Me, Reja aur 25 June books and stories free download online pdf in Hindi

मैं, रेजा और 25 जून

मैं, रेजा और 25 जून

सीमा शर्मा

यह उम्र ही ऐसी होती है। सब कुछ अच्छा लगता है। सुंदरता और शोख रंग तो खींचते ही हैं, पर जो हट कर है, वह और अधिक आकर्षित करता है। शायद यह चुंबकीय उम्र होती है। खींचती है और खिंचती भी चली जाती है। मैं रोज ही उसे देखता था। लेकिन यह नहीं जानता था कि वह आंखों की भाषा समझती है या नहीं। उसे देख कर कभी नहीं लगा कि समझती होगी। वह देखती थी, पर आंखें बोलती नहीं थीं। जिसे आप साफ-साफ पढ़-सुन नहीं सकते, वह अधिक परेशान करता है। जो परेशान करता है उसमें खास तरह का आकर्षण होता है। आकर्षण कभी-कभी चकरघिन्नी बना देता है।

पिछले मई में मेरी पोस्टिंग वर्धा से चिपली हुई थी। घर छोड़ कर आने का मन नहीं था। लेकिन आना पड़ा। पापा ने समझाया था कि नौकरी का मतलब यही है। घर से दूर जाने के लिए हमेशा तैयार रहो। नौकरी मिलना कितना मुश्किल है आजकल। अभी नई-नई है, समझ में नहीं आएगा। लेकिन धीरे-धीरे आदत हो जाएगी।

एक महीने से धूल, मिट्टी, सीमेंट और राख में सनता रहा हूं। सचमुच समय का पता ही नहीं चला। शायद धीरे-धीरे आदत हो रही है। पापा ठीक कहते हैं। पुल को तय समय सीमा में तैयार करना था। बस्ती से शहर के लिए एक ही रास्ता था, जो बरसात में नदी में तब्दील हो जाता है। तब आदिवासी चार माह के लिए अपनी पहाड़ी बस्ती के कैदी बन जाते हैं। बरसात नहीं यह बनवास होता है उनके लिए। पुल बनाने का टेंडर मेरी कंपनी को मिला था और मुझे यहां भेजा गया था। मैं इंजीनियरों के दल में सबसे युवा था।

पच्चीस जून। आज सुबह से ही आकाश में घने काले बादल छाये हुए हैं। बिजली कड़क रही है। लगता है बहुत तेज पानी बरसेगा। बेलदार और रेजाएं आकर कई बार पूछ चुके हैं, “साहब, आज जुड़ाई का काम होगा ?”

मैं जानता था, आसमान बरसने को तैयार है, ऐसे में काम कैसे होगा। लेकिन मैंने मना नहीं किया। अगर मना करता तो वह भी चली जाती। मैंने सभी बेलदारों से लकड़ी के मोटे खंभों को किनारे लगाने के लिए कहा और रेजाओं से सीमेंट की बोरियों को गोदाम में रखने के लिए बोल दिया। लकड़ी के खंभे पुल के नीचे टेक लगाने और पाड़ बांधने के लिए थे। उन्हें, दो दिन में उस जगह पहुंचाना था जहां पुल बन रहा है। सीमेंट की कई बोरियां खुले में पड़ी थीं। उनके भीग कर सैट हो जाने का खतरा था। पानी पड़ा और सीमेंट बेकार। इस सबकी जिम्मेदारी मेरे सिर आती। मौसम का मिजाज भांप कर मैंने कुछ बेलदारों को भी सीमेंट की बोरियां उठाने के काम में लगा दिया।

कुछ ही देर में चारों तरफ अंधेरा छा गया। बादल गरजने के साथ बिजली चमकने लगी। पलक झपकते ही तेज अंधड़ चलने लगा। धूल में सब कुछ गड्डमड्ड हो रहा था। कागज के टुकड़े और पॉलेथिन के थैले हवा में उड़ रहे थे। टिन खड़खड़ाने लगे। यह मंजर देख कर डर लगने लगा। यह खौफ बेलदारों और रेजाओं के चेहरे पर भी देखा जा सकता था। टिन की किसी चादर के उड़ कर आने और सिर या गरदन पर गिर जाने की आशंका से सभी भयभीत थे। ऐसी एक घटना इस इलाके में वर्षों पहले उस वक्त घटी थी जब यहां रेस्ट हाउस बन रहा था। तब एक मजदूर की खोपड़ी टिन की उड़ती हुई चादर ने खोल दी थी। यह बात बेलदारों में से एक बता रहा था और वह शेड के नीचे खंभे की आड़ लेकर सुरक्षित हो जाना चाहता था। हो सकता है वह उस घटना का चश्मदीद रहा हो। मैंने पूछा नहीं। सीमेंट की बोरियां उठ गई थीं और मैं थोड़ा निश्चिंत हो गया।

