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अपना पता

अपना पता

रात के निपट सन्नाटे में अपने घर के सामने खड़ा हूं, मगर अंदर जाने से पहले न जाने क्यों ठिठक गया हूँ। एक संक्षिप्त-से क्षण में जी चाहता है, उल्टे पैर लौट जाऊँ। क्यों बार-बार अपने ही जख्म की परतें खुरचने यहाँ चला आता हूँ! मगर इस सोच से परे दूसरा मन जानता है - मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा- कर नहीं सकता! कितने मरू और नदियाँ पार कर यहाँ पहुँचा हूँ, सर पर सूरज की आँच और पतझर के मौसम उठाए... इसी मुट्ठी भर छाँव की आस में तो!

दरवाजे अशक्त खड़े हैं, समय में असहाय चूकते हुए। मगर उनकी फांकों में निमंत्रण का मौन संवाद है, मैं अब भी सुन सकता हूँ। कभी इन्हीं की ओट से उपालंभ के अनगिन बोल लिए चाँदी की बूँदके जैसी दो झिलिर-मिलिर आँखें तकती थीं, गली में मेरी आहट से घबराती या औचक बुझती हुईं... वह सब यहाँ की हवा में सिलहट की तरह आज भी जमा पड़ा है, मन की खांटी भावनाएँ उथली इच्छाओं की तरह कभी एकदम से जाया कहाँ हो पाती हैं!

अब मुझे अंदर दाखिल होना चाहिए, हल्की हवा में कांपते हुए-से दरवाजे जैसे मुझे याद दिलाते हैं। रात की एकदम निश्चिंत ग्रामीण स्तब्धता में चरमराहट की एक तीखी सेंध लगाकर मैं दरवाजे ठेलकर अंदर प्रवेश करता हूँ और तत्क्षण अपने घर में आ जाता हूँ। वह घर जिसकी तलाश मेरे अंदर हर पल बनी रहती है, फिर मैं कहीं भी क्यों न रहूँ। अब एक अर्से से जान गया हूँ, हमारा देश वही होता है, जहाँ हमारा घर होता है, और हमारा घर वही होता है, जहाँ हमारे अपने होते हैं। मेरे अपने अब यहाँ नहीं रहते, मगर कभी रहते थे और उनका कभी यहाँ होना ही इसे आज भी मेरा घर बनाये हुए है। यहाँ के हर कोने में टुकड़ों में बँटे दुख का अहसास है, मगर मुझे सुख यही मिलता है, आँसुओं की नमी से सीले हुए- यह बहुत पुराने परिचय और आत्मीयता का सुख है, जिसका जाना-पहचाना स्वाद मुझे बार-बार यहाँ निशि की तरह खींच लाता है। इसकी धुआँयीं दीवारों में चूल्हा फूँकती हुई अम्मा की गीली आँखों की स्मृति सँजोयी हुई है। रसोई, आंगन की बासी-बोसीदा गंध में उनके आँचल की महक है, वही आँचल जो मेरे बचपन का एकमात्र आश्रय और आकाश था। उसी के निरापद छाँव में मैंने जीवन के सबसे खूबसूरत सपने देखे थे। मेरे आज के भीरू सपनों की तरह तब उनमें डर का नील इस कदर घुला नहीं होता था।

इसी घर की सूनी दीवारों के घेरे में उत्तप्त दिन के बाद उसाँसें लेती-सी साँझ यादों की मटमैली परछाइयों से भर जाती है, घेर लेती हैं, जैसे दिनों के बिछडे आ-आकर गलबहिया दे रहे हों... उजाड़ में मेला बैठ जाता है। मैं अकेला होता हूँ, मगर अकेला नहीं होता। यादों का तिलिस्म गुजरे हुए को वापस ला देता है, जिला देता है, मैं जीने के भ्रम में एक शाम जी लेता हूँ।

