Ujale ki aur - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 3

उजाले की ओर

जयश्री रॉय

(3)

उस दिन वह सुबीर के साथ विंध्य क्लब गई थी। उसके किसी कोलीग की पाँचवीं मैरिज एनीवर्सरी थी! क्लब का माहौल बेहद सुखद था। लोग भी सहज और मिलनसार। वहीं पहली बार शुभ्रा देशपांडे मिली थीं, खूब गोरी और बिल्लौरी आँखों वाली सुंदर महिला, स्त्री रोग विशेषज्ञ। खूब स्नेह और अपनेपन से दोनों हाथ थाम कर कहा था- ‘सबसे मिला-जुला कीजिये, अच्छा लगेगा। अपने घर-परिवार से दूर परदेश में यही अपना परिवार है... पिछली जनवरी को अपने घर कोल्हापुर नहीं जा पाई तो यहीं हल्दी-कुमकुम मनाया। कालोनी की सभी विवाहित महिलाएं आयीं।‘ रूना को देख कर अच्छा लगा था कि यहाँ सभी महिलाएं एक-दूसरे से खूब घुली-मिली और सहज हैं। ‘विंध्यनगर में हम सारे त्योहार मनाते हैं- होली, दीवाली, ईद, छठ...’ ‘छठ भी!’ जान कर रूना को हैरत हुई थी- ‘पर, कहाँ?’ ‘है ना वह लेक- मंदिर और पार्क के बीच में... उसी की सीढ़ियों पर तो आप को कई बार देर शाम बैठी हुई देखती हूँ! तभी तों सब जान गए हैं हमारे एनटीपीसी परिवार में एक राइटर भी आ जुड़ी हैं!’ मिसेज सहाय ने हँसते हुये जवाब दिया था। साथ में दूसरी महिलाएं भी हंसी थीं। सचमुच हंसी छूत की बीमारी जैसी होती है, दूसरों को हँसते देख कर हंसी आ ही जाती है। उस दिन रूना भी खूब हंसी थी। बात-बात पर। और बाद में इसी बात ने उसे देर तक गुमसुम भी कर रखा था। वह हँसना कब भूल गई... पता ही नहीं चला!

उस रात ड्रेसिंग टेबल के सामने अपने गहने उतारते हुये रूना को सुबीर एकटक देखता रहा था। आखिर रूना ने ही झेंपते हुये पूछा था- ‘ऐसे क्या देखते हो?’ सुबीर ने गहरी सांस ली थी- ‘तुम्हारे चेहरे पर यह हंसी कितना मिस करता था रूना! हर समय की तुम्हारी उदासी मुझे ग्लानि से भर देती है। लगता है, कहीं-ना कहीं मैं तुम्हारा अपराधी हूँ!’

‘ऐसा मत सोचो!’ रूना ने अपने अंजाने ही नज़रें चुराई थी। ‘कोई बात नहीं, देखना तुम्हारी खुशी एक दिन मैं ही वापस लाऊँगा...’ सुबीर की ऊष्ण उँगलियों के पोरों ने उसकी त्वचा पर उस क्षण अनायास सुर्ख गुलाब-से खिला दिये थे।