अब तक सभी बेलदार और रेजा दौड़ कर टीन शेड के नीचे आ गए थे। मैं भी शेड का आधार बने खंभों में से एक के सहारे खड़ा हो गया। मेरी नजरें उसे तलाश रही थीं। लेकिन वो नजर नहीं आ रही थी। कहां चली गई होगी ? मैं उसके बारे में पूछना चाहता था। पर किससे पूछूं और क्या पूछूं ? नाम भी तो नहीं जानता उसका।

तभी देखा वह सामने से आ रही है। हवा उसकी रफ़्तार को रोक रही थी। धोती बदन से अलग होना चाहती थी, जिसे वह सीधे हाथ से बार-बार संभाल रही थी। अभी कुछ बूंदें ही बरसी थीं, लेकिन वह सावधानीवश एक आधी बनी खेमरी को सिर पर रखे शेड की ओर भागी चली आ रही थी। उल्टे हाथ से वह खेमरी को थामे हुए थी। मैंने पहली बार उसे इतना गौर से और भरपूर देखा। उसकी देह धातु की बनी मूर्ति जैसी सुगढ़ है। इतनी ठोस कि अगर वह खंभे से टकरा जाए तो टंकार गूंज उठे। आज समझ में आया कि मूर्तियों के सौंदर्य में कोई कैसे खो जाता है। शायद इसीलिए लोग खजुराहो जाते होंगे ? मैं उस जीवंत मूर्ति में खोता जा रहा था। लग रहा था पिघल रहा हूं और उस मूर्ति में विलीन हो रहा हूं। पता नहीं क्या हो रहा था मुझे। मेरी मनोदशा अजीबोगरीब हो चली थी।

टिन शेड के नीचे आकर उसने अपनी धोती से गर्द को झटका और उसे ठीक करते हुए तिरछी नजर से मेरी ओर देखा। वह मेरे काफी करीब थी। उसकी देह से धातु की गंध आ रही थी। उस धातु की जिससे वह बनी थी। पता नहीं पीतल था, तांबा था या कि मिश्र धातु। उस गंध में महुआ और मिट्टी की गंध मिली हुई थी। या शायद बूंदाबांदी के कारण मिट्टी की गंध अलग से नथुनों में घुस रही हो। लेकिन ये महुआ ? पता नहीं। पर जाने यह कैसी गंध थी जो मदहोश कर रही थी। सारे बेलदारों और रेजाओं का ध्यान अंधड़ की तरफ था। वे कभी-कभी नजर उठा कर और गर्दन शेड से बाहर निकाल कर आकाश की ओर देख लेते थे। मैं थोड़ा-सा सरक कर उसके करीब हो गया। उस गंध ने मेरे अंदर हिम्मत ला दी थी, क्योंकि वह खींच रही थी। मैं उससे बात करना चाहता था। उसी क्षण। बिना समय गंवाए। वहां आस-पास मेरे अलावा परियोजना से जुड़ा कोई व्यक्ति नहीं था। केवल बेलदार और रेजाओं का जमावड़ा था। कुछ युवा, कुछ अधेड़। सबकी मिचमिचाती आंखें अंधड़ और मौसम पर टिकी थीं। मौसम की ही बातें कर रहे थे। बादलों की गड़गड़ाहट में उनकी बुड़बुड़ घुली जा रही थी। मैंने अपने आप को समझाया। आज नहीं बोला तो फिर ऐसा अवसर जाने कब मिले। ऐसा पागलपन भी जाने कब सवार हो।

“पानी बरसेगा ?” मैंने पूछा। वह फिक्क-से हंस दी। उसके तांबई चेहरे पर दूधिया दांत चमक उठे। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह हंसी क्यों। शायद वह मेरी मूर्खता पर हंस रही हो कि इस व्यक्ति को मौसम का अनुमान भी नहीं है। फिर भी मैंने दुबारा पूछा, “क्या हुआ, हंस क्यों रही हो ?...पानी बरसेगा ?”

