निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 38 Anandvardhan Ojha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 38

'विषाद की छाया में, जब सच हुआ स्वप्नादेश'…

पिताजी की शारीरिक अक्षमता बढ़ती जा रही थी, हमारा सारा ध्यान उन्हीं की परिचर्या में लगा हुआ था, दो श्वेतवत्रधारियों का चिंतन करने का अवकाश भी कहाँ था? पिताजी की शोचनीय दशा की ख़बर पाकर स्थानीय और दूर-दराज़ के परिजन घर आने लगे थे। मेरी सासुमाँ और श्वसुर मध्यप्रदेश से आये थे। घर भरा हुआ था। पिताजी आगंतुकों को पूरे आत्मविश्श्वास से बताते कि साधना की नियुक्ति केंद्रीय विद्यालय में हो गई है और आगंतुक साधनाजी को बधाइयाँ देने उनके पास पहुँच जाते। साधनाजी क्षुब्ध और निरीह हो जातीं; उन्हें कहतीं कि बाबूजी को भ्रम हुआ है, ऐसा कुछ हुआ नहीं है; लेकिन यह सिलसिला तो चलता ही रहा। पिताजी बार-बार मुझसे पूछते कि मैं साधनाजी के लिए साड़ियाँ खरीद लाया या नहीं? मैं उन्हें कहता कि आप स्वस्थ हो जाएँ, फिर मैं साड़ियाँ भी ले आऊँगा उनके लिए। कहने का तात्पर्य यह कि पिताजी ने अपनी कही बात का दृढ़ निश्चय मन में बद्धमूल कर रखा था और उसे बीमारी की शोचनीय दशा में भी बार-बार दुहराते जा रहे थे।...

जिन्होंने जीवन-भर अंग्रेज़ी दवाओं से परहेज किया था, उनके शरीर में वे ही दवाएं भरी जाने लगी थीं। डॉक्टर, औषधि, इलाज, परीक्षणों का दौर चल रहा था। इन एलोपैथिक औषधियों को त्याज्य माननेवाले पूज्य पिता पर उनका दुष्प्रभाव ही होना था। तभी, एक दिन अचानक पिताजी ट्रांस में चले गए और असम्बद्ध बातें बोलने लगे; लेकिन साहित्य-संसार और युवावस्था तक सेवित इलाहाबाद से जुड़ी बातें! मेरे मन-प्राण की शक्ति चुक रही थी, वह पत्ते-सा काँप रहा था--पिताजी ७६ घंटे से जाग रहे थे और निरंतर कुछ-न-कुछ बोलते जा रहे थे। कभी कवि-सम्मेलनों का आयोजन करते और दिग्गज रचनाकारों को काव्य-पाठ के लिए आमंत्रित करते। कभी अपने बचपन के दिनों की याद करते और कभी अपने मित्रों से बातें करने लगते। मैं उनकी छाया बना उनके आसपास ही रहता और मूक-दर्शक बना, सिर धुनता...!

पूरे छिहत्तर घंटे बाद पिताजी ट्रांस से बाहर आये। उन्होंने मुझे आवाज़ दी। तिथि तो ठीक-ठीक स्मरण में नहीं रही, लेकिन वह भी सुबह का ही समय था, तकरीबन आठ-साढ़े आठ का। मुँहअँधेरे थोड़ी बारिश हुई थी। मिट्टी के भीगने की सोंधी महक सर्वत्र फैली हुई थी। मैं उनके सिरहाने जा खड़ा हुआ, बोला कुछ नहीं। मुझे देखते ही उन्होंने कहा--'बाहर बारिश हुई है क्या?'
यह सुनते ही मेरी जान में जान आयी, मैं आश्वस्त हुआ कि पिताजी की चेतना लौट आयी है और इतने घंटों तक ट्रांस में रहने का कोई दुष्प्रभाव उनके मस्तिष्क पर नहीं पड़ा है। मैंने हामी भरी, तो पिताजी बोले--"जानते हो, 'इलाहाबादवाली भाभी' आयी थीं। विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ, मैं निद्राभिभूत नहीं था। ब्राह्ममुहूर्त के ठीक पहले वह सचमुच आयी थीं।"
अपने पायताने छत की ओर इशारा करते हुए उन्होंने अपनी बात जारी रखी--"सस्मित दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में थीं। केश खुले थे, श्वेत साड़ी में थीं। मैंने उनसे कहा--'मैं इतनी तकलीफ में हूँ और तुम मुस्कुरा रही हो?' भाभी इलाहाबादी में बोलीं--'ई तकलीफ़ो कौन रही! ... हम इधर से जात रही तो सोचा तोंसे मिल लेई!" ....

मैं, मेरा परिवार ही नहीं, हिंदी-साहित्य पढ़ने-लिखनेवाला सुधी-समाज भी जानता है कि जब पिताजी 'इलाहाबादवाली भाभी' का नामोल्लेख करते थे, तो उनका अभिप्राय कविवर बच्चनजी की प्रथम पत्नी पूजनीया श्यामाजी से होता था। सन् १९३६ में ही उनका देहावसान हो गया था, लेकिन साठ वर्षों की दीर्घावधि में उनकी आत्मा ने चार बार पिताजी के गाढ़े वक़्त में परालोक से आकर हस्तक्षेप किया था, उनकी सहायता की थी, सांत्वना दी थी। 'मरणोत्तर जीवन' नामक आलेख में ऐसी तीन घटनाओं की पिताजी ने विस्तार से चर्चा की है। इस अंतिम हस्तक्षेप के बारे में कुछ लिखने का मौक़ा उन्हें क्रूर काल ने नहीं दिया था। ...

