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ज़िद्दी निशा

में निशा सरकारी होस्पिटल के प्राइवेट रूम से, यहां अपने इलाज़ के लिए भर्ती हूँ इस वक़्त और कोई भी यहां नहीं है इसीलिए वक़्त नहीं गुजर रहा इसीलिए कुछ लिखे के लिए कॉपी लेकर बैठी हूँ । मैं कोई लेखक नहीं इसीलिए कोई उम्दा कहानी या लेख लिखने मेरे बस का नहीं बस जो हुआ वही लिख रही हूँ ।

मैं निशा उम्र ४० वर्ष सरकारी होस्पिटल के प्राइवेट रूम से, यहां भर्ती हूँ परन्तु अपने इलाज़ के लिए नहीं | आश्यर्य क्यों कुछ लोग बिना इलाज की जरूरत के भी हॉस्पिटल मैं जाते हैं | जब करमारियों को मेडिकल लीव लेना होता है तब अक्सर ऐसा ही करते है | शायद आपने सही कहा मेडिकल लीव के लिए भर्ती होने की जरूरत नहीं होती | कभी कभी मजबूरी मैं होना पड़ जाता है और फिर मैं कर्मचारी भी नहीीं

सुबह के 9 बजने वाले है अभी अभी मम्मी नाश्ता करवाने के बाद घर गयी है दोपहर मै खाना लेकर आने में अभी कुछ घंटे बाकी है | इन कुछ घंटों के दौरान में अकेली हूँ । ऐसा नहीं है कि कोई साथ रहना नहीं चाहता परंतु सब मजबूर है । पापा और बड़े भाई को दुकान खोलने सुबह जल्दी जाना होता है । दुकान तो खोलनी ही पड़ेगी वरना मेरे इलाज़ का खर्च कैसे उठा पाएंगे पापा । मम्मी पापा बहुत अमीर नहीं है की घर पर नौकर रखे जा सकें इसीलिए मम्मी का घर जाना भी जरूरी है वरना खाना कौन बनाएगा । मुझे यहां हॉस्पिटल में भर्ती हुए तकरीबन 15 दिन हो गए है पहले हफ्ते तो पूरा परिवार 24 घंटे मेरे पास ही रहा फिर धीरे धीरे सब जरूरी काम धंदे पर भी जाने लगे गए । मुझे तो अभी हॉस्पिटल में तकरीबन 3 महीने और रहना है इतने लंबे समय तक ना तो दुकान बंद करना संभव है और ना ही घर के जरूरी काम रोके जा सकते है इसीलिए अकेले रहने के बावजूद किसी से शिकायात नहीं है

ओह हाँ पति भी है और सास ससुर भी परन्तु। . . . . . . . . छोडो उनको फिर कभी बताऊंगी

आज मैं यहां हॉस्पिटल मैं अपने खुद के कारण ही हूँ इसीलिए किसी से शिकायत की भी नहीं जा सकती | पापा अमीर नहीं हैं परन्तु गरीब भी नहीं है | घर पर सामान्य सुख सुविधा के साधन मौजूद है | बचपन से ही एक अनुशाषित दिनचर्या का पालन करना मेरी आदत मैं शुमार रहा है | यह आदत मुझे अपने पापा से ही मिली है | जब छोटी थी तब से पापा मुझे और बड़े भाई को सुबह जल्दी उठा दिया करते थे और फिर हम दोनों को लेकर नज़दीकी पार्क मैं मॉर्निंग वाक के लिए चल देते | पार्क मैं पापा अपने जानकार दोस्तों के साथ घूमने मैं एक घंटा व्यतीत करते और हम दोनों भाई बहन पार्क मैं ही जॉगिंग करते रहते कभी कभी रेस भी लगाते | इस तरह की रेस मैं हमेशा ही मैंने अपने बड़े हराया, कई बार मैं अपनी मेहनत के कारन और कई बार बड़े भाई जान बूज कर हार जाते |

बचपन आनंद से गुजरा कब 15 साल की हो गयी पता ही नहीं चला | यह ऐसा वक़्त था जब भविष्य के बारे मैं सोचने और मेहनत करने का वक़्त था | हम भाई बहन ने मेहनत भी बहुत की परन्तु ना जाने कब भाई बहन के बीच का प्यार कॉम्पिटिशन मैं बदल गया | शायद इसी कॉम्पिटिशन की भावना के कारण ही कॉलेज मैं मैंने वही सब करने का प्रयास शुरू कर दिया जो बड़े भाई ने किया | कभी कभी सोचती हूँ की कॉम्पिटिशन के चक्कर मैं मैंने वह सब तो किया ही नहीं जो मैं कर सकती थी बस वही सब किया जो बड़े भाई करते थे |

कई बार मुझे लगता है की क्या मैं एक ऐसे कॉम्पिटिशन मैं दौड़ रही थी जिसमे बड़े भाई दौड़ ही नहीं रहे थे या इस तरह कहा जाये की मैं एक ऐसे ट्रैक मैं दौड़ रही थी जो मेरे लिए बना ही नहीं था | परन्तु यह बात समझ मैं आज आ रही है जब बहुत देर हो चुकी है | कॉलेज का वक़्त वह वक़्त था जब मुझे अपने भविष्य का निर्माण करने था और मैंने वह सारा वक़्त बड़े भाई से कॉम्पिटिशन मैं गुजर दिया |