“हाओ।”—उसने स्वीकारोक्ति में गर्दन दो बार ऊपर-नीचे की।

मैं चुप हो गया। सिलसिला आगे बढ़ ही नहीं रहा था।

“अगर पानी बरसा तो...?”- मैंने पूछा। पर सवाल अधूरा रह गया। उसने नज़रें उठा कर केवल मेरी ओर देखा। उस देखने में सवाल शामिल था— तो क्या ?

“तुम ऑफिस तक मेरे साथ चलोगी ? अभी ?”

उसकी पुतलियां फैल गई थीं और श्वेतपटल (आंखों के सफेद गोले) पहाड़ी मैना के अंडे जैसे बाहर निकल आए। लगता था, जैसे पूछना चाहती हो, “क्यों बाबू, क्या काम है ?”

पर पूछा नहीं।

“यूं ही...मुझे बारिश में अकेले अच्छा नहीं लगता।”

मुझे कुछ नहीं सूझा कि क्या कहूं। यह भी कोई बात हुई, जो मैंने कही। इसका कोई मतलब है ? वह हल्के-से मुस्कराई। उसकी आंखें अब भी अबूझ-सी लग रही थीं। जैसे कुछ समझती न हो। उसने एक नज़र दूसरी रेजाओं और बेलदारों की ओर देखा। फिर धूल-धक्कड़ से बचने के लिए धोती से मुंह लपेट कर चुपचाप बाहर निकल गई। वह उस रास्ते पर चल पड़ी थी जो अस्थायी, किंतु बनिस्बत पक्के शेड में बने हमारे ऑफिस की ओर जाता है। हालांकि आगे, एक पगडंडी के फूटने से, वह रास्ता दोराहे में बदल जाता था। जहां दाएं हाथ पर मुड़ते ही वह पगडंडी उसके गांव की ओर चली जाती थी। मेरे दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं। किसी स्त्री के करीब जाने का मेरा यह पहला अनुभव था। यह अनुभव कैसा होगा, यही सोच कर धकधक बेकाबू हो रही थी। मैं शेड के नीचे खड़े हर चेहरे पर एक उड़ती-सी नज़र डाल कर तेजी से उसके पीछ-पीछे चल दिया।

वह जिस साहस के साथ चली आई उसे देख कर मैं हैरान था। लगता था, या तो वह भी आकर्षित है या फिर उसे अपने आप पर पूरा भरोसा है। लेकिन मैं डगमगा रहा था। मन अधिक डांवाडोल था। यह खयाल भी आता कि कहीं मैं यों ही खुश न हो रहा होऊं। क्या पता वह अपने घर जा रही हो। मेरी बात पर उसने ध्यान ही न दिया हो। या उपेक्षा की हो। मैं लगभग उसके बराबर में पहुंच चुका था। हम दोराहे पर पहुंचने वाले थे, जहां से एक रास्ता हमारे ऑफिस को और दूसरा उसके गांव की ओर जाता था। मुझे ऐसा लगा ( मेरा अनुमान गलत नहीं था), वह कनखियों से मेरे कदमों की आहट सुन रही है। उसे पता था कि मैं उसके कितना करीब पहुंच चुका हूं। अन्यथा दोराहे से दो कदम पहले अचानक पलटती नहीं। उसने मेरी ओर देखा, “बारिश और तूफान से डर लगता है बाबू ?”

“नहीं।”

“तो क्या काम है ?”

“कुछ नहीं, बस यूं ही...तुमसे बात करनी थी।” —मेरी जबान लड़खड़ा गई। उसने झट से कहा, “तो फिर मेरे साथ चलो।”

उसके साथ कहां ? उसके घर ? मैंने सोचा। तब तक वह गांव की ओर जाने वाले रास्ते पर मुड़ गई थी। क्या वह कोई ज़्यादा सुरक्षित जगह ले जाना चाहती है ? या फिर मेरे साथ आते हुए डर गई ? इसलिए कि ऑफिस में दूसरे लोग हो सकते हैं ? या इसलिए कि मैंने बात करने की इच्छा व्यक्त की और वह इसका कोई अर्थ निकाल कर घबरा गई। बात करने का क्या अर्थ हो सकता है इस आदिवासी रेजा के लिए ?

