बहीखाता - 25 Subhash Neerav द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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बहीखाता - 25

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

25

अर्ली रिटायरमेंट

मेरे लिए विवाहित जीवन का अर्थ था - भरपूर विवाहित जीवन। लेकिन मेरे विवाहित जीवन में बहुत कमी थी। एक बात अच्छी यह हुई थी कि मैंने अपनी भान्जी का विवाह अपने हाथों से किया था। मैंने माँ वाले सभी फर्ज़ निभाये थे और चंदन साहब ने पिता वाले। मेरी बड़ी बहन पटियाला में ब्याही हुई थी। मेरे से आयु में काफ़ी बड़ी थी और मेरी यह भान्जी आमतौर पर दिल्ली में ही मेरी माँ के पास रहा करती थी। चंदन साहब उसको बहुत पसंद करते थे इसीलिए पहले उसको अपने घर ले आए, फिर उसका विवाह करने के लिए भी तैयार हो गए। परंतु बाद में पता नहीं उन्हें क्या हुआ कि उसकी पढ़ाई में मदद करने से भी उन्होंने इन्कार कर दिया। उसकी एम.फिल की थीसिस में इतनी कमियाँ निकालीं कि लड़की रूआंसी हो उठी। यही नहीं, वह यह भी कहने लगे कि यदि इसके थीसिस को पास कर दिया गया तो मैं अपनी थीसिस को आग लगा दूँगा। परिणाम यह निकला कि न ही वह अपना थीसिस पूरा कर सकी और न ही उसको कोई नौकरी मिल पाई।

नए फ्लैट में आकर जीवन एकबार फिर पटरी पर आ गया। मैंने पुनः कालेज जाना प्रारंभ कर दिया। हमने घर में पाठ रखवाया। सभी मित्रों को आमंत्रित किया। सभी आए। घर में रौनकें लौट आईं। मीट, शराब, सिगरेटों के साथ बहसें होतीं। चंदन साहब का उपन्यास ‘कंजकां’ भी छपकर आ गया था। उस पर कार्यक्रम होने लगे। आलेख लिखे जा रहे थे। सुतिंदर सिंह नूर ने तो उपन्यास के कवर पेज पर भी लिखा हुआ था। डॉ. हरजीत सिंह गिल तो उनके उपन्यास को नोबल प्राइज़ के बराबर का उपन्यास कह रहे थे। वैसे तो चंदन साहब हवा में उड़ते फिरते थे, पर उन्हें लगता था कि उपन्यास पर उतना काम नहीं हो रहा जितना होना चाहिए था। इस बात का उन्हें मित्रों से गिला-सा भी था। शायद वह चाहते थे कि हर समय हवा में चंदन ही चंदन सुनाई देता रहे। उन्हें इस बात की बड़ी तकलीफ़ थी कि डॉ. हरिभजन सिंह उसके उपन्यास पर क्यों नहीं लिख रहे। वह कैसे लिख सकते थे, उन्हें तो चंदन साहब ने अपमानित करके अपने घर से बाहर निकाल दिया था। मुझसे प्रायः गिला करते रहते कि मेरा गुरू उसके उपन्यास पर कुछ क्यों नहीं लिखता। इन्होंने दो बार डॉक्टर साहब तक खुद ही अप्रोच की थी, पर उन्होंने टरका दिया था।

घर में मित्रों की महफ़िल जमती तो चंदन साहब कहते -

“यारो, तुम मुझे समूचा गल्पकार मानो। मैं बढ़िया कहानीकार हूँ, बढ़िया उपन्यासकार।“

“नहीं, तू उपन्यासकार तो बढ़िया है, पर कहानीकार नहीं। कहानी में दम नहीं है।“

डॉ. नूर कहते। ऐसी ही किसी बात पर कई बार झड़पें भी हो जाती। नाराजगियाँ भी हो जाती। और बाद में सुलह-सफाई भी। एकबार प्रीतम बतरा के साथ किसी बात पर चंदन साहब का झगड़ा हो गया और चंदन साहब ने बतरा को किरदार बनाकर एक कहानी लिख दी जिसके कारण साहित्यिक मित्रों में नाराजगी सी फैलने गी। डॉ. हरिभजन सिंह वाला ग्रुप तो पहले ही चंदन साहब के खिलाफ़ था, अब कुछ अन्य लेखक भी विरोध में खड़े हो गए। इसका एक अन्य प्रभाव यह भी पड़ा कि इनके उपन्यास पर बातचीत होनी एकदम ही बंद हो गई। चंदन साहब इसका कारण तलाशने लगते, पर कुछ हाथ न आता। उन्हें अपनी की हुई गलतियाँ कभी नज़र नहीं आती थीं।

