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खेल ----आखिर कब तक ? - 1

खेल ----आखिर कब तक ?

(1)

मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं और गुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और कहने को हो गयी मैं आतुर कुछ खेल कभी नहीं बदलते फिर स्त्री किसी भी युग की क्यों न हो, कितनी ही सशक्त क्यों न हो, हो ही जाती है शिकार । शिकारियों के चेहरे कब हुआ करते हैं ? वो तो इसी सभ्य समाज के सभ्य लोग ही होते हैं जो अपनी सभ्यता को अपने नकाबों मे छुपाए घूमा करते हैं । वो पहले भी आस पास ही थे और आज भी फिर कैसे कहें बदलाव आ गया है । युग कोई रहा हो शोषित स्त्री को ही होना है । खुदा है उसके माथे पर जन्म के साथ नहीं गर्भ में आने के साथ ही तभी तो होती रहती है शोषण का शिकार पग - पग पर जाने क्यों फिर भी जन्मती है इस धरा पर जहाँ उसकी उपयोगिता, उसके वर्चस्व की महत्ता महज उसके स्त्री होने तक ही है ।

आज छोटी छोटी बच्चियों पर होते बलात्कार याद दिला गए कोई 30-32 साल पहले का एक केस जब इस तरह के व्यभिचारों या यौन शोषण के लिए आवाज़ उठाना एक क्रांति थी । वो समय ऐसा था जब बच्चों को यौन शिक्षा से वंचित रखा जाता था बल्कि वो तो जानते भी नहीं थे कि बचपन के अलावा भी कोई और जीवन होता है जैसा कि आजकल मीडिया, टीवी, सोशल साइट्स आदि के माध्यम से काफ़ी बातें छोटे बच्चे भी समझने लगे हैं मगर वो वक्त ऐसा नहीं था यदि कोई घटना कहीं घटित भी हो जाती थी तो किसी में साहस नहीं होता था कि उसके बारे में कोई चर्चा करे या बाहर किसी को पता भी चले ।शायद मेरे जेहन की खिडकी पर अंकित हो गयी ये बात इसलिये भी कि मेरा कोई अपना इससे जुडा था वरना तो जाने कितने ऐसे केस आते हैं रोज ही मगर उस वक्त सिर्फ़ इक्का दुक्का ही साहस की दहलीज लांघ पाता था ।

बचपन की मुंडेर पर खडी लडकी जिसने यौवन की दहलीज पर अभी कदम भी न रखा था बस यौवन और बचपन के संधिकाल में एक अल्हड नदी सी उफ़नती गरजती हिलोरें लिया करती थी जिसने शायद मासिक धर्म का अर्थ भी अभी पूर्णत: जाना भी न था बस परिचित भर हुई थी मगर उसकी उपयोगिता से परिचित न हो पायी थी और उसे ही सहज ढंग से नहीं ले पा रही थी क्योंकि उम्र से पहले ही अचानक इस झंझावात का आगमन हुआ था तो उस लडकी में शोखियाँ अभी कहाँ आकार ले सकती थीं ।कहाँ परिचित हुई थी अभी सोलहवें सावन से भी । उम्र की तेरहवीं दस्तक ने ही तो उसे अभी अपने आगोश में लिया था महज बचपन की दहलीज खत्म होने के कगार पर थी और उसमें बचपन अभी भी हुँकारे भर रहा था । भरे पूरे परिवार की बेटी जहाँ चाचा ताया उनके बच्चे और फिर उनके भी बच्चे हों तो हर वक्त एक उत्सव का सा माहौल बना रहता । जहाँ बैठे वहीं महफ़िल, न दिन का पता न रात की खबर, परायेपन की दहलीजें तो कभी चढी ही नहीं । तितलियों - सी साँझ की मुंडेर पर इठलाती बलखाती, छतों पर पतंग सी उडती एक ऐसी चिरैया जो कभी इस डाल तो कभी उस डाल बैठती उछलती कूदती । कभी जाना ही न था जीवन में और कुछ भी इससे इतर होता है । बस स्कूल जाना पढना और मस्ती में मस्त हो जाना ।