उस दिन विश्वकर्मा पूजा था। वे पावर प्लांट देखने गए थे। पाँचवी यूनिट के हाल ही में हुये सिंक्रोनाइजेशन के बाद एनटीपीसी विन्ध्याचल को देश की सबसे बड़ी विद्युत परियोजना होने का गौरव मिला था। चारों तरफ दैत्याकार मशीनों के शोर, बायलर, टर्बाइन, कोयला ढोते बेल्ट्स और दूर आकाश की ऊंचाइयों से बात करती चिमनियों से निकलते धुओं की लकीरों के बीच हेलमेट और सेफ़्टी शूज पहने इंजीनियर ने बताया था कि एनटीपीसी विन्ध्याचल की कुल उत्पादन क्षमता 4760 मेगावाट है। साइंस में वह हमेशा से कमजोर रही है। 4760 मेगावाट का मतलब कितनी बिजली होती है वह यह तो नहीं समझ पाई पर उसकी आंखे जिस कौतूहल के साथ फैली थीं उसमें एक आश्चर्य का भाव जरूर था कि तभी शिफ्ट इंजीनियर पार्थो दास ने बिना पूछे ही उसकी जिज्ञासा को शांत कर दिया था – ‘4760 मेगावाट यानी 100 वाट के चार करोड़ छिहत्तर लाख बल्ब एक साथ जल सकते हैं इतनी बिजली में… और ट्यूब लाईट तो लगभग बीस करोड़...!’ रूना ने बचपन में मायथन डैम पर स्थित हाइड्रो पावर प्लांट देखा था। विशाल घूमते टर्वाइन के पंखें, ऊंचाई से गिर कर बिफरते पानी की धारा... सोच कर आज भी उसकी देह में झुरझुरी-सी पैदा हो जाती है। कंट्रोल रूम मे बड़े-बड़े स्क्रीन पर चमकते फ़्लो चार्ट्स, लाल-नीले-हरे निशानों और तीरों के जटिल संजाल की तरफ वह देखती रह गई थी। पार्थो दास अपनी बंगालीमिश्रित हिन्दी में उन्हें बिजली बनने की सारी प्रक्रिया विस्तार से समझाते रहे थे। यह जान कर उसे हैरत हुई थी कि बिजली को स्टोर नहीं किया जा सकता। उसे लगातार बनाना और इस्तेमाल करना पड़ता है। यह जानकर कि यहाँ बनने वाली बिजली महाराष्ट्र और गोवा तक जाती है, एक बार फिर से उसे गोवा के अपने हनीमून ट्रिप की याद हो आई थी। समंदर किनारे स्थित स्वीमसी बीच रिसोर्ट का कमरा नंबर 118... यह सोच कर उसकी कोशिकाओं में पुलक की एक मीठी-सी तरंग उठी थी कि प्रथम मिलन की उस खूबसूरत रात को उसके कमरे में मद्ध्म गुलाबी रोशनी से भरा जो बल्ब रौशन था उसके लिए बिजली इसी विंध्यानगर से गई थी। हर पल अजनबी-सी लगनेवाली यह जगह कुछ क्षण को उसके लिए बहुत ही अपनी हो गई थी!

कंट्रोल रूम के पीछे से हो कर ब्वायलर एरिया से निकलते हुये ऊपर जा कर उसका सर एक बार फिर चकराया था। ज्जाने कितनी ऊंचाई पर थी वह, लिफ्ट से बाहर आकर नीचे देखते ही उसके भीतर डर की एक अजीब सी लहर दौड़ गई थी... उस ऊंचाई से पूरा विंध्य नगर किसी खिलौना-घर की तरह दिख रहा था- छोटे-छोटे घर, सड़कें, लोग... सुबीर ने बताया था कि इस वक्त वे कुतुब मीनार से कोई दोगुनी ऊंचाई पर होंगे। शिफ्ट बदलने का समय था। पार्थो शिष्टाचारवश उनके साथ नीचे स्थित हनुमान जी के मंदिर तक आया था। रूना कॉलेज के दिनों में लेफ्ट स्टूडेंट्स यूनियन ‘आइसा’ का मेम्बर थी। तब कॉमरेड्स बीच खुद को आस्तिक कहने में संकोच होता था। उनके प्रभावों के कारण वह भले पूजा पाठ और कर्मकांड में विश्वास न करती हो पर भीतर से कहीं वह आस्तिक थी। बावजूद इसके पावर पलान्ट की ऊंची बिल्डिंग, चिमनियों और कॉल हैंडलिंग प्लांट में कोयला ले कर दौड़ते कनवेयर बेल्ट्स के बीच हनुमान मंदिर देख के उसे किंचित आश्चर्य हुआ था। पार्थो ने एक बार फिर जैसे उसके मस्तिष्क पर उभरी जिज्ञासा की लकीरों को पढ़ लिया था – ‘फ़िफ्थ यूनिट के कन्स्ट्रकशन के दौरान हमलोगों ने इस मंदिर को बहुत मुश्किल से बचाया है। एनटीपीसी अपने कर्मचारियों की सुरक्षा का पूरा ख़्याल रखती है मगर अपने घरों से हजारों मील दूर रात-दिन जिन कठिन परिस्थितियों में हमलोग यहाँ काम करते हैं, ऊपर वाले पर भरोसा बहुत ज़रूरी है!’ रूना को अहसास हुआ इन दिनों वह भी बार-बार आसमान की ओर देखने लगी है, जाने किस उम्मीद से...