चंदन साहब की नज़र दो पुरस्कारों पर थी। एक तो भारतीय साहित्य अकादमी के पुरस्कार पर, दूसरी पंजाबी अकादेमी के अवार्ड पर। दोनों मंे ही किसी न किसी तरह डॉ. हरिभजन सिंह की पहुँच थी। वे ऐसा कैसे होने देते। लेकिन चंदन साहब अपनी पहुँच का इस्तेमाल करते हुए पूरा ज़ोर लगाते। भारतीय साहित्य अकादमी में तो इनका नाम इस कारण खारिज कर दिया गया कि इनके पास ब्रितानवी सिटीज़नशिप थी। भारतीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार केवल भारतीय लेखकों के लिए ही था। पंजाबी अकादमी वाले इनाम के लिए चंदन साहब ने मित्रों को लामबंद किया। वह इनाम के बहुत करीब पहुँच भी गए थे, पर डॉ. हरिभजन सिंह के दख़ल से वह पीछे रह गए और इनाम नवतेज पुआधी को दे दिया गया। चंदन साहब बहुत दुखी हुए। शराब पीकर लोगों को गालियाँ बकते रहे।

अब चंदन साहब का मित्रों के प्रति व्यवहार बेहद रूखा हो गया था। वह सहज ही झगड़ा करने लग पडते। उनकी सबसे अधिक मित्रता डाॅ. नूर के साथ थी और झगड़ा भी उनके साथ ही होता। फिर आधी आधी रात तक नूर को फोन करते रहते। इनाम न मिलने के कारण उन्हें सारी दिल्ली ही दुश्मन दिखाई देने लग पड़ी थी। जिस दिन उनका किसी के साथ झगड़ा हो गया होता, उस दिन घर में आफत मचाये रखते। घर के नौकर को भी बुराभला बोलने लगते। एक दिन कहने लगे -

“ये नूर कहता कुछ है और करता कुछ और है। मंचों पर कुछ और बोलता है और महफिलों में कुछ और। लोग डबलफेस क्यों हैं ?”

“आपने यूँ ही नूर साहब के साथ बिगाड़ लिया। पहले ही इतने दुश्मन बने हुए हैं।”

“दुश्मन इसलिए है कि मेरे पास दिमाग है जो इनके पास नहीं है। ये मोटे दिमाग के मालिक कुर्सियों पर बैठकर चमड़े की चला रहे हैं। जिस दिन मुझे अवसर मिल गया, मैं नूर को तो नंगा कर दूँगा।”

“चंदन जी, कमरे में बैठकर हुई लड़ाइयों को दोस्त भूल जाया करते हैं, पर मंच पर हुए झगड़े की आवाज़ दूर तक जाया करती है और सामने वाला भूलता नहीं।”

“और क्या बिगाड़ लेंगे मेरा ? मेरे उपन्यास को इन्होंने बर्बाद करके रख दिया, इनाम मुझे लेने नहीं दिया।”

चंदन साहब मुझे झिड़कते हुए यूँ कहने लगे मानो कह रहे हों कि तू मेरी ओर है कि नूर की ओर। खीझे-से तो वह हर समय रहने लगे थे। उनकी शराब ने कुछ पार्टियाँ भी खराब कर दी थीं। शराब पीकर तो उन्हें पता ही नहीं रहता था कि क्या कहना है, क्या नहीं। हालांकि दोस्त उनके स्वभाव के अभ्यस्त हो चुके थे, पर जब पराये लोग भी बीच में बैठे होते तो चंदन साहब की कही फालतू बात अधिक चुभती। किसी के साथ पंगा लेने के समय तो वह दूसरी बार सोचते ही नहीं थे। एस. बलवंत हमारे नीचे वाले फ्लैट में रहता था, उसके साथ भी कई बार झगड़ा कर बैठते थे।

एक दिन वह मुझे बोले-

“तू अर्ली रिटायरमेंट ले ले।”

“क्यों ?”

