रतिया Satish Sardana Kumar द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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रतिया


रतिया
कहानी
सतीश सरदाना
पचास साल बाद कोई शहर में आये और उस शहर को वैसे का वैसा ही पाए तो उस शहर का नाम रतिया हो सकता है।रतिया हरियाणा राज्य के फतेहाबाद जिले का छोटा सा कस्बा है,लेकिन रातियावासी इसे शहर कहना पसंद करते हैं।और यह बात तो हरगिज़ हरगिज़ उनको मंजूर न होगी कि कोई उनके शहर को पिछड़ा कह दे।
रतिया मेरे प्राणों में ऐसे बसा है जैसे ग़ुलाब में सुवास,जैसे चंद्रमा में चाँदनी,जैसे नववधू के मन में प्रियतम पति की साँवली छवि।लो,मैं तो कविता करने लगा।असल में बचपन की मधुर स्मृतियाँ चाहे कितनी भी सामान्य क्यों न हो,हमेशा मन के गहरे कोने में सुप्त पड़ी रहती हैं।कोई संदर्भ आने पर ताजा उगी फसल की तरह फूट पड़ती हैं,जमीन का कठोर सीना फाड़कर। कई साल से यह लगा लीजिए कोई बीस एक साल से रतिया जाने की तमन्ना थी।हर छटे महीने फतेहाबाद का चक्कर लगता।रतिया पच्चीस कि मी का मील पत्थर भी देखता।लेकिन रतिया जाना नहीं हो पाया।
जैसे मैंने भारत के हर शहर को घुमा है,वैसे ही इस शहर में नहीं जाया जा सका।इसमें तो किस्मत ही ले जा सकती है, यह सोचकर मैं सुअवसर की प्रतीक्षा में बैठ गया।सुयोग यह बना कि एक इंस्पेक्टर अचानक बीमार पड़ गया और हेडक्वार्टर से मुझे रतिया के पास एक बैंक ब्रांच की इंस्पेक्शन करने का आदेश मिला।आदेश देने वाला अपनी मजबूरी बता रहा था।
और मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि मुझे रतिया में एक सप्ताह रुकने का सुअवसर मिल रहा था।
मैं शनिवार रात को ही रतिया पहुँच गया था।दिल्ली से फतेहाबाद तो मैं हरियाणा रोडवेज से गया।उसके आगे जाने के लिए मैंने एक रिश्तेदार की बाइक उधार ले ली।बजाज की बॉक्सर बाइक थी कोई दस साल पुरानी।कम चली थी,इसलिए ठीकठाक हालत में थी।मेरे मामा की लड़की वहाँ रहती है लेकिन मुझे तो रतिया में आजाद पंछी की तरह रहना था,इसलिए होटल ले लिया।
होटल क्या एक पेट्रोल पंप की बगल में बना एक गेस्ट हाउस था।जिसमें कुल जमा आठ कमरे थे,ज्यादातर खाली पड़े थे।
शनिवार रात को तो कुछ हो नहीं सकता था।क्योंकि एक तो छोटे शहरों में रात जल्दी ढल जाती है।दूसरे पूरे हफ़्ते थकान वाला काम था।इसलिए शनिवार रात तो कमरे में रहने और आराम करने का प्लान कर लिया।एक सिगरेट का पैकेट,चिकन टिक्का और बढ़िया व्हिस्की की बोतल, जरूरत भर का सामान मंगा लिया।बेड पर अखबार बिछवाकर, कटा सलाद भी मंगवा लिया था।अब एक 'दिलबाग' की दरकार थी।और जैसा कि अक्सर होता था मेरे पास,सब मिल जाता था लेकिन दिलबाग नहीं मिलता था।इसलिए मूड बनकर भी उखड़ जाता था।मैंने वेटर को कुछ आगे जाकर दिलबाग ढूंढने की चिरौरी की लेकिन वेटर इतनी मेहनत करने को उद्यत नहीं था इसलिए बहाना बनाया कि मालिक से इजाजत लेनी पड़ेगी।मैंने उससे कहा कि अगर महात्मा गांधी वो भी एक सौ के नोट पर बैठे हुए अगर इजाजत दे दें तो चलेगा।उसे मेरी बात तुरंत से भी पहले समझ आयी।
सौ के नोट की क्या औकात होती है कि दिलबाग की दुकान मिल जाती है।अब दिलबाग महोदय मेरे मुँह में थे और मूड भी बन गया था।
वेटर मिनरल वाटर और सोडे की बोतल भी रख गया था,लेकिन जब टोमेटो जूस भी आ गया तो मुझे लगा कि सौ के नोट की रेंज बड़ी दूर तक होती है।
थोड़ी देर बाद वोटर फिर आया।भुने काजू और नमकीन रख गया और बोला,साहब आ रहे हैं।
मैंने भी बिना सोचे समझे कह दिया,आ जाने दो।
साहब गेस्ट हाउस के मालिक थे।अकेले पीते थे,लेकिन संगत को पसंद भी करते थे।बातें भी बड़ी मजेदार करते थे।मेरी उनसे थोड़ी राह रस्म हो गई तो वे बोले,कोई सेवा तो जरूर बताइएगा।
अब सेवा तो साहब यह है कि रतिया घूमना था।साहब बोले घुमा देते हैं,कल पूरा दिन आपके साथ बीतेगा।
हाँ, मैं साहब का नाम बताना तो भूल ही गया।साहब का नाम युद्धबीर सिहाग था
