उजाले की ओर - 2 Jaishree Roy द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर - 2

उजाले की ओर

जयश्री रॉय

(2)

सुबीर के ओहदे के हिसाब से उन्हें सी टाइप क्वार्टर मिला था। दो दिन पहले ही टीएडी (टाउन एडमिनिस्ट्रेशन डिपार्टमेन्ट) वालों ने क्वार्टर हैंड ओवर किया था इसलिए चारों तरफ ह्वाइट वाश और ताज़ा पेंट की महक आ रही थी। दो कमरे, ड्राइंग-डाइनिंग रूम, एक छोटा-सा स्टोर, किचन, बैल्कनी और छत! सुबीर बहुत उत्साहित था- ‘रूना! हमारा घर... बहुत अच्छी तरह सजाएँगे।‘ उसने रूना से पहले घर की दहलीज़ पर पाँव रखने का आग्रह किया था। ऐसे भावुक क्षणों में वह किसी बच्चे की तरह मासूम लगता है। ढेर सारे पैकिंग बॉक्स और गठरियों के बीच बैठ कर विंध्य क्लब की कैंटीन से लायी पूरी-तरकारी खाते हुये उस रात वह एकबार फिर बहुत निस्संग हो आई थी- इसी जंगल में अब रहना पड़ेगा! शाम से झींगुर बोल रहे हैं, दूर कहीं सियारों के एक साथ मिल कर हूंकने की आवाजें आ रही हैं... उस रात अधखुले-बिखरे सामान और किताबों के बीच सुबीर ने उसकी हथेलियों में आश्वासन के नन्हे-नन्हे अनगिन पौधे रोपे थे- ‘यह वनवास नहीं है रूना! देखना इन निविड़ वनों में ज़िंदगी ने हमारे लिए कितने हीरे-माणिक सँजो रखे हैं, उन्हें ढूँढना होगा, बस अपनी चाह को हर हाल में बनाए रखो!’ रूना अपने भीतर कहीं गहरे उमड़ती-घुमड़ती रुलाई को दबाये चुप पड़ी खिड़की पर झिलमिलाते तारों को देखती रही थी। जाने कहाँ से सुबीर इतनी सारी उम्मीदें बटोर लाता है! काश वह भी उसकी तरह हर अंधकार में रोशनी के टिमटिमाते जुगनुओं को ढूंढ पाती! कहीं पास ही शायद रातरानी खिली थी। हवा खूशबू से बोझिल हो रही थी। इन अनगढ़ पहाड़ों और स्तब्ध जंगलों के पार कहीं बहुत पीछे छूट गयी रोशनी और आवाज़ों से भरी उसकी दिल्ली, भीड़ भरी पुरानी दिल्ली की गलियां, मॉल, कनाट प्लेस की रौनक, सरोजनी नगर की चहल-पहल उसे उस क्षण बेतरह याद आए थे... यह कहाँ आ गई वह!

मास कम्यूनिकेशन में एम ए करने के बाद उसने एक नामी अखबार ज्वाइन कर लिया था। साथ ही साहित्यिक लेखन। दो सालों तक खूब व्यस्तता रही। इंटरव्यू, प्रेस कान्फ्रेंस, मंडी हाउस, पार्टियां... ज़िंदगी रोमांच और एडवेंचर से भरी हुई। अमित संभावनाएं भी। ठीक जैसा वह चाहती थी। धक्का लगा शादी के बाद। एकदम से ज़िंदगी बदल गई। शादी के लिए हाँ करते हुये उसे इस सब का अंदाज़ा नहीं हो सका था। उनकी शादी अरेंज्ड थी। सुबीर देखने में सुदर्शन था, पढ़ा-लिखा और अच्छी नौकरी भी। रिश्ते की बात चलने के एक महीने के भीतर ही उनकी शादी हो गई थी। दिल्ली में रहने तक तो फिर भी ठीक था, मगर अब इस बियाबाँ जंगल में आना... रूना को लग रहा था वह वाकई जीवन के बीहड़ में खो गई है। उस रात सुबीर से छिपकर वह चुपचाप रोती रही थी. डॉक्टर ने गर्भपात के बाद उसे अवसाद के लिए जो गोलियां दी थी वह उसने सुबीर से बताए बिना बहुत पहले लेनी छोड़ दी थी। भीतर रात-दिन डबडबाते सन्नाटे का अवसाद भरा काला कुआं इन गोलियों से अब नहीं भरता!

