उस रात वह मेरे पास थीं…उस रात की परा-वार्ता के बाद शर्माजी तो अलभ्य हो गए! मैं चिंता में पड़ा रहा कि आख़िर हुआ क्या! आत्मा से मिली सूचनाएँ सत्य सिद्ध हुईं या....? पंद्रह दिनों की प्रतीक्षा के बाद मैंने फ़ोन किया तो किसी ने फ़ोन उठाया नहीं। प्रतीक्षा और व्यग्रता बढ़ती गई। एक दिन पिताजी ने भी जिज्ञासा की--'भई, तुम्हारे शर्माजी तो गायब ही हो गए। उन्होंने यह भी बताना ज़रूरी नहीं समझा कि उनकी समस्या सुलझी कि नहीं! बातचीत से तो भले आदमी लगे थे, उन्हें स्वयं तुम्हें सारी बात बतानी चाहिए थी।'
मैंने पिताजी से कहा कि 'मैंने उन्हें फोन भी किया था, लेकिन घर पर किसी ने फ़ोन पिक नहीं किया।'
बात आई-गयी, हो गयी और दिन बीतते गए। लेकिन मेरे मन में कहीं उनकी फिक्र बसी रही। एक-डेढ़ महीने बाद मैंने उन्हें फिर फोन किया और फिर निराश हुआ। अब मुआमला अधिक चिंताजनक लगने लगा। एक ही उपाय मेरे पास बचा था कि उनके घर चला जाऊँ और पता कर आऊँ कि माज़रा क्या है। लेकिन सप्ताह की छह दिनों की दौड़ का आदमी किसी काम का रहता नहीं सातवें दिन! मैं उनके घर जाने का विचार ही करता रह गया, जा नहीं सका।
जैसा स्मरण है, बिना किसी पूर्व-सूचना के अचानक, ढाई-तीन महीने बाद, रविवार के दिन सुबह नौ बजे के आसपास शर्माजी अपने पुत्र के साथ मेरे घर पधारे। मैंने ही द्वार खोला और उन्हें सामने देखकर कुछ कह पाता, इसके पहले ही उन्होंने आगे बढ़कर मुझे गले से लगा लिया, पीठ पर थपकियाँ दीं, सिर पर हाथ फिराया और बोल पड़े--'मुझे पिताजी के पास ले चलिए!' मैं उन्हें पिताजी के कक्ष में ले गया। शर्माजी तेजी से आगे बढ़े और पिताजी का चरण-स्पर्श करके कहने लगे--'आपका आशीर्वाद चाहिए। बेटी का विवाह संपन्न करके विदेश से लौटा हूँ।' यह कहकर वह अपने पुत्र की ओर मुखातिब हुए और उसके हाथो से मिठाइयों के दो बड़े-बड़े डब्बे लेकर उन्होंने पिताजी के सामने रख दिए।
पिताजी ने कहा--'आपकी ओर से कोई खबर नहीं मिलने से आनंदजी तो फिक्रमंद थे ही, मैं भी चिंता में था। चलिए, आज वह चिंता मिटी। आप बेटी का विवाह संपन्न कर आये हैं, यह प्रसन्नता की बात है।'
शर्माजी स-पुत्र जब व्यवस्थित हो बैठ गए, तब बातों का सिलसिला चल पड़ा। उस दिन वे डेढ़-दो घण्टे बैठे थे। उन्होंने विस्तार से जो कुछ बताया, वह यह था कि 'ब्रेन हैमरेज' के कारण उनकी पत्नी हतचेत हो गयी थीं और पंद्रह दिनों की चिकित्सा के दौरान अस्पताल में ही, संज्ञा-शून्य दशा में, उनका निधन हुआ था। प्रभु ने उन्हें एक शब्द भी बोलने या कुछ कहने का अवकाश नहीं दिया था। वह उनके घर की धुरी थीं। महत्त्व के कागज़-पत्तर उन्हीं की देख-सँभाल में रहते थे; क्योंकि शर्माजी तो अध्ययन-अध्यापन और विश्वविद्यालय की उत्तर-पुस्तिकाओं से ही घिरे रहते थे। अब किसे ज्ञात था कि श्रीमती शर्मा संसार से इस तरह अचानक विदा हो जायेंगी!