पचास एकड़ उपजाऊ जमीन के मालिक थे।बसें थी, ट्रक थे,एक पेट्रोल पंप था,एक गेस्ट हाउस और कई छोटे बड़े धंधे पार्टनरशिप में थे।
कॉलेज के दिनों में मेरी तरह एस एफ आई में रह चुके थे।उस समय के हर स्टूडेंट की तरह मार्क्स और लेनिन के भक्त थे।ग्लॉसी पेपर पर छपी सोवियत भूमि पत्रिका पढ़ते थे और सर्वहारा क्रांति के रास्ते देश की खुशहाली का सपना देखते थे।उस समय कोई उनसे कह देता तो वह अपनी पचास एकड़ जमीन गरीब और भूमिहीन किसानों में बांट देते।आज वो एक खूड़ भी किसी को न दें।बहुत दिन कॉमरेडों के साथ घूमे।निष्कर्ष यह निकाला कि कुछ होने वाला नहीं है।धंधा करना है और आगे बढ़ना है तो कांग्रेस जॉइन कर लो।क्योंकि कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो खाओ और खाने दो में विश्वास रखती है।बहुत दिन कांग्रेस में रहे हैं इसलिए पुलिस प्रशासन से काम निकलवाने में कोई दिक्कत नहीं आती उन्हें।कुछ दिनों से परेशान हैं क्योंकि उनकी बिटिया किसी कुजात से शादी करने पर अड़ी है।लगता है परिवार की इज्ज़त बचाने के लिए दोनों में से एक को तो निपटाना ही पड़ेगा।
सुबह हुई।दफ़्तर जाना नहीं था।इतवार था उस रोज,इसलिए सूरज उगने से पहले पहले बाज़ार से होते हुए खेतों की तरफ़ घूम आया गया।एक परिवर्तन मैंने हर छोटे बड़े शहर में देखा है,मंदिर हर जगह ख़ूब बन गए हैं।या तो लोग धार्मिक हो गए हैं या यह भी एक फैशन हो गया है।रतिया हमेशा से गुरुघर में श्रद्धा रखने वाला शहर रहा है।लेकिन इधर बाबा डम के विस्तार से खेतों के बीच राधास्वामी घर, निरंकारी सदन और सच्चा सौदा घर वगैरह भी दिखने लगे हैं।जो लोग मूर्तिपूजा और कर्मकांड को पाखंड समझते थे वे स्वाभाविक रूप से गुरुद्वारा की तरफ आकर्षित होते थे।लेकिन अब गुरुद्वारा भी उनकी आध्यात्मिक क्षुधा को शांत नहीं करता है इसलिए वे विभिन्न बाबाओं को अपना इष्टदेव मानने लगे हैं।
बचपन में प्रभात फेरी निकालने और उसमें शामिल होने का खूब चाव रहता था।कार्तिक महीने में प्रभात फेरी निकलती थी।इन दिनों गुलाबी ठंड शुरू हो जाती है।मुँह अंधेरे ठंडे पानी से नहाकर शरीर में ठिठुरन को झेलते हुए प्रभात फेरी में खड़ताल बजाते हुए निकलने का आनंद अनिर्वचनीय था।
इस बात को सोचते हुए निकला जा रहा था कि एकदम पीछे से आकर किसी ने दबोच लिया।उसने इस कदर जकड़ा था कि पीछे मुड़कर देख भी नहीं सकता था।मेरे कान के पास अपना मुँह लाकर बोला, पहचान कौन!और चिर परिचित हँसी हँसा।
"जसपाल?"मुझे छोड़ यार।मेरा दम घुट रहा है।
सेम वही लाइन बोली,जो कॉलेज में बोलता था,वश उसी तरह हँसते हुए बोला औऱ मुझे अपनी जकड़ से अलग कर दिया।
: जसपाल मान मेरा कॉलेज का जिगरी यार था।गाँव में रहता था और वर्जिश,कुश्ती से लेकर कविता तक सब करता था।शिव बटालवी का पागलपन की हद तक प्रशंसक था।इसलिए कॉलेज में मजाक में उसका नाम बटालवी पड़ गया था।उसका गला भी सुरीला था।इसलिए स्टेज पर उसकी उपस्थिति सुनिश्चित समझी जाती थी।जब 1986-87 में चंडीगढ़ को पंजाब को ट्रांसफर करने की मांग को लेकर आंदोलन उठ खड़ा हुआ था उन दिनों एक अनजान गाँव कंदुखेड़ा का नाम बहुत चर्चित हुआ था।क्योंकि कंदुखेड़ा गाँव के लोगों ने अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखवा दी इस वजह से अबोहर फाजिल्का जिलों का ट्रांसफर हरियाणा को होना रुक गया था,उन दिनों में कॉलेज में खेला गया कंदुखेड़ा गाँव पर लिखा एक एकांकी बहुत चर्चित हुआ था।इस एकांकी में जसपाल ने भावप्रवण अभिनय किया था।इसके बाद लड़कियों की आपसी बातचीत में जसपाल मान का नाम छा गया था।