बहरहाल, पिताजी से यह वृत्तान्त सुनकर मैं आश्वस्त हुआ था कि अब उनकी तकलीफें दूर हो जायेंगी और वह पहले की तरह स्वस्थ-प्रकृतिस्थ हो जायेंगे। तब मोही मन यह सोच भी न सका था कि जब शरीर ही न रहेगा, तो तकलीफें भी न रहेंगी।...

६ नवम्बर की सुबह पधारे दो श्वेतवस्त्रधारियों की कथा के बाद, परालोक से हस्तक्षेप की यह दूसरी कथा थी, जो पिताजी ने रुग्णावस्था में मुझे सुनाई थी। हम सभी हतचेत, संज्ञा-शून्य और विस्मित हो रहे थे। इसके बाद, प्रभु-कृपा की याचना करते दस दिन और बीत गए थे।

फिर आ पहुँचा १६ नवम्बर, १९९५ का दिन। वह मेरे विवाह की वर्षगांठ का दिन भी था। लेकिन मन-प्राण और हमारी समस्त चेतना पिताजी की चिंता में लगी थी।...

शाम हुई, चार बज रहे होंगे, मैं रात्रि-जागरण से क्लांत, भोजन के बाद थोड़े विश्राम के लिए लेटा ही था कि मेरी आँख लग गयी। तभी डाक से एक राजिस्टर्ड पत्र आया। मेरी श्रीमतीजी ने लिफ़ाफ़ा देखा और प्रेषक के नियत स्थान पर यह पढ़कर कि वह भुवनेश्वर से आया है, रोमांचित हो उठीं। उन्होंने मेरे पास आकर मुझे जगाया तो मैंने खीझकर कहा कि 'थोड़ा सो लेने दो भई!' वह मन की उत्सुकता पर अंकुश लगा न सकीं, बगल के कमरे में बैठे अपने पिताजी के पास गयीं और उन्हें लिफ़ाफ़ा देते हुए बोलीं--'देखिये न पापाजी, क्या है इसमें?'
उनके पापाजी ने लिफ़ाफ़ा खोला, पढ़ा और घर में तहलका मच गया--वह साधनाजी का नियुक्ति-पत्र था, जिसके अनुसार उड़ीसा संभाग के केंद्रीय विद्यालय में उन्हें प्रशिक्षित शिक्षिका (हिंदी) के रूप में पदभार ग्रहण करना था।
नियुक्ति-पत्र तो पढ़ा गया, लेकिन देर शाम को जब उसे पूरे मनोयोग से दुबारा देखा-पढ़ा गया तो यह जानकर हम सभी सिहर उठे कि पत्र के शीर्ष पर ६ नवम्बर तिथि पड़ी हुई थी। यह वही तिथि थी, जिस दिन ब्राह्म-मुहूर्त में दो श्वेतवस्त्रधारियों ने पिताजी को इस नियुक्ति की अग्रिम सूचना दी थी। फिर तो घर-भर में अफ़रा-तफ़री मच गयी। हम सभी भागे-भागे पिताजी के कक्ष में गए, उन्हें यह सुसंवाद सुनाया। उन्होंने मुस्कुराते हुए पूरी आश्वस्ति के भाव से कहा था--'मुझे क्या बताते हो? मैंने तो उसी दिन कह दिया था।'
श्वेतवस्त्रधारियों का कथन यथारूप सत्य सिद्ध हुआ था और पूरा घर और सभी आगन्तुक हैरत में थे।

शाम ५ बजे के आसपास मेरे ममेरे बड़े भाई अभयशंकर पराशर पिताजी को देखने घर आये। उन्हें भी नियुक्ति का समाचार मिला तो वह बाहर जाकर मिठाइयाँ ले आये और साधनाजी से बोले--'इतनी प्रसन्नता की खबर आयी है, घर में मिष्टान्न तो आना ही चाहिए। जाओ, ठाकुरजी को भोग लगाकर सबको प्रसाद दो!'
मुझे अच्छी तरह स्मरण है, मिष्टान्न-प्रेमी पिताजी ने प्रसाद (मिष्टान) का वही अंतिम ग्रास ग्रहण किया था।

उस दिन जग्गनियन्ता की यह प्रवंचना कुछ समझ न आई। जीवन में ऐसे अवसर कम ही आते हैं, जब एक ओर विषाद की गहरी छाया हो और दूसरी ओर स्तंभित प्रसन्नता ! ६ नवम्बर की सुबह पिताजी को दिया गया दो श्वेतवस्त्रधारियों का स्वप्नादेश सत्य होकर साकार खड़ा था और हम सभी मुमूर्षुवत हतप्रभ, स्थिर-जड़ थे। वे दोनों श्वेतवस्त्रधारी तो अपने दिव्यलोक को चले गए थे और दे गए थे हमें हर्ष-विषाद की मिश्रित सौगात। उस दिन विषाद और हर्ष को हमलोगों ने एक-दूसरे के ठीक सामने खड़ा देखा था--परस्पर घूरते हुए !....

(क्रमशः)