भेड़ियों का पोशम्पा
सीमा शर्मा
भेड़ियों का झुंड दनदनाता हुआ आया और लाश के चारों ओर गोल-गोल चक्कर काटने लगा। उनमें से एक ने लाश को सूँघा। अचानक उसने नाक सिकोड़ ली। जैसे दुर्गंध लगी हो। दूसरा भेड़िया चौंका। उसने अपनी थूथन आगे बढ़ाई। वह भी सूँघना चाहता था। पहला भेड़िया हँसने लगा। यह देख कर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। भेड़िया हँस रहा है ? क्या भेड़िये हँसते हैं ? हँसते हुए वह एकदम अजनबी लग रहा था। नहीं, बल्कि मनुष्य जैसा लग रहा था। उफ्।
दूसरे भेड़िये ने भी बुरा-सा मुँह बना कर अपनी थूथन हटा ली। पहले वाले ने ठहाका लगाया। अब तो मेरी हालत खराब हो गई। मैं बुरी तरह डर गई थी। बाकी भेड़िये दूर ही रहे। दूसरे वाला बोलने लगा। हूबहू जंगल बुक के जानवरों की तरह। मनुष्य की बोली। मैं और ज्यादा डर गई। मुझे बहुत अच्छी तरह पता था कि जानवर नहीं बोलते। पता नहीं यह बात मुझे कैसे याद थी। मैं सोचने लगी, जानवर भला कैसे बोल सकता है ? मुझे पसीना छूटने लगा। दूसरे वाले ने पूछा था, “बहुत दुर्गंध है। इसका शिकार किसने किया ?”
“क्यों बे, तुम में से कोई था ?”—पहले वाले ने पलट कर झुंड की ओर देखा। उसकी आवाज जंगल में गूँज गई थी। मैं थरथरा रही थी। झुंड के सारे भेड़िये रिरियाने लगे। इससे यह पता नहीं चल रहा था कि वे स्वीकार कर रहे हैं या घबरा गए हैं। दूसरे वाले ने दाँत निकाल लिए, “साले बेवकूफ की औलाद। ...अब तुम ही इसे ठिकाने लगाओ।”
थोड़ा रुक कर वह दुबारा दहाड़ा, “खाओ इसे।”
वह झुंड का सरगना था शायद। दूसरा उसका भाई हो सकता है, मैंने सोचा। उसके दाँत इतने पैने थे कि मेरी घिग्गी बंध गई। दोनों आमने-सामने खड़े थे। दोनों ने अगली टांगें उठा कर मेहराब-सा बना लिया। उसके बीच से झुंड के बाकी भेड़िये ऐसे निकल रहे थे, जैसे पोशम्पा खेल रहे हों। कुछ ही देर में वे सब लाश पर टूट पड़े। झुंड का मुखिया और उसका भाई लगने वाला एक साथ हँसे— पोशम्पा भई पोशम्पा।
मुखिया तेजी से निकला और जिस पेड़ की ओट से मैं यह सब देख रही थी, उसी ओर बढ़ने लगा। मुझे लग गया कि उसने मुझे देख लिया। अब वह मुझ पर झपटेगा। मेरे मुँह से चीख निकल गई और उसी क्षण नींद खुल गई। मैं पसीने से तर-बतर थी। यकीन नहीं हो रहा था कि जंगल में नहीं, अपने बिस्तर पर हूँ। मैं आश्वस्त होना चाहती थी कि यह सपना ही था। सपनों का खेल था। शायद खेल का सपना था— पोशम्पा।
बहुत देर बाद भी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा सपना मैंने क्यों देखा। क्या चल रहा था मेरे दिमाग में ? यह सोच ही रही थी कि फोन की घंटी बज उठी। फोन अस्पताल से आया था। एक अटेंडेंट ने बताया कि पगली भाग गई।
“जरूर भेड़िया उठा ले गया होगा। या उसने डराया होगा ।”— मेरे मुँह से अनायास निकला। उधर से अटेंडेंट चुप हो गया। फिर थोड़ा रुक कर बोला, “आपकी तबीयत ठीक है दीदी ? ... आप नींद में तो नहीं हो ?”
