Agin Asnaan - 3 - last part books and stories free download online pdf in Hindi

अगिन असनान - 3 - अंतिम भाग

अगिन असनान

(3)

रोज़ साँझ जोगी को धूले कपड़े थमाती, पान की गिलौरी साज कर देती, खोंट से पैसे निकाल कर हथेली पर धर जब जोगी नदी के पार जाने के लिए नाव पर बैठता, दूर तक उसे जाते देखते हुये हाथ हिलाती रहती...

सुबह का तारा पश्चिम में फीका होते-होते जब जोगी चमेली की गंध में नहाया घर लौटता, वह उसके हाथ-पाँव धुलाती, खाना पूछती और फिर उसके उतारे कपड़े समेट कर कुएं के जगत पर जा बैठती और तब तक उन्हें फींचती जाती जब तक उनसे आती चमेली की गंध ना चली जाती। ऐसा करते हुये वह लगातार रोती जाती और मन ही मन सोचती, क्या कोई ऐसा साबुन नहीं बना जिससे उसके जोगी की आत्मा में बसी वह पराई गंध धोयी जा सके...! यह सौत का काँटा क्यों प्राण में गाड़ दिया भगवान! जो सत्य उदार मन से स्वीकार लिया वही रात के अंधकार में घन-सा क्यों बरसता है मन-प्राण पर! क्यों जोगी के सुख की प्रार्थना से भरी वह दुख में नहाई रहती है! जिस प्रेम में उमर गुज़ार दी उसका नियम-कानून कुछ समझ नहीं आता। अजब उलटबाँसी का खेल है यह!

अब जोगी को वह सहज हाथ नहीं लगा पाती। उसकी देह से नहीं, आत्मा से उसे पराई स्त्री की गंध आती। जोगी कहता, वही तो हूँ मैं सगुन! सगुन अपनी आँखें छिपाती- मनुख की गंध आती है तो चिड़िया भी अपने बच्चे नहीं अपनाती, मैं तो औरत हूँ... जोगी उदास अपने हाथ पसार देता- ले मेरे हाथ-गोड छील दे, चाम उधेड़ दे! जान कर कुछ पाप ना किया मगर जो तू चाहे दंड दे... वह सोचती, कौन-सा दंड दे वह अपने जोगी को, सब का भागी तो आखिर वही होगी।

जोगी से मज़ाक करते उसका कलेजा अक्सर पानी हो जाता। चेहरे पर हंसी चिपका कर कहती- मुझसे नहीं मिलवायेगा अपनी बंजारन को? तेरी वह मेरी भी तो कुछ लगती है! सुन कर जोगी लजाता- एक दिन लाऊँगा उसे... वह मन ही मन बुढ़वा बाबा के थान पर माथा टेकती- वह दिन कभी ना आए भगवान, उससे पहले प्रलय हो... ऊपर से मुस्कराती उसे अपने बाल के घुंघरू लगे कांटे थमा देती, आज उसे यह देना, खुश होगी... जोगी हाथ पसार कर ले लेता- तेरे सेनूर की डिब्बी भी उसे खूब पसंद आई, बोली अपने हाथ से लगा दे! बिछिया भी शौक से पहनती है! उसका उछाह देख उसकी आँखें फट कर आँसू आते- मेरा जोगी जाने बड़ा कब होगा...

इधर कुछ दिनों से जोगी कुछ अधिक ही उदास रहने लगा था। वह कारण पूछती तो कुछ बताता भी नहीं। घर लौट कर गुमसुम बिस्तर पर पड़ा रहता। एक दिन वह साँझ का गया चाँद उगते-उगते घर लौट आया। आते ही खटिया पर कटे पेड़-सा गिर पड़ा। उसकी हालत देख सगुन का जी धक से रह गया। फटे कपड़े, सूजा मुंह, नील पड़ी आँखें... किसने उसके जोगी की यह हालत बना दी! जोगी उसकी गोद में मुंह छुपा कर बिलख पड़ा- वह मुझे छोड़ कर जा रही सगुन! उनका डेरा आज उठ गया नदी के पार से। मुझे मिलने भी नहीं दिया एक बार! जब से खबर लगी, मैंने बहुत रोका, उसके पाँव पड़े मगर... मैं उससे एक बार मिले बगैर मर जाऊंगा, सच कहता हूँ...

