दस्विदानिया
(कहानी पंकज सुबीर)
(2)
मैं बॉटनी में पीजी करना चाहता था। बॉटनी मेरा पसंदीदा विषय थी और बॉटनी पढ़ाने वाली शैफाली मैडम भी । तुम्हें तो याद ही होगा कि फायनल में सबसे अच्छा हर्बेरियम कलेक्शन मैंने ही बनाया था। जाने कहाँ कहाँ से, जंगलों की, खेतों की खाक छान छान कर पत्तियाँ और फूल जमा किये थे । उनको कापियों में दबा दबा कर, सुखा कर, फिर ड्राइंग शीट पर चिपका कर हर्बेरियम कलेक्शन बनाया था । शैफाली मैडम को प्रभावित करने के लिये। कामयाब भी हुआ था। पूरी क्लास को दिखाया था उन्होंने मेरा हर्बेरियम कलेक्शन। ये अलग बात है कि प्रेक्टिकल में अच्छे नंबर नहीं दिये थे उन्होंने। मैंने उनका नाम हीबिस्कस रोज़ा सायनेन्सिस रखा था । तुम्हें तो याद होगा कि गुड़हल के फूल का बॉटनिकल नाम होता है ये, तुम शायद जवाकुसुम कहती थीं गुड़हल को, अपने किसी बंगाली पड़ोसी के कारण। शैफाली मैडम जिस प्रकार से हमेशा लाल कपड़े पहनती थीं उसके चलते ही वो नाम दिया था मैंने उनको। शायद उन्हें भी पता चल गया था कि मैंने उनको ये नाम दिया हुआ है। मैं समझता था कि वो इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेंगीं, लेकिन, प्रेक्टिकल में मिले नंबरों ने मेरी ग़लतफहमी को दूर कर दिया था। बुरा मानना तो था झा सर को मानना था, जिनको चुरुट पीने की आदत के कारण मैंने उनको तम्बाखू का बॉटनिकल नाम निकाटियाना टबैकुम नाम दिया था, जिसको और शार्ट करके हम उनको टबैकुम बुलाते थे। मगर वो बिचारे तो बुरा मानने से पहले ही चल बसे। खैर तो लब्बो लुआब ये कि शैफाली मैडम के लाल रंग और तुम्हारे बैंगनी रंग के बीच तुम्हारा ये बैंगनी रंग जीत गया। वैसे भी शैफाली मैडम मेरे लिये गूलर का फूल थीं, पत्थर का अचार थीं। फिर भी बॉटनी में पीजी न कर पाने का मलाल अभी भी सालता है। जब भी नवरात्रि में दुर्गापूजा पर गुड़हल के फूल देखता हूँ तो शैफाली मैडम याद आ जाती हैं ।
रसायन शास्त्र के डिपार्टमेण्ट में आकर बॉटनी डिपार्टमेण्ट की याद और शिद्दत से आने लगी थी । क्योंकि, रसायन शास्त्र में के डिपार्टमेण्ट में कोई भी मैडम नहीं थीं। तीन सर थे। बूढ़े, खूंसट और तीनों ही गंजे, तोंदियल । और मजे की बात ये थी कि तीन में से दो तो गुप्ता थे । कहाँ हिबिस्कस के ललछौंहेपन से ललियाती बॉटनी की लैब और कहाँ ये एचटूएस की सड़े अंडे समान गंध से गंधियाती रसायन शास्त्र लैब । मगर धीरे धीरे मलाल कम होता चला गया । इसलिये भी क्योंकि क्लास में केवल हम छः ही थे । हम छः में एक प्रकार की कैमिकल बॉण्डिंग होने लगी थी । दोस्ती की बॉण्डिंग । हम सबके लिये वो एक अलग ही अनुभव था । इतनी छोटी क्लास जिसमें केवल छः ही स्टूडेंट्स हों । जब भी सबमें एका हुआ तो एक साथ कॉलेज नहीं आये । हो गई छुट्टी । बस इसी बॉण्डिंग ने मेरे मन में एक प्रकार का डर पैदा कर दिया था । डर इस बात का कि जब बाकी सबको पता चलेगा कि मेरे मन में तुम्हारे लिये क्या है तो वे बाकी मेरे बारे में क्या सोचेंगे । हम छः धीरे धीरे एक परिवार की तरह होते जा रहे थे । ऐसे में ये डर आना स्वाभाविक सी बात थी। जो दोस्ती, जो अपनापन हम सबके बीच में पनप चुका था उसमें एकदम से दरार आ जाएगी । एक अलमस्त जिंदगी जिसमें नो फिकर नो टेंशन टाइप का जीवन हम जी रहे थे उसे मैं खोना नहीं चाहता था ।
