मरो मेरे साथ! Mohit Trendster द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मरो मेरे साथ!

बांधव नामक छोटे से गाँव मे आज देर रात बहुत हलचल थी। रंजिश के चलते 2 परिवारों की हत्या करके पडोसी गाँव झमेल का निवासी प्रकाश गाँव मे से भागने की फिराक मे था पर मृत परिवारों के पड़ोसियों द्वारा शोर मचाए जाने पर धीरे-धीरे यह खबर गाँव के मुख्य भाग मे आग की तरह फ़ैल गई। सभी गाँववालों मे प्रकाश की इस हरकत पर आक्रोश था। लाठियाँ और लालटेन लिए जैसे सारे गाँववाले आज बाहर निकल आए थे। पर गाँव की बाहरी सीमा पर बनी कुछ झोपडियों तक यह हलचल अभी नहीं पहुंची थी। जान बचाता हुआ प्रकाश वहां तक पहुँच चुका था।

"दरवाज़ा खोल....सुशील..मै तेरा दोस्त प्रकाश हूँ.."

सुशील दरवाज़ा खोलता है तो हांफता हुआ प्रकाश उसके घर मे आ घुसता है।

प्रकाश - तू घर मे अकेला है, सुशील?

सुशील - हाँ, मेरी बीवी त्यौहार पर अपने मायके गई है..लेकिन तू इतना परेशान क्यों लग रहा है?

सुशील के सवाल का उत्तर देने के बजाय प्रकाश ने उसके सर पर ज़ोरदार वार किया जिस से सुशील बेहोश हो गया। तभी प्रकाश के पीछे आते गाँववाले दरवाज़ा पीटने लगे....कुछ लोगो ने दूर से प्रकाश को सुशील के घर मे घुसते देख लिया था. सुशील की झोपडी के बाहर शोर-गुल बढ़ता जा रहा था।

गाँववालों ने आवाज़ लगाई।

"सुशील दरवाज़ा खोलो....."

काफी देर तक कोई जवाब ना आने के बाद आक्रोशित भीड़ से भड़के हुए स्वर आने लगे।

"अरे, सुशील तो प्रकाश का जिगरी दोस्त है ना.."

"वो दरवाज़ा नहीं खोलेगा।"

"सुशील भी प्रकाश से मिल गया लगता है.."

"जिंदा जला डालो..उन दोनों को..यहीं उन पापियों का अंतिम संस्कार कर डालो!"

आक्रोशित जनसमूह की सोचने समझने की क्षमता क्षीण हो जाती है..आज निर्दोष सुशील शायद इस आक्रोश की भेंट चढ़ने वाला था. प्रकाश की डर से घिग्गी बंध गई थी.....बचने का रास्ता ढूँढती उसकी आँखों मे चमक आ गई।

देखते ही देखते भीड़ ने सुशील की झोपडी जला दी। प्रकाश सुशील के घर की पिछली खिड़की को तोड़कर सरपट भागता हुआ पीछे जंगलो मे गुम हो गया। इधर झोपडी के जलने से उठे धुएँ ने अचेत सुशील की बेहोशी को तोडा....धुएँ से भरे बंध घर मे उसका दम घुटने लगा...अर्ध-चेतना की हालत मे वो दरवाज़ा ढूँढने लगा....उसे दरवाज़ा तो मिला पर तब तक पूरे घर और उसके शरीर मे आग लग चुकी थी। वो चिल्लाता और तड़पता हुआ दरवाजा खोल कर बाहर की तरफ भागा.......भीड़ मे से आवाजें आई।

"यही है हत्यारा प्रकाश....मार डालो इसे।"

