जी-मेल एक्सप्रेस - 17 Alka Sinha द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जी-मेल एक्सप्रेस - 17

जी-मेल एक्सप्रेस

अलका सिन्हा

17. पीली फाइल

बाकी तो सब ठीक है, मगर क्वीना उसे सोता छोड़कर बाहर क्यों निकल आई? इस वक्त तो क्वीना को निकिता के साथ होना चाहिए था। उसे निकिता के उठने से पहले बढ़िया-सी चाय बनाकर उस नई सुबह में उसका स्वागत करना चाहिए था।

मैं ऐसा दृश्य गढ़ सकता था, मगर मेरी चेतना क्वीना की उदारता पर संदेह कैसे कर सकती थी? अगर ऐसा करने के बदले वह चुपके से वहां से निकल ही आई थी, तो भी, वह पलायन तो हरगिज नहीं हो सकता था।

जिस दिलेरी से क्वीना ने निकिता को उसकी जिंदगी के काले अध्याय से मुक्त कराने के लिए रात का एक-एक पहर बिताया था और खुद एक अवांछित चरित्र की भूमिका निभाने से भी परहेज नहीं किया, उस क्वीना की निष्ठा पर संदेह कैसे किया जा सकता है?

वह तो उसके खोए हुए आत्मविश्वास को वापस लाने के लिए पूरे प्राणपन से प्रयत्नशील थी, फिर वह उसे ऐसे वक्त पर अकेला कैसे छोड़ सकती थी?

यह भी तो हो सकता है कि क्वीना नहीं चाहती हो कि सोकर उठने के बाद निकिता जब एक तरोताजा सुबह के साथ नई जिंदगी की शुरुआत करे, तब किसी के सामने बेपरदा होने की ग्लानि भी उसकी खुशियों में साझा करे।

क्या पता वह चाहती हो कि रात का मंजर बीते वक्त के ख्वाब-सा दफ्न हो जाए जिसकी कोई परछाईं, कोई चिह्न आने वाले वक्त पर न बचा हो, और कि इस मनहूस वक्त का कोई चश्मदीद न हो जिस पर जाहिर हो जाने की शर्मिंदगी निकिता की नई जिंदगी की हिस्सेदार बने।

निश्चय ही क्वीना ने सोचा होगा कि अगली सुबह जब निकिता सोकर उठे तो वह हर तरह के दबाव से मुक्त हो और उसके भीतर किसी की नजर में बेपरदा होने की कसक भी न रहे।

सच्ची दोस्ती की मिसाल है क्वीना!

दफ्तर में अचानक बहुत काम आ गया है। काम उतना नहीं है जितना उससे पैदा होने वाला दबाव है। कोई आरटीआई है, जिसका जवाब तैयार करना है। जब से आरटीआई का चलन हुआ है, हर कोई थानेदार बना चला आता है। हर किसी के प्रति हमारी जवाबदेही है। अब नया काम तो क्या होगा, पहले गड़े मुरदे उखाड़ लो। हालांकि यह तो है कि आरटीआई आने से पक्षपात कुछ घटा है, फिर भी, प्रबंधन को जिन्हें उपकृत करना है, वे तो उसे उपकृत करते ही हैं। परेशानी तो हम जैसों को होती है जिन्हें पिछले वर्षों के आंकड़े खोदने पड़ते हैं और उनके कृत्य को वाजिब ठहराने के कारण तलाशने होते हैं। फिलहाल, पिछले वर्षों के डेटा तो मिल गए हैं, मगर चालू वर्ष की फाइल नहीं मिल रही जिसके कारण काम रुका पड़ा है। सारी फाइलें करीने से रखी हैं, बस वही फाइल नहीं मिल रही। मूवमेंट रजिस्टर में भी यह फाइल किसी के नाम मार्क नहीं है। पिछले दो दिनों से जूझ रहा हूं। कहां जा सकती है फाइल? क्या मेरे साथ कोई शरारत कर रहा है? कौन हो सकता है और मुझे परेशान करके किसी को हासिल भी क्या होगा? मैं तो बिना मांगे भी हर किसी की मदद कर देता हूं, वरना हमारे ऑफिस का प्रचलन तो यह है कि जिसे अपने काबू में करना हो, पहले उसके काम बिगाड़ने शुरू कर दो, जब वह परेशान होने लगे तब उसकी मदद कर दो। वह खुद-ब-खुद तुम्हारा कायल हो जाएगा। धमेजा ने भी तो यही किया था पूर्णिमा के साथ, जब उससे फैकल्टी के नाम बनवाया चेक खो गया था।