मैं अचकचा कर बोली, “हां, वो...मैं नींद में थी।”
भेड़िया मेरे दिमाग़ में कहां से घुस आया ? मैं सोचने लगी। सोचते-सोचते भेड़िये के सपने में आने का मार्ग मुझे दिखाई देने लगा। मैं समझ गई कि भेड़िये सपनों में कैसे आते हैं।
*
कल की बात है। सपने की नहीं। सचमुच। राघव दौड़ता-हाँफता फिमेल वार्ड में मेरे पास आया था। बदहवास। पसीने से तर। आँखें बाहर निकली जा रही थीं। अभी कुछ महीने पहले उसने फिमेल वार्ड में ज्वाइन किया था। इस वार्ड में पुरुषों की संख्या कम थी। राघव लगभग सभी मरीजों की समय से ड्रेसिंग करने और दवाई देने में जरा भी लापरवाही नहीं करता। अस्पताल में काम करने के बावजूद वह अब भी जल्दी पिघल जाता है। मरीज के कराहने पर आँख मींच लेता है। चीरा लगते समय दाँत भींच लेता है। किसी बीमार या तीमारदार को डपटता नहीं। जैसे मेहमान हों। शायद यही वजह थी कि इस दौरान लोग उसे पसंद करने लगे थे। पिछले कुछ महीनों में अस्पताल से ठीक होकर जाते वक़्त मरीजों से राघव को दुवाओं का बड़ा-सा पोटला, लम्बी मुस्कान और कभी-कभी मिठाई खाने के लिए कुछ बख्शिश-वख्शिश भी मिल रही थी। वह थोड़ा झिझकते हुए मुस्करा कर ले लेता था। चाहे बख्शिश हो या मुस्कान।
“क्या हुआ राघव, तुम इतना हाँफ क्यों रहे हो ?”- मैंने रोगी रजिस्टर में बसमतिया के नाम की एंट्री करते हुए पूछा।
“दीदी आपको पता नहीं...।” राघव ने काँपती आवाज में कहा, पर वाक्य पूरा नहीं किया।
“क्या नहीं पता, बोल ?”
“दीदी वो...।”
“क्या वो...वो कर रहा है, कुछ बोलेगा भी ?”
राघव सामने मेज पर रखी पानी की आधी बोतल एक साँस में गटक गया। फिर गहरा निश्वास छोड़ कर बोला, “दीदी, पीछे गैरेज में जो पगली है ना, जिसे आप अक्सर खाना और दवाई देने के लिए बोलती थीं...।”
“हाँ तो, क्या हुआ उसे, ठीक तो है ना ?”
मैंने काफी दिनों से उसे देखा नहीं था। मुझे लगा कि कुछ हो न गया हो। पिछले साल अक्तूबर में अचानक जाने कहाँ से घूमते हुए वह अस्पताल के गैरेज में दुबकी मिली थी। बहुत डरी हुई थी। उसके बदन पर कपड़ों के नाम पर एक फटा हुआ कुर्ता था। जिससे उसके शरीर की खरोंचें झाँक रही थीं। बायें कंधे पर लगी चोट लगभग सड़ गई थी। उससे मवाद रिस रहा था। उस पर भुनभुटियां और मक्खियां भिनभिनाती रहती थीं। दूर से ही सड़न की दुर्गन्ध आती थी। उसके घुटनों के नीचे दोनों पैरों में फोड़े और घाव थे। ऐसा लगता था, उसका निचला हिस्सा धीरे-धीरे गल रहा है। पता नहीं कब से उसने नहाया नहीं होगा। उसकी त्वचा पर मैल की परत जमा हो गई थी। रोमछिद्र बंद थे और उन पर मैल के तिल-से उभर आए थे। शरीर से बहुत तेज दुर्गंध आती थी। पता नहीं घावों से ही आती हो। उसके दाँतों में पीलेपन की गहरी परत जमा थी। नाखून बड़े हुए थे और उनमें मैल भरा हुआ था। उसे अस्पताल के लोगों ने गैराज से खदेड़ने की काफी कोशिश की। डंडा कोंचने पर भी टस से मस न हुई। हिलती ही नहीं थी और न कुछ कहती थी। ज्यादा कोंचाकांची की तो रोने लगती थी। आखिर सबने हार मान ली। तब से लगभग दस महीने हो गए। वह खाली पड़ा गैरेज उसका, भुनभुटियों का और मक्खियों घर हो गया था। जिसे भी वहां फिनायल से सफाई करने के लिए कहा जाता