खेल ----आखिर कब तक ? - 2 - अंतिम भाग Vandana Gupta द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

खेल ----आखिर कब तक ? - 2 - अंतिम भाग

खेल ----आखिर कब तक ?

(2)

सुनते ही आरती की छठी इंद्रिय सचेत हो उठी, एक तिलमिलाहट ने उसके अन्तस को झकझोर दिया, एक साया सा उसकी आँखों के आगे से आकर गुजर गया, अपनी बनायी हद की बेडियाँ तोडने को वो मजबूर हो उठी आखिर उसकी सगी भांजी की ज़िन्दगी का सवाल था । आज हर ताला टूटने को व्यग्र हो उठा, खुद को दी कसम से खुद को मुक्त करने का वक्त था ।

“ बडी दी, आप से अब जो मैं कहने वाली हूँ, ध्यान से सुनना पूरी बात । शायद ये बात मैं कभी न बताती और मेरी चिता तक ही साथ जाती मगर आज करुणा के भविष्य के लिए मेरा मुँह खोलना जरूरी है क्योंकि यदि कोई अनर्थ हो गया तो खुद को कैसे माफ़ कर पाऊँगी ? कैसे आपको मुँह दिखाऊँगी ? “

“ नहीं दी, आज मुझे सब सच बताना ही होगा आपको आखिर करुणा और मुझमें है ही कितना फ़र्क महज सात साल का ही न और आज वो भी उसी दहलीज पर खडी है जहाँ सात साल पहले मैं खडी थी । “

“ दी आपको याद है, जब जीजी घर आयी थी उसे छोड दिया था ये तब ही की बात है । सारा घर परेशान रहा करता था, मम्मी पापा चिन्ता में घुले जा रहे थे आखिर कैसे जीजी के घर को बचायें उन्ही दिनो वो घर आया करता था और उन्ही दिनो क्या आप तो जानती ही हैं वो पहले से ही आया करता था और अपनी सोच से अपने विचारों से सब पर मायाजाल सा बिछाये रहता था और सभी मंत्रमुग्ध से जो वो कहता उसकी हर बात को पत्थर की लकीर समझा करते थे । अविश्वास का कोई कारण वो छोडता ही नहीं था और मम्मी तो उसे देवता की तरह पूजती थीं तो एक दिन बोला, " तुम अपने अंधे विश्वास की वजह से एक दिन बहुत बडा धोखा खाओगी " । जाने किस रौ में उसने ये सब कहा मगर मम्मी हँस भर दीं उन्हें क्या पता था ये पूर्वसूचित दिशानिर्देश है शायद ईश्वर का या होनी का मगर वक्त की चाल से कौन बच पाया है या कहूँ कलुषित विचारधारा के वाहक कोई राह नहीं छोडते जो संदेह की सुईं उनकी ओर घूमे । “

“ ऐसे ही एक दिन जब पापा काम से गए हुए थे और जीजी अपने बच्चों के साथ अपनी सहेली के तब मम्मी और मैं घर में अकेले थे तब वो आया और बोला आज तो मौसम देखिए कितना अच्छा है, बादल छा रहे हैं, ठंडी ठंडी हवा चल रही है ऐसे में तो हरी चटनी के साथ पकौडे खाने का विचार है और उसके मुँह से निकली फ़रमाइश मम्मी के लिए तो मानो भगवान का आदेश था मम्मी किचन में सिलबट्टे पर चटनी पीसने चली गयीं और वो और मैं कमरे में अकेले थे मगर ऐसा तो पहले भी बहुत बार होता था तो मेरे लिए तो कुछ भी अलग नहीं था मगर तभी वो बोला, “आरती एक बात बता ?”