दरअसल, किसी मौके वह चेक धमेजा के हाथ लग गया और धमेजा ने उसे अंडरग्राउंड कर दिया। बाद में पूर्णिमा की परेशानी में वह देवदूत बनकर प्रकट हुआ और डुप्लीकेट चेक बनवाकर, पूर्णिमा के प्रति अपनी निष्ठा प्रमाणित कर दी।

पूर्णिमा बार-बार आभारी हुई। कुछ समय बाद वह पुराना चेक पूर्णिमा के शेल्फ पर रखी किसी किताब में पड़ा मिला। पूर्णिमा आज तक नहीं जानती कि यह सब कैसे हुआ, वह तो अपनी समझ को ही दोष देती है कि उसने धमेजा को कितना गलत समझा।

मैं भी ऐसा ही समझता, अगर मैंने धमेजा को यह सब परमार से कहते स्वयं न सुना होता।

आज की सबसे गर्म खबर यह है कि खजुराहो हवाई अड्डे पर अपना एक ऑफिस खुला है, जिसका मुआयना करने के लिए धमेजा को जाना था। धमेजा तो खैर गया ही, अपने साथ सोनिया को भी ले गया। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि कोई ट्रेनी इस तरह बाहर के दौरे पर गया हो। मगर धमेजा ऐसे कामों में माहिर है। उसने इसमें कुछ ऐसे प्वाइंट्स जोड़ दिए जो व्यावसायिक दृष्टि से शोध की मांग करते थे और इस शोध से पर्यटन को अतिरिक्त बढ़ावा मिल सकता था। सोनिया का प्रॉजेक्ट इसी से संबंधित था, लिहाजा, उसका साथ जाना कंपनी के हित में पाया गया और दोनों हवाई टिकट लेकर सरकारी दौरे पर निकल गए। लोग बातें बना रहे हैं कि अब सोनिया तो यहां स्थायी हो ही जाएगी।

अरे हां! सोनिया से याद आया, मैंने एक फाइल गीतिका को अध्ययन करने के लिए दी थी, वह उसने वापस कहां लौटाई है! मैंने गीतिका को ढूंढ़ा, मगर कहां? आज तो वह आई ही नहीं, पर मेरा काम तो कल तक रोका नहीं जा सकता।

‘‘सम प्रॉब्लम, मिस्टर त्रिपाठी?’’ गीतिका की टेबल पर मुझे छेड़छाड़ करते देख मिसेज विश्वास ने सवाल किया या शायद आपत्ति की।

मैं अपराधी भाव से बताने लगा कि मेरी जरूरी फाइल गीतिका के पास है और वह आज आई नहीं।

‘‘जरूरी फाइल उसे दिया ही क्यों?’’ मिसेज विश्वास मेरी परेशानी में साझेदार बन गईं, ‘‘उसे तो वे फाइलें दी जाती हैं जिनका खो जाना हमारे हित में होता है, यू अंडरस्टैंड?’’ कहते-कहते उन्होंने अपना मोबाइल फोन मेरे आगे कर दिया, ‘‘लो, बात करो।’’

‘‘किससे? कौन-सी बात?’’

मेरी नादानी पर मिसेज विश्वास ने फोन जल्दी से अपने कान से लगा लिया, ‘‘हलो गीतिका, आज आया नहीं? मिस्टर त्रिपाठी तुमको कोई जरूरी फाइल दिया था, लो बात करो...’’

अब तक बात मेरी समझ में आ चुकी थी। मिसेज विश्वास इतनी तीव्रता से ऐक्शन ले बैठेंगी, मुझे अंदाज न था।

खैर, मैंने जल्दी से अपने काम की बात की और फोन वापस लौटा दिया।

उसकी बताई जगह पर फाइल देखी, मगर फाइल वहां नहीं थी। मैं अपनी हड़बड़ी पर झल्लाया। इतनी क्या जल्दी थी फोन लौटाने की? फाइल मिल जाती तब लौटाता। अब बार-बार किसी को छुट्टी पर फोन कर परेशान करना कहां तक ठीक है?