उस दिन देर तक जैन मंदिर की सीढ़ियों पर चुपचाप बैठने के बाद वह अंधेरा होते-होते उठ आई थी। गर्मियों की एक रंग भरी उदास शाम, लेक के पानी में उतरा हुआ साँझ का गेरुआ आकाश और दूर प्लांट से आती मशीनों की गड़गड़ाहट के साथ कूलिंग टावर से निरंतर उड़ते भाप के मटमैले बादल... आज विंध्या क्लब में गहमागहमी थी। पेड़ों और फूलों की झाड़ियों में बिजली के रंग-बिरंगे लट्टू चमक रहे थे। बच्चे शोर मचाते हुये लॉन में दौड़ते फिर रहे थे। हाँ उसे याद आया, आज मिसेज विद्यार्थी के बेटे का रिसेप्शन है। मगर सुबीर को इन चीजों के लिए फुर्सत कहाँ इन दिनों! वही- ऑडिट चल रहा है... लेक पार्क से बाहर निकल के शॉपिंग सेंटर से सब्जियाँ खरीदते हुये वह घर लौट आई थी।

रात को उसने डायनिंग टेबल पर बहुत निर्लिप्त भाव से कहा था, वह यहाँ नहीं रहेगी, दिल्ली लौट जाएगी, अपनी पुरानी नौकरी ज्वाइन करेगी... सुन कर सुबीर चौंक गया था। यकायक खाना छोड़ कर उसे देखता रह गया था- ‘अचानक से! क्या हो गया? यहाँ क्या प्रोब्लेम है? ‘प्रोब्लेम यह है सुबीर कि यहाँ तुम्हारे लिए तो सब कुछ है, मगर मेरे लिए कुछ नहीं है! मैं इस तरह जी नहीं सकती...’

‘’जीते क्या सिर्फ बड़े शहरों के लोग ही हैं रूना? जिया हर कहीं जा सकता है, बशर्ते जीने का अंदाज़ पता हो। रही बात ज़िंदगी के मक़सद की तो सबसे पहले हम यह तय करें कि हमारा मक़सद क्या है!’

‘मैं तुमसे बहस नहीं करना चाहती, मैं बस इतना जानती हूँ कि मेरे लिए यहाँ कुछ नहीं है!’ कहते हुये वह भरभरा कर रो पड़ी थी। इसके बाद देर तक दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा था और अंत में सुबीर उठ कर बेसिन में यह कहते हुये हाथ धो आया था- ‘कुछ नहीं से अगर तुम्हारा मतलब बड़े-बड़े मॉल, मल्टीप्लेक्स, कॉफी हाउस और मंडी हाउस की गहमागहमी से है तो वाकई यहाँ कुछ नहीं है। मगर जिनको कुछ ईमानदारी से करना होता है वे सुविधा और संसाधनों को नहीं, जीवन और उसकी अनंत संभावनाओं को देखते हैं। तुम्हारी कलम के लिए ये अरण्य, यहाँ के लोग, इनका जीवन, दुख-सुख कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि इस सब में कोई ग्लैमर नहीं है... अफसोस हर कोई रौनक और जगमगाती हुई ज़िंदगी की कहानी ही लिखना चाहता है, गूँगों की जूबान कोई नहीं बनना चाहता...’ सुनते हुये रूना के भीतर कुछ सर्द हो आया था। उसके कहने का मतलब यह तो नहीं था! सुबीर उसे गलत समझ रहा है। यह सब इल्ज़ाम के सिवा कुछ नहीं! उस रात वह ठीक से सो नहीं पाई थी। बस रोती रही थी।

दूसरे दिन डायनिंग टेबल पर डेल का नया लैप टॉप रखा हुआ था। लंच का समय था और सुबीर ऑफिस से आया हुआ था। वह खाना परोसना भूल कर उसे उलट-पुलट कर देखने लगी थी। पिछले कुछ समय से उसने अपने लैप टॉप को कितना मिस किया था! दिल्ली में ही छूट गया था। मरम्मत के लिए कहीं दिया हुआ था। सुबीर हाथ धो कर खाने बैठा तो मुस्करा रहा था- चलो, अब शुरू हो जाओ। बहुत दिन छुट्टी मना ली। जवाब में वह कुछ कह नहीं पाई थी। बस किसी तरह अपने आँसू जब्त किए थी। कभी-कभी खुशियाँ भी किस तरह से आती है!