“जी कहिए । “

“तू अपनी जीजी के लिए क्या कर सकती है ? “

“सब कुछ । “

“क्या तू चाहती है तेरी जीजी अपने ससुराल जल्दी चली जाए और उसके यहाँ सब ठीक हो जाए ? “

“ हाँ और क्या ( वैसे भी अपने मम्मी पापा को परेशान देख मुझे भी लगता काश मैं कुछ कर पाती और ये तो हम सभी चाहते थे तो हाँ तो कहना बनता ही था ) “

“अच्छा तो बता तू उनके लिए क्या कर सकती है ? “

“सब कुछ जो मुझसे हो सकता हो “

“तो जो मैं कहूँगा करेगी मानेगी मेरी बात उससे तेरी जीजी जल्दी घर चली जाएगी “

और मैने हाँ कर दी सोचा शायद कुछ उपाय वगैरह बतायेगा तो कर दूँगी यदि मेरे करने से ऐसा संभव है तो क्या बुराई है ।

“ देख मुझे मेरा माथा कितना तप रहा है, मेरी आँखें कितनी लाल हो रही हैं । “

“ थर्मामीटर दूँ क्या ? बुखार नाप लेते हैं फिर आप दवाई ले लेना”

“ अरे नहीं, ये ऐसे थोडे ठीक होगा इसके लिए तुझे मेरा कहना मानना होगा और वैसे करेगी तो मैं भी ठीक हो जाऊँग़ा और तेरी बहन भी अपने ससुराल चली जाएगी ।“

“ हाँ कहिए, क्या करना है “

“ अचानक वो खडा हो गया और मुझे भी खडा कर लिया और अचानक से मेरा चेहरा अपने हाथों से पकडा और अपने होंठ मेरे होठों पर रख दिए और मेरे होठों को बुरी तरह चबाने लगा, एक गिलगिला लिजलिजा सा अह्सास मुझे होने लगा, मुझे समझ नहीं आया क्या करूँ ? कैसे उससे खुद को मुक्त करूँ ? मेरी चेतना शून्य सी हो गयी, मुझे उकलाई सी आने लगी मगर मैं उसके हाथों में कैद थी मेरी अजीब सी हालत होने लगी, उबकाई से व्याकुल मैं उसके पंजों से छूटने को मचलने लगी और वो बेतरतीबी से मेरे होठों को कुचलता मसलता रहा तभी मम्मी के आने की आहट से उसने मुझे छोड दिया और बोला ये बात किसी से मत कहना वरना तेरी बहन घर नहीं जा पायेगी क्योंकि उसका कहा हर शब्द ईश्वर के शब्द की तरह हमारे घर में माना जाता था क्योंकि उसकी वजह से कुछ बिगडे काम बन गए थे ऐसा घरवालों का विश्वास था और शायद घर वालों की देखादेखी मुझे भी उसकी बात पर यकीन था कि यदि नहीं माना तो शायद ऐसा ही हो जाएगा और मैं चुप रही । वैसे भी उस वक्त नहीं जानती थी मेरे साथ क्या हुआ मगर अन्दर एक नफ़रत का लावा हमेशा खौलता उफ़नता रहा और मैं फिर उससे हमेशा दूरी बनाकर रही, कभी अकेले में उसके सामने नहीं आयी ताकि कहीं फिर से वो ही गलीजगी न दोहरायी जाए मगर उस एक हरकत ने कहीं न कहीं मुझे समय से पहले थोडा सा बडा कर दिया था । फिर चाहे जीजी के जाने की वजह वो कभी नही बन सका मगर उसके जाने के नाम की कीमत उस वक्त मैने चुकाई थी और अब मैं नहीं चाहती बडी दी कि करुणा के साथ ऐसा कुछ हो इसलिए उस दानव से उसे दूर रखो क्योंकि ऐसे लोग अपने मकसद तक ही एक जगह टिकते हैं और मकसद पूरा होते ही नया ठिकाना तलाश लेते हैं,यदि तुम्हारा विश्वास उस पर है तो उसके साये को भी करुणा पर नहीं पडने दो वरना शायद उस दिन तो मैं बच गयी थी मगर इस बार जरूरी नहीं करुणा बच पाए क्योंकि हमारा भरा पूरा घर था, लोगों की आवाजाही हमेशा रहती थी तो वो अपनी कलुषित मंशा पूरी नहीं कर सका मगर जरूरी नहीं हर बार ऐसा हो क्योंकि तुम हमेशा करुणा के साथ तो रहोगी नहीं और ऐसे लोग तो मौके की तलाश में ही घूमा करते हैं । बेशक उस वक्त मुझे समझ नहीं थी स्त्री पुरुष संबंध की मगर आज तो है न इसलिए बता रही हूँ । मैं तो बर्बाद हो गयी मगर अब करुणा उसकी शिकार न बने दी कुछ ऐसा करिए ।“