वही कन्नी काट लेता। सबका कहना था पगली से भयंकर सड़ांध आती है। मैंने जब पहली बार पगली के लिए दवा भिजवाई थी, अटेंडेंट पगली के हाथ में दवा थमा कर लौट आया था। दूसरी बार वह दवा की बोतल दूर से उसके घावों पर उड़ेल कर उल्टे पांव भाग आया। उसके बाद, जब राघव ने ज्वाइन किया तो, मैंने राघव को भेजा था। उसने अपना मुँह बांध कर उसके घावों पर दवा लगाई। उसे खाने के लिए ब्रेड, चाय और उसके साथ गोलियां दीं। फिर तो मैं राघव को ही पगली के पास भेजती थी। कई बार मैं खुद उसे देख आती थी।
“बीमार है क्या ?”--कौन जाने मर ही न गई हो, यह खयाल मन में आने के बावजूद मैंने केवल इतना ही पूछा और अपने काम में लगी रही। राघव चुप हो गया। वह इस तरह खामोश रहने वालों में से नहीं था। उसकी चपड़–चपड़ से सब परिचित थे। कभी-कभी खीज होती थी। लेकिन आज ऐसी क्या वजह है कि वह बोल नहीं रहा ?
एकाएक ख्याल आया कि कोई गंभीर बात न हो। मैंने हाथ रोक कर उसकी ओर देखा, “क्या बात है ? बताओ भी। मुझे बहुत काम है। दवाई का स्टॉक देखना है और...।”
“दीदी उस पगली की अभी-अभी बेटी हुई है।”— राघव की आवाज भर्रा गई थी।
“क्या ?” अचानक जैसे बिजली का तार मेरे दायें हाथ से छू गया था। मेरा पेन टेबल से दूर जा गिरा, “तू पागल तो नहीं हो गया ?”
वो पगली जिसके बदन में कीड़े रेंगते हैं ? नहीं, राघव को कोई गलतफहमी हुई होगी। इसने तो खुद ही बताया था कि उसके कंधे के घाव में कीड़े पड़ गए हैं। अब ये कहता है कि उसी पगली ने बेटी को जन्म दिया है ? मैं नहीं मान सकती। मेरा गला सूखने लगा। नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है ? किसने यह सब किया होगा ? मैं अपने आप में बुदबुदाने लगी।
“दीदी अगर आपको विश्वास नहीं तो चलिए मेरे साथ।”
मैं सहसा कुर्सी छोड़कर उठ खड़ी हुई। राघव गैरेज की ओर लपका। मैं उसके पीछे-पीछे। मन में कितने अजीब–अजीब ख्याल आ रहे थे। उस पगली के साथ... ? कौन होगा जिसने नरक भोग रही उस स्त्री की देह में अपने लिए सुख खोज लिया ? कैसा होगा वह मनुष्य ? नहीं, वह कोई स्वस्थ मनुष्य नहीं हो सकता। वह मनुष्य लगने वाला जानवर ही होगा। जर्मन शेफर्ड जैसा कोई कुत्ता। नहीं, शायद कुत्ता जैसा लगने वाला भेड़िया। उसके कान खड़े रहते होंगे। नाक तेज सूँघती होगी। वह दबे कदमों से चलता होगा। शिकार करने के बाद घटनास्थल से कहीं दूर चला जाता होगा और आकाश की ओर मुँह उठा कर खुशी से चीखता होगा। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरे शरीर में कीड़े रेंग रहे हैं। मैं घृणा से भर उठी थी। उस भेड़िये के लिए।
भीड़ ने पगली को घेर रखा था। लोग उस स्थिति में भी परिहास करने से बाज नहीं आ रहे थे। एक प्रौढ़ व्यक्ति ने सुरती मलते हुए कहा, “अरे पगली को भी नहीं छोड़ा अस्पताल वालों ने। जाने क्या-क्या दुष्कर्म होते है यहाँ।”