उस रात के प्लेंचेट के दो दिन बाद शर्माजी भागकर मेरठ के पास अपने गाँव गए थे। उनकी पत्नी की आत्मा ने जैसा कहा था, वे सारे महत्त्व के कागज़ात वहीं, उसी संदूक में उन्हें मिले थे। उनकी श्रीमतीजी का कथन अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ था।
उसके बाद बैंक की औचारिकताएँ पूरी करने में और वीज़ा लेने की दौड़ में उन्हें लग जाना पड़ा था। लड़केवालों की ज़िद थी कि बेटी का विवाह शर्माजी वहीं आकर करें, शेष सारा प्रबंध लड़केवाले कर रखेंगे। उन्हें लड़केवालों की बात माननी पड़ी थी। विवाह सानंद समपन्न हुआ था।
ये पूरा विवरण सुनाकर शर्माजी ने कहा था--"विवाह के समस्त कार्य-कलाप और विधि-विधान के दौरान मुझे श्रीमतीजी की उपस्थिति का बोध होता रहा, लेकिन इसे मेरी कल्पना भी माना जा सकता है; क्योंकि उनकी आत्मा ने ऐसा कहा था कि विवाह के समय वह हर पल साथ रहेंगी। सम्भव है, उनके कथन का मनोवैज्ञानिक प्रभाव मुझ पर रहा हो, लेकिन बेटी की विदाई के बाद रात में जब मैं सोने के लिए गया, तो अजीब वाक़या हुआ। बेटी की विदाई से मन विकल-विह्वल था, नींद नहीं आ रही थी, आ रहे थे आँसू और मैं करवटें बदल रहा था। मैं नहीं जानता, कब शरीर अलस गया, कब झपकी-सी आयी और क्षण-भर में अनहोनी हो गयी, अकल्पनीय घटित हुआ। मैंने स्पष्ट देखा, वह मेरे सिरहाने बैठी हैं, उनका दायाँ हाथ मेरे सिर है और बड़े नेह से, मुझे समझाते हुए, वह कह रही हैं--'यह विकलता क्यों? तुम जानते तो थे, एक दिन जायेगी वह अपने घर ! फिर...?'
मेरे मुंह से सहसा निकल गया--'हाँ, जानता था, लेकिन यह नहीं पता था कि उसके पहले तुम ही....!'
'जानते हैं बाबूजी! मैं पसीने-पसीने हुआ, चौंककर उठ बैठा था उसी क्षण! मुझे पक्का विश्वास है, मैंने अपना ही कथन साफ़-साफ़ सुना था--'उसके पहले तुम ही...!"
पिताजी को चकित करने के लिए शर्माजी का यह कथन काफी था। यह सारा वृत्तांत सुनाते हुए शर्माजी कई बार रुआँसे हो आए थे, कई बार उनकी आँखें नम हुई थीं और कई बार विह्वलता के आधिक्य से उनका कण्ठ अवरुद्ध हुआ था। लेकिन उपर्युक्त वाक्य के बाद एक शब्द भी बोल पाने की स्थिति में वह नहीं रह गए थे, बिलखकर रो पड़े थे। पिताजी ने, मैंने और शर्माजी के सुपुत्र ने उन्हें संभाला था, ढाढ़स बँधाया था।... हमने उनके विश्वास को सबल किया था कि उस रात श्रीमती शर्मा उन्हीं के पास थीं !....
जाते-जाते शर्माजी ने मुझे बार-बार आशीर्वाद और धन्यवाद दिया, पिताजी के कई बार चरण छुए और कृतज्ञ भाव से इतने नतशिर रहे कि मुझे ही उजलत होने लगी थी। जब तक मैं दिल्ली में रहा (१९७९ के अंत तक), शर्माजी से सम्पर्क बना रहा। दस-पन्द्रह दिन होते-न-होते उनका फोन आ जाता और कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान हो जाता। दिल्ली छोड़ने के पहले जब मैंने उन्हें फ़ोन किया था, तो किंचित् भावुक होते हुए उन्होंने मुझसे कहा था--'लीजिये, एक आप ही का तो आसरा था और आप ही दिल्ली छोड़े जा रहे हैं! फिर आपकी सहायता की मुझे जाने कब जरूरत पड़ जाये, संपर्क बनाये रखियेगा।'
मैंने सहज भाव से कहा था--'आपकी समस्या का समाधान तो हो ही गया है, अब मेरी जरूरत क्यों होने लगी...?'
शर्माजी ने भावुक होकर कहा था--'आनंदजी! दो वर्ष हो गये, श्रीमतीजी ने फिर कभी मेरी सुधि नहीं ली। लगता है, वे अपनी ही दुनिया में व्यस्त हो गई हैं।...' उनके इस वाक्य में मारक पीड़ा-सी तड़प थी।...
दिल्ली छोड़ने के बाद शर्माजी से संपर्क-सम्बन्ध, शिथिल होते-होते, विच्छिन्न हो गया। काश, वह भी मोबाइल-युग रहा होता तो शर्माजी इस तरह दुनिया की भीड़ में मेरे लिए खो न गए होते।...
(क्रमशः)