निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 35 Anandvardhan Ojha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 35

वह आ पहुँची फिर एक बार…]

श्रीमतीजी का हाल यह था कि वह अब मुझसे ही परहेज करने (डरने) लगी थीं। यह मेरे लिए असहनीय स्थिति थी। वह प्रायः मुझसे पूछतीं--'क्यों, आप अकेले ही हैं न? कोई आपके साथ, आपके पास, आप में तो नहीं ?' उनके ये प्रश्न मुझे निरीह बना देते ! लेकिन यह सब मुझे सहना था--उनकी अति-चिंता भी, उनका तिरस्कार भी। और, मेरे दुर्भाग्य से और दैव-योग से उन्हें सहना था मुझ निर्दोष, अकिंचन का दिया हुआ अकूत भय...! सच तो यह था कि तब इतना धीरोदात्त मैं भी कहाँ था?...

जीवन में इसी तरह का हस्तक्षेप और उत्पात चलता रहा, कुछ-न-कुछ खटपट होती रही और मैं किसी अवसर का कोना-अँतरा ढूँढ़ता रहा। लेकिन ऐसा एक अवसर बहुत विलम्ब से मुझे मिला--प्रायः सात-आठ महीने बाद।

वे संभवतः १९८५ के जाड़ों के अंतिम दिन थे--शायद फ़रवरी का महीना! एक मित्र संकट में पड़ गए थे, मुझसे मदद चाहते थे। उनकी पत्नी दुविधाग्रस्त-अस्थिर मानसिकता की शिकार थीं। मेरे मित्र यह मानते थे कि उन पर किसी ऊपरी ताक़त का असर हुआ है, कोई साया उन पर सवार है। मुझसे इतना भर चाहते थे कि मैं परा-जगत् में प्रवेश कर इस समस्या का मूल कारण जानूँ और यदि संभव हो तो बाधा-निवारण का कोई उपाय तलाश करूँ! मैंने उनसे कहा कि पहले किसी चिकित्सक का परामर्श लेना उचित होगा, सीधे इस निष्कर्ष पर आ जाना ठीक नहीं कि उनके मानसिक उद्वेलन का कारण किसी ऊपरी शक्ति का प्रभाव ही है। मित्र महोदय ने एक सिरे से मेरा कहा एक किनारे कर दिया। कहने लगे कि वह डॉक्टर-वैद्य का इलाज करके हार चुके हैं। मित्र से उनकी श्रीमतीजी का पूरा हाल जानकार मैंने उनके घर एक दिन प्लेंचेट करना तय किया। लेकिन उन्होंने कहा कि उनके घर में श्रीमती के रहते यह संभव ही नहीं है। उन्होंने ही एक अन्य मित्र के घर प्लेंचेट करने का मुझे सुझाव दिया। वे हम दोनों के मित्र थे, संपन्न परिवार के थे, उनका तिमंजिला मकान था और ऊपरी माले पर बना शांत-एकांत एक कमरा अतिथि-कक्ष के रूप में सुरक्षित था।

संयोग से उसी महीने में पिताजी वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के मुद्रण के लिए वाराणसी जानेवाले थे। मैंने अपने मित्र से कहा कि पिताजी के वाराणसी जाने के बाद किसी दिन पूरी तैयारी से आता हूँ तुम्हारे घर। लेकिन मित्र तो चेतक पर सवार थे, चाहते थे, शीघ्रातिशीघ्र प्रयत्न किये जाएँ। मैने उन्हें बहुत समझा-बुझाकर विदा किया। जाते-जाते वह कह गए कि जिन मित्र के घर परा-संपर्क का यत्न करना है, उनसे बातें करके वह सबकुछ सुनिश्चित कर लेंगे और तदनुसार मुझे सूचित करेंगे। दो-तीन दिनों बाद ही उन्होंने सूचित किया कि इस अनुष्ठान के लिए अमुक मित्र सहर्ष तैयार हैं और तुम जब, जिस दिन का कार्यक्रम बनाओ, मैं भी उनके घर पहुँच जाऊँगा। सबकुछ नियत हो गया था और अब मुझे उचित अवसर की प्रतीक्षा थी।

