बहू आई है तो Satish Sardana Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बहू आई है तो



वह आज की आखिरी क्लास खत्म करके धीरे धीरे चला आ रहा था।कितना खराब गुजरा था आज का दिन।शुक्र है स्कूल में उसका यह आखिरी साल था।उसके बाद उसने इस सड़े से शहर में रहना ही नहीं।किसी अच्छी जगह रहेगा, मुंबई या दिल्ली!
यह सोचता वह आगे बढ़ ही रहा था कि उसे स्वर्ण दीदी दिखाई दी,स्वर्ण ने उसे आवाज़ दी।"दिनेश!दिनेश!!सुन!सुन!!"
उसके बढ़ते कदम वहीं ठिठक गए।स्वर्ण अब तक पास आ गई थी।
"राजे!ये बूढ़े की दुकान से एक चाय पत्ती का पैकेट और एक एक बिस्कुट भुजिया का पैकेट ले आ!जल्दी करके।घर मे मेहमान आये हैं।"
उसने उसे सौ का नोट पकड़ाया और तेज तेज कदमों से वापिस हो ली।
उसने बताया हुआ सामान खरीदा।यह सोचता हुआ कि कौन आया होगा वह अपने चाचा के घर में प्रवेश कर गया।स्वर्ण दिनेश के चाचा की बेटी थी।स्वर्ण के अलावा उसके चाचा का एक बेटा भी था हो बाहर रहकर कुछ पढ़ाई कर रहा था।दिनेश का घर पास ही गली में था।उसकी एक छोटी बहन थी।
स्वर्ण रसोई में ही थी।वह सामान रखता हुआ बोला,"कौन आया है दीदी।"
"मेहमान!तू जरा उपर से यह टी सेट निकाल दे।"
"कौन मेहमान!"वह पत्थर की स्लैब पर जूते उतार कर चढ़ा।
"ध्यान से!"स्वर्ण ने उसके हाथ से टी सेट पकड़ा।
"तू जरा मेहमानों के पास जाकर बैठ!तेरे चाचा चाची आते ही होंगे।"
"स्कूल ड्रेस में?"उसने स्वर्ण दीदी से प्रश्न किया।दीदी हँसी।"तुझे नहीं मुझे देखने आए हैं वे लोग!"वह उसे धकेलते हूए बोली,"जा मेरा राजा भैया।"
उसकी उत्सुकता बढ़ी।लेकिन मेहमानों के सामने जाने से पहले उसने शर्ट को करीने से पेंट में दबाया।जूते साफ किये।शीशे के सामने खड़े होकर बाल सँवारे।स्वर्ण पीछे खड़ी मुस्कराती रही।
तीन लोग थे कुल टोटल!एक लंबा सा स्मार्ट लड़का।एक ठिगना सा डबल नाक वाला गठीला सा लड़का या आदमी।तीसरा सफेद धोती कुर्ते में मुड़ी देहवाला बन्दरमुंह वाला लाल सा बूढ़ा।
स्वर्ण दीदी के सामने तो ये तीनों मैले से लगेंगे।उसने सोचा और उनको आदर से नमस्ते किया।
उन्होंने उसकी नमस्ते ले ली।फिर आपस में बातें करने लगे।शायद फसलों के बारे में कुछ बातें थी।या शायद औरतों के बारे में या शायद दोनों के बारे में।उसे कुछ खास रुचि उनकी बातों में न जगी।उसका मन कर रहा था कि उठकर घर जाए और रगड़ रगड़ कर नहाए।उन लोगों की भी उसकी उपस्थिति में कोई रुचि नहीं थी।लेकिन स्वर्ण दीदी ने कहा था कि उसके रिश्ते की बात है तो बैठना तो पड़ेगा ही।
बाहर स्कूटर रुकने की आवाज आई।चाचा चाची आ गए थे।चाचा सिंगल पसली के हमेशा के मरीज आदमी थे और चाची कुछ ज्यादा ही तंदरुस्त।एक लंबा एक ठिगनी।एक चुप्पा दूसरी चर चर!