किसी ने उस जलती..तड़पती और दर्द से कराहती आकृति की पहचान जानने के बारे मे एक क्षण नहीं सोचा..और बाहर लाठियों-डंडो से उसे तब तक पीटते रहे जब तक वो बेजान नहीं हो गई. गाँववालों का पागलपन अब जाकर शांत हुआ। तब जाकर सरपंचके लड़के की नज़र उस अधजली लाश के हाथ पर पड़ी जिस पर "ॐ" aur "सुशील" लिखा हुआ था। यह बात भीड़ मे फैली और किसी को समझते देर ना लगी की यह प्रकाश नहीं सुशील है। कुछ लोगो ने बाहर से सुशील की सुलगती झोपडी का मुआयना किया तो पता चला की मौका देख कर प्रकाश भाग चुका था। गाँववालों को अपनी गलती का एहसास तो हुआ पर अब देर हो चुकी थी। खुद को बचाने के लिए उन्होंने पुलिस के सामने यह कहानी बनाने का निर्णय लिया की प्रकाश के साथ सुशील भी हत्याओ मे शामिल था और उग्र भीड़ ने उसे मार डाला....जबकि प्रकाश फरार हो गया। पुलिस इस घटना मे उम्मीद से जल्दी आ गई और कागजी कार्यवाही, लाश का पंचनामा और थोडी पूछ-ताछ करके चलती बनी। सरपंच ने स्थानीय पुलिस थाने के इन्चार्ज को अपनी परेशानी बताई, तो उस स्टेशन अफसर ने उन्हें तसल्ली दी -

"अरे, सरपंच जी....ऐसा तो गांवो मे अक्सर हो जाया करता है....इसपर पूरे गाँव को अपराध मे नामजद थोड़े ही करेंगे।"

अगले दिन तडके सुशील की पत्नी रेखा अब तक सुलग रही अपनी झोपडी के पास पहुंची और दहाड़ मार कर विलाप करने लगी....वो गाँववालों से अपने पति की गलती पूछने लगी..और पूरे दिन पागलो की तरह बेसुध गाँव मे घूमती रही। पर गाँववालों ने उस से दूरी बनाई रखी..क्योकि वो सुशील को अपराधी बता कर अपनी गलती छुपाना चाहते थे..इस काम मे सबसे आगे थे गाँव के सरपंच जिनका मानना था की गाँव की भलाई के लिए एक-दो लोग मर भी जाए तो क्या आफत आ जाएगी? अपने खुशहाल जीवन मे अचानक आए इस बदलाव को वो कैसे सहन कर पाती? बार-बार उसने हर दरवाज़े पर इंसाफ माँगा पर कोई दरवाज़ा नहीं खुला....किसी का दिल नहीं पसीजा। रेखा को कहीं से इंसाफ तो नहीं मिला पर हाँ जल्द ही पागल होने का दर्जा मिल गया। गाँव वाले भी सुशील से जुडी हर बात को दबा देना चाहते थे.....और रेखा उनके लिए आगे चलकर खतरा बन सकती थी। पागलखाने की गाडी आई और पागलखाने के कर्मचारी उसे ज़बरदस्ती पकड़ कर ले गए। उस रात खबर आई की पागलखाने की गाडी का एक्सीडेंट हो गया है और वो खाई मे जा गिरी....किसी के जिंदा बचने की उम्मीद नहीं थी।

उसी रात रेखा गाँव मे लौट आई और अपने घर की राख पर बैठ कर भयानक अट्हास करने लगी....आधी रात के बाद सबके दरवाज़े खटका कर वो सबसे चीखती हुई कह रही थी।

"उन्होंने मुझे बचा लिया....अब वो तुम सबसे मिलना चाहते है....बाहर आओ...दरवाज़ा खोलो!"

वो जिंदा थी....गाँवभर मे सिरहन सी दौड़ गई।

अर्ध-चेतना और अजीब सी नशा करने के बाद जैसी हालत मे रेखा गाँव के बीचों-बीच आई जहाँ अक्सर गाँव की चौपाल और पंचायत लगा करती थी। उसका अट्हास और खुद से बातें करना निरंतर जारी था....अचम्भे की बात यह थी कि उसकी आवाज़ पूरे गाँव मे गूँज रही थी....अब तक नींद से उठ चुके गाँववालों को वो आवाज़ विचलित कर रही थी। गाँव के दो मशहूर पहलवान उसकी परेशान कर देने वाली हसी और आवाजों को रोकने के लिए उसके पास पहुँचकर उसे पीटने लगे....पर उनके आश्चर्य की सीमा ही टूट गई जब उनके मारने पर उसकी ध्वनि और अट्हास और तेज़ होते चले गए....जब उनमे से एक पहलवान ने रेखा पर गुस्से मे आकर डंडे से वार किया तो रेखा का अट्हास रुका....पर उसकी आवाज़ अब भारी और मर्दाना बन गई थी....रेखा ने दोनों पहलवानों की गर्दन पकड़ कर उनके सिरों को ज़मीन मे गाड़ दिया और दोनों की गर्दन पकड़कर उन्हें ज़मीन मे घसीटती हुई दौड़ने लगी और तब तक दौड़ती रही जब तक उन पहलवानों के सर धरती के घर्षण से गायब नहीं हो गए। अपने रक्त-रंजित हाथो के साथ वो फिर गाँव के बीचों-बीच पहुंची। उसकी आवाज़ फिर से एक महिला जैसी हो गई। ऐसा लगा जैसे वो अपने दिवंगत पति से बात कर रही हो।