कुछ दिन और बीते। पिताजी वाराणसी-प्रवास पर गये। संयोग बन गया था। मैंने मित्रवर को सूचित किया कि अमुक तारीख़ की रात उनके घर आ रहा हूँ। भयप्रद रातें, विचित्र अनुभूतियाँ और डरावनी आकृतियों के दर्शन से आक्रान्त तो मैं था ही, मेरी श्रीमतीजी भी उद्विग्न-अस्थिर हो उठी थीं। मैंने निश्चय किया कि अब समय आ गया है कि इन समस्याओं के निवारण का मार्ग ढूंढ़ा जाए।

मैं यथानिश्चय मित्रवर के घर पहुंचा--शाम के वक़्त। उन्होंने अपनी पिछली पीढ़ी के एक दिवंगत बुज़ुर्ग का चित्र चुपके-से मुझे दिया और कहा--'मेरी श्रीमतीजी को कोई शंका न हो, इसलिए तुम उसी मित्र के घर चले जाओ। मैंने उससे बात कर ली है। मैं रात का खाना खाकर १०-१०.३० तक वहाँ आ जाऊँगा।'

मैं दूसरे मित्र के घर पहुंचा, जिनका मकान उसी गली के दूसरे छोर पर था--उनके तिमंजिले मकान के ऊपरी तल के एकांत कमरे में। बंधुवर पहले से ही सजग-सावधान थे। उनके घर में किसी को भी इस बात की हवा नहीं लगी थी कि आज की रात वहाँ मेरी ओझागिरी होनेवाली है। कमरे में मेरे साथ सिर्फ मेरे वही मित्र थे और हम दोनों उनकी प्रतीक्षा करने लगे, जिनकी श्रीमतीजी के कष्ट-निवारण के लिए यह सारा इंतज़ाम किया गया था। लेकिन ११.३० बज गए और वह तो आये ही नहीं। संभवतः वह पत्नी-बाधा से ग्रस्त हो गए थे।...

बहरहाल, हम दोनों ने बारह बजने की और मित्र महोदय के आ जाने की बेसब्र प्रतीक्षा की--यह बेसब्री मित्रवर को अधिक बेचैन कर रही थी। वह मुझसे बार-बार कह रहे थे--'बताओ, जिसके लिए यह सारा प्रबंध किया है, वही नदारद है, अजीब बात है!'
मैंने उन्हें समझाया--'कोई बात नहीं, उसकी उपस्थिति उसके संतोष के लिए ही थी, लेकिन लगता है, वह किसी विवशता के कारण आने में असमर्थ हो गया है। हमें उसकी समस्या का पता है और हम उसकी अनुपस्थिति में भी यह प्रयोग तो कर ही सकते हैं और उनकी समस्या के कारणों का पता लगा सकते हैं। अब उसकी चिंता छोड़ दो !'

बारह बजने के पहले ही हमने वहाँ विधि-व्यवस्था जमा ली थी। मित्र महोदय ने जो चित्र मुझे दिया था और जिनका मुझे आह्वान करना था, बारह बजते ही मैंने उन्हें पुकारना शुरू किया; लेकिन मेरी पुकार व्यर्थ गई। किसी आत्मा ने मेरी चेतना के द्वार पर दस्तक नहीं दी। अपनी कई-कई पुकार को बेअसर होता देख मैं उद्विग्न होने लगा था। मित्रवर भी प्रश्नवाचक मुद्रा में मेरी शक्ल पर अपनी तीखी नज़रों से प्रहार कर रहे थे। हार-थककर मैंने हथियार डाल दिए। मित्र से कहा--'थोड़ा ठहरना होगा भाई!'