स्मृतियों की दुनिया अगर सच नहीं होती तो कभी झूठ भी नहीं होती। मैं अपने हिस्से के सच में जी रहा हूँ, इसमें किसी को भी छलने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? लावण्य मुझसे हमेशा यही कहती है, मगर इन शब्दों के तलछट में जमे यथार्थ को मैं देख सकता हूँ। अपने जीवन का जो हासिल है- एकमात्र हासिल है, उसकी परिभाषा मैं किसी और के शब्दों में कैसे स्वीकार कर लूँ! मैं उसे बोलने देता हूँ। वह अपने हिस्से की जिम्मेदारी निभा रही है, उसे मना कैसे कर दूँ? कुछ लोग कितने सहज प्रेम या उसके भ्रम में पड़ जाते हैं। उनकी नियत में बाल नहीं होते, मगर कभी उनके भोलेपन पर खीज भी होती है। कैसा अबोध विश्वास है उनका! जब लावण्य अपनी लंबी बरौनियाँ झपकाकर मुझसे अपने अटूट प्रेम की बातें करती है, मुझे उसके लिए दुख होता है। ये प्रेम की हल्दी कितनी बार चढ़ता है मन पर- और उतरता भी है! कोई ईमानदारी से अपने अंदर की महफूज दीवार पर देखे तो वहाँ न जाने कितने हाथे छपे मिल जायेंगे। कितनी दुल्हनों के सम्पूर्ण समर्पण के हथेली भर हस्ताक्षर!

मैं बीच आंगन में खड़े होकर अंधेरे में डूबे हुए कमरों को देखता हूँ। ऊंघ और आलस्य के बीच उनकी आँखें अधखुली-सी हैं, प्रतीक्षा की एक ठहरी हुई दृष्टि लिए। अम्मा की आंखें याद हो आती हैं- ऐसी ही अनझिप हुआ करती थीं और मुझे देखते ही दिप उठती थीं, फिर रात का कोई भी पहर रहा हो। उन्हें हमारी हर पल प्रतीक्षा होती थी। सोचता हूँ तो किसी के लिए स्वयं के हर समय होने के एक सुखद एहसास से आज भी भर उठता हूँ। आज भी मैं बहुतों के लिए हूँ, मगर नहीं हूँ, ये जानता हूं। एक खाली मकान जिसके अंदर से जिंदगी बीत गयी है, रिश्तों की एक लंबी फेहरिस्त के साथ। इसके जींस में अब संवेदनाएँ नहीं, खोखली ईंटों की कतारें है, घुन लगी खिड़कियों, दरवाजों की चरमराहटें हैं और है चमगादड़ की तरह निरंतर फरफराती गुजर गये  दिनों की यादें...

ऊपर मोतिया आब की तरह नक्षत्रों का हल्का प्रकाश है। इसमें चेहरे दिखते हैं, मगर नहीं दिखते। बस हवा में तैरते-से जान पडते हैं, एकदम स्वप्निल और मायावी ! जिन्हें छुआ नहीं, केवल महसूसा जा सकता है।

इसी अंधकार में अम्मा का चेहरा देखता हूँ और अपने अंदर की चिर यातना में अनायास हो आता हूँ। पानी के तेज बहाव से घिस गये पत्थर की तरह वह चिकना और सपाट दिखता है- लेशमात्र रंग या भराव के बगैर ! बस उनकी आँखें ही हैं जिनमें हरदम एक जख्मी फाख्ता की बेकल छटपटाहट भरी रहती है- आज भी ! मैं कभी-कभी उनसे घृणा कर बैठता हूँ। वे अक्सर अपनी आद्रता और अछोर करूणा से मुझे छोटा कर जाती थीं। क्यों, इतनी उम्मीदें क्यों करती थीं वे मुझसे ? उन्हें क्या दिखते नहीं थे मेरे टूटे हुए बाजू या पस्त हौसलों के कदम ! वे मुझे मेरी लज्जा या पराजय के क्षणों में अकेला क्यों नहीं छोड़ देतीं? इंसान अपनी निगाहों में तो नंगा हमेशा ही होता है, ये तो दूसरों की निगाहों में नंगा होना है जो जमीन में गाड़ जाता है।