चाची अंदर आई।दोनों आदमी उठे और चरण स्पर्श किया।बूढ़ा खि खि करता बैठा रहा।यह संवाद जब चल ही रहा था,तब चाची की नजर दिनेश पर पड़ी।
"तुम कैसे आए दिनेश।स्कूल से सीधे।कपड़े भी नहीं बदले।"चाची जहर बुझी मुस्कान बिखेरती उससे पूछ रही थी।
"मैं तो घर जा रहा था।स्वर्ण दीदी ने बुला लिया।बोली,मेहमानों के पास बैठ।अब आप आ गए हैं तो मैं जा रहा हूँ।"वह उठकर चल दिया।
"सुन!अपनी मां से कुछ मत कहियो!नहीं तो तेरी मां मोहल्ले भर में बताती फिरेगी कि स्वर्ण को देखने लड़का आया था।"चाची उसे जाते देख रोककर बोली।दिनेश को चाची की बात नागवार गुजरी।
"मेरी माँ नहीं,आप बताती हैं मोहल्ले में।"यह कहता हुआ वह बस्ता उठाकर दौड़ गया।
"देखा!कैसी शिक्षा दी है संतोष ने लड़के को।"चाची चाचा को संबोधित करके आँखें नचाकर और हाथ घुमाकर बोली।ऐसे पोज़ में वह बिल्कुल मनोरमा लग रही थी।संतोष उसकी जेठानी का नाम था जो रहती तो उसी मोहल्ले में थी लेकिन देवरानी जेठानी में आपस में बनती कम ही थी।
"अरे!छोड़ो!!रामबाई ,बच्चा ही तो है।बच्चे की बात पर क्या ध्यान देना।"चाचा यशराज ने इतना कहा तो चाची यानि रामबाई का मुँह फूल गया।
स्वर्ण चाय ले आई थी।साथ में बिस्कुट नमकीन।आलू के पकोड़े भी रखे थे,टोमेटो चटनी के साथ।
तीनों तुरंत चाय और नमकीन बिस्कुट पर लगभग टूट पड़े।स्वर्ण और उसके मां बाप ने उन्हें अचंभे से देखा।इतने में सब खत्म!!
"कई दिन के भूखे थे क्या !"स्वर्ण के पिता ने व्यंग्यात्मक हँसी की लेकिन आगंतुकों ने उस पर कोई कान न दिया।
"है है!अपना ही घर है।अपने घर में क्या संकोच!बड़ा अच्छा लगा जी आप आए!"रामबाई हैं हैं करते हुए बोली।
धोती कुर्ते वाले बूढ़े ने रामबाई को पूछा,"बहन जी।थोड़ी और चाय है क्या!वो ऐसा है कि मुझे दो कप चाय पीने की आदत है।दो कप के बगैर मुझे आनंद ही नहीं आता।"
"जी जरूर!"रामबाई किचन को भागी।स्वर्ण यह सुनकर चाय नए कप में डालकर ट्रे में रख चुकी थी।
"ला रही हूँ माँ!"स्वर्ण मुस्कराते हुए बोली,"कैसे भुक्खड़ और नदीदे लोग हैं।"
"चुप"रामबाई ने प्यार से उसे एक हवाई चपत लगाई।"देहाती लोग हैं।सीधे सादे।पचास एकड़ जमीन का इकलौता मालिक बनेगा लड़का।बुड्ढा कितने दिन जिएगा।ऐश करेगी ऐश!!"