रेखा - "ऐ जी, सुनिए ना....देखिए कितनी देर से हम गाँववालों को आवाज़ लगा रहे है...और कोई दरवाज़ा ही नहीं खोलता।"

रेखा के इतना कहने की देर थी की पूरे गाँव की झोपडीयों और पक्के घरो के खिड़की-दरवाज़े उखड-उखड कर उस स्थान पर जमा होने लगे जहाँ रेखा खड़ी थी। गाँव वाले दहशत मे समूहों मे घर से बाहर आए.....रेखा के हाव-भाव और आवाज़ दोबारा किसी आदमी जैसी हो गई।

रेखा - "अपनी तस्सली करना बंद करो आत्माओं को कहीं आने-जाने से ये खिड़कीयां, दरवाज़े....नहीं रोक सकते। आज से इस गाँव के किसी घर मे कोई खिड़की या दरवाज़ा नहीं होगा.....सुशील की मौत का हिसाब पूरे गाँव को देना पड़ेगा....पूरे गाँव पर आफत टूटेगी....रेखा अपने मायके जा रही है....और यह इस गाँव से जिंदा निकलने वाली आखरी इंसान होगी....और हाँ कल से जान कर या अनजाने मे कोई काम किसी के साथ मत करना....जैसे मैंने प्रकाश के साथ किया था।"

इतना कहकर रेखा बेहोश हो गई और उसका अचेत शरीर गाँववालों के सामने से उड़ता हुआ उनकी आँखों से ओझल हो गया। सभी मे डर और दहशत फ़ैल गई....सरपंच सुखराम की चिंताएँ बढ़ गई।

"रोतेरा.....वर्मा....पाटिल....आओ और बाकी 2-4 खाली बैठे हवाल्दारों को साथ ले लो।"

"पर साहब पोस्टमार्टम की ड्यूटी तो कांस्टेबल वर्मा और पाटिल की लगी है....हम लोग वहां क्या करेंगे?"

"नई भर्ती हुई है दोनों की....कह रहे है की डर लग रहा है....यहाँ सब थाने मे भी मक्खियाँ मार रहे है....वहां चलकर इन दोनों से तफरीह लेंगे....आओ।"

बांधव और झमेल गाँव का पुलिस थाना इंचार्ज रमन तलवार न्याय और तफ्तीश करने से बचता था क्योकि वो आराम से अपनी सरकारी नौकरी चलाना चाहता था। पोस्टमार्टम स्थल पर यह पुलिस दल मस्ती के मूड में 2 नए सिपाहियों जीत वर्मा और प्रदीप पाटिल को हास्य का पात्र बना रहा था जिनके सामने सुशील की लाश का पोस्टमार्टम हो रहा था और वो दोनों उसे देख नहीं पा रहे थे क्योकि उन्होंने परसों ही इस थाने से अपनी नौकरी शुरू की थी।

इंस्पेक्टर रमन तलवार - "कांस्टेबल पाटिल....मै तुम्हे आर्डर देता हूँ की तुम उलटी कर लो...हा हा हा..."

कांस्टेबल रोतेरा - "सर जी, आपने तो पाटिल को उलटी करने को कहा था.....और यहाँ तो वर्मा उलटी करने लगा....हा हा...बद्तमीज़ो, जो थानेदार साहब कहे सिर्फ उतना ही करो.....पाटिल तुम्हे सर जी ने उलटी करने को कहा था और तुम्हे चक्कर आ रहे है.....देख अब सर जी तेरी 2 दिन की तनख्वा कटवा देंगे.....हा हा हा....."