एक उफ़नता आक्रोश, लाल मुँह, भिंचभिंचाते दाँत क्रोध के आवेग में बडी दी बोली, “आरती तू चिन्ता न कर लाडो, मुझे पहले ही बताया होता या किसी से तो कहा होता तूने, इतना सब कुछ खुद झेला और बताया भी नहीं, इनके फ़ितूर के दिमागी कीडों को देख मैं कैसे झाडती हूँ, कैसे उसकी सारी कलई खोलती हूँ बिना तेरा नाम आये बस देखती रहना । इन व्यभिचारियों के लिए बेशक हर शिकार करना एक खेल सरीखा होगा मगर इन्हें शायद औरत की ताकत का नहीं पता जिस दिन अपनी पर आयेगी ये कहीं के नहीं रहेंगे । बस बच्चा तू चिन्ता न कर, देख कल कैसे एक मेरी सहेली है जो एन जी ओ चलाती है और महिला आयोग की भी सदस्य है उसे सारी बात बताती हूँ फिर देख वो कैसे अपने जाल में फ़ँसा उसके चेहरे को बेनकाब करती है क्योंकि वो ऐसा पहले भी कर चुकी है और इन दरिन्दों को हवालात पहुँचा चुकी है (प्यार से आरती के सिर पर हाथ फ़ेरती बडी दी डबडबाई आँखों से उसे ढाँढस बंधाती रहीं क्योंकि इतनी जागरुक तो थीं ही कि सही गलत में फ़र्क कर सकें और आरती आज खुल कर रो सकी, आज उसके सीने में उफ़नता आक्रोश, बेबसी, लाचारी बाहर आ पायी जो वो डर के कारण किसी से कभी कह ही न सकी कि कहीँ उसे ही गलत न माना जाए या फिर उसके मम्मी पापा जानकर और परेशान न हो जाएं कहीं ये जानकर कोई अनहोनी न हो जाए उस वक्त डर के कारण चुप रही और बाद में जब समझ आया कि उसके साथ क्या घटित हुआ तो लगा अब कहने से क्या फ़ायदा बस सचेत रहना ही सबसे बडा उपाय है वैसे भी दो और छोटी बहनें थीं जिन्हें भी ऐसी दरिंदगी से बचाना था, ऐसे में एक वो ही तो बच रही थी मम्मी पापा का सहारा और यदि उन्हें अब बाद में बताया होता तो कितना टूट गए होते शायद यही सब सोच समझ आने पर भी ज़ब्त कर गयी सारी रुसवाई, सारा दर्द, सारा अपमान मेरी लाडो बहन ). आज बह रहा था एक काला सागर आँखों से, दिल से, रूह से जिसकी थाह पाना शायद किसी के लिए मुमकिन न था, एक ऐसी पीडा जिसकी बयानगी नामुमकिन है ।

और फिर बेशक हमने अपने तरीके से उसे उसकी सही जगह पहुंचाया मगर जाने कब समाज में छुपे भेडियों की पहचान हो पायेगी और जाने कब ये नन्ही गौरैया खुले आकाश में परवाज़ भर पायेंगी, आखिर कब तक मैं और कितनी मासूमों को न्याय दिलवा पाउँगी नहीं जानती मगर चल रही हूँ इस उद्देश्य के साथ कि समझाना है मुझे आज की मासूम बच्चियों को कि क्या गलत है और क्या सही । इसमें तुम्हारा दोष नहीं, ये महज चोट भर होती है और तुम्हें आना है इससे बाहर और करना है बेनकाब इन शिकारियों को ताकि फिर से ऐसा खेल न किसी और मासूम के साथ खेल सकें । जाने कितनी आरतियाँ रोज दस्तक दे रही हैं और शोर में मैं व्याकुल हूँ उन्हें न्याय दिलवाने को मगर कब तक ? जब तक साँस है तभी तक न उसके बाद क्या ? यही प्रश्न खा रहा है और कोशिश जारी है मेरी न केवल समाजिक चेतना की बल्कि कानूनी प्रक्रिया के भी सख्त करवाने की ताकि जब जाऊँ यहाँ से तो सुकून रहे सुरक्षित हैं हर घर में बेटियाँ । शायद इसीलिए ये प्रश्न दस्तक देता रहता है ---------औरत के जिस्म से खेल आखिर कब तक ?

*****