वक्त के क्रूर हाथ कब गर्दन तक पहुँचते हैं कहाँ इंसान जान पाता है । बस धीमे - धीमे वो तो उसकी गिरफ़्त में आ जाता है और पता भी नहीं चलता । ऐसे ही एक दिन उसकी बडी बहन को उसके पति दो बच्चों सहित घर पर छोड गए तो सारा घर सकते में आ गया ये क्या हो गया और कैसे ? क्या हुआ वो तो दिख रहा था मगर कैसे कौन जान सकता है कम से कम एक स्त्री को तो पता ही नहीं चलता आखिर उसकी उपयोगिता क्या है ? आखिर वो कैसे परम्परावादी सोच के साथ आधुनिकता के लिबास भी ओढे कैसे दोनो सोच को खुद में आत्मसात करे ? कैसे सामंजस्य बिठाये जो सभी को खुश रख सके ? घर में तो आज्ञाकारी सुशील बहू का रोल अदा करो सिर ढाँप कर साडी पहन कर ही रहो और जो हो जाए चाहे उफ़ न करो, हम तुम्हें सब कह सकते हैं मगर जिस दिन तुम्हारी जुबाँ खुली उसी दिन तुम हो जाओगी निष्कासित इस हद तक दबाव बनाया गया हो मगर साथ ही जब घर से बाहर पति के साथ निकले तो कौन सा सूट पहनना है उसके साथ कौन सी चप्पल और कौन सी बिंदी और लिपस्टिक लगानी है वो सब पति बतायेगा तो उसका अनुपालन करो यदि कभी अपनी मर्ज़ी से कर लेती तो पति नाराज़ तुझे तो पहनने ओढने का शऊर ही नहीं आता । ऐसी दोहरी सभ्यता को जीती आरती की बडी बहन राधा अपनी हर संभव कोशिश करती सभी के मन मुताबिक जीने की मगर दो छोटे बच्चों के साथ सब जिम्मेदारियाँ निभाते हुए सभी को खुश रखना इतना आसान कहाँ होता है जरा सी लापरवाही ही घर में एक बवाल खडा कर देती और राधा जब अपनी हर कोशिश करके हताश परेशान रहने लगी तो कभी जवाब भी देने लगी आखिर थी तो इंसान ही न कब तक गूँगी गाय बन जीती अब यदा कदा राधा जवाब देने लगी या अपने मन से जीने की कोशिश करने लगी क्योंकि वो चाहती थी अपने बच्चों की परवरिश सही ढंग से कर सके उन्हें उचित व्यवहार की शिक्षा दे सके कहीं ज्यादा लाड प्यार में बिगड न जाएं इसलिए थोडी बहुत कोशिश करने लगी थी वैसे भी बच्चों की परवरिश के साथ कहाँ सब संभव होता है कि सबके मन का ही करो तो यही उसका बोलना उसके राह का रोडा बन गया और उसका पति उसे उसके मायके छोड गया । एक सरकारी कर्मचारी के घर यदि उसकी बेटी बच्चों सहित आ जाए तो उस पर क्या गुजरती है ये शायद समझना आसान नहीं । बँधी बँधाई तनख्वाह में वैसे ही गुजारा किया करता है उस पर बेटी के भविष्य की चिंता उसे न सोने देती न सोचने ।वैसे भी जिसकी तीन बेटी अभी कुँवारी हो और दो बेटे अभी पढ रहे हों जिनकी पढाई का खर्चा पूरा करने में ही सारी तन्ख्वाह निकल जाती हो ऐसे में सबसे पहला उपाय तो वो ही किया जो हर पिता करता है बेटी के ससुराल वालों को मनाने का, उसके पति को समझाने का मगर जब अपनी हर संभव कोशिश करके देख ली तो निराशा का जन्मना लाज़िमी था । उम्र के ऐसे मोड पर न तलाक दिलवा सकता था न बेटी के भविष्य से खिलवाड कर सकता था । बेचारे मनोहरलाल और करते भी क्या जिसने जो उपाय बताया करने लगे । माँ भी हर संभव उपाय करने लगी और जब चारों तरफ़ से हताश परेशान हो चुके तो जिस राह पर कभी चलना नहीं चाहा उस पर भी चल पडे और पड गये ज्योतिषियों, पीर फ़कीरों के दर पर दस्तक देने ताकि किसी भी तरह बेटी का घर बस सके । जाने उपाय करने से या जाने वक्त के पलटा खाने से और ग्रहों की चाल सीधी होने से उनकी बेटी अपने ससुराल चली गयी मगर उसके ससुराल जाने की कीमत किसने और कैसे चुकायी कोई कभी जान ही नहीं पाया ।