पोस्टमार्टम कर रहा डॉक्टर पुलिसवालों के मजाक से विचलित हो रहा था।

डॉक्टर - "आप लोग कृपा करके चुप हो जाइए.....मै लाश का पोस्टमार्टम नहीं कर पा रहा हूँ।"

इंस्पेक्टर रमन तलवार - "अरे डॉक्टर, हम कौन सा यहाँ बार डांस कर रहे है जो मुर्दा डिस्टर्ब हो जाएगा।"

.....और वातावरण फिर से पुलिस पार्टी के ठहाको से गूँज उठा.

डॉक्टर - "यह....क्या हो रहा है....यह नहीं हो सकता.....इसका तो 70 प्रतिशत शरीर जल चुका है और इसे Third, Fourth-Degree Burns आए है......तब भी...."

डॉक्टर की बात सिपाही रोतेरा ने बीच मे ही काट दी.

कांस्टेबल रोतेरा - "क्या हो गया डॉक्टर साहब....देख लो कहीं डेड बॉडी को साइड मे करके पाटिल ना लेट गया हो...."

पर रोतेरा की बात पर डॉक्टर ने अजीब सी हरकत की और वो कमरा छोड़ कर भाग गया।

इंस्पेक्टर रमन तलवार - "अब इसको क्या हो गया? पाटिल, वर्मा, की बीमारी इसे लग गई क्या?"

कांस्टेबल पाटिल - "सर, य..यहाँ कुछ गड़बड़ है।"

रमन तलवार और उसके सिपाही लाश के पास पहुंचे।

कांस्टेबल रोतेरा - "सर...इसे तो मरा हुआ सील किया था हमने. डॉक्टर इसका शरीर कटा हुआ छोड़ गया है.....और फिर भी इसके कटे-जले शरीर मे दिल धड़क रहा है..."

इंस्पेक्टर रमन तलवार - "बड़ी सख्त जान है....वर्ल्ड रिकॉर्ड बना गेरा इसने तो....चल बेटा तू पहले नहीं मारा तो तुझे हम मार देंगे....देखो तो कमीने की साँसे नॉर्मल चल रही है.....शरीर हिल रहा है...."

अचानक सुशील का कटा और अधजला हिलता हुआ शरीर उठ बैठा और इंस्पेक्टर रमन की तरफ देख कर बोलने लगा।

"और देख कमीने मैं तो बोलने भी लगा!"

रमन तलवार और उसके सभी कांस्टेबलस थर-थर कांपने लगे। पाटिल और वर्मा इस अप्रत्याशित झटके से बेहोश हो गए। सुशील के चलते-फिरते शरीर ने इंस्पेक्टर और कांस्टेबल रोतेरा के साथ आए हवलदारों को पकडा....और उन्हें उनके पैरो से पकड़ कर ज़मीन और छत पर बदहवास हालत मे तेज़-तेज़ मारने लगा। कुछ ही क्षणों बाद उन दोनों के शरीर कुचले हुए से और निर्जीव हो गए। पर सुशील के शरीर को अभी चैन कहाँ मिला था....

"ड्यूटी तो इन दो नए सिपहियों की लगी थी पर इनके साथ आकर तुमने अपनी मौत बुला ली। मरने के बाद याद रखना कभी किसी का साथ मत देना....जैसे मैंने प्रकाश का दिया था. चल, इंस्पेक्टर....देख मेरा शरीर....देख मेरी जली हुई अंतडियां.....मै तुझे आर्डर देता हूँ की तू उलटी कर.....कर ना....क्या हुआ...हा हा हा हा....चक्कर आ रहे है? मुझे उन लोगो ने जलाया....पीटा और मार डाला पर तूने कुछ नहीं किया.....पहले आग मे मेरा हाथ जला.... "

सुशील ने इंस्पेक्टर रमन का हाथ पकडा और रमन का हाथ अपने आप जली अवस्था मे आ गया और वो दर्द से तड़पने लगा।

"फिर मेरा सर.....जैसे अब तेरा जला....फिर उसके बाद मेरी आँखों के सामने अँधेरा छा गया...जैसे तेरी आँखों के सामने छा रहा है..."

कांस्टेबल रोतेरा अब तक हॉस्पिटल की बालकनी मे भाग रहा था.....और उसका रास्ता रोका सुशील ने...