स्वर्ण ड्राइंग रूम में जा चुकी थी।रामबाई खड़ी होकर सोचने लगी।आठवीं में फेल होकर उसकी बेटी स्वर्ण पाँच साल से घर बैठी थी।दसूती चादर काढ़ना,प्रिंट कर बेडशीट और तकिए पर कलाकृति बनाना।रबड़ की गेंद पर आलपिन से मोती और सितारे टांकना।सिलाई कटाई,खाना बनाना,अचार डालना।हारमोनियम पर भजन और शब्द गाना कितना कुछ तो स्वर्ण सीख चुकी थी लेकिन कोई लड़के वाला पसंद ही नहीं करता था।मुलाजिम तो आठवीं फेल सुनते ही नाक मार जाते थे।दुकानदार मोटे माल न मिलने की संभावना ताड़ रंग रूप,कद काठी मैच न होने की कहानी बना खा पीकर चले जाते थे।
उसकी जेठानी जगह जगह कहती फिरती थी कि स्वर्ण को तो पंद्रह लड़के रिजेक्ट कर चुके हैं।यह बात सुनकर रामबाई खून का घूँट पीकर रह जाती थी।खैर!!अबके बात बनने की आस थी।घर में बूढ़े बाप और तीस की उम्र तक पहुंचे कुंवारे लड़के के सिवाय कोई न था।लड़के की माँ गुजर चुकी थी।पाँच बहने थी सब की सब शादीशुदा।बहनों को कितना एक महत्व ये लोग देते थे कि लड़की देखने अकेले ही चले आये थे।साथ में बिचौलिया था जो उनका भी रिश्तेदार था हमारा भी।
रामबाई ड्राईंग रूम की तरफ़ आगे बढ़ी।धोती कुर्ता वाला बूढ़ा बोल रहा था,"सेठ साहब!आपकी बेटी हमें पसंद है।रंग तो बनाने वाले ने दो ही बनाये हैं।एक गोरा एक काला।आपकी लड़की ज्यादा सुंदर नहीं है तो हमारा काहन चंद ही कौन सा राजेश खन्ना है।हमें ज्यादा सुंदर लड़की चाहिए भी नहीं।बस जोड़ होना चाहिए।जोड़ तो मिल रहा है।आप मंजूरी दें तो गुरपुरब शुभ दिहाड़ा है।रोका कर जायेंगे।"
पुरुष ने अपनी स्त्री की तरफ़ देखा।इस मामले में वह अपनी स्त्री की बात मानता था।
"मंजूर है जी!मंजूर है!!धन्यभाग साडे!इतने ऊंचे, इतने खानदानी परिवार से रिश्ता जुड़ रहा है जी।गरीब लोग हैं जी हम!!जो बन पड़ेगा करेंगे।आपकी कोई माँग तो नहीं है?हैं हैं जी,पूछना पड़ता है।जमाना बदल गया है जी।बुरा मत मानना!"व्यवहार कुशल रामबाई बातों को लपेटकर कह रही थी।
पुरुष को अपनी पत्नी पर भरोसा गलत नहीं था।वह अपनी योग्यता भली भांति साबित कर रही थी।
"मैंने पाँच बेटियाँ ब्याही हैं।दहेज़ के लालची लोगों से परे रहा हूँ।इसलिए मेरी बेटियाँ अपने अपने घर संसार में खुश और संतुष्ट हैं।इसलिए बहन जी,हमें तो आपकी लड़की तीन कपड़ों में भी मंजूर है।जिसने अपनी लड़की दे दी,सब कुछ दे दिया।"बूढ़े की बात सुनकर रामबाई की खुशी का ठिकाना न रहा।उसने अपने पति की तरफ देखा।पति के बोलने की बारी थी,"चौधरी साहब!जो बन पड़ेगा।हम करेंगे।बेटी की शादी की हमारी भी रीझें हैं।उनको पूरा करना ही है।
रामबाई किचन से जाकर सेब,नारियल और ड्राई फ्रूट का एक डिब्बा उठा लाई थी।उसके ऊपर पाँच सौ का नोट देते हुए पति से बोली,"लड़के की झोली में डालो जी!"