पास पड़ी एक चौकी पर मैं लेट गया और सोचने लगा--क्या मेरी शक्तियां क्षीण हो गयी हैं? क्या मेरी एकाग्रता अब पहले-सी पैनी नहीं रह गयी? क्या लम्बे अंतराल ने मुझे पराजगत् में प्रवेश का अधिकारी नहीं रहने दिया? चंचल मन की विचित्र दशा थी, वह बेलगाम और अनियंत्रित तुरंग-सा दस दिशाओं में दौड़ रहा था। मेरी दुश्चिंताओं में मित्रवर अपने आतुर प्रश्नों से बार-बार विक्षेप कर रहे थे। एक-डेढ़ घंटे का वक़्त बिताकर मैं पुनः दत्तचित्त होकर आसान पर विराजमान हुआ, अपनी सम्पूर्ण प्राण-चेतना को समेटकर परा में पुकार भेजने लगा। डेढ़-दो का वक़्त रहा होगा, सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य था। पुकार पर पुकार जाती और निरुत्तरित लौटती रही। अब मेरी और मित्रवर की सहनशीलता जवाब देने लगी थी। मित्र ने खीझकर पूछा--'क्या हुआ यार, कोई आता क्यों नहीं?'
मैंने ठंढे स्वर में कहा--'मैं जिन्हें बुला रहा हूँ, संभव है, उनकी आने की इच्छा न हो। लम्बे समय के बाद यह संधान कर रहा हूँ, संभव है, मेरी पुकार में अब वह असर न रहा हो! और क्या कहूँ?'
मित्र ने आजिजी से कहा--'तो किसी और को बुलाओ न, तुम्हारे तो जाने कितने हमदर्द हैं उस लोक में !'
मैंने कहा--'कोशिश करता हूँ।'
मैंने बारहाँ कोशिश की, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। मैंने हतोत्साहित होकर मित्र से कहा--'लगता है, आज सुयोग नहीं है, बात बनेगी नहीं। हमें यह प्रयत्न रोक देना चाहिए। मैं तो अब सो जाना ही श्रेयस्कर समझता हूँ।'
मित्र को बेहद निराशा हुई। उन्होंने मान रखा था कि आज हम दोनों मिलकर उस मित्र की समस्या का निवारण कर लेंगे और कुछ ही दिनों में उसका सुफल हमारे मित्र को दीखने लगेगा। मेरी बात सुनकर वह घोर निराशा में डूबे और बोले--'फिर क्या होगा यार ?'
मैंने कहा--'निराश होने से क्या लाभ? सबकुछ मेरे हाथ में तो नहीं? मैं जितनी कोशिश कर सकता था, कर चुका। फिर किसी दिन प्रयत्न करूँगा, तुम निराश मत होओ भाई!'

निराशा उन्हें ही क्या, मुझे भी हुई थी, लेकिन आत्मा का उपस्थित होना तो उसी की मर्ज़ी पर निर्भर था। मैं आसन से उठकर चौकी पर लेट गया। मैंने मित्र से आग्रह किया कि वह भी मेरे साथ लेटकर सोने का यत्न करें, लेकिन वह क्षोभ से भर उठे थे, दुखी भाव से बोले--'मैं नीचे जाता हूँ, हम दोनों को इसी एक चौकी पर असुविधा होगी। तुम यहाँ आराम करो। सुबह मिलता हूँ।'
इतना कहकर मित्रवर निचले माले पर चले गए। मैं एक पतली चादर ओढ़कर सोने की चेष्टा करने लगा, लेकिन आँखों में नींद कहाँ थी! मन में अपनी पराजय का क्षोभ था और मित्र की निराशा मुझे बहुत उद्विग्न कर रही थी। दस-पंद्रह मिनट ही बीते होंगे कि निद्रादेवी ने कब मुझ पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया, पता ही नहीं चला।

कह नहीं सकता सोते हुए कितना वक़्त बीता होगा, अचानक मेरी नींद खुल गई। ऐसा लगा कि श्वेतवसना एक अपरूप युवती मेरे बगल में लेटी है, उसी ने झकझोर कर मुझे जगाया है और किञ्चित् क्रुद्ध स्वर में मुझसे कहा है--"मैं आई हूँ द्वार तुम्हारे, सोते ही रहोगे क्या? उठो न, बातें करो मुझसे....!" मैं हतप्रभ-सा चौंककर उठ बैठा था। कमरे में जल रहे नाइट बल्ब की मद्धिम रोशनी में मैं फटी आँखों से अपनी चौकी और कमरे को घूरने लगा, यह समझ पाने के लिए कि मैं कहाँ हूँ!
यह रुष्ट आमंत्रण जैसे ही मेरी समझ में आया, मैंने ओढ़ी हुई चादर एक ओर फेंकी और हठात् उठा खड़ा हुआ। कमरे का ट्यूब जलाया, मुंह पर पानी के छींटे मारे और प्लेंचेट के आसान पर अकेले जा बैठा। यह चकित करनेवाली विचित्र प्रतीति और स्पष्ट पुकार सुनकर मुझे जाने क्यों पक्का विश्वास-सा हुआ कि वह चालीस दुकानवाली आत्मा की ही आतुर पुकार थी। मैंने अगरबत्तियां जलायीं और ध्यानस्थ हुआ।....
(क्रमशः)