बाद के कई दिन घर जमाने में बीते थे। सबसे बड़ी समस्या थी किताबें। इतनी सारी! कहाँ रखी जाय! स्टोर लायब्रेरी में बदल गया था। रसोई की ऊपरी ताकें भी भर गईं थीं। माली को बुलवा कर छत पर ढेरों गमलों में मौसमी फूलों के पौधे लगवाये थे। छोटी-सी बैलकनी में क्रोटोन्स और वाल क्रीपर्स। ग्राउंड फ्लोर पर रहनेवालों ने बहुत सुंदर लॉन और किचन गार्डेन बनाया था। नन्ही, नाज़ुक टहनियों पर लगे फल-फूल बेहद क्यूट दिखते। उसे याद है, हनीमून के दिनों में गोवा के समुद्र तटों पर गिरती शाम भीगी रेत पर नंगे पाँव चलते हुये वह अक्सर अपने आगत जीवन के सपने सँजोती- ‘सुबीर! एक छोटा-सा घर, घर की खिड़कियों पर सारा आकाश, चाँद-तारे, बादल... और किचन गार्डेन में लाल-लाल टमाटर और हरी मिर्च के पौधे...’ ‘और मैं? मैं कहाँ मेम साहब? आपके इस सपनों के डॉल हाउस में मेरे लिए भी कोई जगह है कि नहीं’?’ सुबीर के सवाल पर वह गंभीर-सा मुंह बनाती- ‘अरे हाँ! यह तो भूल ही गई! तुम्हारे लिए भी कोई कोना ढूँढना पड़ेगा!’ ‘मारूँगा!’ सुबीर उसकी तरफ बनावटी गुस्से में झपटता और वह भाग खड़ी होती। कतार में खड़े फ्लैट्स के आगे-पीछे मुस्कराते लॉन और किचन गार्डेन्स को देख कर उसे अक्सर हनीमून के दिनों की बात याद आती। सब कुछ सपने जैसा हुआ करता था उन दिनों... वह सोचती काश उन्हें नीचे का क्वार्टर मिला होता!

सारी दोपहर घर के काम करते शाम तक वह अकेले-अकेले बेतरह ऊब जाती। इन दिनों ऑफिस में ऑडिट चल रहा था। काफी व्यस्तता थी। सुबीर सुबह साढ़े आठ तक ऑफिस के लिए निकलता, दोपहर को लंच पर थोड़ी देर के लिए आता और फिर देर शाम को ही घर लौटता। एकदम थका-हारा। इस बीच गर्मी भी खूब पड़ने लगी थी। दोपहर तक फ्लैट तंदूर की तरह तपने लगता। कई बार नहा कर भी आराम नहीं मिलता। थोड़ी ताज़ा हवा के लिए देर शाम वह टहलने निकलती तो हर तरफ खिले बेशुमार फूलों को देख कर उसकी आँखें तर जातीं। यहाँ जीवन तो है मगर उसका शोर नहीं। अजीब-सी शांति है। दुनिया से परे हरहराते जंगलों के बीच एक छोटी-सी दुनिया- ठीक उसके बचपन की गुड्डे-गुड़ियों वाली दुनिया की तरह! यहाँ आ कर उसने महसूस किया था, मौन का भी एक संगीत होता है- हर पल, हर क्षण ध्वनि से परे शिराओं-उपशिराओं में गूँजते हुये, शांत नदी की तरह निःशब्द बहते हुये... कितने तरह के पंछी, उनके बोल! दिन ढलते ही शाम का सुनहरा आकाश जंगली तोतों के कलरव से भर जाता। शहर में आजीवन रह कर भी वह वहाँ के शोर-गुल की कभी अभ्यस्त नहीं हो पाई थी। वहाँ शिराओं में रक्त की गति कभी धीमी नहीं पड़ती थी। कनपटी की नसें धपधपाती रहती थीं। पार्क के अहाते में एक छोटा-सा लेक था। उसकी बंधी हुई सीढ़ियों पर बैठ कर सूर्यास्त के समय अक्सर वह लेक में तैरते सफ़ेद-भूरे बतखों को देखती थी। हर तरफ पार्क में खेलते हुये बच्चों की किलकारियाँ गूँजती रहतीं और उन्हें सुनते हुये उसके भीतर जाने कैसा सन्नाटा फिर-फिर घिर आता! गर्भपात के बाद से उसे महसूस होता है उसके भीतर एक ना भरने वाला खोह बन गया है। उस अंधेरी खोह में एक कसकता दर्द और सन्नाटा रात-दिन भांय-भांय करता है। कल तक कोई उसके भीतर था। सांस-सांस, रगो-रेश में। वह उसे महसूस कर सकती थी, अपने अणु-अणु से, सम्पूर्ण अस्तित्व से- सोते-जागते, उठते-बैठते... उन दिनों उसे लगता था, उसकी सांसों से फूलों की-सी खूशबू आती है! पूरी देह मीठी सरगोशियों से लबरेज़ हो गई है। कितना भरी-भरी महसूस करती थी खुद को उन दिनों! एक जीवन को अपने भीतर की सारी ऊर्जा और ममत्व से सिरजने का सुख, सांस-सांस, धड़कन-धड़कन... अपने भीतर से उस अनाम, अदेखे अपने के एक दिन इस तरह अचानक चले जाने से वह एक खाली मकान-सी बन कर रह गई है। ऐसा घर जिसमें ज़िंदगी नहीं होती, भूतों का बसेरा होता है... नये मेहमान के स्वागत में लाई गई चीज़ें एक दिन सुबीर ने खुद ही एक-एक कर उसके सामने से हटा दी थीं- ऊन के गुलाबी, सुनहरे गोले, फूलों की चटक-रंग तस्वीरें... बेडरूम की दीवारों पर मुस्कराते बच्चों के पोस्टर्स... इनके यकायक हट जाने से उनके पीछे दीवारों पर छूट गया सूनापन किस भयावहता के साथ उभर आया था! रूना उनकी तरफ देखने से भी बचती थी।