अम्मा के बाद घर में घर जैसी कोई बात नहीं रह गयी थी। सबने मिल-बाँटकर अम्मा के बडे जतन से बनाये हुए इस घर को जल्द ही एक मकान में तब्दील कर दिया था। ऐसा मकान जिसे कोई सराय नहीं कहता, बस !  मगर सबका बर्ताव इसके प्रति वैसा ही था। बाहर की गतिशील, रंगीन दुनिया में समाने से पहले और वहाँ से लौटने के बीच खड़ा रहा है ये मकान, कुछ सुविधाओं की चिरंतन प्रतिश्रृति लिए- नींद, भोजन, विश्राम की प्रतिश्रृति। इन्हीं के लिए एक अर्से तक हजार विरक्ति के बावजूद यहाँ कुछ परिचित चेहरे दिख जाते थे, अपने ऊपर ’डु नाँट डिस्टर्ब’ की अदृश्य तख्ती लगाये हुए।

मैं अपने अंदर से निकल आना चाहता हूँ। वहाँ ममत्व और आस्था की जलती हुई चिता की दमघोंटू चिरांध है। एक रात मैं यहाँ जीने आया हूँ जो बार-बार मरे बगैर संभव नहीं होगा, मैं जानता हूँ। अपनी जेब से टटोलकर मैं लाइटर जलाता हूँ। सामने के कई कमरे एक साथ हल्की रोशनी की जद में आ जाते हैं। धूल में नहाये मकड़ी के जालों में उलझकर कमजोर उजाला थोड़ी ही देर में बुझ जाता है। मैं टटोलकर स्मृतियों के सहारे आगे बढ़ता हूँ। नीम की डालों में उलझा दो प्रहर का चाँद मुझे ऊँघता हुआ रास्ता दिखाता है।

... पहले दरवाजे पर बड़े भैया बैठे हैं, नहाने से पहले अपनी देहपर कड़वे तेल की मालिश करते हुए। अंदर कमरे में भाभी मिनी को कंधे पर झूलाती हुई हमेशा की तरह बड़बड़ा रही हैं। दूसरे दरवाजे के पीछे से प्रीति की खिलखिलाहट झाँक रही है। कल ही उसका रिश्ता तय हुआ है। अंदर की खुशी बात-बात पर रिस रही है। तीसरे दरवाजे तक पँहुचकर मैं अचानक  स्वयं को बेतरह थका हुआ महसूस करता हूँ। रात दिन अंदर से एक भरी-पूरी जिंदगी का लश्कर की तरह गुजरना... बुरी तरह रूंद जाता हूँ !

एकबार न चाहते हुए भी आंगन के कोने में अंधेरे में डूबी हुई रसोई की तरफ मुड़कर देखता हूँ। और कोई हो न हो, अम्मा वहाँ जरूर होंगी। अपनी पीठपर चिपकी हुईं दो धुआंयी आँखों को महसूसते हुए जेब से चाभी निकालकर अपने कमरे का दरवाजा खोलता हूँ। सीलन की गंध में डूबा हुआ यह मेरा कमरा- हमारा कमरा है- मेरा और नवीन-मेरा छोटा भाई-का कमरा। नवीन पंद्रह बरस तक रातदिन मेरे साथ रहा और एक दिन मेरी ही आँखों के सामने बरसात में उफनती हुई नदी की मटमैली धारा में खो गया... जाते हुए उसने मुझे ही मदद के लिए पुकारा था, बार-बार... आज भी रात गये वह मुझे अक्सर पुकार उठता है। फिर मुझे सारी रात नींद नहीं आती। उस दिन नवीन का हाथ न पकड़कर मैंने एक पेड़ की डाली पकड़कर स्वयं को और अधिक सुरक्षित कर लिया था। यह बात मैं अपने कौंसलर को चाहकर भी बता नहीं पाता। वह बस मेरी नींद की गोलियों की खुराक बढ़ाता जाता है।

