जी-मेल एक्सप्रेस - 23 Alka Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जी-मेल एक्सप्रेस - 23

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

23. बड़े अधिकारियों की छोटी करतूतों का पर्दाफाश

घर पहुंचा तो विनीता ने देखते ही सवाल किया, “हमारे दफ्तर में आज दिन भर तुम्हारे दफ्तर की चर्चा होती रही।” उसकी आंखों में हैरानी से अधिक अविश्वास था।

“मुझे तो खुद यकीन नहीं हो रहा।” बिना पूरी जानकारी के, मैं पूर्णिमा के बारे में कोई राय नहीं देना चाहता था।

विनीता ने टीवी ऑन कर दिया और चैनल पर चैनल बदलने लगी।

तीन दिन पहले हुए पर्दाफाश के बाद कोई नई जानकारी इनके पास नहीं थी मगर चैनलों ने इस खबर से फैली सनसनी को बनाए रखा था। उन्हीं खबरों को अलग-अलग तरह से नया करके दिखाए जा रहे थे। कोई चैनल इसे ‘बड़े अधिकारियों की छोटी करतूतों का पर्दाफाश’ बता रहा था तो कोई ‘कमीशन की राशि न मिल पाने पर पुलिस का खुल्लमखुल्ला अत्याचार’ बता रहा था। सप्ताह भर समाचार से कटे होने के बावजूद मुझे ऐसा नहीं लग रहा था जैसे मैं किसी जानकारी से वंचित रह गया हूं। हर चैनल पुरानी जानकारी को और भी तफसील से दोहरा रहा था...

‘‘नौकरी देने का झांसा देकर बना देते थे जिगोलो...’’

‘‘महरौली का यह फार्म हाउस, यहीं सजती थी नौजवान लड़कों के जिस्म की मंडी...’’

‘‘यहीं चलता था जिस्मफरोशी का काला कारोबार...’’

‘‘बड़े पदों पर आसीन महिलाओं द्वारा चल रहा था अय्याशी का खेल...’’

हर चैनल पर जिगोलोज का इतिहास और भविष्य बताया जा रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे देश-दुनिया में इस धंधे के अलावा कुछ हो ही नहीं रहा। अचानक ही ‘जिगोलो’ हमारी दिनचर्या का अहम हिस्सा बन गया है।

कोई चैनल ‘बाउंसर’ के नाम पर जिगोलो का कारोबार चला रहे किसी गैंग के बारे में बता रहा है तो कोई चैनल मुम्बई के ‘नाइट क्लबों’ में खुल्ल्मखुल्ला चल रही इस तरह की गतिविधियों की जानकारी दे रहा है। इन्होंने तो इस विषय पर एक डॉक्यूमेंटरी ही तैयार कर ली है। वे दिखा रहे हैं कि किस तरह नाइट क्लबों में आने वाली महिलाओं के बीच वे अपनी पहचान को गोपनीय ढंग से जाहिर करते हैं। चैनल ने लड़के की जीन्स की जेब से लटकते लाल रूमाल पर घेरा बनाकर बताया, ‘यह है जिगोलो की पहचान...’ फिर उस युवक के दाहिने हाथ में पहने लाल ब्रेसलेट पर गोला बना दिया, ‘इनसे की जाती है जिगोलो की पहचान।’

चैनल की जानकारी के मुताबिक मुम्बई में जूहू बीच जैसी कई जगहें हैं जहां इस तरह के व्यापार में लिप्त लड़के-लड़कियां बेधड़क अपनी पहचान बताते देखे जा सकते हैं।

मैं समझ नहीं पा रहा कि इस जानकारी के जरिये, ये जनता को आगाह कर रहे हैं या जिगोलो-सुलभ बना रहे हैं?

मैं लगातार चैनल बदल रहा था, मगर हर चैनल की चिंता एक ही थी जिसे वे अलग-अलग तरह से पेश कर रहे थे।

कमाल है, आज तो धार्मिक चैनल भी ऐसी ही बहस छेड़े बैठा था। कोई साध्वी महिला मन को नियंत्रण में रखने की जानकारी देते हुए मेडिटेशन करना बता रही थी।

किसी और चैनल पर कोई धुरंधर ऐसी स्त्रियों की मानसिकता के प्रति अपनी उदारतापूर्ण राय दे रहा था। उसके मंतव्य का सार समझाते हुए ऐंकर स्पष्ट कर रही थी कि ऐसी अधिकांश महिलाओं के भीतर उनके पति अथवा प्रेमियों द्वारा उपेक्षित रखे जाने की तड़प उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित करती है...

