दिन ठीक-ठाक ही निकल रहे थे बड़े भैया के पास अगर कुन्ती वो कान्ड न कर डालती......! हुआ ये कि भैया अपने सरकारी काम से झांसी गये. वहां से भाभी, सुमित्रा जी और कुन्ती के लिये साड़ियां ले आये. तीनों साड़ियां लगभग एक जैसी सुन्दर थीं. भाभी की साड़ी देख अनायास ही सुमित्रा जी के मुंह से निकला- ’आहा..... इसका आंचल कितना सुन्दर है!!’ अगले ही दिन जब सुमित्रा जी अपनी बड़ी बेटी-मुनिया को नहला रही थीं तब कुन्ती अपने पल्लू में कुछ छुपा के लाई.
’सुनो सुमित्रा, ये लो तुम इससे मुनिया की फ़्राक बना लेना’
कुन्ती के हाथ में भाभी की उसी नयी साड़ी का आंचल था जो सुमित्रा जी को बहुत पसन्द आया था. ये देख सुमित्रा जी एकदम हड़बड़ा गयीं-
’अरे कुन्ती! ये तुमने क्या किया? भाभी की नयी साड़ी फाड़ दी! लेकिन क्यों?’
’अरे तुम्हें ये आंचल पसन्द आया था न, तो हमने सोचा मुनिया की फ़्राक बना के तुम्हें खुशी होगी.’
’उफ़्फ़! ये तो बहुत ग़लत है. हमने साड़ी फ़ाड़ने की तो सोची भी नहीं! कोई चीज़ पसन्द आने का ये मतलब तो बिल्कुल भी नहीं कि......’
’शश्श्श्श्श.......... चुप रहो. अब इसे रख लो जल्दी कोई देखे उसके पहले.’
और कुन्ती झटपट उठी, मुनिया के पालने तक गयी और उसके बिस्तर के नीचे कपड़ा छुपा आई. बेबस सी सुमित्रा जी का मन हाहाकार कर रहा था लेकिन ज़ुबान चुप थी. वे न कभी पहले कुन्ती की हरक़तों पर बोल पाईं न आज कुछ कहने को था उनके पास. वो कपड़ा था कि काट खाने को दौड़ रहा था जैसे उन्हें. भाभी की बड़ी-बड़ी शिक़ायती आंखें उनकी कल्पना में झूल गयीं....! क्या सोचेंगे भैया! उफ़्फ़!! कैसे बताये भैया को.... फिर भी उन्होंने तय किया कि वे मौक़ा मिलते ही भैया को सच्चाई बता देंगीं. लेकिन ये मौक़ा कहां मिल पाया उन्हें?
अगले ही दिन जब भैया चाय पी के बैठे और सुमित्रा जी नहाने चली गयीं तो कुन्ती तुरन्त उनके पास आई. चौकन्नी सी चारों तरफ़ देखती रही और धीरे से बोली-
’ बड़े भैया, आप सुमित्रा को बड़ा भोला मानते हैं न? अब बताऊं उसकी करतूत?’
भैया अवाक से कुन्ती का मुंह देख रहे थे-
’हुआ क्या? कुछ बतायेगी?’
’वही बताने तो आई हूं भैया. जानते हैं, आप भाभी के लिये जो साड़ी लाये थे न, जिसका आंचल सुमित्रा को बहुत पसन्द आया था?’
’हां, तो...?’
’तो सुमित्रा ने उस साड़ी का आंचल काट के रख लिया है अपने पास मुनिया की फ़्राक बनाने के लिये. हमने मना किया तो चुप करा दिया हमें.’ बड़ी रुआंसी सी सूरत बना के बोली कुन्ती.
एक मिनट को दादा कुछ समझ ही नहीं पाये कि कुन्ती कह क्या रही है! सुमित्रा और ऐसी हरक़त! न कभी नहीं.
’अरे तुम्हें ग़लतफ़हमी हुई होगी कुन्ती. सुमित्रा ऐसा नहीं कर सकती.’
’वही तो....... ये देवी जी ऐसी सच की मूर्ति बनी बैठी हैं कि इनके ग़लत काम को भी कोई मानता नहीं. रुकिये मैं दिखाती हूं. अच्छा चलिये आप ही.’
भैया को लगभग घसीटते हुए कुन्ती पालने तक ले आई और बिस्तर उठा के कपड़ा दिखाया. भैया सन्न!
(
क्रमश:)