नवीन के बाद यह कमरा हमेशा के लिए आधा खाली होकर रह गया है। और साथ में मैं भी। न जाने क्यों हर घर का एक कोना अधिकतर खाली रहता है- मन की ही तरह ! अपने हिस्से के कोने में मैं स्वयं को ढूँढता हूँ- मेरा बिस्तर, पढाई की मेज, अलमारी... नवीन को उसके हिस्से के कोने में कभी ढूँढने की जरूरत नहीं पडती। वह हमेशा वहाँ होता है। तभी तो वह कोना इतना खाली प्रतीत होता है। किसी का होना या न होना- कभी-कभी दोनों ही जीवन को सूना कर जाता है।

मोड़कर रखे हुए बिस्तर को बिछाकर मैं उसपर ढह जाता हूँ। अपने गंदे जूते उतारने की शक्ति भी जैसे अब मेरे अंदर बची नहीं है। एक लंबी यात्रा कर यहाँ तक पहुँचा हूँ-बाहर से ज्यादा अंदर की। ये अधिक थका देनेवाला होता है। इसके रास्ते में हमीं जो आ जाते हैं बार-बार... खुद को हर कदम पर ठोकर लगाना आसान नहीं होता। अपनी तरफ बढ़ने के लिए एक कदम आगे, दो कदम पीछे के हिसाब से चलना पड़ता है। अंदर की सारी ऊर्जा चुक जाती है...

बिस्तर पर पीठ के बल लेटे हुए मैं छत की काली शून्यता को घूरता हूँ। वहाँ न जाने मेरी कितनी रातों की जगार और अनझिप आँखों की दृष्टि निबद्ध है। इस छत की कडि़याँ गिन-गिनकर न जाने मैने कितनी रातों की सुबह की है। हर कोने में मेरा कुछ न कुछ सामान है- मेरी नींदें, मेरी उलझन, सपने और मेघिल दिनरातों की अछोर उदासी। बायीं दीवार की खिड़की के पल्ले के पीछे चाकू से खुरचकर रूप का नाम लिखा हुआ है। मैं हाथ बढ़ाकर अंदाज से उसपर उंगलियाँ फिराता हूँ। पोरों पर सनसनाहट-सी होती है। अनायास नाशपुटों में हरसिंगार की कडवी-मीठी गंध भर जाती है। आंगन के तुलसी के ऊपर झर रहे होंगे। पिछवाड़े के पाकड़ पर उल्लू रह-रहकर बोल रहा है, अंतिम प्रहर का चाँद पूरन मिसिरजी के बँसवारी के पीछे छिपने लगा है। गाँव के आखिरी सिरे पर चौकीदार  जागते रहो कहते हुए बंद खिड़कियों पर अपनी लाठी बजा रहा है। मैं अपने भीतर सबकुछ बटोर और सहेज रहा हूँ। जब जिंदगी के जद्दोजहद में अकेला होता हूँ और सर पर सूरज और पूरे आसमान का बोझ होता है, इन्हीं की हथेली भर छाँव में पल दो पल के लिए बैठ जाता हूँ।