सगुन ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया- ऐसा मत बोल! जोगी का माथा भट्टी-सा तप रहा था। आँखें बदहबास थीं। अपनी तमाम बेचारगी के साथ वह एक बार फिर उसके शरण में याचक बन आ खड़ा हुआ था- तू कुछ कर ना सगुन...

कितना निर्दयी है उसका जोगी! अपने भोलेपन में उसे कुचल कर रख देता है। उसे लगा उसका कलेजा फट जाएगा। डेरा उठने की खबर सुन जो खुशी हुई थी वह पानी के बुलबुले की तरह पल में मिट गई। अपने जोगी के आँसू की कीमत पर उसे भला क्या चाहिए! जो जोगी का दुख है वह उसकी खुशी कैसे बन पाएगा...

जोगी को समझा-बुझा कर वह अपना एकमात्र बचा गहना सन्दूक से निकाल कर नदी के पार भागी थी- जोगी ने उस पर भरोसा किया है, वह ऐसे कैसे हार जायेगी! प्रेम सिर्फ मुंह की बात नहीं, अगिन अस्नान है, अब देह जले कि प्राण, उसे उतरना होगा इस खौलती धार में... उस समय साँझ के सिंदूर में रात की कालिख घुल रही थी और किनारे की ओर लौटती हुई दिन भर की थकी-हारी नावों की परछाइयाँ नदी के पानी पर कांप रही थीं। दूर मैदान के उदास सन्नाटे में कोई टिटहरी रोती फिर रही थी। हर तरफ मेले के उठ जाने के बाद का-सा बिखराव और चुप्पी- कूड़े के ढेर, बुझे हुये चूल्हे, मवेशियों की लीद, उखड़े तंबुओं के निशान... दो दिन की रौनक क्या-क्या उजाड़ कर जाती है! हंसी के बाद का सन्नाटा बहुत ज़ोर से गूँजता है जैसे यह लंबी सांस-सी बहती नदी, मैदान, आकाश... इतनी ज्यादा कीमत क्यों रखी ऊपरवाले ने खुशी की!

बदहबास भागती जाने कितनी दूर जा कर उसे बंजारों की टोली दिखी थी। उनकी बैलगाड़ी में डोलती लालटेन की रोशनी दूर से दिख रही थी। उसी पीली रोशनी में अनगिनत चेहरों के बीच उसने हाँफते हुये उसे पहचाना था। अपने जोगी के मुंह इतनी बार इस नाक-नक्श के किस्से सुने थे कि आँख मूँद कर भी उसे हजारों की भीड़ में पहचान सकती थी वह। फिर चमेली की यह जानलेवा गंध...

ओह! ऐसा रूप! उसका दिल धक से रह गया था। हीरे की बुंदके-सी आँखें, सुतवा नाक, भरे बादामी होंठ... आषाढ़ की बाढ़ चढ़ी नदी-सी देह डायन की! उसके सीधे-सादे जोगी का क्या कसूर! ऋषि-मुनियों का मन डोल जाय इस काया पर... वह भीतर ही भीतर कच्चे भीत-सी बैठ गई। हांडी-बासन, चूल्हे में तो उसने खुद को झोंक दिया। गृहस्थी के जाँते में सालों पिसान पर धरी देह-रूप तो कब का पिस कर चूर... वह कहीं नहीं ठहरती इसके सामने। मिट्टी की इस दुनिया में मिट्टी का ही मोल। मन का किस को पड़ी है!

आँसू गटकते उसका गला रुँध गया- “तू इस तरह नहीं जा सकती बंजारन! वह मर जाएगा... कितना हौसला ले कर तो आई थी मगर अब कलेजा पानी हुआ जा रहा। वह खुद तो हार जाय मगर जोगी उसके आसरे बैठा है। उसके लिए तो... दम साधती-साधती रुलाई उसकी छाती चीर कर फूट पड़ी थी- हाड़-मांस के इंसान की इतनी बड़ी परीक्षा भी मत ले भगवान!