यह सुनकर ठिगना लड़का उठ खड़ा हुआ और अपने भावी ससुर के पैर छू लिए।भावी ससुर ने पैर छूते लड़के को गौर से देखा।उसे उसकी आँखों के पास झुर्रियों की रेखा दिखाई दी।शक़्ल भी दो रंगी थी।घर बनाई दाढ़ी की वजह से कहीं कहीं खूंट छूट गए थे।उनमें से एक खूंट सफ़ेद सा था।क्या लड़का तीस साल से भी ज्यादा उम्र का था।क्या वह उसकी कन्या के लिए उपयुक्त वर था।फिर उसे पचास एकड़ याद आए।उसने सारा सामान और पाँच सौ का नोट उसकी झोली में डाल दिया।
लड़के वाले जा चुके थे।पति पत्नी बेडरूम में बैठे हिसाब किताब जोड़ रहे थे।गुरपुरब दो दिन बाद ही था।पति की पटियाला बैंक की पास बुक और पत्नी की पी एन बी की एफ डी सामने रखी थी।किसको बुलाना है किसको नहीं।यह गहन चर्चा जोरों पर थी।लड़का बाहर रहकर पढ़ता था।उसे उसके मकान मालिक के फिक्स्ड लाइन फोन पर सूचित किया जा चुका था।स्वर्ण अपनी संगीत कक्षा में गई थी।हालांकि उसे पता था कि इस हुनर की अब कोई जरूरत नहीं पड़नी थी।
कुछ भी हो स्वर्ण को अपना होने वाला पति बहुत अच्छा लगा।वह ऐसा पति चाहती ही नहीं थी जो ज्यादा स्मार्ट हो।क्योंकि ऐसे दूल्हे शादी के बाजार में बड़े मँहगे भाव पर मिलते हैं और एक बार दाम चुका देने के बाद भी उनकी माँगे खत्म ही नहीं होती।वह जानती थी कि उसके पिता की इतनी हैसियत ही नहीं थी कि वे ऐसा लड़का उसके लिए खरीद पाते।
लड़की ने लड़के को अंगूठी पहना दी थी।लड़का पहले ही पहना चुका था।लड़के वालों के लिए पाँच पेटियां फल की मंगवाई गई थी।ग्यारह डिब्बे मिठाई के थे।आदमी और औरतों के लिए पाँच पाँच जोड़ी कपड़े थे।दूल्हे के लिए अलग से पाँच जोड़ी कपड़े थे।लड़के वाले प्रत्यक्षतः खुश दिख रहे थे।स्वर्ण को उसकी होने वाली पाँच ननदें घेरे बैठी थी और उसके नरम हाथ पैरों को ईर्ष्या और प्रशंसा से देख रही थी।घर गृहस्थी के कामों और ऊपर से खेत-पशुओं की देखभाल से उनके खुरदुरे हुए हाथ पैर नए कपड़े पहने होने के बावजूद भद्दे और बेडोल दिख रहे थे।उनके पिता ने उनके लिए दहेज खर्च नहीं किया था इसलिए वे साधारण किसानों की पत्नियां ही बन पाई थी।किसान भी ऐसे जो एक खेत मजदूर की मजदूरी बचाने के लिए पत्नी से ही खेत का काम करवाते थे।सुबह उठकर चक्की चलाकर आटा पीसने से लेकर,भैंसों का गोबर कूड़ा करने का काम उनके जिम्मे था।घर का रोटी टूक का काम जल्दी जल्दी खत्म कर वे खेतों की तरफ़ भागती हैं।शाम को घर लौट के आने पर पशुओं के लिए चारा काटने की मशीन चलाने से लेकर दूध काढ़ने तक के काम में मर्द की मदद करनी होती है।रात को थक हारकर बिस्तर के हवाले होती हैं तो आंखों में होती है नींद।उसी रात में सोना भी होता है और उसी रात में पति को संतुष्ट करके संतान उत्पत्ति का मार्ग भी तैयार करते रहना होता है।यह कोमलांगी ऐसे कठोर ,निर्मम वातावरण में कितने दिन टिक पाएगी।टिक भी पाएगी या नहीं।बीच रास्ते में भाग तो नहीं खड़ी होगी।