“आओ दीदी, देखो।” राघव ने भीड़ के बीच से मेरे लिए रास्ता बनाते हुए कहा। पगली सबको टुकुर- टुकुर देख रही थी। कभी-कभी अपने सिर के बाल नोचने लगती। स्वास्थ्य कार्यकर्ता नाड़ काट कर नवजात बच्ची को ले गए। पगली ने किसी प्रकार का विरोध नहीं किया। वह पीछे–पीछे चल दी। बच्ची और पगली को वार्ड में लाया गया। राघव ने जल्दी से उसे बेड पर शिफ्ट किया। भीड़ पीछे लग गई थी। उन्हें अंदर नहीं आने दिया गया। हॉस्पिटल स्टाफ में हलचल मची हुई थी। सबके दिल- दिमाग में एक ही प्रश्न घूम रहा था। आखिर कौन हो सकता है ? लगभग सभी महिला कर्मचारियों की निगाहों में पुरुष कर्मचारी संदिग्ध हो गए थे। कई मुँहबोले रिश्ते कमजोर पड़ने लगे। आँखों ही आँखों में आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गए। गुनहगार को ढूँढने यानी उस बच्ची के बायोलॉजिकल फादर को ढूँढ निकालने की होड़ लग गई थी। पर सारी कोशिशें व्यर्थ साबित हो रही थीं। पगली किसी सवाल का जवाब नहीं देती थी। लगता था, उसके पास प्रश्न समझने का सामर्थ्य नहीं है। हद तो तब हुई जब सख्त मिजाज और खड़ूस मैट्रन ने पगली को आँखें दिखाते हुये डपटा, “ऐ पगली बता, तूने किसके साथ मजे किए ? उस वक्त तो सब होश था, अब नाटक कर रही है ?...उठा कर पुलिस को दे दूंगी। हप् बेहया।”
पगली टुकर-टुकर ताकती रही। मुझे अच्छा नहीं लगा। राघव को भी नहीं। शायद कुछ और लोगों को भी बुरा लगा हो। या शायद कुछ लोगों को मैट्रन का डाँटना उचित लग रहा हो। पगली थोड़ा सहम गई थी।
इस सब में काफी समय निकल गया। मेरी शिफ्ट समाप्त होने को आई। मैंने राघव को पगली और उसके बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी और अपना बैग उठा कर वार्ड से बाहर निकलने लगी। जाते हुए नजर पगली की ओर घूम गई। वह मेरी ओर ही देख रही थी। मैं ठिठक गई। क्या वह कुछ कहना चाहती है ? मैं उसके करीब चली गई। उसकी आँखों में आँसू थे। बड़ी हैरानी हुई। मुझे देख वह थोड़ा कसमसाई और सहम-सिमट गई। मैंने अपने स्वर में कुछ अधिक नरमी लाते हुए पूछा, “क्या हुआ, कहीं दर्द है ? बताओ। मेरी बात समझ सकती हो ? देखो, यहाँ कोई नहीं है। किसी से मत डरो, तुम्हें कोई नहीं मारेगा। ...बोलो। कौन था वो… ?”
मैं फिर से उसी सवाल पर आ गई। चाहती थी, वह केवल इशारा कर दे। मैं समझ जाऊँगी। यह जानना जरूरी था कि वह कोई बाहरी व्यक्ति था या अस्पताल से ही कोई था। अगर हमारे ही बीच में कोई है तो उसको पहचानना जरूरी लग रहा था। मैंने उससे खाना देने वाले, गैरेज में सफाई करने वाले और रात में आने वाले कुछ ड्राइवरों से लेकर तमाम तरह के लोगों के बारे में पूछताछ की। उनका हुलिया बता कर जानना चाहा। पर वह कुछ बोलने को तैयार नहीं थी। मुझसे नजरें हटा कर उसने जमीन पर गड़ा दीं। वह ऐसे शांत थी जैसे कोई तूफान कभी आया ही न हो। जैसे उसे पता ही न हो कि उसके साथ क्या हुआ।
मुझे भारी निराशा हुई। अब कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। पगली को देख कर खीज होने लगी। सोचा, पत्थर पर सिर टकराने से कुछ नहीं होगा। उधर, अस्पताल प्रबंधन इस बात से परेशान था कि सुबह मीडिया वाले आयेंगे और तरह-तरह के सवाल करेंगे। जबकि मैं जानना चाहती थी कि कहीं वह अस्पताल का ही कोई व्यक्ति तो नहीं है। जाने के लिए पलटी ही थी कि घुघुआती-सी आवाज सुनाई दी, “ही आगोते हदाय राती आहे, मूक जलेबी आरू पान खुवाय...आरू तार बिनिमयत...।” (वो रात में आता था, मुझे जलेबी और पान खिलाता था और उसके बदले में...)
