भदूकड़ा - 24 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 24


एक मिनट को दादा कुछ समझ ही नहीं पाये कि कुन्ती कह क्या रही है! सुमित्रा और ऐसी हरक़त! न कभी नहीं.

’अरे तुम्हें ग़लतफ़हमी हुई होगी कुन्ती. सुमित्रा ऐसा नहीं कर सकती.’

’वही तो....... ये देवी जी ऐसी सच की मूर्ति बनी बैठी हैं कि इनके ग़लत काम को भी कोई मानता नहीं. रुकिये मैं दिखाती हूं. अच्छा चलिये आप ही.’

भैया को लगभग घसीटते हुए कुन्ती पालने तक ले आई और बिस्तर उठा के कपड़ा दिखाया. भैया सन्न!

’अब हुआ भरोसा?’ कुन्ती कुटिलता से मुस्कुरा रही थी. भैया कुछ नहीं बोले. अपनी कुरसी पर वापस बैठते हुए बस इतना ही कहा-

’अब जो हुआ सो हुआ, लेकिन सुमित्रा को कुछ मत कहना.’

भैया का पीला पड़ा चेहरा बता रहा था कि उन्हें कितना पड़ा आघात पहुंचा है सुमित्रा की इस हरक़त से.

सुमित्रा जी नहा के निकलीं, तो कुन्ती नहाने गयी. तब स्नानघर एक ही होता था न सरकारी क्वार्टर में. अच्छा मौक़ा देख, सुमित्रा जी भैया के पास पहुंचीं और डरते-डरते बोलीं-

’भैया हमें कुछ कहना है.’

’मगर हमें अब कुछ सुनना नहीं है सुमित्रा. तुमने जो हरक़त की है, वो हमारी उम्मीद से बाहर की हरक़त है. हमने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि तुम ऐसा करोगी.’

’मगर हमने क्या किया है भैया? वो तो कुन्ती....’

’मुझे कुछ नहीं सुनना सुमित्रा. बस अपना और कुन्ती का सामान बांधो, हम कल सुबह ही घर जा रहे.’

इस तरह, बिना किसी ग़लती के घर से निकाले जाने का अपमान बर्दाश्त नहीं कर पा रही थीं सुमित्रा जी.....! देर तक बेआवाज़ रोती रहीं और फिर वो कपड़ा निकाल के भैया के बिस्तर के नीचे दबा दिया. कम से कम मेरी बात सुनते तो भैया.....! उन्हें कैसे पता चला होगा? क्या कुन्ती ने उनका नाम लगा दिया या भैया ने खुद ही कपड़ा देख लिया? अगर खुद ही देखा होगा तब तो कितनी बड़ी चोर साबित हो गयीं वे....! और कुन्ती ने भी बताया होगा तो कौन सा अपना नाम लिया होगा. भैया नाराज़ तो मुझसे हैं....यानी पूरा इल्ज़ाम तो मेरे सिर!!! पता नहीं अभी और कितने इल्ज़ाम लगायेगी ये कुन्ती ....कितना अपमानित करवायेगी..... सुमित्रा जी की हिचकियां बंध गयीं, जिन्हें उन्होंने गले में ही घोंट लिया ताकि आवाज़ भाभी तक न जा पाये.

भैया ने उनकी बात नहीं सुनी, ये बुरा लगा सुमित्रा जी को, लेकिन इस बुरा लगने में कोई दुर्भावना नहीं थी उनके मन में. बस दुख था, कि यदि भैया सुन लेते तो शायद ऐसा अपमान नहीं करते. स्वाभिमानी पिता की स्वाभिमानी बेटी थीं सुमित्रा जी. भैया से असीमित स्नेह रखती थीं, आगे भी रखेंगीं, ईश्वर उनका बाल भी बांका न करे, उनकी तक़लीफ़ें सुमित्रा जी को दे दे.... जैसी तमाम बातें मन ही मन दोहराते हुए ही सुमित्रा जी न अब आगे कभी भी भैया घर न आने की क़सम खाई थी. इस घर से अपमानित हो के निकल रही थीं वे....निकल कहां रही थीं? निकाली गयीं थीं. ऐसा घोर अपमान तो ससुराल में भी नहीं हुआ था......! उफ!! कैसे बर्दाश्त करें सुमित्रा जी!! किससे कहें अपने मन की बात कि सच क्या है...!
(क्रमशः)