सुशील - "पोस्टमार्टम मे बहुत मज़ा आता है ना....क्यों रोतेरा साहब....पहले चीरा लगाया जाता है..."

सुशील अपने नाखून से आरक्षी रोतेरा के शरीर मे चीरा लगाता चला गया और जड़ पर दर्द से चीखता रोतेरा का शरीर बेजान होता चला गया।

इंस्पेक्टर रमन और उसके साथी मारे गए। आरक्षी वर्मा और आरक्षी पाटिल.....होश मे आने के बाद भी सदमे के कारण कुछ बताने की स्थिति मे नहीं थे....सुशील की लाश अपनी जगह पर पड़ी थी.

बांधव गाँव के निकट हरियाली से भरा बड़ा पठार इलाका था। जहाँ गाँव की आमदनी का एक जरिया मवेशियों के झुंड चरने और वहीँ स्थित झील पर अपनी प्यास बुझाने गए थे. पर उनमे से बहुत कम ही लौट कर गाँव आए...जब कुछ गाँववालों ने अपने घरो की छत पर चढ़कर देखा तो पठार पर निरीह जानवरों की लाशो से बने ये शब्द लिखे थे।

"भूख और प्यास तो कुछ ही जानवरों को लगी थी। बाकी सब बेचारे तो उनके साथ आ गए....और जो किसी दूसरे के काम मे उसका साथ देगा वो मरेगा....जैसे मै मरा था प्रकाश का साथ देने पर।"

बांधव वासियों का धैर्य टूटता जा रहा था पर वो कुछ कर भी नहीं सकते थे। अब उन्हें बस ऊपर वाले का सहारा था।

"अलखनिरंजन.....जय बाबा भोले नाथ....गाँववालों हम है बाबा शीलनाथ और इस गाँव की प्रेत बाधा हमे हमारी साधना से यहाँ खींच लाई है। यहाँ कुछ घोर अपशगुनके योग बन रहे है....पर हम सब दूर करेंगे....और हमारी शक्ति पर संदेह ना करना क्योकि हम गाँव के एक कोने से बोल रहे है वो संदेश पूरे गाँव मे गूँज रहा है। आज उस दुष्टात्मा के पूर्व निवास के निकट हमने सामूहिक साधना का संकल्प लिया है जिसमे ज्यादा से ज्यादा गाँव वासी आकर उस दुरात्मा को सदैव के लिए यहाँ से भगाने के प्रयास मे हमारा सहयोग करें. बम बम भोले!!!"

बाबा शीलनाथ की बात ही गाँववालों को इस विकट समस्या से निपटने का एकमात्र साधन लगी और इस वजह से बहुत से गाँव वाले साधना मे शामिल होने मृत सुशील के घरके पास बाबा द्वारा बनाए गए साधना स्थल पर एकत्र हुए।


बाबा शीलनाथ ने अपनी आराधना शुरू की...उनका मंत्रोचार बढ़ता जा रहा था और धीरे धीरे गाँव वासी मंत्रो के प्रभाव से मदहोश होते जा रहे थे।

"आ.....................आह......!!!!!!!!"

तभी दर्द से तड़पते कुछ लोगो की इस आवाज़ ने सबको चौंका दिया....ये चींखे अलग थी...ऐसी चींखे किसी दर्दनाक मौत से पहले ही सुनने को मिलती है।

सहमे लोगो ने आँखें खोली तो सामने का नज़ारा देख कर रौशनी से सामंजस्य बनाती उनकी आँखें दहशत से फटने को हो गई. बाबा शीलनाथ की जगह सुशील की आत्मा वहां बैठे कुछ गाँववालों को साधना स्थल पर बने बड़े से हवन कुंड मे झोंक रही थी....

सुशील - "अरे! सब हैरान क्यों हो रहे है? पहले कभी साधना नहीं देखी क्या...अब साधना मे मंत्र होते है, ध्यान लगाया जाता है, हवन होता है....और हवन मे आहुतियाँ दी जाती है.....इस तरह....हा हा हा हा हाहा....."

सुशील ने एक वृद्ध के बाल पकड़ कर उन्हें हवन कुंड मे डाल दिया.

सुशील - "आप लोग तो साथ मे है तो डरना कैसा....पर मैंने पहले कितनी बार समझाया है की अगर किसी का साथ दोगे तो मारे जाओगे....जैसे मै मरा था अपने दोस्त का साथ देते..."