सुबीर अक्सर कहता है- ‘अभी तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं, जल्दी से ठीक हो लो, फिर हम दोनों उसे वापस ले आएंगे अपने जीवन में... सुन कर वह चुपचाप रोती है- ‘उसे रहना ही होता तो इस तरह चला क्यों जाता! जाने हमसे क्या गलती हो गई...’ ‘;कोई गलती नहीं, ऐसा मत सोचो!’ सुबीर उसका चेहरा अपने सीने में भींच लेता- ‘दुनिया में हम अकेले नहीं, सभी को कुछ-न-कुछ दुख होते हैं...’

सुबीर पूर्ववत सुबह-सुबह ऑफिस के लिए निकल जाता था और शाम ढले लौटता था। घर के सारे काम निबटाने के बाद भी ढेर सारा खाली वक्त रूना के हाथ बचा ही रह जाता था। गर्मी की लंबी दोपहरों का वह क्या करे समझ नहीं पाती थी। सुबीर से शिकायत करती तो वह हंस कर टाल जाता- ‘खर्च करना भी तुम औरतों को सिखाना पड़ेगा! इतना समय है तो दोनों हाथ लुटाओ, जो मन चाहे करो, ऐश करो...’ सुन कर रूना मन-ही-मन अवसन्न हो उठती। सुबीर के लिए यह कोई मसला नहीं। एक बोर हाउस वाइफ़ की सनातन समस्या! और इसके टिपिकल समाधान भी वही उसके पास- ‘स्वेटर बीनो, आचार डालो, नए-नए रेसिपीज़ ट्राय करो...’ इन सबके अलावा भी एक औरत कुछ चाह सकती है शायद कोई सोच नहीं पाता। सुबीर भी नहीं। वह सुबीर से इससे ज़्यादा की उम्मीद करती है। उसे एक आम मर्द की तरह नहीं होना था!

अपनी निस्संगता में वह महसूस करती है, सुबीर अपने करियर और काम को लेकर बहुत उत्साहित है। उसकी यह नौकरी ढेर सारी संभावनाओं से भरी हुई है। कंपनी अपने कर्मचारियों के प्रति बहुत जिम्मेदार है। कर्मचारी हर चिंता और परेशानी से मुक्त रहेंगे तो मन लगा कर काम कर पाएंगे, कंपनी की उत्पादन क्षमता बढ़ेगी... सुबीर के पास हर समय कंपनी की कल्याणकारी योजनाओं और उपलब्धियों की ढेर सारी कहानियाँ होती- ‘जानती हो, एनटीपीसी अपने मुनाफे का दो प्रतिशत सोशल वेलफ़ेयर के कामों में लगाती है! स्वच्छ भारत’ अभियान के तहत सिर्फ विंध्याचल यूनिट ने एक हज़ार टॉयलेट बनवाए है...’

यह सब सुनकर रूना को अच्छा लगता है मगर उसके अपने करियर का क्या! यही तो समय था उसके अपने भी कुछ बनने का। माँ-बाबूजी को उससे बहुत उम्मीदें थीं। बाबूजी अक्सर कहते, ‘देखना, हमारी रूना एक दिन हम सब का नाम रोशन करेगी। हमारी एक बेटी सौ बेटों के बराबर है!’ इतना-पढ़ना लिखना... सोचते हुये निराशा की मटमैली परछाइयाँ भीतर घिर आती हैं। एक औरत का शायद अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। डोर बंधी गुड़ियों की-सी होती है नियति। जिधर खींची गई, चल पड़ी, जैसे नचाया गया, नाची…

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