जसपाल औऱ मैं अपने खिलंदड़ेपन में कई पापों के साझीदार थे।जिस वजह से हमारी दोस्ती चमड़ी से नीचे चली गई थी जिसको अंग्रेजी भाषा मे स्किन डीप कहते हैं।मैने उसे सुरेंद्र मोहन पाठक के नावलों का मुरीद बनाया था।वह पाठक साहब पर इतना लट्टू हुआ कि पाठक साहब से मिलने उनके आफिस पहुँच गया।पाठक साहब की विनम्रता का इतना कायल हुआ कि उसकी जबान पर बटालवी से बढ़कर पाठक साहब का नाम चढ़ गया।अपने आप को वह सरदार सुरेंद्र सिंह सोहल समझने लग गया और उसका निक नेम बदल कर विमल हो गया।वह हर लड़की में नीलम का चेहरा देखता।थोड़े दिन में उसे वह लड़की मिल गयी जो जीवन भर के लिए उसकी संगिनी बन गई।
जसपाल मेरे से लगभग चिपट गया और उन्हीं कपड़ों में मुझे अपने घर ले गया।मैंने लाख कहा कि ऐसे अच्छा नहीं लगता।नहा धोकर आराम से तेरे घर आऊंगा।लेकिन वह मानने वाला कब था।बड़े शहरों में इतने निश्छल स्नेह और सहृदयता के दर्शन दुर्लभ होते हैं।इसलिए मुझे उसी हालत में उसके घर जाना पड़ा।घर क्या था पूरी कॉलोनी सी थी।कभी सस्ते टाइम में उसने 2000 गज जगह खरीद ली थी।औरतों के लिए अलग मकान था जो नोहरे से काफी दूरी पर था।मजाक में वह बोला कि वह हमारा रनिवास है।हर चीज में सुरुचि और कवि हृदय का आभास था।साथ में गृहस्वामी की सम्पनता की चुगली भी कर रहा था।पानी पीने के लिए चांदी के गिलास थे।नाश्ता करने के लिए चांदी के प्लेट और कटोरियाँ।पानी में गुलाब की पंखुड़ियां पड़ी हुई थी।दूध के बड़े बड़े कप थे।और शुद्ध घी से लथपथ पराँठे।कई तरह के अचार और चटनियाँ थी।दही के खुशबूदार कसोरे थे।गर्म तरल देसी घी से भरा एक बर्तन था।और ऊपर से विनयशील गौरवर्णा गृहस्वामिनी,भाई साहब!जल्दी जल्दी में कुछ खास कर नहीं पाई।कोई कमी हो तो छोटी बहन समझकर माफ कर देना।डिनर पर जरूर आना,आप को कोई शिकायत का मौका नहीं देंगे जी।कसम से मैं शर्म से गड गया।सुबह सुबह उनको इतनी तकलीफ़ देने के लिए मन ही मन ख़ुद को दोष देने लगा।
वहाँ से फ़ारिग होकर जब कमरे पर पहुंचा तो दिन के बारह बज रहे थे।पेट और आत्मा दोनों तृप्त थे।बहुत देर बहुत सी बातों पर साथ साथ हंसे,साथ साथ गमगीन हुए।कितने ही हमारे मित्र,यारे प्यारे वक्त के थपेड़ों की मार से काल कलवित हो गए थे।कितने ही एवरेज स्टूडेंट तरक्की की सीढियां चढ़कर बड़ी बड़ी पोस्टों को सुशोभित कर रहे थे।कौन सी खूबसूरत लड़की कौन से उल्लू के पल्ले बांध दी गई थी।और कौन सी चुहिया जैसे जिस्म वाली काली चिड़िया किस धनिक के घर की सुसम्मानित गृहलक्ष्मी थी।सारी बातचीत के बाद यह निष्कर्ष निकलता था कि किस्मत के कोठारघर के मालिक के पास न तो सही मापतोल के बाट थे,न ही उसका ग़ज सही नापता था।न ही उसकी हिसाब किताब की बही में कुछ भी तरतीबवार दर्ज होता है।
: वेटर ने आकर बताया साहब दो बार आपके बारे में पूछ चुके हैं।मैंने उसे कहा, मुझे आधा घंटा दो।मैं तैयार होकर हाजिर होता हूँ।
आधा घंटा बाद साहब की नई फार्च्यूनर में बैठे तो साहब ने पूछा।बोलो साहब,किधर चलना है।मैंने कहा,जो आप चाहें।मेरे पास कुछ खास आईटीनेररी नहीं है।
: कार में बैठते ही अरिजीत सिंह की मखमली आवाज़ कानों में पड़ी तो लगा दिन बन जायेगा।'बातों को तेरी' गाना चल रहा था।'क्या लिखता है शब्बीर अहमद'साहब बोले तो ध्यान आया अरे हाँ, गाना तो शब्बीर अहमद का लिखा हुआ है।साहब की सुरुचि पूर्ण आदतों का भी आभास हुआ।
सिहाग साहब ने मुझे मार्लबोरो की सिगरेट आफर की जो मैंने बड़ी खुशी से कबूल की।
कुछ ही देर में हम लोग घग्घर नदी के किनारे पहुँच गए।
"साहब, यह देखिए,नदी का चौड़ा पाट!"वह मुझसे संबोधित था।"घग्घर नदी एक बरसाती नदी है।यह नदी कहीं भी किसी समुद्र में जाकर नहीं मिलती।यह जो मासूम सी छोटी सी पतली धार देख रहे हैं यह मानसून में विकराल रूप धारण कर लेती है।जहां तक देखो पानी ही पानी,अथाह जल!इस नदी पर ही सिरसा से आठ मील दूर ओटू बैराज बनाया गया है।ओटू में एक छोटी सी झील होती थी जिसे धानुर झील कहते थे उस जगह पर कोई सन 1896-97में छह लाख तीस हजार रुपये की लागत से ओटू बैराज बनाया गया था जिसमें से दो नहरें निकाली गई थी।इन नहरों के बनने से बीकानेर स्टेट और सिरसा के आसपास के इलाकों में खुशहाली एक गई थी।"वह सांस लेने के लिए रुका तो मुझे एहसास हुआ कि मैं मंत्र मुग्ध होकर उनकी बातें सुन रहा था।युद्धबीर साहब को अपने आसपास के क्षेत्र के इतिहास का कितना ज्ञान था।
