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बहीखाता - 27

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

27

मझदार और घर-निकाला

इंग्लैंड में मात्र दस दिन रहकर मैं दिल्ली लौट गई। हवाई जहाज में बैठी यही सोचती रही कि लोगों को क्या मुँह दिखाऊँगी। मित्र क्या कहेंगे। मेरी माँ, भाभी और भाई क्या सोचते होंगे। जब मैंने फोन करके भाई से कहा था कि मैं कल आ रही हूँ, एयरपोर्ट पर आकर मुझे ले जाना, वह तो तभी सुन्न हो गया था। भाई मुझे लेने आया हुआ था, पर वह चुप था। चंदन साहब के स्वभाव को वह अच्छी प्रकार जानता था, इसलिए एक भय-सा उसके चेहरे पर भी तैर रहा था। घर पहुँचकर मैं माँ और भाभी के गले लगकर जी भरकर रोई। रोने के सिवा और कर भी क्या सकती थी।

कई दिन तक तो मैं घर से बाहर ही न निकल सकी। बाहर निकलकर जाना भी कहाँ था। नौकरी से इस्तीफा देने की गलती तो मैं कब की कर बैठी थी। दूसरी नौकरी अब मिलने वाली नहीं थी। अब मेरे सामने मानो कोई लक्ष्य ही न रह गया हो। ज़िन्दगी भी जैसे फिजूल-सी हो गई हो। आहिस्ता-आहिस्ता मित्रों में मेरे लौट आने की ख़बर फैल गई। दोस्तों के फोन आने लगे। एक दिन सुतिंदर सिंह नूर मिले। बोले -

“यह बंदा तेरे लिए ठीक नहीं था। बहुत गड़बड़ हो गई तेरे साथ !”

बलवंत मिला तो वह भी यही बात कर रहा था। अन्य मित्र भी सहानुभूति दिखाते और मेरे गलत फैसले को लेकर बातें करने लगते। मुझे याद था कि एक बार मैं अमृतसर यूनिवर्सिटी में एक कान्फ्रेंस में गई थी। वहाँ सभी मित्र आए हुए थे - दीद, सुरजीत कौर और अन्य बहुत से। सबने ही एक स्वर में कहा था कि मैंने विवाह के लिए गलत व्यक्ति का चुनाव किया। मुझे उनका यह कहना उस वक्त बहुत बुरा लगा था, पर आज उनके शब्द सच साबित हो रहे थे। अब तो पश्चाताप ही किया जा सकता था। मैं पुनः डिप्रैशन में चली गई। जसविंदर डर गई कि मेरी हालत पहले जैसी न हो जाए। वह फिर मुझे डॉक्टर त्रिलोचन के पास ले गई। उसी न्यूरो सर्जन के पास जिसने पहले मेरा इलाज किया था। अब तक डॉक्टर के साथ कई तरफ से परिचय निकल आया था। सुरजीत कौर आर्टिस्ट का यह डॉक्टर रिश्तेदार था। सो, अब डॉक्टर मेरी ओर विशेष ध्यान देने लगा था। मेरी दवाई प्रारंभ हो गई। कुछ दिन मैं ठीक रहती और कुछ दिन मेरे डिपै्रशन के दौरे में निकल जाते। जसविंदर ही मेरी देखरेख करती थी। जसविंदर को मैं जीवनदाती समझती हूँ।

जीवन चल रहा था, बिल्कुल यूँ जैसे किश्ती दरिया में हो। जिसका कोई चप्पू न चलाना हो और सब हवा आसरे ही हो। दोस्त बहुतेरा हौसला देते, पर मेरा मन डूबने लगता था। पढ़ने लिखने का काम तो बिल्कुल ही बंद था। साहित्यिक गोष्ठियों में भी मैं जाने से बचती रहती। मित्र मिलने घर आ जाते। ऑर्थर विक्टर जो उस समय दिल्ली दूरदर्शन के पंजाबी सेक्शन में काम करता था, वह हमारे घर के बहुत नज़दीक रहता था। वह भी अक्सर हमारे घर आ जाता। मेरी माँ के साथ उसका काफ़ी दिल लगता और उसके पास बैठकर वह पुराने ‘टप्पे’ सुनता रहता। पहले दिन से ही दोस्तों को घर में आने-जाने की छूट थी। मेरी माँ यद्यपि अनपढ़ थी, पर इस बात पर वह बहुत महान थी। मित्र आते तो कुछ देर दिल लगा रहता। चंदन साहब का कभी कभार फोन आ जाता। सरसरी-सी बातें होतीं। वापस जाने के बारे में न वह कोई बात करते और न ही मैं। अब मेरा अहं भी राह में खड़ा होने लगा था। सर्दी का मौसम खत्म हो रहा था और गर्मियाँ आ रही थीं। गर्मियों में मेरी हालत ज्यादा खराब हो जाती थी।