मैंने बेचारगी से मिसेज विश्वास की ओर देखा। अरे, वह अभी भी गीतिका से फोन पर बात करने में लगी थीं।

मैंने जल्दी से उनसे फोन लेकर गीतिका से फिर बात की।

‘‘सर, फाइल वहीं है। पीले रंग के नए कवर में।’’ गीतिका ने बताया।

गीतिका का जवाब सुनकर मैं अचकचा गया, ‘‘मगर मैं तो पीले रंग की पुराने कवर वाली फाइल की बात कर रहा हूं...’’

‘‘जी हां, यह वही फाइल है जो आपने मुझे दी थी। दरअसल, वो कवर फटने को हो रहा था, इसलिए मैंने उसे दूसरे कवर में डाल दिया।’’

मैंने जल्दी से दोबारा देखा, वह ठीक कह रही थी। फाइल वहीं थी, मैं ही उसे बदले कवर के कारण पहचान नहीं पाया था। मैंने धन्यवाद के साथ फोन मिसेज विश्वास को लौटा दिया।

फाइल मिल जाने से जान-में-जान आई।

यह मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि गीतिका ने मेरे कहे अनुसार टेबल बनाकर सारी जानकारी तैयार कर रखी थी और संदर्भित स्थानों पर पेंसिल से निशान भी लगा रखे थे। मेरे लिए काम काफी आसान हो गया। मैंने महसूस किया कि गीतिका के बारे में मिसेज विश्वास की ही नहीं, मेरी भी धारणा गलत थी।

ऐसा क्यों होता है कि जो सही में शांति से काम करता है, उसे हमेशा गलत ही समझा जाता है?

लंच के समय मिसेज विश्वास मेरे पास आईं। वह गीतिका वाली फाइल के बारे में जानने को उत्सुक थीं। बल्कि वह मुझे सचेत करना चाहती थीं कि मैं गीतिका को जो भी काम दूं, उसका तारीखवार हिसाब कहीं डायरी में लिख लिया करूं। मैंने उन्हें बताना चाहा कि गीतिका अपने काम के प्रति निष्ठावान है। दरअसल, दफ्तर ने उसकी छवि बेवजह खराब कर रखी है। मगर मिसेज विश्वास अपनी सोच पर कायम थीं।

उनका मानना था कि गीतिका प्रमोशन इसीलिए नहीं पा सकी कि वह अपनी जिम्मेदारी नहीं लेती और बेवजह की अकड़ में रहती है। मिसेज विश्वास ने बताया कि पिछली बार भी इसकी प्रमोशन में इसकी ये अकड़ ही आड़े आई थी। उसे सबने कितना ही समझाया कि एक बार सेनगुप्ता साहब से मिल आए, मगर ये नहीं मानी।

‘‘सेनगुप्ता साहब से क्यों?’’ मैं कुछ समझ नहीं पाया।

‘‘अरे, जो तुम्हें प्रमोशन देने वाला है, तुम एक बार उससे अनुरोध भी नहीं करोगे, न ही उसका आभार जताओगे?’’

मैं अभी भी बहुत ठीक से कुछ समझ नहीं पाया था, मगर मैं चुप रहा।

सीमाब सुल्तानपुरी का शेर ध्यान आ रहा था, ‘पहाड़ पर हो तो खुद को पहाड़ मत समझो, पिघलती बर्फ के चेहरे पे साफ लिक्खा है।’

लोग कैसे ऐसी खुशफहमियां पाल लेते हैं, जैसे वे ही कर्ता हैं। खुद की जायदाद मानकर लुटाते हैं प्रमोशन। यानी प्रमोशन आपकी काबिलियत पर नहीं, आपकी मेल-मुलाकात पर निर्भर करता है।

‘‘मिसेज विश्वास, कभी तस्वीर को दूसरे नजरिये से भी देखने की कोशिश करनी चाहिए...’’ मैं मिसेज विश्वास को समझाना चाहता था, मगर वह तो गीतिका के खिलाफ मोर्चा खोले बैठी थी। उनकी नजर में गीतिका में किसी तरह की विशेषता नहीं थी बल्कि उन्होंने तो यहां तक उजागर कर दिया कि उसका चरित्र भी ठीक नहीं।

‘‘देखा नहीं तुमने, जब भी गीतिका छुट्टी करेगा, तो अमनदीप भी छुट्टी करेगा। देख लो, आज भी दोनों नहीं आया।’’

मुझे मिसेज विश्वास की दलील से कोफ्त होने लगी। कैसे किसी का चरित्र-हनन किया जा सकता है, कोई इनसे सीखे। किसी तरह जान छुड़ाकर वहां से निकला।

(अगले अंक में जारी....)