सगाई हुई तो शादी तो होनी ही थी।दो महीने बाद का एक रविवार चुन लिया गया था।दोनों परिवार गुरुघर को मानते थे।मुहूर्त निकलवाने,शुभ दिन देखने जैसा कोई टंटा न था।दिन में शादी थी,बड़े गुरद्वारे में।दिनेश ने नया कोट पेंट सिलवाया था चचेरी बहन की शादी के लिए।स्वर्ण उसके लिए सगी बहन से बढ़कर थी।उससे उसने सायकिल चलाना सीखा था।गीटे खेलने सीखे थे।स्टापू में जब वह हार जाता था,स्वर्ण ही उसे सांत्वना देती थी।चाचा ने उसे पहले ही बता दिया था कि स्वर्ण के साथ डोली में वह जाएगा ऐसी स्वर्ण की इच्छा थी।स्वर्ण का अपना सगा भाई ऐसी किसी रस्म के चक्कर में न पड़ता था और चाची के मायके वाले दिल्ली निवासी थे।कोई भी अपने लड़के को डोली साथ गाँव में। भेजने को राजी न हुआ।चाची भी मन मसोस कर रह गई।अब जेठानी को स्वर्ण के ससुराल की भी खबर मिलेगी।वह बढ़ा चढ़ा कर मोहल्ले में बता कर उसकी हँसी उड़वायेगी।
चाची की दिल्ली वाली बहनें चाची की सबसे बड़ी दुश्मन साबित हुई।वे कब उसकी पुरानी दुश्मन उसकी जेठानी के साथ मिलकर गैंग बना बैठी उसे आभास ही न हुआ।हुआ यूं कि उसके जेठ जेठानी का घर बड़ा था और नया बना था इसलिए दिल्ली वाले रिश्तेदार वहीं ठहरे हूए थे।बचे खुचे नहाने धोने वहीं पहुँच गए क्योंकि उनके बाथरूम में इलेक्ट्रिक गीजर था जबकि शादी वाले घर में बर्तन भरकर चूल्हे पर रखना होता था तभी गर्म पानी मिलता था।जो भी वहाँ गया या रुका उसकी उसकी जेठानी से कुछ न कुछ बात होती थी।उन्हें जेठानी ने स्वर्ण के लिए अच्छी ससुराल न मिलने।पढ़ा लिखा सभ्य संस्कारी बच्चा न मिलने की वह दर्दनाक कहानी सुनाई कि सब एक स्वर में रामबाई को ही इसके लिए जिम्मेदार समझने लगे।
दूल्हे और उसके साथ आए उज्जड़ देहातियों को देखकर उनका दिल बैठ गया। उनके अपने दामाद लोग अपनी अपनी पत्नियों की ताबेदारी करते थे।जब उनकी बेटियाँ तैयार होकर वन सवन्नी साड़ियाँ लगाकर,पफ वाले जूड़े बनाकर तैयार हो चुकी तो उनके दामाद बच्चों को गोद में उठाये उनके पीछे चले।कनॉट प्लेस,चाँदनी चौक की दुकानों या गुड़गांव नोएडा वसंत कुंज के मॉल से खरीदे गए बेहतर थ्री पीस सूटों के सामने बारात में आए ग्रामीणों के पहने धोती चादरों, चार खाने के स्वेटरों और पुराने जमाने के ब्रैस्ट कोटों की क्या हैसियत थी।
रामबाई की बड़ी वाली बहन का पति दिल्ली में चाय का ठेला लगाते लगाते पहले पहले खोखा मालिक,फिर ए सी रेस्टौरेंट का मालिक बना था,अगर साईकल भी खरीदनी हो तो पंडित से मुहूर्त पूछता था।वह और उसका परिवार उपहास करने में सबसे आगे था।उन्हें तो यह बात ही हज़म नहीं हुई थी कि वे लोग हिंदू होकर शादी आनंद कारज से कर रहे थे।उनके दिल्ली में तो पंडित जी हिंदुओं के फेरे विधि विधान से वैदिक रीति से करवाते थे और सिख गुरुग्रंथ से लांवां लेते थे।यह किस तरह का विवाह था!खैर!!