लोगो ने भागना चाहा पर उनका रास्ता आत्माओ के अवरोध ने रोक लिया।

सुशील - "यह भटकती रूहों की दीवार है. अतृप्त आत्माएं...सेठ जी. धरती पर मनोरंजन का मौका इन्हें कम ही मिलता है....इसलिए मैंने इन सबको अपना साथी बना लिया।"

पर बांधव के पंडित पंडित जी अपने साथ पवित्र जल का पात्र लाए थे। उन्होंने उसका जल रूहों की दीवार पर फेंका जिस से उस दीवार की आत्माएं तडपी और उसमे क्षणिक रास्ता बना जिस से पंडित जी समेत गाँव के कुछ लोग भागे....वो सब अभी कुछ दूर ही भागे होंगे की एक विशालकाय बवंडर ने सबको खुद मे समां लिया और फिर से साधना स्थल पर ला पटका।

सभी इस आकस्मिक झटके से उबर ही रहे थे की उन्हें फिर से गुस्से से फुफकारती सुशील की आकृति दिखी।

"यह आपने अच्छा नहीं किया पंडित जी...बहुत जलन होती है दुष्ट आत्माओ को पवित्र जल से...ऐसे..."

सुशील ने ज़मीन पर पड़े पंडित जी पर तेजाब की कुछ बूंदे डाली. और पंडित जी बुरी तरह तड़प उठे।

"बिलकुल ऐसी ही जलन जैसी अब आपको हो रही है...लगता है तेजी से गिरने के कारण आपकेपैर टूट गए है....हाय रे, यह मुझ अभागे से क्या हो गया....मै तो पाप का भागीदार बन गया....और...और आपका पवित्र जल का लोटा आपसे दूर वहां पड़ा है....शायद उसमे अभी भी जल हो..."

फिर पंडित जी पर लगातार तेजाब की बारिश होने लगी. पंडित जी की हौलनाक चींखे उबलने लगी...उनका शरीर झुलसने, गलने लगा। पंडित जी अपने जीवन को बचाने की आखरी उम्मीद पवित्र जल के पात्र की तरफ ज़मीन पर गिसटने लगे।

"हाँ, पंडित जी....आप कर सकते है....मुझे आप पर पूरा विश्वास है...जोर लगाइए पंडित जी..उठने की कोशिश कीजिए..."

पर पंडित जी का संघर्ष जल्द ही उनकी जीवनलीला के साथ समाप्त हो गया। फिर सुशील ने वहां बाकी बचे कराह रहे गाँववालों पर भी रहम नहीं किया और उन्हें मार डाला। सुशील की आत्मा ने पूरा गाँव ही लील लिया था। अब केवल गाँव का सरपंच सुखराम और उसका परिवार बचा था जिसमे सिर्फ उसका एकलौता बेटा विक्रांत और पुत्रवधू यामिनी थी। सुखराम की पत्नी बहुत पहले ही चल बसी थी। सुखराम की पुत्रवधू यामिनी के गर्भ का नवां महिना था और उसे हलकी प्रसव पीडा हो रही थी....पर सुखराम नहीं चाहता था की यामिनी दूसरे गाँव के अस्पताल जाकर बच्चे को जन्म दे....क्योकि इसमे बहुत खतरा था....जबकि विक्रांत अपनी पत्नी की पीडा देख नहीं पा रहा था।

"पिता जी, मुझे यामिनी को अस्पताल ले जाना ही पड़ेगा।"

यामिनी की चीखें और घर मे तनाव बढ़ता जा रहा था। सुखराम का डर जायज़ था पर विक्रांत के सब्र का बाँध टूटने की कगार पर था।

सुखराम - "बेटा...यामिनी से ज्यादा दर्द तो उसकी हालत देख कर मुझे हो रहा है पर वो दरिंदा तुम दोनों के साथ शायद उस अजन्मे बच्चे को भी नहीं छोडेगा.."

विक्रांत - "जो होगा वो हमारे हाथो मे नहीं है पर हम जो कर सकते है वो तो हमे करना चाहिए।"

सुखराम - "वो तुम्हे मार देगा, विक्रांत!"