एक दिन एक मित्र आया और अपनी कविता की किताब दे गया। वह चाहता था कि मैं उस पर पेपर लिखूँ। मेरे समकालीन कवि जैसे कि मोहनजीत, दीद, परमिंदरजीत, देव, सवी, अमरजीत कौंके आदि मेरे पसंदीदा कवि थे। इन सब पर ही मैंने कुछ न कुछ लिखा था। इनकी कविताओं में कुछ ऐसे गैप और कुछ ऐसी खामोशियाँ होती थीं जो कविता को कविता बनाती थीं। ये सभी मुझे कहते रहते थे कि वे चाहते हैं कि नई कविता को लेकर मैं ही बात करूँ। पुराने आलोचकों को इनकी कविता उस तरह समझ में नहीं आती थी, जैसे मैं पकड़ती थी। शायद यह इस कारण हो कि मैं खुद भी कविता लिखती थी। मैंने अपनी किताब ‘पंजवा चिराग’ में दस कवि लेकर उनकी अपने ढंग से आलोचना की थी जिसकी भरपूर चर्चा हुई थी। पंजाबी अकादिमी द्वारा इस किताब को पुरस्कार भी मिला था। अब कवि मित्र किताब दे तो गया, पर मेरा मन अशांत था कि कुछ नहीं कर सकती थी। मैंने एक दो बार किताब खोलने की कोशिश की, पर असफल रही। मुझे क्या हो गया था ? कहाँ मेरी साहित्यिक ज़िन्दगी और कहाँ मेरी विवाहित ज़िन्दगी ! मैं क्या से क्या बन गई थी ?

पच्चीस नंबर स्पैंसर रोड, हेज़। यही घर था जिसके बारे में चंदन साहब कहते थे कि मुझे मुफ्त में मिल गया है। मैं मुफ्त के घर में फिर आ गई। जो भी था, मैं खुश थी। मैं चंदन साहब के करीब रहना चाहती थी। मैं अपना घर कायम रखना चाहती थी। यदि इनके स्वभाव में बड़े-बड़े अवगुण थे तो वहीं कुछ गुण भी थे। जीनियस थे। किसी मसले की गहराई तक जाने वाली आँख रखते थे, यह बात अलग है कि उस पर स्वयं अमल नहीं करते थे। साहित्य हमारे बीच बहुत बड़ी कड़ी थी। हम घंटों इस विषय पर बात कर सकते थे। यही नहीं, चंदन साहब के साथ रहते अन्य लेखकों को भी मिलने का अवसर मिल जाता। कोई न कोई घर आया ही रहता। साहित्य के प्रति मेरी चाहत पूरी हो जाती, यद्यपि सिर्फ़ साहित्य मेरी ज़िन्दगी संवार नहीं सकता था। फिर भी, मैं इस अधूरी ज़िन्दगी के साथ समझौता किए बैठी थी।

इस बार मैं लंदन पहुँची तो चंदन साहब अमनदीप के विवाह को लेकर चिंतित हुए पड़े थे। उसके लिए वह लड़कियाँ देख रहे थे। अमनदीप ने अपना फ्लैट किराये पर दे दिया था और वह चंदन साहब के साथ ही रहने लगा था। इस बार लंदन आना मुझे और भी अधिक अच्छा लगा था। गर्मियों में इंग्लैंड भर में साहित्यिक कार्यक्रम हुआ करते थे। हम हर समारोह में भाग लेने जाया करते। इंडिया से हरभजन सिंह हुंदल आया हुआ था। उसके सम्मान में भी समारोह हो रहे थे। वुल्वरहैंप्टन की प्रगतिशील सभा ने समारोह करवाया। निरंजन सिंह नूर इस सभा के कर्ताधर्ता थे। मैंने उनकी कविता पढ़ रखी थी और सुनी भी थी। वह अच्छे कवि थे। उनके निमंत्रण पर हम समारोह में शामिल हुए। किसी ने कविता पर परचा पढ़ा। मैंने बहस में हिस्सा लिया और कुछ नये नुक्ते उठाये। नूर साहब और निरंजन ढिल्लों मुझे बधाई देने आए। नूर साहब ने मेरी किताब ‘पंजवा चिराग’ पढ़ रखी थी। कुल मिलाकर समारोह बहुत सफल रहा और मेरे जेहन को खुराक मिलने लगी।