"आप यह जानकर हैरान होंगे कि पाकिस्तान में इस नदी का नाम हाकरा पड़ जाता है।"उसके स्वर में उत्सुकता का पुट था।
"नहीं।मेरे ख्याल से ओटू हेड के बाद इसे हक्कर हिंदुस्तान में भी कहते हैं।"मैने उनको संशोधित किया।
उन्होंने आगे कहना शुरू किया,
"मौर्य हड़प्पा नागरिक सभ्यता के अवशेष जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता भी कहा जाता है,ज्यादातर घग्घर -हक्कर के चौड़े सूखे पाट के इर्द गिर्द ही पाए जाते हैं।कुछ इतिहास कार मानते हैं कि यही घग्घर नदी ही वास्तव में रहस्यमयी लुप्त हो चुकी सरस्वती नदी है।सरस्वती नदी का जिक्र ऋग्वेद में भी आया है।"
"ऋग्वेद में जिस सरस्वती नदी का जिक्र आया है,वह तो बर्फीली घाटियों से बहती है।वैसे भी इतिहासकार प्रमाणित कर चुके हैं कि वैदिक युग से पहले ही घग्घर नदी सूख चुकी थी।साल के अधिकतर महीनों में सूखी रहने वाली नदी सरस्वती नदी नहीं हो सकती।वैदिक सरस्वती नदी तो अफगानिस्तान ईरान में बहने वाली कोई नदी है।"मेरा मत था।
हम लोग नदी के चौड़े पाट पर चलते रहे औऱ बातें करते रहे।
"साहब!क्या आपको इस जगह से कुछ लगाव है।"अचानक युद्धबीर साहब ने पूछा।
"हाँ!मेरे बचपन के दिनों की यादों से बावस्ता है ये एरिया।मेरे बुजुर्ग भारत विभाजन के बाद बहावलपुर पार करके इधर आये थे।यहाँ उनको कुछ जमीन और हवेलियां अलॉट हुई थी।इन खरबूजे और तरबूज की बाड़ियों के बीच मैंने बहुत समय गुजारा है।झड़बेरी के बेर खाये हैं।इन टिब्बों के बीच से होकर रेस लगाई है दोस्तों के संग।रोज़ से डरकर जो हम लोग भागते थे लगता था कलेजा बाहर आ जायेगा।"
युद्धवीर बड़ा मगन होकर सुन रहा था।और मैं अपनी रौ में बहा जा रहा था।बहा जा रहा था।
इस तरह घूमते घूमते थकान हो गयी थी।भूख भी लग आई थी।लंच का इंतजाम युद्धवीर साहब के ट्यूबवेल पर था।खाट पर बीचों बीच एक फट्टा डाल रखा था जिस पर देसी भोजन लगाया गया था।कैरी का अचार,दाल मखनी,बैंगन का भुर्ता,दम आलू,पनीर पसंदा और खाटे का साग।सलाद और खेत की कढ़ी हुई देसी दारू।पीने में तल्ख और जुबान पर जलजला लाने वाली।कोई राजस्थानी मिरासी और उसकी बीवी सुमधुर रेगिस्तानी तान छेड़े हुए थे।खेत में मोटरसाईकल से हल जोता जा रहा था।लेबर भी काफ़ी थी।लगता था युद्धवीर साहब को खेती करने और करवाने का जबरदस्त तजुर्बा था।
एक बात मैंने नोटिस की कि खेत में काम करने वाली अधिकतर महिलाएं थी।पुरुष दो चार ही थे।यहाँ तक कि जिस ट्रेक्टर ट्राली में गोबर की खाद लोड की जा रही थी , तसलों में भरकर ट्रॉली में डालने वाली पूरी की पूरी लेबर महिलायें ही थी।केवल ट्रेक्टर चालक पुरूष था।मैंने साहब से बातों बातों में पूछा तो उन्होंने बताया,इधर मर्द ज्यादातर नशे पत्ती वाले हैं।अनियमित काम पर आते हैं।शरीर में कोई न कोई रोग पाले रहते हैं।महिलाएं मासिक वेतन पर खुशी खुशी काम कर लेती हैं
छुट्टी भी कम करती हैं।अहसान भी मानती हैं।मर्द नुगरे होते हैं।इधर लोगों में ऐंठ और अकड़ ज्यादा है।भूखे मर जायेंगे लेकिन अकड़ नहीं छोड़ेंगे।
"लेकिन औरतों के साथ काम करने में ख़तरा है।छेड़छाड़ और रेप के इल्जाम लगा कर पैसा ऐंठ सकती हैं।मुकद्दमे बाजी में बहुत वक्त और पैसा बर्बाद होता है।"मेरा विचार था।
"यह सही बात है।लेकिन आदमी को मैनेज करना आना चाहिए।मैंने सेल्फ हेल्प ग्रुप बना रखे हैं।जिसकी पदाधिकारी महिलाएं ही हैं।वे जो माल तैयार करती हैं उनको मैं खरीदता हूँ।वक्त पड़ने पर ये महिलाएं मदद करती हैं।इससे झूठे इल्ज़ाम लगने का ख़तरा भी टला रहता है।फिर भी संभावना तो रहती ही है।ऐसे मौके पर दबंगई ही काम आती है।यही मारपीट और चोट फेट,इतने से बात न बने तो क़त्ल!"युद्धवीर ने इतने सामान्य ढंग से यह बात कही कि मुझे खांसी आ गई।पानी पिया तो कुछ सकून महसूस हुआ।