वक्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा, पाँच साल गुजर गए । एक साया गृहप्रवेश कर चुका था, चाट रही थी दीमक घर की जड को, मगर नियति से अंजान ज़िन्दगी चलती ही जाती है अपनी दिशा में । आरती की सबसे बडी बहन जिसे वो बडी दी कहती थी जिनका ब्याह पूना में हुआ था वो दिल्ली आयीं वैसे भी दूर रहने वाले जल्दी कहाँ आ पाते हैं । बातों बातों में जिक्र आना लाज़िमी था साए का, साया जिसने अपनी पैठ बना ली थी मन और विश्वास की अंधी सुरंगों तक वहाँ कैसे अविश्वास की लकीर अपनी जगह बनाती ।

तब बडी दी ने बताया – “आरती, जिन हालात से पिछले कुछ सालों से मैं निकली हूँ बता भी नहीं सकती ये तो भगवान का भेजा कोई फ़रिश्ता ही है या कहूँ भगवान ही इसी रूप में हमारे घर आए हैं वरना जो हाल तेरे जीजाजी का था, बता नहीं सकती, कहाँ था उन्हें अपने खाने – पीने, सोने, उठने बैठने का होश भी जब से उनकी नौकरी छूटी, मानसिक रोगी की सी ज़िन्दगी हो गयी थी उनकी, और इसी हाल में एक दिन जाने कैसे बाहर निकल गए और ट्रक के नीचे आते - आते बचे, फिर भी हाथ और पैर की हड्डी तो टूट ही गयीं मगर उसमें भी उन्हें कहाँ अपना या हमारा होश था, उनके लिए तो बच्चे और मैं अजनबी हो गये थे और देख सारे इलाज करवा लिए, हर डॉक्टर को दिखा लिया मगर कोई फ़र्क ही नहीं पडा मगर जब से उसका इलाज किया, उसने अपना हाथ रखा और उसने उपाय किए और बताए वैसा ही मैने किया ये ठीक होते चले गए. जाने विश्वास था या अंधविश्वास मगर जड गहरी लग रही थी एक पढी लिखी इंसान होते हुए भी मुसीबत में हर उस बात पर विश्वास किया जिसे शायद आम वक्त में कभी स्वीकारती भी नहीं बल्कि महज ढोंग कहकर नकार दिया होता।“

उल्लसित सी बोलीं,” अरी बहना, तेरी दी का घर तो उसी देवता ने बचाया है । वरना आज तेरी दी बर्बाद हो गयी होती, कैसे ज़िन्दगी गुजरती सोच - सोच के ही काँप उठती हूँ । अब तो वो हमारे घर के सदस्य जैसा ही है, अब देख करुणा पर भी ध्यान देता है, कहता है उसे कोई परेशानी हो तो मुझे बतायें, उसे खूब पढायें लिखाएं और पढाई में दिक्कत हो तो बताना मैं उसे चुटकी में समझा दूँगा आखिर एम बी ए जो है, हर तरह के गुणा भाग में निपुण।“

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