अचानक रूप सामने आ जाती है। मेरे लिए उम्र के उसी मोड़ पर हमेशा की तरह खड़ी हुई... मगर मैं बहुत दूर चला आया हूँ वहाँ से- उम्र से भी और मन से भी। मेरी देह पर समय की लकीरें गहरा रही है, अनुभव के गुंजल पड़ रहे हैं। मगर रूप... मैं उसे पलकें भरकर देखता हूँ। हवा में अनायास सितारे घुल आते हैं और एक अनकहा अवसाद धीरे-धीरे नसों में रिसने लगता है। मैं एक ही साथ दो विपरित मन:स्थितियों में हो आता हूँ। दर्द और सुकून की दुहरे बहाव में डूबता-उतराता हुआ ! स्वयं को संभालना चाहता हूँ, मगर प्रतिरोध के हाथ अवश हो आते हैं। एक दो पलों की उलझन के बाद मैं खुद को लहरों के हवाले कर देता हूँ। उदासी की ये नीली नदी अब जहाँ भी ले जाये। और अब वही चेहरा है जिसे आज भी मैं हर चेहरे में ढूँढता फिरता हूँ- आधे चांद -से माथे पर दो गहरी काली भौंहों के बीच छोटी-सी लाल बिंदी और नीली तितली की तरह चंचल-शरीर आँखें...

अपनी सौतेली माँ से प्रताडि़त होकर प्रायः प्रीति के पास आ बैठती थी वह। उसकी बचपन की सहेली थी। कई बार आषाढ़ की संध्या-सी गमगीन दिखती थी। आँखों में दर्द की एक पूरी दुनिया रचाये चुपचाप झरते हुए अमलतास के नीचे एक उदास इंद्रधनुष की तरह बैठी रहती थी। मैं सांत्वना में  कुछ कह  नहीं पाता था। बस, संवेदना की मूक उंगलियों से उसे नि:शब्द छू भर लेता था। कई बार वह अनायास सिहरकर मुझे देखती थी। मैं जान जाता था, मैं उस तक पहुँच गया हूँ। मूक संवेदनाओं के मुखर क्षण हमारे बीच लंबे खिंचते थे। आसपास की पूरी दुनिया अपने में मशगूल रहती थी और उन्हीं के बीच हम एक-दूसरे के साथ नि:शब्द हो लेते थे। ऐसा ही अक्सर होता था। हम आँख में से काजल चुराने की तरह ये क्षण सबके सामने एक-दूसरे के साहचर्य में जी लेते थे और किसी को खबर तक न होती थी। कितना कुछ आज भी पड़ा हुआ है मेरे पास उन चुराये हुए पलों में से- एक चोर नजर, एक छुअन, एक गंध... फुर्सत के किसी दुर्लभ समय में इन्हें अपने अंदर खोलता-बिछाता हूँ, उलट-पलटकर देखता हूँ। इन्ही रंग-बिरंगे टुकड़ों से बना है जीवन का ये कोलाज। इस कोलाज में उन्हीं आँखों का नीला रंग आज भी सबसे गहरा है। इन्हें छूते ही वे दिन एकदम से जाग जाते हैं जब एक उदास रंग ने पूरे जीवन को ओर-छोर रंग दिया था। एक दिन वह भी चली गयी थी प्रीति की तरह, पीली धोती और माथे भर सिंदूर में सूरजमखी की तरह झिलमिलाती हुई। मैं मंदिर की दीवार पर उसके हाथे की छापों में अपना नाम ढूँढता खड़ा रह गया था... उसने कभी कहा था, अपने हाथों में उसने मेहंदी से मेरा नाम लिखा है।

आज की रात नींद के लिए नहीं है, बीते दिनों की जागी हुई यादों के लिए है। अतीत किसी स्लाइड शो की तरह आँखों के आगे से गुजर रहा है... अम्मा से भाभी के कलह, घर का बँटवारा, आंगन के बीचो-बीच खड़ी ईंट की भद्दी दीवार, अपने ससुराल की रसोई में प्रीति की अधजली लाश, विधवा के सफेद लिबास में लिपटी रूप की बुझी हुई नीली उदास आँखें... मेरी आँखों में भोर होने से पहले नींद-सी कुछ उतर आती है। मैं सोना नहीं चाहता, मगर जाग भी नहीं पा रहा हूँ। बहुत थक गया हूँ। अम्मा मुझे थपकियाँ देने लगी है। पडोस के आंगन में कोई बच्चा रो रहा है। मगर मैं नहीं रो सकता। मैं इतना बड़ा क्यों हो गया...

