैलाते हुए उत्साह के साथ कहा। शुचि ने कोई उत्तर नहीं दिया बस अपनी बाँहें फैला दीं। पल्लवी आगे बढ़ कर शुचि से लिपट गई। कुछ देर तक दोनो उसी मुद्रा में रही। फिर शुचि ने पल्लवी के कंधे पर प्यार से थपकते हुए उसे अपने से अलग किया और अंदर चलने को कहा।

‘‘हम्म ख़ुशबू तो अच्छी आ रही है आंटी, क्या बना है नाश्ते में ?’’ घर में घुसते ही पल्लवी ने सूँघते हुए कहा।

‘‘तू क्या जानती नहीं है कि क्या बना होगा ?’’ शुचि ने झिड़की के अंदाज़ में कहा। ‘‘चल हाथ-मुँह धो ले, तेरे चक्कर में आज मैंने भी नाश्ता नहीं किया है सुबह से।’’

‘‘बस आंटी दो मिनट, अंकल से मिल आऊँ...’’ कहती हुई पल्लवी डीडी के कमरे की ओर बढ़ गई।

नाश्ते से फारिग होकर पल्लवी और शुचि दोनों बालकनी में आकर बैठ गए। धूप में इतनी तेज़ी तो आ ही गई है कि वह चुभने लगे। रंगून क्रीपर की लतर की छाँव में दोनों बैठी हुई हैं। खाना बनाने वाली बाई को शुचि ने दोपहर और रात दोनो समय के इन्स्ट्रक्शन दे दिए हैं। नहीं चाहती कि आज कोई डिस्टर्ब करे।

‘‘क्षितिज को नहीं बताया कि तुम यहाँ आ रही हो ?’’ शुचि ने ही बात शुरू की।

‘‘नहीं आंटी, मुझे लगा कि यदि उसने भी आने की ज़िद की तो गड़बड़ हो जाएगी।’’ पल्लवी ने अपने बैग से नोटबुक और पैन निकालते हुए उत्तर दिया। शुचि चुप रही।

‘‘आंटी... आपसे एक परमीशन लेनी है....’’ पल्लवी ने कुछ झिझकते हुए कहा।

‘‘तुझे रिकार्ड करना है न सारी बातें ?’’ शुचि ने कुछ मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘आपको कैसे पता आंटी..?’’ पल्लवी हैरत में पड़ गई।

‘‘लेखकों के बारे में जानती हूँ मैं सब, कर ले रिकार्ड, लेकिन काम पूरा हो जाए तो डिलिट कर देना।’’ शुचि ने मुस्कुराते हुए ही कहा।

‘‘ऑफकोर्स आंटी... थैंक्स....’’ कहते हुए पल्लवी अपने रिकार्डर को सैट करने लगी। ‘‘वैसे तो मोबाइल में ही रिकॉर्ड हो जाएगा, लेकिन बीच में कोई कॉल आ गया तो गड़बड़ हो जाएगी।’’

‘‘जी आंटी...’’ सब तैयार करने के बाद पल्लवी ने अपना अँगूठा हवा में उठाते हुए कहा।

‘‘कहाँ से शुरू करूँ इस कहानी को ?’’ कहते हुए शुचि कुछ देर के लिए चुप हो गई।

‘‘तू तो जानती है कि नंदू और मैं, हम हमउम्र हैं। हम....जो साठ के दशक के बीच में पैदा हुए। नंदू और मैं एक ही साल में पैदा हुए हैं। पैंसठ में। मैं मार्च में पैदा हुई और वो..... अगस्त में।’’ शुचि ने कुछ सोचते हुए कहा। अगस्त कहने के बाद स्वीकृति हेतु उसने पल्लवी की ओर देखा भी। पल्लवी ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।

‘‘कालेज से पहले की कहानी में तो तेरे लिए कुछ नहीं है। वही कहानी है जो किसी मध्यमवर्गीय लड़की की कहानी होती है। वही तमन्नाएँ, आरज़ूएँ, इच्छाएँ और उनके अधूरे रह जाने की वही कहानी। सफ़ेद घोड़े पर सवार राजकुमार, जो हर लड़की के बस सपनों में ही आता था, कभी सपनों से निकल कर बाहर नहीं आया। अच्छा किया तुम्हारी पीढ़ी ने कि उस राजकुमार को अपने सपनों में से ही गेटआउट कर दिया। उससे बड़ा धोखेबाज़ कोई दूसरा नहीं है। तेरे सपनों में तो नहीं आया होगा न ?’’ कह कर मुस्कुराते हुए देखा शुचि ने पल्लवी की तरफ़। पल्लवी ने हाथ के इशारे और सिर को हिलाकर नकारात्मक उत्तर दिया।

‘‘अच्छा किया। मेरे ख़याल से वह नब्बे के दशक तक पैदा हुई लड़कियों को ही बरगला पाया, उसके बाद तो उसका पत्ता तुम लड़कियों ने ही साफ कर दिया। अच्छा किया।’’ कह कर शुचि ने कुछ देर नीले-भूरे आसमान की ओर देखा, कुछ देर देखती रही और फिर एक लम्बी साँस लेकर छोड़ दी।

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