मुझे कोफ्त होती है, कैसी भाषा इस्तेमाल करते हैं मीडिया वाले! प्रेरित तो किसी नेक काम के लिए किया जाता है, ऐसे कामों के लिए तो ‘बढ़ावा’ शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दरअसल, बात शब्द की नहीं है, बदलते समय की बदलती भाषिक संरचनाओं की है। अगर कहा जाता है कि भाषा में संस्कृति की झलक होती है तो गलत थोड़े ही कहा जाता है। हमारी संस्कृति भी तो कितनी बदल चुकी है। अब तो जानकारी भी ऐसे दी जाती है जैसे उसकी मार्केटिंग की जा रही हो। मीडिया को ही ले लो, इनका उद्देश्य इस घटना के प्रति लोगों को जागरूक करना नहीं, सनसनी फैलाना है। देखते नहीं, कैसे एक ही सांस में सारी घटना बयान कर देना चाहते हैं कि कहीं उनसे पहले कोई दूसरा चैनल न उसे बोल दे। घटना से जुड़ी कोई क्लीपिंग्स दिखाते हैं तो दस बार ‘इक्सक्लूसिव’ की मोहर पीटते हैं। खबर से बड़ा तो इस बात का दावा होता है कि इस तरह की जानकारी देने वाला उनका ही पहला और एकमात्र चैनल है।

ऑफिस में अजब-सा सन्नाटा छाया रहता है आजकल। सब अपनी फाइलों में मुंह गड़ाए पता नहीं क्या करते रहते हैं। सोनिया की तो आवाज ही सुनाई देनी बंद हो गई है, गीतिका पहले से ही खामोश थी। हर कोई जैसे किसी अपराध-बोध से ग्रस्त मालूम पड़ता है। मैं अपना ध्यान कहीं और लगाना चाहता हूं, इस तरह की चुप्पी मुझे बेचैन कर रही है। सोचता हूं, कहीं जाऊं, किसी से मिल आऊं, कुछ बात करूं कि सहजता का अहसास हो। मगर कहां जाऊं? मेरा तो कहीं आना-जाना भी नहीं होता है। दोस्त भी हैं तो ऐसी घनिष्ठता नहीं है कि मैं उनसे मिलने उनकी सीट तक जाऊं। मैं भले ही कम बोलता हूं, मगर मेरे इर्द-गिर्द हो रही बातचीत के बीच श्रोता बने रहना भी कितना जरूरी है। संवादहीनता का यह सिलसिला तो मुझे बीमार कर देगा। तो फिर किससे बात करूं? क्या करूं?

अरे, यही तो सही समय है डायरी पढ़ने का। कोई व्यवधान नहीं, किसी काम की व्यस्तता नहीं।

उत्कट लालसा के साथ मैंने अपनी मेज की निचली ड्रॉअर खींची। हाथ भीतर तक जाकर खाली लौट आया।

अब तक कितनी ही बार इसी अंदाज में डायरी निकालकर पढ़ता रहा हूं, फिर आज ये आंख-मिचौनी कैसी?

मैंने पूरा ड्रॉअर खींच लिया। ऊपर के ड्रॉअर भी खींचकर खोल दिए, मगर डायरी की कोई झलक नहीं।

मैं भीतर तक बेचैन हो गया, कुछ हद तक विक्षिप्त भी...

ऐसा कैसे संभव है? मेरे ड्रॉअर को किसने खोला होगा? क्यों खोला होगा? मेरे पास किसी सवाल का कोई जवाब नहीं था। मैं कुछ पल को शून्य में खो गया। अब क्या करूं? किससे पूछूं?

लग रहा है जैसे मैंने अपना सब कुछ खो दिया है और भीतर तक खाली हो गया हूं... जैसे मेरा कोई बहुत आत्मीय अचानक गुमशुदा हो गया हो...

मैं क्वीना से मिलना चाहता हूं, उसकी डायरी पढ़ना चाहता हूं...