उस शाम वह देर तक वीवा क्लब की लायब्रेरी में किताबों के बीच बैठी रही थी- एक दबी उत्तेजना से भरी हुई, बेहद खुश। एक लायब्रेरी तो विंध्य क्लब में भी है लेकिन यह उससे कई गुणा बड़ी है। लेकिन किताबों पर पड़ी धूल की मोटी परतों को देख कर उसे बहुत दुख हुआ था। इतनी बड़ी लायब्रेरी, इतनी सारी किताबें, दर्जनों पत्र-पत्रिकाएँ, एसी रीडिंग रूम पर कोई पढ़नेवाला नहीं। उसे लगा इस लायब्रेरी को एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जिसे किताबों से प्यार हो... और जो अपनी रचनात्मक योजनाओं से लोगों को यहाँ तक खीच सके। उसने सोचा वह क्लब के अध्यक्ष से इस बारे में बात करेगी। वे चाहें तो वह इस लायब्रेरी का काया कल्प कर सकती है। यह उसकी दुनिया थी, निहायत अपनी दुनिया... सुबीर ने कहा था, ‘आज डिनर मैं बनाऊँगा, तुम अपने डेट पर निकलो!’ डेट!’ रूना उसकी बात समझ नहीं पाई थी। ‘जी, डेट! आपकी ये किताबें मेरा रक़ीब ही तो हैं! जब देखो इनसे चिपकी रहती हो!’ उस रात वह अपने लैपटॉप पर लगातार काम करती रही थी। पौ फटने से पहले सुबीर चाय का कप ले कर सामने आ खड़ा हुआ था- ‘अब लिखने के लिए मुझे ही मत भूल जाओ! जब से यह लैपटॉप मिला है, तुम्हारी एक ‘नज़र-ए-इनायत लिए यह गरीब तरस गया...’ टेबल पर नज़रें झुकाये रूना को इस बात की खबर ही नही हुई कि कब दस बज गए। क्लब का केयर टेकर विश्वकर्मा पिछले एक घंटे में कई बार झांक के जा चुका था। उसके पदचाप से ही उसका ध्यान टूटा था और उसकी नज़र सामने दीवार पर लगी पट्टिका पर गई थी – पुस्तकालय खुलने का समय – शाम 6 से 9 बजे तक। रूना को विश्वकर्मा का चेहरा देख कर बुरा लगा था – ‘अरे बताना था न, घर पर बीवी-बच्चे इंतज़ार कर रहे होंगे।‘ ‘कोई बात नहीं मैडम! जाने कितने दिनों बाद तो कोई इस तरह डूब कर पढ़ रहा था यहाँ, मुझे डिस्टर्ब करना अच्छा नहीं लगा’ लायब्रेरी आने का सिलसिला चल निकला था। एक दिन यहीं उसे ए जी एम एच आर शिखा बनर्जी मिली थीं। उन्हें किसी सिलसिले में विमल मित्र की ‘साहब, बीवी और गुलाम’ चाहिए थी। हजारों किताबों के बीच उस किताब को वह शायद ही खोज पातीं, लेकिन रूना ने यह काम बहुत आसान कर दिया था। पिछले कुछ दिनों में यहां बैठ कर न सिर्फ उसने अपने अधूरे उपन्यास के कुछ पन्ने लिखे थे बल्कि यह भी ताड़ लिया था कि कौन सी किताब कहाँ है। पता नहीं यह रूना की उपस्थिति का जादू था या उसके व्यक्तित्व का आकर्षण शिखा बनर्जी हर दूसरे दिन पुस्तकालय आने लगी थीं। पुस्तकों के प्रति रूना की दीवानगी को देखते हुये उन्होंने वीवा क्लब के अध्यक्ष से उसकी चर्चा की थी। वीवा अध्यक्ष ने रूना की सलाह मान ली थी और देखते ही देखते पुस्तकालय का चेहरा बदलने लगा था। यहाँ आनेवालों की संख्या में भी खासा इजाफा हुआ था। रूना की सलाह पर महीने के आखिरी शनिवार को पुस्तकालय की तरफ से बच्चों के लिए वादविवाद प्रतियोगिता का आयोजन होने लगा था। उसी दिन पूरे महीने में सबसे ज्यादा दिन पुस्तकालय आने वाले व्यक्ति को नियमित पुरस्कार भी दिया जाने लगा था। ऐसे ही किसी शनिवार को मुख्य अतिथि के रूप में सुहासिनी संघ की अध्यक्षा मिसेज अकोटकर आई थीं। बातचीत के दौरान उन्होने रूना को लेडीज क्लब की सदस्यता लेने को कहा था। पर बहुत संकोच के साथ उसने मना कर दिया था। उससे भी ज्यादा संकोच उसे तब हुआ जब मिसेज अकोटकर ने उससे लेडिज क्लब नहीं ज्वाइन करने का कारण पूछा था। लेकिन चाहते न चाहते उसने कह ही दिया था - ‘सुना है लेडिज क्लब में भी ऑफिस की हायरारकी चलती है।‘ मिसेज अकोटकर हौले से मुसकाई थीं – ‘तुमने ठीक ही सुना है, पर मेरा कहा मानो और आओ। तुम जैसी सदस्यों के आने के बाद वहाँ का माहौल भी बदलेगा।…’ कहते हुये मिसेज अकोटकटर ने जिस सहज आत्मीयता से उसका बायाँ हाथ दबाया था, उसके ना कहने की कोई गुंजाइश बची ही नहीं रह गई थी।

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