लौटते लौटते शाम हो गई थी।जब साहब की गाड़ी गेस्ट हाउस के सामने रुकी तो अंधेरा हो गया था।गेस्ट हाउस का नियॉन बोर्ड वाई एस गेस्ट हाउस जगमगा रहा था।जिसके ऊपर हरे पत्ते का लोगो बना था।यही हरे पत्ते का लोगो साहब की गाड़ी,होटल के रिसेप्शन और दीवारों पर भी लगा था।कटलरी और क्राकरी पर तो था ही। अपने कमरे में घुसा तो नींद और थकान हावी थी।टूथपेस्ट करना और घर पर फोन करना रह गया था।दोनों काम निपटा कर मैं बिस्तर के हवाले हुआ।सुबह वर्किंग डे था।
जाने कितनी देर सोता रहा मैं,कॉलबेल की आवाज़ सुनकर जाग गया।लाइट जलाकर घड़ी की तरफ़ देखा।बारह बजे थे,इस वक़्त कौन है,यह सोचता हुआ दरवाजे पर पहुंचा और दरवाज़ा खोल दिया।सामने
वेटर और एक लड़की खड़ी थी।वेटर लगभग खीसें निपोरते हुए बोला,"साहब ने पुछवाया है कि कुछ शुगल मेला करना हो तो ......"वेटर ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया तो लड़की मुस्कराई।मुस्कराने से उसके मेकअप की परतों के बीच से उसका बासी चेहरा झांका।मैंने उसके मुँह पर दरवाजा बंद कर दिया।
सुबह देर से उठा इसलिए घूमने नहीं जा पाया।तैयार होकर नाश्ता किया ओर मोटर साइकिल पर बैंक की तरफ़ चल दिया।बैंक शाखा दस किमी दूर थी।बीस मिनट में वहाँ पहुँच गया।रास्ते में वह मोड़ भी आया जिधर से युद्धवीर साहब के खेतों को रास्ता जाता था।युद्धवीर साहब से रात वाली बात याद आई।क्या सचमुच ऐसा हुआ था या मैंने कोई सपना देखा थाम मैंने सिर झटक कर सोचा, क्या फ़र्क पड़ता है।
बैंक ब्रांच बिज़नेस के हिसाब से लार्ज ब्रांच केटग्राइस की गई थी लेकिन उसको एक स्केल थ्री मैनेजर हेड कर रहा था।हो सकता है चीफ साहब अभी अभी रिटायर हुए हों।या कोई और बात हो सकती है।डिपाजिट फिगर तो ठीक ठाक थी लेकिन लोन फिगर काफी ज्यादा थी।रतिया के पास के गाँव के लिए यह फिगर अजीब कही जा सकने वाली होगी।ध्यान से चेक करना होगा,मेरे इंस्पेक्टर मन ने सोचा। पिछली इंस्पेक्शन रिपोर्ट से लेकर आज तक ब्रांच का लोन बिजनेस 18 करोड़ बढ़ा था।एक साल में छोटी सी जगह में इतना फिगर बढ़ना सावधानी से जाँच करने की तरफ़ इशारा कर रहा था।ब्रांच का ग्रॉस एन पी ए भी काफी था लेकिन अलार्मिंग नहीं था।मन करा कि नॉन एग्रीकल्चर सेगमेंट में बिज़नेस फिगर देखी जाए।लेकिन शाखा प्रबंधक महोदय सुबह सुबह ही क्षमा मांग कर कहीं जरूरी काम से निकल गए थे और अपने जूनियर को मुझे अटेंड करने की हिदायत दे गए थे।जूनियर अटेंड करने के नाम पर साहब को पता होगा।मुझे
जानकारी नहीं है जैसे रटे रटाये वाक्य तोते की तरह बोल रहा था।ऐसे मौके पर ब्रांच के चपड़ासी,सेवादार या अटेंडेंट बहुत काम आते हैं।इसलिए उसे ही बुलवा भेजा।जूनियर की जान में जान आयी और उसने अटेंडेंट को भेज कर छुटकारा पा लिया।अटेंडेंट एक रिटायर्ड फौजी था और कागज़ पत्तर के बारे में खूब जानकारी रखता था।नए लोन की फाइलें मंगवा कर चेक करना शुरू किया।ज्यादा फाइलें कृषि कार्ड की थी,जिसमें कुछ खास नहीं था।थोड़ा यहाँ थोड़ा वहाँ कालम खाली थे।या कहीं कहीं साइन रह गए थे।
फाइलों के ढेर में से अनायास उस फ़ाइल पर नज़र पड़ गई।नज़र पड़ने का कारण भी था,हरे पत्ते का लोगो फ़ाइल पर बना था।खोलकर देखा,युद्धवीर सिहाग साहब की फाइल थी।पाँच करोड़ की सी सी की फ़ाइल थी।गेस्ट हाउस मॉर्गेज कर रखा था।गेस्ट हाउस की वैल्यू ग्यारह करोड़ दिखा रखी थी।क्या वह गेस्ट हाउस ग्यारह करोड़ कीमत का था।इम्पॉसिबल, मैंने सोचा।तभी शाखा प्रबंधक साहब प्रकट हुए और खेद व्यक्त करते हुए सामने की कुर्सी पर पसर गए।उनके गंजे सिर पर का पसीना,फूला पेट और उठता गिरता सीना उनके अस्वस्थ होने की चुगली कर रहे थे।मदन मोहन सिंगला उनका नाम था।
"सिंगला जी! आप के कितने बच्चे हैं।"मैंने सवाल किया।
"दो!"
"माशाल्लाह जहीन होंगे दोनों!"