अपने आप से किसी बच्चे की तरह जिद कर रहा हूं।

किसी बड़े की तरह खुद को समझा भी रहा हूं कि इस डायरी की उपस्थिति मेरे लिए उस तरह से नहीं है, जैसी वह असल में है। मेरी आत्मीयता इस डायरी के साथ नहीं बल्कि अपने गढ़े हुए कुछ काल्पनिक पात्रों के साथ है। इसलिए अगर वह खो भी गई तो कोई बात नहीं, मेरे गढ़े पात्र मेरी दुनिया में मौजूद रहेंगे। वास्तविकता में उनका अस्तित्व कहां जो उनसे मिलना या बिछुड़ना हो?

मगर डायरी गई कहां?

वह खो कैसे सकती है?

भीतर का बच्चा पैर पटक रहा था।

मेरी कल्पना का हिस्सा होने के बावजूद, वह कोई तो होगा जिसके लिखे को मैंने विस्तार दिया था...

अगर उसे ऐसे ही खो जाना था तो वह मुझे मिली ही क्यों?

मैं खुद को समझा भी रहा था और समझने को तैयार भी नहीं था।

मैं खामख्वाह विचलित हो रहा हूं जैसे वह मुझे अब कभी नहीं मिलेगी, जबकि मैं ही उसे कहीं किसी और स्थान पर रखकर भूल गया होऊंगा...

खुद को आश्वस्त कर रहा था कि कुछ देर बाद दोबारा देखूंगा तो वह मुझे वहीं मिलेगी, जहां पहले मिला करती थी। शक की कोई गुंजाइश नहीं।

मैं कुछ देर इतमीनान के साथ आंखें मूंदकर बैठ गया।

अभी दो पल भी न बीते होंगे कि लगा, कोई मुझे हिला रहा है। मैंने धीरे से आंखें खोलीं तो देखा, चपरासी खड़ा था। मैं हड़बड़ाकर उठ बैठा।

‘‘साब बुला रहे हैं...’’

आदेश सुनाकर भी वह वहीं डटा था।

मन तो हुआ कि पूछूं कि हाथ पकड़कर लाने कहा है क्या?

ये चपरासी पता नहीं समझते क्या हैं अपने आप को!

मैं अपनी सीट से उठकर खड़ा हो गया।

वह भी मेरे पीछे-पीछे चल दिया।

उसे नजरअंदाज कर मैं धमेजा के कमरे में दाखिल हुआ। वहां कोई व्यक्ति पहले से मौजूद था, धमेजा ने जिससे सहमति जताते हुए मेरी ओर इशारा किया, ‘‘आप इन्हें ले जा सकते हैं।’’

वह व्यक्ति खड़ा हो गया और मेरे चलने का इंतजार करने लगा।

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था।

‘‘मिस्टर त्रिपाठी, इनका पूरा सहयोग कीजिएगा,’’ धमेजा ने मुझसे आंख मिलाए बिना कहा।

धमेजा के स्वर की औपचारिक तटस्थता मुझे चेतावनी-सी मालूम पड़ रही थी, जैसे मैं तो इसका पूरा सहयोग करूं, पर धमेजा मेरा कोई सहयोग नहीं करेगा।

खैर, नासमझी की स्थिति में मैं उसके पीछे-पीछे चल दिया। दरवाजा खोलकर बाहर निकला तो पाया चपरासी महोदय वहीं इंतजार कर रहे थे।

मैं अपने भीतर एक प्रकार का दबाव महसूस करने लगा था।

गलियारा पारकर वह व्यक्ति मुझे गेट नंबर दो की तरफ ले आया। गेट पर गाड़ी खड़ी थी।

उस व्यक्ति ने कड़ी नजर से मुझे गाड़ी में बैठ जाने का इशारा किया।

बैठने से पहले मैं उससे पूछना चाहता था-क्यों? कहां? मगर कानों में धमेजा की चेतावनी गूंज गई। मैं खामोशी से गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी की पिछली सीट पर पहलवान जैसा एक आदमी पहले से बैठा था, जैसे जरूरत पड़ी तो वह मुझे धर दबोचेगा।

मेरे बैठते ही गाड़ी रफ्तार से भागने लगी।

एकबारगी तो लगा, जैसे मेरा अपहरण हो गया है, मगर यह महसूस कर तसल्ली की कि मेरी आंखों पर पट्टी नहीं थी, न ही मेरे हाथ-पैर बांध रखे थे। मैंने बाहर देखने की कोशिश की, मगर कुछ भी समझ नहीं पाया।

(अगले अंक में जारी....)