यह संयोग था कि मुझे थोड़ी बहुत असमिया समझ आती थी। हालांकि बोल नहीं पाती थी। मैं एक झटके से पलटी, “और क्या, बताओ ? कौन था... कैसा था... तुमसे क्या बोलता था ?”
पगली चुप होकर बिस्तर पर औंधे मुँह गिर गई। एकदम गुड़ीमुड़ी होकर। उसके बाद उससे बात करने की सारी कोशिशें बेकार साबित हुईं। मुझे दो बातें पता चल गईं। एक तो यह कि कोई जलेबी और पान खिला कर यह सब कर गुजरा। दूसरा यह कि पगली इस कस्बे की नहीं थी। मैं तेज क़दमों से बाहर निकल पड़ी। घर आकर भी मुझे लगता रहा जैसे मेरे शरीर में कीड़े रेंग रहे हैं। बड़े-बड़े कीड़े। छिपकली से ज़्यादा लिजलिजे। मैं घृणा से भर गई। नहाने को मन हो रहा था।
रात मुश्किलों से बीती। एक-एक कर कई चेहरे आँखों के आगे उतराने लगे। कहीं रामलाल तो नहीं ? कहीं छुट्टन... नन्हे... श्याम जी... मुरारी... ? कहीं वो मूँछों वाला, जिसका नाम याद नहीं आ रहा ? कहीं फलां ? कहीं ढिमाका ? फिर ढेर सारे तर्क। कि नहीं ये नहीं हो सकता, वो भी नहीं हो सकता। लेकिन वह हो सकता है। हरामी लगता है। और ‘वो’ तो महा हरामी है। और साला वो धँसी हुई आँखों वाला पाँच फुटिया तो हरामियों का बाप लगता है। कभी एक चेहरा, कभी दूसरा, कभी तीसरा। कभी सब गड्डमड्ड।
इस तरह आँखों ही आँखों में आधी रात गुजर गई थी। आँख लगी तो भोर से जाने कितना पहले भेड़ियों का सपना शुरू हुआ और कितनी देर चलता रहा। सपनों की लंबाई नापी नहीं जा सकती। पर लगा घंटों इस सपने ने मुझे झिंझोड़ा, निचोड़ा और भयभीत किया। मेरी सुबह थोड़ा देर से होती है। उससे पहले ही भय से नींद खुल गई और हॉस्पिटल से फोन भी आ गया कि पगली गायब हो गई। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि ये तो होना ही था। मैं समझ रही थी। विश्वास नहीं कर पा रही थी कि वह भाग गई होगी। उसने अपने बच्चे को दूध पिलाया था। उसको पुचकारा था। वही घुघुआती-सी आवाज में कुछ कहा था। मैंने अपनी आँखों से देखा और कानों से सुना। फिर कैसे मान लूँ कि वह भाग गई होगी ? क्या हुआ होगा उसके साथ, कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।
*
मैं फटाफट सारे काम निपटा कर अस्पताल पहुँच गई। खुद नहीं जानती कि उस नन्हीं जान की चिंता हो रही थी या फिर जो बात मुझे मथ रही थी, उसी की चिकोटी थी। मैं सुबह से ही परेशान थी कि मुझे सी.एम.ओ. को पगली की कही बातें बतानी चाहिए या नहीं। तैयार होते-होते मैंने तय कर लिया कि बताना ठीक रहेगा। वे अवश्य पता लगाएंगे। उनके लिए पता लगाना आसान होगा। हम कर्मचारी कैसे वहां तक पहुंच सकते हैं ? मुखर होकर मैं और राघव या एक-दो और लोग ही बातें कर रहे थे। बाकी ने मुँह सी लिए थे। सन्नाटा-सा पसर गया था। मानो, सी.एम.ओ. का बाप मर गया हो।
आज अस्पताल में दूसरे दिनों से कुछ ज्यादा भीड़ थी। वार्ड पहुँचते ही राघव दौड़ा हुआ आया, “दीदी, पगली भाग गई।”
“पता है। बच्ची कहाँ है ? उसे भी ले गई क्या ?”