"जी, आपका आशीर्वाद है।दोनों विदेश में है।पी जी कर रहे।एक साल और बचा है।", "बहुत बढ़िया!बच्चे पढ़ जाएं नौकरी में इतना ही बहुत है।और कौनसा महल खड़े होने हैं।"मेरा विचार है।
"सिंगला साहब के तो बच्चे भी पढ़ गए और महल भी बन गया हिसार में"चपड़ासी बीच में बोला,"हमारा देखो,देशसेवा करी बीस साल!अब साहब लोगों की सेवा कर रहे पाँच साल से।लेकिन हमारे बालक बेरोजगार रह गए।बी ए करके धक्के खा रहे।सिंगला जी से कहा,कई बार।किते अड़वा दो।नहीं,मगर गरीब की कौन सुनता है।"
"तेरे को लाख बार समझाया है ज़्यादा जबान न चलाया कर।ज्यादा बोलना नुकसान दे जाए है कई बार।"सिंगला साहब क्रोधित होकर चिढ़ते हुए बोले।डाँट खाकर चपड़ासी रुआंसा होकर खिसक लिया।
: मैं चुपचाप फ़ाइल चेक कर रहा था।सिंगला साहब कसमसाते हुए कुर्सी पर बैठे बैठे करवट बदल रहे थे।शायद कुछ कहने की कोशिश में थे।लेकिन कशमकश में थे कि कहें या न कहें।मैं भी बीच बीच मे उनकी परेशानी देखने के लिए आंख उठाकर देख लेता था।
"गेस्ट हाउस में कोई दिक्कत तो नहीं हुई"सिंगला साहब बड़ी हिम्मत बटोरकर बोल उठे।
मैंने उनको आश्चर्य से देखा।
"छोटा शहर है साहब!ख़बर हो ही जाती है।"उनके स्वर में अनुनय का पुट था।
"कुछ ज्यादा ही छोटा है।"मैंने व्यंग्य मिश्रित मुस्कराहट के साथ कहा।
"युद्धवीर साहब अच्छे आदमी हैं।छोटे शहर में ऐसे आदमी की छत्रछाया मिल जाये तो समझो तीन साल आसानी से कट जाएं।वरना इस जगह में रखा ही क्या है।"सिंगला जी ने कहा।
मेरी नजर बैलेंस शीट और प्रॉफिट लॉस एकाउंट पर पड़ी।गेस्ट हाउस की ग्रॉस प्रॉफिट बहुत ज्यादा दिखा रखी थी।हालांकि इनकम टैक्स रिटर्न्स में भी वही फिगर थी।पहली नज़र में सब कुछ ठीक दिखाई देता था।लेकिन लगभग खाली
गेस्ट हाउस की इतनी इंकम होना नामुमकिन था।
"सिंगला जी,आप ने ये रिटर्न्स आई टी डिपार्टमेंट से कन्फर्म करी हैं।"मैंने उनसे पूछा।मेरी आँखें उनके हावभाव का एक्स रे कर रही थी।
सिंगला जी कुछ न बोलें।
मैंने फ़ाइल में से कुछ नॉट किया और फ़ाइल साइड में रख दी।
अगली फ़ाइल जसपाल मान की वाइफ की थी।उसमें भी कमोबेश वही कहानी दोहराई गयी थी।फ़र्क इतना था कि बिज़नेस एक्टिविटी गेस्ट हाउस की बजाय सीड फैक्ट्री की थी।औऱ सी सी ओ डी चार करोड़ की थी।
मुझे अचानक दिलबाग की तलब लग गई।चपड़ासी को बुलाकर दिलबाग मंगवाया।एक गिलास पानी पीकर दिलबाग मुँह में डालकर उस पर अपनी जीभ घुमाई तो दिमाग़ के दसों द्वार खुल गए।विचार आया कि युद्धवीर के गेस्ट हाउस में तो मैं संयोग से चला गया था।क्या जसपाल मान से मिलना भी एक संयोग था।अचानक मुझे हर तरफ साजिशों और खतरे की बू आने लगी।

एक क्षण के लिए मैं डर गया था।लेकिन फिर सोचा कि इस शाखा प्रबंधक से पूछताछ न करके अपने लेवल पर ही पता लगाया जाए और रिपोर्ट तैयार करके हेडक्वार्टर भेजी जाए।लेकिन नियम के मुताबिक मैनेजर के साइन लेना भी जरूरी था।इसलिए कुछ न कुछ तो बताना ही होगा।लेकिन कल को मैनेजर यह कहे कि इंस्पेक्टर तो इसके ही गेस्ट हाउस में रुका था तो मेरी भूमिका खामख्वाह संदिग्ध हो जाएगी। इसलिए उस गेस्ट हाउस में रहने का तो कोई मतलब नहीं बनता।
फिर पूरे दिन मैंने ब्रांच मैनेजर से कोई बात नहीं की।न ही उन फाइलों को हाथ लगाया।जब मैनेजर साहब अपने काम में मग्न थे चपड़ासी से सिगरेट मंगवाई।सिगरेट लेकर आया तो उससे पूछा, "सब ठीक है न!"
"कुछ ठीक नहीं है साहब!शाम को पीर साहब पर आ जाना।सब बताऊंगा।"कहकर वह झट से कट लिया।
गेस्ट हाउस पहुंचते पहुंचते हुए छह बज गए थे।मेरे मामा के दामाद गेस्ट हाउस के बाहर गाड़ी लिए खड़े थे।दिन में उनसे बात कर ली थी।गेस्ट हाउस में जाकर रिसेप्शन पर रूम छोड़ने की सूचना दी औऱ हिसाब चुकता करके गाड़ी में आ बैठा।बाइक उनके साथ आया लड़का ले आएगा।
उनके घर जाकर थोड़ा सुरक्षित महसूस किया।बाजार से लगता हुआ उनका घर था,इसलिए उनकी दुकान और घर के बीच दूरी पाँच सौ कदम थी।चाय पानी पीकर उन्हें जरूरी काम कह कर निकला और चपड़ासी को फोन किया।अपना मोबाइल नंबर दिन में ही वह चुपके से सरका गया था।
चपड़ासी बोला,"पीर साहब पर आधे घंटे में पहुँच जाऊंगा।"
पीर साहब की मजार शहर के बाहरी इलाके में थी।एक रिक्शा किराए पर लेकर वहाँ पहुंचा।सोमवार था इसलिए वहाँ कोई भीड़भाड़ नहीं थी।