शायद 1994 की बात थी, एक दिन वरिंदर परिहार और यश हमारे हेज़ वाले घर में आए। उन्होंने साउथ हैंप्टन में कोई प्रोग्राम रखा हुआ था।

“देविंदर जी, साउथ हैंप्टन में एक समारोह हो रहा है, उसके लिए आप परचा लिखो।“

मैं सोच में पड़ गई कि पता नहीं किस विषय पर लिखने के लिए कह दें। मैंने कहा -

“वरिंदर जी, मेरा अधिक काम कविता पर ही है।”

“तो ऐसा करो, आप ब्रितानवी कविता पर ही परचा लिख दो।”

“यहाँ की कविता पर मेरी पूरी पकड़ नहीं।”

“इसे पढ़कर पकड़ मजबूत कर लो।”

“पर इसके लिए तो किताबें चाहिएँ।”

“उनका प्रबंध हम कर देंगे। कुछ तो चंदन साहब के पास होंगी ही और जो नहीं होंगी, वे हम उपलब्ध करा देंगे।”

बात हो गई। चंदन साहब ने भी मुझे प्रोत्साहित किया और मैंने परचा लिखने का वायदा कर डाला। समारोह में अभी महीनाभर पड़ा था। इतना समय मेरे लिए पर्याप्त था। चंदन साहब के कहने पर अगले दिन ही मुश्ताक सिंह मुझे आकर पुस्तकें दे गया। मैं किताबें पढ़ रही थी तो एक बात सामने आ रही थी कि इधर की अधिकांश कविता प्रगतिवादी थी। इंडिया की कविता के मुकाबले यह कविता बहुत पुरानी थी। जैसी कविता मैंने इंडिया में पढ़ी थी, वैसी कविता सिर्फ़ वरिंदर परिहार की पुस्तक ‘मैं किते होर सी’ (मैं कहीं और था) में ही मिलती थी। इंग्लैंड में नई चेतना की कविता का अभाव मुझे चुभ रहा था।

चंदन साहब अमनदीप के लिए लड़की तलाश रहे थे। मेरे साथ वह कोई सलाह-मशवरा नहीं करते थे। शराब पीना। शराब पीकर अबा-तबा बोलना तो जारी ही था। अब अमनदीप भी अच्छीखासी शराब पीने लग पड़ा था। गुरशरण सिंह अजीब इनका पुराना मित्र था। लड़की तलाशने में वह इनकी मदद कर रहा था। उसने ईस्ट लंदन में किसी लड़की के बारे में बताया। चंदन साहब, अमनदीप और मैं लड़की देखने गए। लड़की इन्हें बहुत पसंद थी। घर आकर इस बात का खूब जश्न मनाया गया। एक दिन अमनदीप और वह लड़की एकसाथ बाहर कहीं घूमने गए। घर जाकर लड़की ने इस रिश्ते से ‘न’ कर दी। चंदन साहब तो आगबबूला हो गए। लगे उस लड़की को गालियाँ बकने। शराब पीने के कारण गुस्सा और भी अधिक ताव खा गया था। अमनदीप भी अपने डैडी के साथ ही मिल गया। मैं उनसे दूर रहने की कोशिश कर रही थी। डरती थी कि इनका गुस्सा मेरी तरफ ही न मुड़ जाए। वह उस लड़की को नहीं, बल्कि समूची औरतजात को गालियाँ दे रहे थे। मैंने इनसे कहा -

“चंदन जी, क्यों कलप रहे हो ? सोने जैसा लड़का है, इसको लड़कियों की कमी है क्या ?”

“यह औरतजात यकीन के काबिल तो होती ही नहीं। तू भी तो एक औरत ही है, तभी तो इतनी घटिया है।”

“यह क्या कह रहे हैं ?”

मैंने घबराकर कहा। वह उंगली से बाहर का रास्ता दिखाते हुए बोले -

“औरतजात ! मेरे घर से निकल, इसी वक्त निकल मेरे घर से ! अगर मेरे लड़के को लड़की ने इन्कार कर दिया है तो इस घर में तेरे लिए भी कोई जगह नहीं !”

(जारी…)

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