मासूम गंगा के सवाल
(लघुकविता-संग्रह)
शील कौशिक
(2)
बंधन
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किनारों में बँधे रहना
अच्छा नहीं लगता होगा तुम्हें
एक दिन पूछा नदी से मैंने
ऋतुएं आती हैं एक लय में
धरती भी है करती सूर्य के गिर्द
एक तय परिक्रमा
मैं भी लय पाने को
बंधी हूँ किनारों में
तो आश्चर्य कैसा
सहज उत्तर दिया नदी नेI
मन की इच्छा
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चाँद को छूने की
चाहत रखती हैं
समुद्र की लहरें
तुम्हारी सबसे बड़ी इच्छा क्या है?
पूछा मैंने
तो लबालब पानी से भरी नदी
हरहरा कर बोली
तेज गति से बहना
और बस फिर सिमट जाना
समुद्र की बाँहों मेंI
जवाब गंगा का
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पूछा एक बार मैंने तुमसे
आखिर क्यों समा जाना चाहती हो
समुद्र की गोद में
पलट कर बोली गंगा
नित्य ही, तुम क्यों सजाती हो
सिंदूर मांग में
संध्या के घिरने पर
क्यों लगाये रहती हो
टिकटिकी द्वार पर
पूछो अपने हृदय सेI
क्यों नहीं आया
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कहा नहीं था तुमने
अपने नाम की डुबकी लगाने को
पर मैं जानती थी
गंगा नदी से तुम्हारे प्रेम को
तुम्हें याद कर मैंने
छू लिया था उसे हौले से
हुमक कर पूछा उसने
वह क्यों नहीं आया
जरूर आता वह
तुम एक बार कह कर तो देखतीI
नायिका गंगा
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सावन में
सुन्दरता के सांचे में ढली
षोडसी गंगा इठलाई-सी
किसी की बात पर कान न धरती
बस बौराई-सी
जा रही है निरंतर दौड़ती
समुद्र की बांहों में
समा जाने के लिए
अपने ही तटों को
मुँह चिढ़ाती-सीI
मिलना गंगा से
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हरिद्वार में
मैं वह सब देखने नहीं आई
जो मैं देखना चाहती हूँ
मैं तो मन में जिज्ञासा लिए
पूछने आई हूँ तुम्हारा हाल-चाल
सुनने तुम्हारा आर्तनाद
सकार-नकार का राग
और देखने आई हूँ वह सब
जो तुम दिखाना चाहती हो
सूक्ष्म संकेतों से समझाना चाहती होI
अद्भुत दृश्य
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शाम के धुंधलके में
आकाश तक ऊँची उठती
स्वर लहरियाँ
नीचे गंगा का अनंत प्रवाह
धूप, अगरबत्तियों की सुगंध
चहूँ ओर आस्था की बारिश
अनहद के नाद-सी गूंजती
गंगा मैय्या की आरती
करती है प्रस्तुत
एक अद्भुत दृश्यI
भीग गया मन
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गंगा में डुबकी क्या लगाई
मेरी माँ की छवि सामने आई
गंगा मैया
और माँ के
पुण्य आशीर्वाद से
खुशदिल राग उमड़ आया
तन के साथ-साथ
मेरा मन-प्राण भी
खुशनुमा अहसास से
भीग गया अंदर तकI
कथा बाँचते दीप
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संध्याकालीन
आरती के समय
गंगा में बहते
असंख्य दीप
लगते हैं ऐसे
मानो लिख रहे हों
गंगा मैया की
कोई उजली-सी इबारत
बाँच रहे हों
जलजलों में
जिन्दा रहने की कलाI
होने का अर्थ
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भरे बादल होते हैं आतुर
बरसने को
ऐसे ही
कब रह पाती है रोशनी
कैद
सूरज की मुठ्ठी में
वैसे ही पानी से लबालब भरी नदियां
होती हैं आतुर बहने को
और बाँटने को अपना सब कुछ
यही है इनके होने का मतलबI
नदिया का संगीत
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नदिया में
बहते जल का
होता है अपना एक संगीत
जो मन में उतर कर
कर देता है झंकृत
मन के तार
तब वर्षों से बिगड़े
बेसुरे तार
पा जाते हैं
सुर, लय और तालI
आँखों में ही बचेगा
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आज भी लड़ रही है
गंगा नदी
अपने अस्तित्व की लड़ाई
चेता रही है हर पल
पूरे मनोयोग से
यदि तुम अब भी नहीं जागे
तो मैं ही नहीं
खो देगा देश भी अपना पानी
फिर केवल तुम्हारी आँखों में ही
बचेगा पानीI
समन्दर आस्था का
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सावन के महीने में
लहराता है
आस्था का समन्दर
जब आस्थाएं
देवालयों से निकल कर
भीड़ बनती
आ जुटती हैं गंगा तट पर
तब झिलमिलाता है
एक विहंगम दृश्य...
व आस्था का समन्दरI
मायके लौटी गंगा
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दीवाली के बाद
भैयादूज पर पर
चली जाती हो तुम गंगा
गंगोत्री धाम से ‘मुखवा’ गाँव
अपने भाई सोमेश्वर के यहाँ
करने तिलक
हुलस कर सावन में
घर लौटी बिटिया की भांति
संकल्पबद्ध-सी
निभाती हो सब रिश्तेI
नदियाँ हमारी माताएं
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माँ होती नहीं कभी
बेवजह क्रोधित
की है हमने छेड़छाड़
उसके घर-बार के साथ
उसके चरित्र के साथ
गाद जमा की नदी में
उसका प्राकृतिक रास्ता मोड़ा
वृक्षहीन किया उसके पाठ को
बनना पड़ रहा है
अब उनके कोप का भाजनI
हृदयाघात नदी का
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वसा जमने से होता है बाधित
जैसे हमारी धमनियों का रक्त प्रवाह
और फिर हृदयाघात
ऐसे ही, कचरा-गाद भर कर
नदियों की धमनियों में
रोक दिया हमने उनके बहाव को
पानी की संतुलित पहुंच को
मार दिया उन्हें असमय ही
या फिर किया मजबूर
क्रोध में उफनने के लिएI
अभिशप्त हम
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छोड़ दिया हमने
करना अपनी माँ का सम्मान
नहीं सुना
बीमार माँ का रुदन
नहीं समझा उसके संकेत को
नहीं किया उसका इलाज
इसीलिए अभिशप्त हैं हम
कभी बाढ़ का प्रकोप
तो कभी सूखा झेलने के लिएI
क्रमश...