चपड़ासी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।इसलिए इधर उधर घूम कर एरिया का जायजा लेने लगा।
गली के नुक्कड़ पर एक छोटी सी दुकान पर अधेड़ उम्र का दरम्याने कद का शक्ल से ही मनोरंजक दिखने वाला एक लाला बैठा था।दुकान में गोली टॉफियों से लेकर,पतंग और जनरल स्टोर का सामान भरा था।सिगरेट और दिलबाग की तलब में उसकी दुकान पर गया।दुकानदार ने बुरा सा मुँह बनाया,"नशे पत्ती की कोई चीज नहीं बेचता मैं।सिरसे वाले बाबे का नाम ले रखा है"।उसने दीवार पर लगी बाबा की फोटो की तरफ़ इशारा किया।
दुकान में एक पूरा रैक उपन्यासों और पत्रिकाओं से भरा था।टाइम पास के लिए मैं उनको उलट पलट के देखने लगा।सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों की पूरी की पूरी सीरीज़ वहाँ मौजूद।उसमें से कुछ उपन्यास मेरे पढ़े हुए थे।कुछ नहीं।लेकिन कौनसे,इतना ध्यान नहीं था।
मैंने दुकानदार से उनका दाम पूछा।दुकानदार ने बताया,"ये बेचने के लिए नहीं है।किराए पर लेकर पढ़ने के लिए हैं।पढ़ना भी यहीं पढ़ेगा।"उसने पीछे बिछी कुर्सियों और एक लंबी मेज की तरफ़ इशारा किया।मुझे अपने जवानी के दिन याद आ गए।हमारे फतेहाबाद में भी ऐसी दुकानें होती थी।जिन पर एक सिटिंग में बैठकर मैंने काफी उपन्यास पढ़े थे।
चपड़ासी का फोन नहीं आया था।मैंने फिर से पीर साहब का चक्कर लगाने का फैसला किया।एक चक्कर लगाकर वापिस लौटा तो सामने आँखें सिकोड़े जसपाल मान खड़ा था।यह यहाँ कैसे!क्या मेरी जासूसी हो रही है।
"घूम रहे हो,"वह हँसता हुआ बोला,"मुझे बता देते,मैं घुमा देता।"
वह मेरे साथ साथ चलने लगा।
"रतिया में आकर यूँ लगता है जैसे समय ठहर गया हो।देखो उपन्यास किराए पर देने की दुकान अभी भी मौजूद है।सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों की पूरी सीरीज़ मौजूद है।" मैंने बात करने की गरज से कहा।लेकिन उसका ध्यान कहीं और था।
"तुम तो पाठक साहब के बड़े फैन थे।"मैंने उसे याद दिलाया।
"उन दिनों की बातें और शौक उन दिनों तक ही महदूद रह गए।"वह कुछ चिंतित जान पड़ता था।
"कोई परेशानी है।"मैंने जसपाल से पूछा।
"हाँ, और परेशानी की वजह तुम हो।"उसने मेरी तरफ उंगली से इशारा किया"सिंगला बता रहा था तुम मेरी लोन फ़ाइल को बड़े ध्यान से पढ़ रहे थे।"
मुझे सिंगला पर गुस्सा आया और हैरानी दोनों हुई।कैसा शख्स है वह।कौन किसका क्या लगता है।किसकी कौन सी नस दबानी है,सब ख़बर है उसको।वैसे देखने मे ढीला ढाला लगता है, लेकिन बड़ा काइयाँ और धूर्त है।कुछ कुछ साजिशी भी।
"वो तो मेरा काम है।वैसे भी दफ़्तर के मामले मैं किसी से डिस्कस नहीं करता।"मैंने शांति से कहा।
"न करना!बस ख्याल रखना।तुम इंटेलीजेंट आदमी हो।अपनी इंटेलीजेंस दोस्त कर ख़िलाफ़ इस्तेमाल मत करना।"वह मुस्कराते हुए बोला और उसके हाथ में एक लाख रुपये की एक गड्डी थी।"ये बच्चों के लिए रख लो।उनके मान अंकल की तरफ से!"
"अब तुम दोस्ती का अपमान कर रहे हो।दोस्त कहा है तो दोस्त पर भरोसा रखो।"मैंने उस झूठा दिलासा दिया।"क्या है ऐसा,जिसे छुपाने के लिए तुम्हें एक लाख खर्च करना पड़ रहा है।"
"तुम बात को ग़लत दिशा में ले जा रहे हो।तुम खुद मालूम है बैंकों में कैसे काम होता है।सिंगला अच्छा आदमी है।मैं नहीं चाहता,मेरी वजह से वह किसी मुसीबत में पड़े।"उसने पैकेट वापिस जेब में डाल लिया था।
"जैसी उसकी हरकतें हैं।उसने देर सवेर मुसीबत में पड़ना ही है।और हाँ, बैंकों में ईमानदार आदमी की परसेंटेज अभी भी ज्यादा है।इसलिए बैंक चल रहे हैं।सिंगला को मेरी नमस्ते देना।उसको कहना कि कुछ नहीं होगा तो कुछ नहीं लिखा जाएगा।"चपड़ासी के आने की संभावना नगण्य थी।इसलिए मैं वापिस चल दिया।
अगले दिन मंगलवार था।मामा की लड़की के घर आराम न हो पाया।देर रात तक इधर उधर की बातें होती रही।देर से सोए इसलिए सुबह उठा तो थकावट बरकरार थी।जल्दी जल्दी तैयार होकर साढ़े आठ बजे ही निकल लिया था।थोड़ी दूर पर ही हनुमान मंदिर था, मंदिर में माथा टेककर ग्यारह रुपये चढ़ाकर बस स्टैंड से बस में चढ़कर ब्रांच आफिस पहुंचा।मोटरसाइकिल आज मैं नहीं लाया था।