और शायद कॉम्पिटिशन मैं जीत भी जाती क्योंकि बड़े भाई मुझे हारने नहीं देते परन्तु यह उनके हाथ मैं तो नहीं था |

बड़े भाई बचपन से ही खिलाडी टाइप के थे | मैं भी काम नहीं थी परन्तु बड़े भाई को तो प्राकृतिक ने जैसे खिलाडी बनने के लिए ही पैदा किया था | उन्होंने स्कूल टाइम से ही कई तरह के खेलों मैं भाग लेना शुरू कर दिया था | कॉलेज आते आते उन्होंने खुद के समर्थ के अनुसार फूटबाल का चयन कर किया और राष्ट्रीय टीम मैं भी जगह बना ली | मुझे भी खेल पसंद थे परन्तु इसे मेरी प्राकृतिक देन कहना शायद अतिशोक्ति ही हो जाएगी | इसके बावजूद मैंने कई तरह के खेलकूद मैं भाग लिया एयर आखिर मैं मैंने भी फूटबाल टीम मैं नाम लिखवा दिया | शायद यह कॉम्पिटिशन ही था जिसके कारन मैंने फूटबाल को चुना | या शायद मुझमे भी फूटबाल की प्राकृतिक संभावनाएं थी ? पता नहीं

शायद मुझमे फूटबाल की संभावनाएं नहीं थी शायद इसिली कारण ही मैं फूटबाल मैं अपनी पहचान नहीं बना सकी | और अगर ईमानदारी से पूछो तो मैं बताऊंगी की मुझे बैडमिंटन फूटबाल से ज्यादा पसंद है | फिर भी मैं फूटबाल चुना पर क्यों ?

कारन शायद मुझे भी नहीं पता | मुझे लगता है की मैंने बड़े भाई के साथ कॉम्पिटिशन शुरू किया उसका कारण शायद हमारा समाज, TV और सोशल मीडिया रहा होगा | बचपन मैं कॉम्पिटिशन नहीं था फिर धीरे धीरे आस पास के समाज ने TV ने सोशल मीडिया ने मुझे प्रभावित किए और मुझे अपने बड़े भाई के साथ ही कॉम्पिटिशन मैं ला दिया | यह सब कब शुरू हुआ खान मुश्किल है पर मुझे एक घटना याद आ रही है जिसे अगर शुरुआत नहीं भी मन जाये तो भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है |

उस वक़्त मैं बोर्ड के एग्जाम मैं पास हुई थी और इसी ख़ुशी मैं पापा ने मुझे बैडमिंटन सेट ला कर दिया था | एक साल पहले ही बड़े भाई ने बोर्ड क्लियर किया था और उसे पापा ने फूटबाल ला कर दिया था | बोर्ड क्लियर करने पर बड़े भाई को पापा ने गिफ्ट दिया और मुझे भी दिया परन्तु मुझे लगा की पापा ने बड़े भाई को फूटबाल दिया क्योंकि वह लड़का है और मुझे बैडमिंटन क्योंकि मैं लड़की हूँ | और मैंने पापा से ज़िद करके फूटबाल मंगवाया और पापा ने ला भी दिया

आज सोचने पर लगता है की पापा ने बैडमिंटन ला कर दिया क्योंकि मुझे बैडमिंटन पसंद था

आखिर लड़के और लड़की का भेद मेरे दिमाग मैं कहाँ से आ गया ? मुझे लगता है की इसका कारण मेरे घर पर नहीं बल्कि TV एवं सोशल मीडिया की काल्पनिक दुनिया से ही मेरे दिमाग मैं घर कर गया इसीलिए मुझे भी ज़िद थी वही सब करने की जो बड़े भाई कर रहे थे | बड़े भाई लॉ कर रहे थे इसीलिए मैंने भी लॉ मैं एडमिशन लिया जबकि मुझे लिटरेचर पसंद था | बड़े भाई फूटबाल खेल रहे थे और मैंने भी फूटबाल खेला जबकि मुझे बैडमिंटन पसंद था |

आखिर यह कॉम्पिटिशन आया कहाँ से ?

क्या वास्तव मैं घर पर मेरे साथ भेदभाव हो रहा था या अपने चारो तरफ फैले वातावरण ने मुझे भेदभाव का अहसास करवा कर अपनी लाइफ से निकल कर बड़े भाई की लाइफ जीने के लिए मज्ब्बूर कर दिया |

वैसे जहां तक मुझे याद है मेरे मम्मी पापा ने मुझे वही दिया जो मुझे पसंद था या जो वो सोचते थे कि मेरे लिए बेहतर है और मैं हमेशा बड़े भाई से कम्पटीशन करती रही नतीजा आज हॉस्पिटल मैं आराम कर रही हूँ

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