“नहीं।”
मैं बच्ची के पास गई। उसे देखा। ठीकठाक थी। एक बार और गौर से देखा। कितनी मासूम। रुई के फाहे की तरह। इसकी आँखें तो नीली हैं। मैं चौंकी। मुझे नीली आँखें पसंद हैं क्या ? कबसे ? पता नहीं।
तभी सी.एम.ओ. आते हुए दिखाई दिए। आज वे बहुत तेज चल रहे थे। जैसे रातोंरात फौज में भर्ती हो गए हों। उनके जूते भी उसी तरह कड़क आवाज कर रहे थे। मैं उनके पीछे भागी। मैंने ‘सर’ कह कर उन्हें आवाज दी। वे पलटे। मैंने बताया कि कुछ बात करनी है। उन्होंने मेरी ओर देखा। पर देखने के अंदाज में जल्दबाजी थी। मैंने फटाफट मुँह खोला, “सर, वो जो औरत थी, वो बच्चा छोड़कर भाग गई।”
“मालूम है।”
“सर उसने कल एक बात कही थी मुझसे।”
उन्होंने मेरी ओर देखा तो मैंने बताया, “कह रही थी कि कोई रात में जलेबी और पान लेकर उसके पास आता था।”
“हां तो ? इससे अस्पताल का क्या लेना-देना ? और सिस्टर आप इन बातों में क्यों इतना इंटरेस्ट ले रही हैं ? ये काम पुलिस का है। पता करने दीजिए।” कह कर वे आगे बढ़ गए, लेकिन दो कदम बढ़ाने के बाद एकाएक पलटे, “ध्यान रखिए कि आपको उस पागल औरत ने कुछ नहीं कहा। समझी ? बेवजह पुलिस के लफड़े में पड़ेंगी।”
उनकी सलाह में मेरा हित है, ऐसा मुझे जाने क्यों नहीं लगा। बल्कि उनके जाने के बाद मैं थोड़ा निराश हो गई। लौटते हुए बच्ची के पास पहुंच कर मेरे कदम ठिठक गए। मैं उसे निहार रही थी कि तभी पुलिस और मीडिया के लोग एक साथ आ धमके। जैसे दोनों के बीच कोई तालमेल हो या साँठगाँठ। उन्होंने बाहर से ही ढेरों सवाल दागने शुरू कर दिए। हॉस्पिटल मैनेजमेंट उन्हें शांत करने लगा। कुछ खुशामदी लोग दाँत निपोर कर रिरियाने लगे थे। फिर उन्हें एक बड़े कक्ष में ले जाया गया। वहाँ फटाफट कुर्सियों लगाई गईं। चाय-पानी का इंतज़ाम किया जाने लगा। हम सबको काम में लगे रहने की हिदायत दे दी गई— हाथ चलाएँ, पर ध्यान रहे, मीडिया के सामने मुँह न चलाएँ।
मैं बच्ची के पास से लौट कर अपने काम में लग गई। थोड़ी देर में राघव फिर उदास और घबराया हुआ-सा आया। कुछ बोला नहीं।
“क्या हो रहा है उधर ?” मैंने उस कक्ष की ओर संकेत किया जहां मीडिया और पुलिस वाले थे।
“चाय-बिस्किट और भुने हुए काजू चल रहे हैं।”— उसने झल्ला कर उत्तर दिया।
“और ?”
“हमसे मना किया पर वहां तो मुँह खूब चल रहे हैं।”
मैंने इसके बाद कोई सवाल नहीं किया। हम दोनों ही कुछ देर चुप रहे। फिर अचानक उसने पूछा, “दीदी क्या पगली के साथ कोई पागल रहता था ?”
“ये किसने कहा ?”