सिंगला अपने केबिन में मौजूद था।कोई लोकल अखबार पढ़ रहा था।मुझे दिखाते हुए बोला,देखिए साहब, कहने को रतिया छोटी सी जगह है लेकिन हत्या,लूट पाट और चोरी डकैती की वारदात बड़े शहर से कम नहीं है।कल रात को ही किसी राजमिस्त्री के इकलौते लड़के को मारकर नहर में फेंक दिया।लिखा है आर टी आई एक्टिविस्ट था।
"जगह बड़ी हो या छोटी इंसानी फितरत तो वही है,सिंगला साहब!लोग किसी तरह से भी जायज़ नाजायज़ तरीके से बस पैसा कमाना चाहते हैं।रिज़्क़ की कमाई पर लोगों का यक़ीन न रहा।"मैंने जवाब दिया।
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सिंगला जी ने निगाहें झुका ली थी।मेरी निगाहों की ताब वह झेल नहीं पाए।
मुझे चपड़ासी कहीं दिखाई नहीं दिया।मुझे इधर उधर देखते पाकर सिंगला ने पूछा,"कुछ मंगवाना है।चपड़ासी छुट्टी पर है।कल रात कोई ट्रक वाला उसे मार गया।पूरा मुँह फूटा पड़ा है।पंद्रह बीस दिन तो वह आने से रहा।"
"अच्छा!कहाँ की बात है।कितने बजे रात में"पूछते हुए अचानक मेरा गला सुख गया था।
"टाइम तो पता नहीं। लेकिन जगह तो पीर साहब के पास ही बता रहे।पैदल ही जा रहा था।उधर पास में ही उसका घर है,इसलिए जल्दी अस्पताल पहुंचा दिया।नहीं तो ज्यादा खून बहने से वहीं पड़ा पड़ा ही मर जाता।ट्रक तो मार कर रुका नहीं।उसका नम्बर भी किसी ने नोट न किया।"
पूरा दिन फाइलें चेक करने रिपोर्ट बनाने में बीता।जसपाल मान और युद्धवीर साहब जैसी कई कहानियां फाइलों में मौजूद थी।सब फाइलों में एक ही सी ए और एक ही वैल्यूर की रिपोर्ट थी।सिंगला साहब बीच बीच में आकर देख जाते थे।लेकिन आज कुछ स्वस्थ और निश्चिंत दिखाई दे रहे थे।मानो अभयदान मिल गया हो।इस बीच मैंने एक काम और किया था।युद्धवीर और जसपाल मान के पैन नम्बर नोट करके हेड क्वार्टर अपने परिचित को भेजे थे।ताकि उनकी इनकम टैक्स आफिस में फाइल आई टी आर की कॉपी मंगाई जा सके।परिचित ने अगले दिन तक काम करने का भरोसा दिया था।
अगले दिन रिपोर्ट आ गई थी।तीन सवा तीन लाख इंकम की रिटर्न्स फाइल की गई थी।इसका मतलब बैंक में दी गई आइ टी आर की रिपोर्ट फ़र्जी थी।पूरा खेल सिंगला की मिलीभगत से खेला गया था।
मुझे लगा कि इंटरिम रिपोर्ट फ़ाइल करनी चाहिए।इसके लिए मुझे फतेहाबाद जाना होगा क्योंकि यहां तो मेरी जासूसी हो रही थी।वहाँ मार्किट में मेरी पहचान के किसी व्यक्ति के कंप्यूटर पर रिपोर्ट टाइप कर प्रिंट निकलवा कर सुबह लेता आऊँगा।मैनेजर के साइन करवा कर भेज दूंगा।
मुझे अपनी मोटरसाइकिल की याद आई।
शाम को सात बजे रतिया से निकला।फतेहाबाद तेईस किलोमीटर दूर था।अंधेरी सड़क पर इक्का दुक्का ही वाहन चल रहे थे।
सागर पैलेस के पास आकर मुझे लगा कि कोई वाहन मेरा पीछा कर रहा है।मैं धीरे होता हूँ तो वह धीरे हो जाता है।अहरवां तक मेरा शक यकीन में बदल गया।क्या मुझे अहरवां में रुक जाना चाहिये।कोई न कोई परिचित यहाँ मिल जाएगा।लेकिन मैंने इरादा त्याग दिया।मन ही मन बजरंग बली का ध्यान किया और मोटरसाइकिल तेज दौड़ा दी।फिर एक लकड़ी के खोखे के पीछे मोटरसाइकिल खड़ी करके खुद भी छिप गया और पीछे आते हूए वाहन को देखने लगा।एक टूक तेजी से खोखे की बगल से निकल गया।नम्बर प्लेट पर गारा लगा हुआ था।ट्रक के काफ़ी दूर जाने के बाद मैंने अपनी मोटरसाइकिल धीरे धीरे आगे बढ़ाना शुरू किया।बीस मिनट बाद ही गुरुद्वारा झाड़ साहब आ गया था।अब फतेहाबाद नजदीक ही है।मेरा दिमाग़ बचपन की यादों में खो गया।जब मैं अपने परिवार के लोगों के साथ वैशाखी वाले दिन सुबह सुबह इस गुरुद्वारे में आता था।ट्रेक्टर ट्राली पर सवार हम बच्चे कितना उधम करते थे,खुश होते थे।
एकदम अचानक से वही ट्रक मेरे सामने आया और इस तरह से झोल खाया जैसे उसका टायर फट गया हो।मैंने ड्राइवर के साथ बैठे सिंगला की शक्ल साफ़ साफ़ देखी।ट्रक ने मुझे सीधी सीधी टक्कर मारी।मेरी बाइक हवा में कई फ़ीट उछली और सड़क पर जा गिरी।मैं किनारे एक खड्ड में जा गिरा और मेरी हड्डियां चटकती हुई सी महसूस हुई।गिरी हुई बाइक पर ट्रक चढ़ा और बाइक पिसने की तेज आवाज़ हुई।
सिंगला अंधेरे में ट्रक से नीचे उतरा,बाइक के पास आकर देखा।मुझे वहां न पाकर खड्ड तक आया लेकिन शायद उसे अंधेरे में मैं दिखाई न दिया।मैं दम साधे पड़ा रहा और वह वापिस लौट गया।
उसके जाने के बहुत देर बाद मैं खड्ड से निकला।अपने अंग हिला डुला कर चेक किये।चकनाचूर मोटर साईकल की तरफ एक निगाह देखा और सड़क के किनारे किनारे पैदल ही चल दिया।