विक्रांत - "मर तो यामिनी जाएगी अगर वो अस्पताल नहीं पहुंची और अगर मेरी पत्नी और संतान मर जाएंगे तो मेरा जीना भी क्या जीना होगा? पिता जी, मै तांगा तैयार करता हूँ आप घर की रखवाली कीजिए. देखना हम लोग जल्दी ही शुभ समाचार लेकर लौंटेंगे. आपके पोते या पोती के साथ।"

सुखराम ने अपने बेटे को समझाने की लाख कोशिश की पर आखिर मे मजबूर सुखराम को ना चाहते हुए भीअपने बेटे के निर्णय के आगे झुकना पड़ा। अपने परिवार के बचने की संभावना कम देख कर सुखराम का मन भर आया। अपनी आँखों मे आए आँसू मुश्किल से थामकर उसने विक्रांत को आशीर्वाद दिया।

सुखराम - "जीता रह मेरे बेटे...मेरी उम्र भी तुझे लग जाए।"

विक्रांत - "चलता हूँ, पिता जी, जय राम!"

तांगे के पगडंडी मे गायब होने तक सुखराम उन्हें तिहारता रहा और फिर दहाड़ मार कर ज़मीन पर पड़ा रोने लगा...जैसे वो मान चुका था कि अब उसके अपने कभी नहीं लौटेंगे।

तांगे के कुछ दूर जाने पर एक चोगाधारी लाठी लिए वृद्ध से व्यक्ति ने उन्हें रोका....

"रोको....रोको...बेटा मुझे बचा लो...उस शैतान आत्मा से जिसने पूरा गाँव लील लिया!"

विक्रांत - "बाबा, मुझे जाने दो मै बहुत परेशान हूँ।"

"मै भी बहुत परेशान हूँ, बेटा। इतना समझाया सबको की किसी का साथ मत दो......मारे जाओगे पर कोई मानता ही नहीं।"

विक्रांत समझ चुका था की यह सुशील की आत्मा है....पर अब तक देर हो चुकी थी। सुशील चलते तांगे मे ही बैठ गया।

सुशील - "तांगा रोक लेते...देखो जल्दबाजी मे मेरा चोगा पीछे छूट गया. ओह, भाभी की हालत तो चिंताजनक है। तुम्हे तो जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचना चाहिए...मै बता रहा था की किसी का साथ नहीं देना चाहिए आजकल की दुनिया मे...वर्ना इंसान को मरना पड़ता है।"

यामिनी - "...आह....हम..को माफ़ कर दो....हमे छोड़...दो।"

सुशील - "अरे, भाभी आप लेटी रहिए...ऐसी हालत मे सावधानी बहुत ज़रूरी है. आपने मुझे पहचाना नहीं, मै सुशील..यहीं गाँव की सीमा पर मेरी झोपडी है...थी..."

विक्रांत - "हमने तुम्हारा क्या बिगाडा है?"

सुशील - "ओफो!! घूम फिर कर वही बात...देखो मै समझाता हूँ...तुम तांगा हांकते रहो....प्रसव पीडा तो भाभी जी को हो रही थी, बच्चा तो उन्हें होना था...यानी काम तो उनका था पर इसमे तुम उनके साथ क्यों आ गए? अब आ गए हो तो मुझे कोई तुमसे दुश्मनी थोड़े ही है....चिंता मत करो भाभी अस्पताल ज़रूर पहुँचेगी...आखिर सुरक्षित जन्म हर जच्चा, बच्चा का अधिकार है. पर जो गलतीहुई है उसका फल तो भुगतना पड़ेगा न बाबा....ह्म्म्म्म्म्म?

इतना कहते ही सुशील की लाठी एक फरसे मे बदल गई और उसने विक्रांत का एक पैर काट दिया। विक्रांत दर्द से चींख उठा...इधर यामिनी अपने पति को दर्द मे देख कर दोहरे दर्द मे चीत्कार मारने लगी।

सुशील - "क्या बकवास है...कैसे लोग है ये...तांगा हाथ से चलता है मैंने पैर काटा है...उसमे भी आसमान सर पर उठा लिया। पहले ही सुन लो तुम दोनों की संतान बड़ी शैतान होगी...जैसे तुम दोनों के लक्षण है....कलियुग है भाई कलियुग!"