पता है अचानक तुमको ये पत्र लिखने का विचार कैसे आया। कुछ दिनों पहले देखी गई वो दूसरी फिल्म इसके पीछे मुख्य कारण है । उस फिल्म में भी तीन दोस्त थे। मैं, राजेश और धनंजय। फिल्म का नाम था ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा। वो तीनों दोस्त कॉलेज के बरसों बाद फिर से मिलते हैं और उन सारे कामों को करते हैं जिनको करने की वे कॉलेज के समय सोचते हैं । फिल्म की थीम लगभग वैसी ही थी जैसी दस्विदानिया की थी । लेकिन कुछ अंतर था दोनों में । यहाँ तीन दोस्त मिलते हैं । तीनों मिलकर कुछ फैंटेसियों को पूरा करते हैं । जैसे स्काय डायविंग, सी डायविंग और जाने क्या क्या । तीनों की अपनी अपनी एक एक फैंटेसी होती है जिसे वे पूरा करते हैं। वे तीनों बिल्कुल हम तीनों की ही तरह थे। अलमस्त, बिंदास और मस्तमौला टाइप । दोस्तों के बीच तो हर कोई शायद ऐसा ही हो जाता होगा । किसी ने कहा भी तो है कि हम शरीर से किसी के भी सामने नंगे हो सकते हैं किन्तु, मन से, ज़मीर से, आत्मा से, हम केवल और केवल अपने कॉलेज के दोस्तों के सामने ही नंगे हो सकते हैं । ज़िंदगी के वे काम करना जो हमारी फैंटेसी में शामिल रहे हों, बहुत ज़रूरी है । मगर उन कामों को भी कर देना चाहिये जो हमारे साथ अपराध बोध बन कर लदे रहते हैं । ये दोनों ही आवश्यक काम होते हैं । लग रहा है न कि मैं फिल्मी भाषा में बात कर रहा हूँ, उसी कॉलेज वाले मैं की तरह । हाँ उसी भाषा में बात कर रहा हूँ, वो कॉलेज वाले शब्द छूटते ही कब हैं, ये अलग बात है कि हम खुद का संयमित करके उन शब्दों का ज़बान पर आना रोकते रहते हैं । भद्र होने की कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती है। कॉलेज लाइफ एक समग्र रूप से अभद्र ज़िंदगी होती है, अपनी सीमित दुनिया में, भरपूर अभद्रता से भरा हुआ समय का एक टुकड़ा।
तुम्हें लग रहा होगा कि ये भी दस्विदानिया के हीरो की ही तरह एक स्थगित प्रेम इज़हार है जो कि बीस साल बाद हो रहा है । मगर ऐसा नहीं है । हाँ ये सही है कि इसमें वो बीस साल पुराना प्रेम शामिल है, लेकिन, उसके अलावा भी बहुत कुछ है । अब मैं उसी बात पर आना चाह रहा हूँ । ये सब कुछ जो मैंने भूमिका में लिखा है ये केवल इसलिये ताकि तुम दोनों उस माहौल में पहुँच जाओ जो उस समय का माहौल था । क्योंकि, सब कुछ जानने के लिये उस समय के माहौल में होना बहुत ज़रूरी है । बिना माहौल के कुछ समझ में नहीं आयेगा । काश, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा के उन दोस्तों की तरह हम सब भी मिलते और सारी बातों पर चर्चा करते। सारी बातों पर। मगर वो हो नहीं सकता है इसलिये ही ये लम्बी भूमिका लिखी है ।