“बस, तुझे कह दिया। हमें जब भी इंग्लैंड जाना होता है तो बार बार छुट्टी लेनी पड़ती है। यह भी हो सकता है कि दोबारा लंदन में ही सैटल हो जाएँ।”

“जब जाना होगा, देख लेंगे। नहीं तो लंबी छुट्टी ले लूँगी।”

“नहीं, अर्ली रिटायरमेंट !”

वह हुक्म सुना रहे थे। इन्हीं दिनों हमने अपने घर में एक पार्टी रखी। इस पार्टी का उद्देश्य भी यही था कि बढ़ रही नाराजगियों को कम किया जाए। यहीं मेरे द्वारा अर्ली रिटायरमेंट लेने की बात चल पड़ी। सभी एक ही स्वर में मेरे इस अर्ली रिटायरमेंट का विरोध करने लगे। जब काम पर से लंबा अवकाश मिल सकता था तो रिटायरमेंट लेने का क्या मतलब। अगले दिन चंदन साहब ने मेरे ऊपर रिटायरमेंट के लिए फिर ज़ोर डालना शुरू कर दिया। मैंने कहा -

“चंदन जी, देखो, सभी दोस्त कह रहे हैं कि अभी रिटायरमेंट नहीं लेनी चाहिए।”

“तू ब्याही मेरे साथ है कि दोस्तों के साथ ?”

उन्होंने पूरे गुस्से में यह वाक्य बोला।

एक बात मैं पहले दिन से ही देखती आ रही थी कि इन्हें मेरा काम पर जाना अच्छा नहीं लगता। शायद यह मेरे रुतबे के कारण था या कोई अन्य पुरुषों वाला प्रदर्शन या वह घर में अकेला रहकर अकेलापन महसूस करते थे। और मैं थी कि मुझे काम करना बहुत अच्छा लगता था। फिर अध्यापन तो मेरा मनभावन काम था। वह अकेले होने पर दिन में भी शराब पी लेते। अपना बचपन याद कर रोते रहते। मैं घर लौटती तो बच्चों की भाँति रोने लगते। ऐसी ज़िद में आते कि चीज़ें तोड़ने लग जाते। मैं इस मामले में कुछ करना भी चाहूँ तो नहीं कर सकती थी क्योंकि वह अपनी बात से टस-से-मस नहीं होते थे। एक समारोह में डॉ. सुतिंदर सिंह नूर ने परचा पढ़ना था। चंदन साहब को परचे के विषय का पता चला तो वह उस पर बोलने के लिए तैयारी करने लगे। जब यह लंदन में डॉ. हरिभजन सिंह के खिलाफ़ बोले थे तो पहले उनकी सारी किताबें पढ़कर तैयारी की थी। वैसी ही तैयारी करने लगे। चंदन साहब समारोह में गए और जब उनकी बारी आई तो नूर के खिलाफ़ डटकर बोले। सभी देखते रहे गए कि इनकी परस्पर इतनी मित्रता है और यह क्या हो रहा है। उस दिन के बाद डॉ. नूर के साथ चंदन साहब की दुश्मनी की शुरूआत हो गई। पहले तो डॉ. हरिभजन सिंह ही थे, अब नूर और उनके सभी साथी चंदन साहब को हर क्षेत्र में पछाड़ने लगे थे। चंदन साहब भी उनका मुकाबला करने के लिए नए नए ढंग ढूँढ़ते रहते। नई मित्रताएँ तलाशने की कोशिश करते। दिल्ली में उनको नापसंद करने वालों की संख्या बढ़ रही थी। मैं तो मूक तमाशा देखने योग्य ही थी। वह मेरी बात सुनते ही नहीं थे, माननी तो क्या थी। नूर के सभी दोस्त इनके एकदम खिलाफ़ हो गए। एक अन्य पार्टी में इनका नूर के साथ झगड़ा हो गया। यह नूर से बोले -

“तू इंग्लैंड में घुसकर दिखाना...!”

(जारी…)