फिर एक एक करके सुशील तांगे को किसी तरह चला रहे विक्रांत के अवयव काटता चला गया सिर्फ एक हाथ और एक आँख को छोड़ कर।

सुशील - "देखो कैसा पति है यह...पत्नी दर्द से मरी जा रही है उसपर तांगा इतना धीमा....तेज़ चला भैया...ओह! तेरे कान तो बच ही गए।"

आखिरकार विक्रांत का तांगा झमेल गाँव के अस्पताल के आगे रुका...और तभी अधकटे शरीरवाले विक्रांत के प्राण पखेरू उड़ गए। यामिनी भी दर्द और दुःख से बेहोश हो चुकी थी।


झमेल गाँव...प्रकाश का गाँव जो इस सारे बवाल की जड़ था। वो पुलिस से बचने के लिए अपने घर से भाग चुका था। उसे भगोड़ा अपराधी घोषित किया जा चुका था। उसके घर मे सिर्फ एक पत्नी थी वो दोनों निसंतान थे। रात के अँधेरे मे वो अपनी पत्नी के पास पहुंचा।

प्रकाश - "दरवाज़ा खोल, चेतना!! मै प्रकाश..."

प्रकाश चेतना को बताता है की उसने दूसरे राज्य के शहर फैजाबाद मे नौकरी कर ली है और अब वो वहीँ अपनी गृहस्ती बसाएंगे। वो दोनों रात के अँधेरे मे अपना कीमती सामान समेट कर गाँव से निकलते है। रास्ते मे उन्हें एक रोते हुए नवजात की आवाज़ आती है। यह विक्रांत और यामिनी का बच्चा था जिसका जन्म अब तांगे मे ही हो गया था। यामिनी भी अब तक मर चुकी थी और सरकारी अस्पताल मेरात के वक़्त सन्नाटा पसरा था। प्रकाश और चेतना को स्थिति समझते देर नहीं लगी कि यह बच्चा अब अनाथ है.....दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और शायद दोनों ने एकसाथ आँखों मे ही बच्चे को अपनाने का मन बनाया और बच्चे को तांगे से उठाकर निकल गए। दोनों जंगल मे तेजी से भाग रहे थे वो गाँव की सीमा जल्द से जल्द पार कर लेना चाहते थे। बच्चा चेतना के हाथो मे था कुछ दूर बाद पीछे से उसने बच्चा प्रकाश को थमा दिया। थोडी देर बदहवास सा भागने के बाद..प्रकाश को कुछ महसूस हुआ।

प्रकाश - "ओह! यह बच्चा तो मुझे काट रहा है, चेतना! आह...नहीं यह मुझे काट नहीं रहा इसने मेरी गर्दन से मांस नोच लिया! यह मुझे खा रहा है...कोई भूत..आदमखोर है यह....चेतना...चेतना.."

प्रकाश मे सिरहन दौड़ गई..क्योकि चेतना पीछे नहीं थी और उसका जवाब उसका मांस चबा रहे बच्चे ने दिया। बच्चे की शक्ल वीभत्स हो चुकी थी। प्रकाश ने किसी तरह उस बच्चे को खुद से अलग कर दूर फेंका।

"वो नहीं है...उसको मैंने खा लिया..और मैं खुद तुम्हारे कंधे से आ लगा था, मुझे उसने नहीं थमाया था...प्रकाश!"

प्रकाश - "कौन है...कौन है तू?"

"अपने जिगरी यार की आवाज़ भी भूल गया."

प्रकाश - "सु..सुशील!!!!"

"सही पहचाना. आ मेरे गले लग जा..मेरे दोस्त।"

और उड़कर वो नवजात सुशील से चिपट कर उसको खाने लगा।

"यह बच्चा तो अपनी मरती हुई माँ की कोख मे ही मर गया था....वो तो इसको मेरे काम आना था इसलिए...."

जबकि इधर अपने घर के दरवाज़े के सहारे सुखराम ने पूरी रात काट दी.....अगले दिन भी वो वहीं पड़ा रहा। फिर रात मे उसका दरवाज़ा खटका।

सुखराम - "विक्रांत...बेटा?"

"तुम्हारा पूरा गाँव और परिवार तो किसी न किसी का साथ देते हुए मर गया. तुम अकेले जी कर क्या करोगे? डरो मत......आओ...
....मरो मेरे साथ!"

समाप्त!

#ज़हन