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मासूम गंगा के सवाल - 5

मासूम गंगा के सवाल

(लघुकविता-संग्रह)

शील कौशिक

(5)

दीक्षा गंगा की

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गंगा गंगा है

वह कभी नहीं देना चाहती

पलट कर जवाब

मिली है उसे कठोर दीक्षा

जन्म से ही जीवनदायिनी बनने की

बिना धर्म और जाति के भेदभाव

सबको निश्छल अमृत बाँटने की

मौन में उतर कर

चुपचाप बहते रहने की

यही है नदी की संस्कृति I

गंगा नाम सत्य है

******

छीन कर पेड़ों की जगह

जकड़ ली कंक्रीट और इन्टरलॉक टाइलों में

फैला ली दूर तलक अपनी चादर

कर दिया बाधित

नदी का पेड़ों की जड़ों से मिलना

वेंटीलेटर पर है गंगा

अब छोड़ दिया उसे मरने को

राम नाम सत्य है की तरह

गंगा नाम सत्य है

बस यही

रह जाएगा एक दिनI

गंगा के तट पर

*****

नदी के जल में फूटती लालिमा

झलकती परिंदों की छवियाँ

दिखता नीला निरभ्र आकाश

नदी के सिर पर से गुजरते बादल

या फिर नदी का गुजरना

धरा को सहलाते हुए

न जाने कितने ही

कुदरत के अचरज

देखती हैं हमारी नजरें

गंगा नदी के तट परI

विदाई गंगा की

*****

बिटिया की तरह

घर का छूटना

बदा है गंगा की किस्मत में भी

पुष्पों की भावांजली बरसा

मुखवा गाँव के लोग

करते हैं उसे विदा अक्षय तृतीया को

चल पड़ती है वह ससुराल

आँखों में पानी लिए

विदा और प्रतीक्षा हैं

अहम हिस्से उसके जीवन केI

नदी की पीड़ा

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किनारों पर पछाड़ खाती

सर धुनती प्यास लेकर

जाती है नदी बहकर

बहुत दूर सागर के पास

अपने भीतर के जल का अक्स दिखा

लुभाता है सागर उसे

नहीं समझता वह

उसके भीतर की प्यास को

आद्रता को

उसके अंतर्मन की पीड़ा कोI

लहरों की गुंबद

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सतह से उठती लहर को

प्रवाहित लहरों से

गले मिलकर

एक गुंबद-सा बनाते देखा

भूत, वर्तमान और भविष्य की

लहरों का

हिलमिल जाना देखा

एक साथ पढ़ा

गंगा के इस

अद्भुत तिलिस्म कोI

आत्मीयता रिश्तों की

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उभरी है नदी

कितने ही यात्रा वृतांतों में

कभी सखी बनकर

तो कभी माँ बनकर

किनारों के घाट पर खड़ी

पाल या बिना पाल वाली नोकायें

दौड़ती हैं बेख़ौफ़

उसके वक्ष पर

निभाती है संबंध

आत्मीयता से गंगाI

गंगा का सपना

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नित्य ही

सपनों के बीज

बोती है गंगा

अब एक नई ताल पर

संवरेगा रूप मेरा

मुक्त हो जाऊँगी गाद से

बदलेगी चाल मेरी

मुस्कराउंगी मैं

बन जाऊँगी मैं

फिर से

अक्षय गंगाI

बौना प्रयास

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खेत, धान और मछलियां

जानते हैं मुझे

समझते हैं जल का महत्व

एश्वर्य के खोखलेपन पर

इतराता आदमी

मेरा रास्ता उलीच कर

गंदगी उछाल कर मुझ पर

नहीं छोड़ता

एक भी बौना प्रयास

मुझे बौना बनाने का

समझ गई है गंगा

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मिठास करुणा प्रेम के साथ-साथ

प्यास और आद्रता

सदा से थाती हैं मेरी

फिर क्यों कोई मुझे

दिखाए मेरा अक्स मुझे

स्वयं में बिम्बित-प्रतिबिम्बित

होने के लिए

तोड़ने जरूरी हैं बाकी के अक्स

सागर के तिलिस्म को

समझ गई है गंगाI

परिचय गंगा का

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किसी ने पूछा परिचय

बोल उठी गंगा

स्वर्गिक वरदान हूँ मैं

देवभूमि की शान हूँ

भारत की आन हूँ

बहती अविराम हूँ

तुम्हारे मेरे पास आने से

तुम्हारी आस्था के ताप से

होती हूँ पुलकित

मैं हूँ गंगा तुम्हारी माँI

देने का सुख

***********

चलते समय

मित्र को कहा था मैंने

तुम भी आते

तो लिख ले जाते कवितायेँ

पा लेते गंगा तट का

अकूत वैभव, राजसी शोभा

और भर लेते मन में

अलौकिकता का अहसास

बहुत कुछ है गंगा के पास

देने का सुख जानती है गंगाI

यात्रा में हूँ

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तुम्हारे

निरंतर बहते जल को देख कर

होता है ऐसा अहसास

जैसे छलकती लहरों सँग

गतिमान हूँ मैं भी

निरंतर प्रवाहमय हूँ, यात्रा में हूँ

कल मेरा कोई प्रियजन

प्रवाहित करेगा मेरी अस्थियाँ यहाँ

मेरा मन आज बह रहा है

पूर्वजों की स्मृतियों सँगI

जीवन यात्रा नदी की

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पहाड़ियों की गोद में

जब जन्मती हो तुम गंगा

एक अबोध शिशु-सी

डगमग कदमों से चलती

लगती हो भली

सावन में गदराया यौवन लेकर

उफन कर चलती हो

वृद्धावस्था में शांत, गम्भीर

रुक-रुक कर चलती

होती हो फिर अवसान को प्राप्तI

माँ जैसी लाचार

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गंगा मैय्या की लाचारी

एक माँ जैसी है

एक जैसी कहानी है

आँचल में जिसके

पानी ही पानी

पर किसी ने इसकी कद्र न जानी

अंतस इसका कचरे से पाट दिया

रस्ता मोड़ कर

वृक्षों का सरमाया छीन कर

मरने को कर दिया मजबूरI

तीर्थों में तीर्थ

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सावन में

कांवड़ियों द्वारा लाया

तुम्हारा पवित्र जल

जब चढ़ाया जाता है शिव मस्तक पर

गर्वित हो उठते हैं शिव भी

और खुशी-खुशी देते हैं

भक्तों को आशीर्वाद

गंगा तुम्हें

यूँ ही नहीं

तीर्थों में तीर्थ कहा जाताI

कर सकते हैं पवित्र

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गंगा को

करुणा सत्य प्रेम

व मनुष्यता की धाराओं में

संजोया है तुलसीदास ने

अवगाहन कर

इन धाराओं में

कर सकता है

कोई भी व्यक्ति

गंगा की तरह पवित्र

अपने आचरण कोI

बोली उदास नदी

*****

हमेशा की तरह उचक कर

गले मिली गंगा सागर को

पहले जैसा जोश व स्नेह

न पाकर बोली

नाराज हो मुझसे

नहीं प्रिय एक तुम ही तो हो

जो घोलती हो मिठास मेरे जीवन में

समझती हूँ तुम्हारी बैचेनी

अब पानी कम, कचरा अधिक

होता है मेरी झोली मेंI

क्रमश....

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