स्वर्ण दुल्हन बनकर ससुराल आ गई थी।उसने महसूस किया कि उसके ससुराल में कोई घर जैसा हिसाब किताब या माहौल न था।ननदों को अपने अपने घर सँभालने थे।सास कब की गुजर चुकी थी।घर में रह गए वे चार जन, उसका पति,ससुर,वह खुद और दूर के रिश्ते की वृद्धा नानी।नानी को किसी बात से सरोकार न था।वह बैठी माला फेर कर नाम जपा करती।ससुर खेती क्यारी के कामों में लग गए।पति दिनेश को गाँव दिखाने ले गए।फेरा डाल दिया गया था।अब दिनेश भी चला गया था।सब कुछ उसे ही संभालना था।
ससुर दो दो दिन कपड़े न बदलते थे।पति मैला बनियान पायजामा पहने ही घूमते रहते।इतने बड़े मकान में कोई ढंग की अलमारी न थी।पुराने जमाने के भारी भारी ट्रंक थे जिनका ढक्कन उठाने के लिए उसे मदद की दरकार होती थी।वह तो उसकी माँ ने उसे स्टील की अलमारी दे दी थी जिसमें उनके कपड़े रखे गए थे।रसोई में अनाज खुला रखा था।एक साइड प्याज और आलुओं का ढेर था।इधर उधर चूहे मस्ती करते घूमते थे।किचन में स्लैब थी लेकिन गैस चूल्हा और सिलिंडर नीचे रखा था।किचन साफ करते करते उसे बारह बज गए।पति आये तो गंदे जूतों के साथ किचन में घुस गए।फिर उसे देखते पाकर सॉरी बोलकर बाहर जाकर जूते उतार आए।लेकिन ससुर आए तो जूते उतार कर पैर धोकर आये।खाना खाकर सौ सौ आशीर्वाद देते लौट गए।भैंसों को संभालना उसे आता न था।बाल्टियों में इतना सारा दूध देखकर उसे समझ न आया कि इसका क्या करना है।उसने पति से पूछा भी लेकिन उन्हें भी मुश्किल ही पता था।मुजारों के बच्चे आते और बर्तनों में दूध भर भर ले जाते।उसके बावजूद भी काफी दूध बचा रह गया।ससुर से पूछा तो उन्होंने खुद दूध उबालकर उसमें जामन लगा दिया।अब अगले दिन दूध के साथ साथ दही का क्या किया जाए इस बात की चिंता!इस बात से उसका सिर दुखने लगा।उसने सोचा या तो दूध की बिक्री का प्रबंध हो या भैंसें रखी ही न जाएं।
पति से सलाह की तो बोले,"अच्छा!भैंसें बेच देंगे!!मुजारों के लिए दूध कहाँ से आएगा।मजदुरों के लिए जो चाय बनती है उसके लिए दूध खरीदना पड़ेगा।"
"लेकिन इतना दूध जो बचा रहता है?"
"बहनें जब तक थी घी बना लेती थी।अब तुम ठहरी शहरी,तुम क्या मधानी चलाओगी।"पति ने हंस कर कहा था।
"क्यों लाने गए थे शहरी!जब तो जम कर बैठ गये थे।"उसने भी हंस कर जवाब दिया तो पति गंभीर हो गए।
पति की गंभीरता कम करने और घर की देखभाल के लिए कोई सिस्टम बनाने के लिए उसने बात बदली,"अब मुझे तो आप बताओगे कि मुझे कहाँ से शुरू करना है।क्या करना है,क्या नहीं करना है।"
"मुझे नहीं पता!पिताजी से पूछना!"यह कहकर पति तो खेतों की तरफ चल दिये।
ससुर आए तो उनसे पूछा।वे बोले,"बेटी तू मेरी धी है।तेरी अभी अभी तो शादी हुई है।अभी तूने अपनी रीझें,अपने चाव पूरे करने हैं।तुझसे गृहस्थी संभालने की नहीं कहूँगा।तीन साल हो गये करमावाली को गुजरे।गुरु महाराज उसे अपने चरणों में अस्थान दे।उसके रहते मुझे कुछ सोचना नहीं पड़ा।बाकी तेरी मर्जी है जैसे तू करेगी हमें मंजूर है।मैंने तो एक नजर में ही पछान लिया था मेरी धी निघी और सुघड़ है,मेरे बेटे का घर बना देगी तो मैं भी निश्चिंत होकर नाम सुमरन कर लिया करूंगा।"
ससुर की स्नेह भरी बातें सुनकर स्वर्ण का मन भीग गया।उसने मन में निश्चय किया वह इस घर को अपनी मेहनत से,अपनी लगन से संवार देगी।देखनेवाले भी कहेंगे कि बहू आई है तो मेहतों के आई है।
अगले दिन वह सुबह मुँह अँधेरे उठी और घर को संवारने में जुट गई।