अपनी पलकों पर धूप की मुलायम हथेलियाँ महसूस करते हुए मैं जाग जाता हूँ। पूरब में उजास की हल्की दस्तक है। फीके होते क्षितिज में भोर का तारा और उजला हो आया है। आसपास जाग पड़ने लगी है। गली से लोगों की आहटें आ रही है। मैं आंगन में निकलकर अपने सोये हुए घर को देखता हूँ। बूढा समय इस घर में घोंसला डाले पडा हुआ है, उतना ही चुपचाप और उदास जितना पक्षियों के उड जाने के बाद एक उजड़ा घोंसला हो सकता है। समय तो अडोल पिरामिड की तरह आज भी बँधा है यहाँ की हवा में, बस  हमीं न जाने कब चुपचाप बीत गये हैं। सबकुछ धुंध में से निकलते हुए एक सपने की तरह दिखता है। हर तरफ टूटन और बिखराव है। रसोई की छत पीछे से धंस रही है, बाबूजी के कमरे के लगभग पूरे दरवाजे को दीमक चाट गया है। चारों तरफ मकड़ी के जाले और यहाँ-वहाँ  उगे हुए जंगलात... लगता है सूरज घर की देखभाल ठीक तरह से नहीं कर रहा है। दूसरे बस दाय चुकाते हैं, मन से कहाँ कुछ करते हैं।

मैं स्वयं को प्राय रीता हुआ अनुभव करता हूँ। यहाँ आना मेरी बाध्यता है तो यहाँ से लौट जाना भी मेरी नियति है। मैं यहाँ बार-बार आता हूँ, शायद अपना ही पता पाने के लिए। मैं अपना सामान लेकर एक दिन यहाँ से चला गया था। माँ के विवश आँसू भी मुझे रोक नहीं पाये थे। मगर, बहुत दूर जाकर समझ पाया था, मेरा अपना आप यही छूट गया है। उसे ही लेने बार-बार यहाँ आता हूँ और अंतत: खाली हाथ लौट जाता हूँ। मैं जहाँ भी रहूँ, यही रहता हूँ- रहूंगा ! अपना सामान समेटकर मैं एकबार फिर खाली हाथ अपने घर से निकलते हुए मुडकर खुद को देखता हूँ, सबको देखता हूँ, मन ही मन सबकी एक तस्वीर खींचकर अंदर सहेजता हूँ और लगभग दौड़ते हुए बाहर निकल आता हूँ। दादी कहती थीं, इसी आंगन में मेरी नाल गड़ी थी। आगे बढ़ते हुए अंदर कुछ खिंचता हुआ-सा प्नतीत होता है। मैं एकबार और पीछे मुडकर देखने की अपनी प्नबल इच्छा को किसी तरह से दबाता हूँ। पलकों पर नमक घुल रहा है, अंदर का मरू पिघल रहा है... तटबंधों पर दबाव बढता जा रहा है। मैं अब यहाँ और नहीं रुक सकता।

सुबह के निर्जन बस स्टॉप पर बस के लिए प्रतीक्षा करते हुए अशोक मिल गया है. हमारे रिश्ते में आता है। कल रात यहाँ आया था और आज लौट रहा हूँ सुनकर उसे अजीब लग रहा है शायद। कौतूहल से पूछता है, कभी यहाँ एक दिन के लिए भी रुकते नहीं तो बार-बार आते क्यों रहते हो। उसके सवाल का कोई जवाब मेरे पास नहीं है। बस अनमना-सा पूछता हूँ- अब भी हर साल काँवर लेकर तीर्थ पर निकलते हो ? वह न समझने के भाव से सर हिलाता है। मैं बिना कुछ कहे उठ खड़ा होता हूँ। मेरी बस आ गयी थी। एक बार फिर लौट आने के लिए मेरा आज यहाँ से जाना जरूरी था।

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