रसायन शास्त्र की वो लैब धीरे धीरे हम में घुलने लगी थी । एच टू एस की वो सड़े अंडे समान गंध कितनी अपनी सी लगने लगी थी हमें । हम सारे उसी गंध के बीच बैठ कर समोसे की, कचौरियों की पार्टी करते । अपने साथ लैब असिस्टेंट को भी शामिल कर लेते । प्रेक्टिकल परीक्षा में तो यही लैब असिस्टेंट काम आता था, जो चुपके से बता जाता था कि कौन सी पुड़िया में कौन सा केमिकल रखा गया है । उन्हीें सब के बीच मेरे दिल में कुछ चीजें और बढ़ने लगी थीं । जब तुम परखनली में नाइट्रेट का ब्राउन रिंग टेस्ट लगातीं तो ऐसा लगता कि परखनली में नहीं बल्कि मेरे दिल में एक भूरा वलय बन रहा है । भूरा वलय जो गाढ़ा होने लगता । इधर तुम कॉपी में नाइट्रेट का कन्फर्मेशन लिखतीं और इधर दिल में बन रहा भूरा वलय प्रेम का कन्फर्मेशन कर देता । प्रेम का और नाइट्रेट का परीक्षण मुझे हमेशा से एक सा ही लगता है । वहाँ परखनली में भूरा वलय बनता है यहाँ दिल में । वहाँ भी परखनली के किनारे किनारे धीरे धीरे केमिकल डाला जाता है और यहाँ भी । वहाँ भी दोनों केमिकलों के संधि स्थल पर भूरा वलय बनता है और यहाँ भी । बस अंतर ये होता था कि उस भूरे वलय को तुम देख लेती थीं और इस भूरे वलय को तुम मेरी सारी कोशिशों के बाद भी देख नहीं पा रही थीं। उसके होने का एहसास तक नहीं कर पा रहीं थीं ।
याद होगा एक बार हम सब बारिश में फँस गये थे । बारिश इतनी तेज़ हो रही थी कि हम कॉलेज से घर नहीं जा पा रहे थे । उस दिन दो घंटे तक हमने लैब में ही महफिल जमाई थी । तुम सब लोगों के बहुत कहने पर मैंने एक गाना गाया था, चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था । मुझे लगा था कि ये गाना सुन कर तुम समझ जाओगी कि ये गाना मैं तुम्हारे लिये ही गा रहा हूँ । लेकिन तुम तो थीं नब्बे के दशक की एक छोटे से क़स्बे की लड़की, तुमको कहाँ पल्ले पड़ता था ये सब । मुझे याद है कि इक सूरत भोली भाली है दो नैना सीधे सादे हैं, अंतरे को गाते समय तुमसे मेरी नज़रें काफी देर तक के लिये मिली थीं । तुम अपनी चिर परिचित मुद्रा में हथेली पर ठोड़ी टिकाये मुस्कुरा रही थीं । तुम्हारी मुस्कुराहट से मुझे लगा था कि मेरा काम हो गया है । मगर कुछ नहीं हुआ ।
पीजी का पहला साल गाने गाते, समोसे उड़ाते बीत गया । समय आगे खिसक रहा था और मैं तुमसे कह नहीं पा रहा था। जो कुछ मैं बिना कहे समझाना चाह रहा था वो तुम समझ नहीं रही थीं । कितनी गधी थीं तुम । पहले मैं समझता था कि तुम जान बूझ कर सब कुछ समझते हुए भी अन्जान बनी हुई हो । मगर नहीं तुम तो सचमुच ही निरी मूर्ख थीं । यदि फ्रेण्डशिप की कहूँ तो हम सब में ही बहुत मज़बूत दोस्ती हो गई थी। जो जाहिर सी बात है तुम्हारे और मेरे बीच में भी थी । मगर वो वैसी ही थी जैसी तुम्हारी धनंजय और राजेश के साथ भी थी । मतलब ये कि मेरे हिस्से में कुछ अधिक नहीं आ रहा था ।
***