“कोई पुलिस और मीडिया वालों को बता रहा था कि पगली के साथ किसी पागल को कई बार देखा गया। मैं दरवाजे के बाहर खड़ा सुन रहा था। उसका चेहरा नहीं देख पाया।”
“अच्छा ?”
“हां। उसका यह भी कहना था कि पगली बाहर सड़क किनारे रहती थी। लेकिन दीदी, वो तो गैरेज में रहती थी ?”
“हूं।”
मैं इतना ही कह पाई। मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा था। केवल समझ सकती थी और समझ रही थी। लेकिन वह सब राघव को बताने का कोई फायदा नहीं था। अचानक बच्ची कुनमुनाई। जहां मैं थी वहां से उसे साफ-साफ देखा जा सकता था। मैं उसकी ओर लपकी। बच्ची की आंखों को फिर से देखा। एकदम नीली आंखें।
लौट कर आई तो राघव को बताया, “उसकी आँखें नीली हैं।”
“हूं।”—वह चुप हो गया।
“क्यों, तुझे नीली आंखें अच्छी नहीं लगतीं ?”
“लगती हैं दीदी, लेकिन आँखों के बारे में क्या सोचना ?”
“सोचने में क्या गलत है ?”
“आप क्या उसे अपने पास रखना चाहती हैं ?”
“पता नहीं। पर चिंता होती है।”
“मुझे पता है। एक आप हैं और एक वो सफाई वाली है ना, रामवती, दोनों ही उसे इस तरह देखते हो कि...।”
“मैंने उसका नाम भी सोच लिया है— जन्नत।”
मैं रामवती को कई बार उसे पुचकारते हुए देख चुकी थी। पर उसके बारे में बात नहीं करना चाहती थी। राघव भी चुप हो गया था। बल्कि थोड़ा उदास दिखा। मैंने उसकी ओर नजर उठाई तो बोला, “वो लोग कहते हैं कि बच्ची को जल्दी ही किसी अनाथ आश्रम में भिजवा दिया जाएगा।”
आश्चर्य से मेरी पुतलियाँ फैल गईं। लेकिन राघव की बात पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं था। वो लोग सचमुच ऐसा सोच रहे होंगे। मुझे यकीन हो गया था। अचानक इच्छा हुई कि रामवती से बात करूं, जिसके कोई औलाद नहीं थी और जो बच्ची पर मोहित थी। वह उसे पालना चाहती है। पर रामवती से बात करने से क्या होगा ? इसलिए कि दो दिन में हम दोनों बच्ची के कारण एक-दूसरे को कुछ ज्यादा ही समझने लगे थे ?
पुलिस वाले और मीडिया के लोग बाहर आ रहे थे। अस्पताल प्रबंधन के कई अधिकारी उनके साथ थे। उन्हें देख कर स्टाफ के लोग अपने-अपने काम में लग गए। राघव मेरे पास से हट गया। वे लोग काफी खुश थे। जैसे किसी संकट का समाधान निकाल कर लौटे हों। सब हँस रहे थे। इनके बीच हँसने की क्या बात हुई होगी ? किसी ने कोई चुटकुला सुनाया होगा क्या ? हो न हो पगली पर हँस रहे होंगे। मैंने सोचा। विदाई लेते हुए उन लोगों की हँसी और तेज हो गई। मैं घबरा गई। उसी तरह जिस तरह रात में भेड़ियों की हँसी से घबरा गई थी।
आदमी भेड़ियों की तरह क्यों हँसते हैं ? मैंने सोचा। तभी मुझे लगा कि कहीं से बच्चों के खेलने की आवाज आ रही है— पोशम्पा भई पोशम्पा। पर बड़ी अजीब बात थी। बच्चे सब कुछ बोल रहे थे, लेकिन जहां ‘अब तो जेल में जाना पड़ेगा’ आता, वे चुप हो जाते। ...पोशम्पा भई पोशम्पा। मुझे सपनों में खेला जा रहा भेड़ियों का पोशम्पा याद आने लगा। मेरे माथे और ऊपरी होंठ के ऊपर, जहां पुरुषों की मूंछें होती हैं, पसीना चुहचुहा आया। पोशम्पा भई पोशम्पा।
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