उसकी बात सुन कर बंजारन की नश्वार आँखें नीम अंधेरे में कटार-सी चमक उठी थी- ऐसा! अरी तू है कौन? उसके सवाल पर सगुन घुटनों के बल जमीन पर बैठ गई थी। ऐसे मुश्किल सवाल का सामना तो उसने कभी नहीं किया था। क्या कहे, सुझा नहीं- वह है कौन? “... म... मैं... तेरे जोगी की... जो कुछ नहीं लगती...”

“ओह! तभी सोचूँ! मेरे जोगी की मलकानी...!” बंजारन के खूबसूरत चेहरे पर एक बेरहम हंसी फैल गई थी- “खेल खतम, पैसा हजम! अपना डेरा तो उठ गया... तू भी लौट जा और चैन से अपनी गृहस्थी सम्हाल! भूल-चूक माफ!” फिर कुछ रुक कर लताड़ती-सी बोली थी, “और हाँ! मैंने बस तेरी थाली जूठा किया है, चलता है ना तुझे? परसाद समझ ले...” कह कर वह हाथ झटक कर चल पड़ी थी। साथ कुछ देर को थमा उसका टोला भी। चारों तरफ हंसी गूंज उठी थी। लोग उसे दया और कौतुक भरी नजरों से देखते हुये गुज़र रहे थे। बैलों के गले में बँधी घंटियाँ एक साथ बज उठी थीं। धीरे-धीरे बैठता धूल का गुबार एक बार फिर सनसना कर उठा था। भूरे बादल के मेघ से साँझ का क्षितिज ढँक गया था। हवा में फैले धुयें, अतर, चमेली की खुशबू और मवेशियों के पेशाब की झाँस से सगुन की सांस जैसे छाती में ही अटक गई- वह जा रही! वह सच में जा रही...

तारों की छांव में वह फैली आँखों से उसके लहंगे की पतवार-सी फुली घेर देखते हुये पाँव के बजते झाँझर की दूर जाती आवाज सुनती रही थी। एक क्षण दिल एक आस में हुलसा था, दूसरे ही क्षण एक डर में बैठ गया था। जोगी का दुख कि अपना सुख...? उसने अपना सर झटका था- हर हाल में उसे चुनना तो अपने जोगी का सुख ही है! विचार करने का प्रश्न ही नहीं। सगुन ने भाग कर एक बार फिर उसका रास्ता रोका था और उसकी हथेली पर अपने कान की बूंदे रख दिये थे- “एक आखिरी बार चल कर उससे मिल ले बंजारन, मैंने उससे वादा किया है।“

अबकी बंजारन ने उसे गौर से देखते हुये एक बच्चा गोद में उठा लिया था- “यह सब मेरा धंधा है मलकानी! पेट के लिए प्रेम का स्वांग भरना पड़ता है वरना मेरा मरद भी है और बच्चा भी। मुझे अपने टोली के साथ जाना पड़ेगा...” “बस एक बार... वह सचमुच मर जाएगा!” वह रोते-रोते जमीन पर ढह गई थी। उसकी हालत देख एक मर्द बंजारन की गोद से बच्चा ले कर बोला था, जा जुगनी! एक बार देख आ, हम रुकते हैं तेरे लिए। कुछ देर पसोपेश में खड़ी रह कर बंजारन ने झुक कर उसे उठाया था। अबकी उसकी आवाज़ बदली हुई थी- “हम प्रेम-व्रेम कुछ नहीं जानते मलकानी! मगर चल, आज तेरे प्रेम के लिए यह भी कर लेते हैं...” सुन कर सगुन की सांस रुक गई थी- वह फिर लौटेगी जोगी के पास! थोड़े-से समय के लिए सही... यह सुनने से पहले वह मर क्यों ना गई! मगर फिर दोनों हाथ जोड़ कर अपने कपार से लगाते हुये भरभरा कर रो पड़ी थी- बहुत किरपा बंजारन, तू ने मेरे जोगी को- मुझे बचा लिया...!

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- जयश्री रॉय, गोवा।

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