मैं सोच रहा था। लेकिन मंत्रमुग्ध-सा उसके पीछे-पीछे हो लिया। अंधड़ कभी धीमा पड़ता तो कभी अचानक तेज हो जाता। हम गांव के नजदीक पहुंच रहे थे। कुछ दूरी पर गांव वालों की झोपड़ियां दिखाई देने लगी थीं। मुझे उसके साथ जाते हुए थोड़ा घबराहट होने लगी थी। मैंने पीछे मुड़ कर देखा। यहां से ऑफिस और उसके गांव की दूरी बराबर लग रही थी। तभी अचानक हवा के एक तेज झौंके के साथ मेरी आंखों में धूल-मिट्टी घुस गई। मैं लड़खड़ा गया। मेरी आंखें एक झटके में बंद हो गई थीं। मुझे अपनी जगह रुक जाना पड़ा। उसने मुड़ कर देखा और मुझे आंख मलता देख कर मेरी स्थिति समझ गई। बाईं आंख तो बड़ी कोशिशों के बाद थोड़ा खुल गई पर दाईं आंख खुल नहीं रही थी। रेजा ने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे गांव को जाने वाली पगडंडी से थोड़ा हट कर सरई (साल) के झुरमुटों के पास ले गई, जहां कुछ सागौन के वृक्ष भी थे। सागौन का एक आधा उखड़ा पेड़ जमीन को छू रहा था। शायद पिछली किसी आंधी में उसका यह हाल हुआ हो। वह दूसरे पेड़ों पर अटका हुआ था। थोड़ा उछल कर उस पर बैठा जा सकता था।

रेजा ने मुझसे उस पेड़ के सहारे बैठने को कहा। मेरी लंबाई उससे अधिक थी। मैं बैठ गया तो वह मुझ पर झुक गई। मैंने बाईं आंख से साफ-साफ देखा। वह मुझ पर झुकी चली आ रही थी। मेरी धड़कनें बढ़ने लगीं। दाईं आंख खुल नहीं रही थी और तेज टीस हो रही थी। उस टीस से मैं तड़प रहा था। यह मुझ पर झुक कर क्या करने वाली है, मैं यही सोच रहा था। ध्यान आंख की ओर भी था। अचानक उसने मेरी दाईं आंख की कोटर में अपनी तर्जनी और अंगूठा फंसा कर मेरी फलकों को जबरन खोल दिया। उसने आंख के अंदर झांका और एक क्षण गंवाए बिना बाईं ओर से अपने ब्लाऊज को ऊपर सरका लिया। इतना ऊपर कि मैं हैरान रह गया। लगभग थरथराने लगा था। यह सब मैंने इस तरह पहले कभी नहीं देखा था।

मेरी समझ में नहीं आया कि वह क्या करने जा रही है। अगले ही क्षण मेरी आंख में पानी की-सी तेज धार पड़ी। मैं हिल गया। मैंने बाईं आंख को हल्का-सा खोल कर देखा। वह एकदम करीब थी। उसने ब्लाऊज अब भी ऊपर सरका रखा था। मेरी आंख में एक बार और वह दूधिया धार पड़ी। आंख को बड़ा आराम मिला। इस बार उसने ब्लाऊज को दाईं ओर से ऊपर उठाया और मेरी बाईं आंख में भी पिचकारी मार कर खिलखिलाने लगी। ऐसा लगा, वह हंसी पेड़ों की फुनगियों पर टंग गई है।

मैंने पलकों को झपकाया। ऊपर-नीचे किया। बहुत आराम था। रेजा बोली, “मेरे बच्चे की आंख में कुछ गिर जाए तो मैं ऐसा ही करती हूं। बचपन में मेरी मां भी यही करती थी।”

उसकी हंसी अब भी सरई के सबसे ऊंचे पेड़ की फुनगी में टंगी थी। मुझे तो अनुमान हो गया था कि वह शादीशुदा ही नहीं, एक या एक से ज्यादा बच्चों की मां भी है। उसके ब्लाऊज का एक सिरा अब भी ऊपर सरका हुआ था। उसमें सचमुच एक मूर्ति जैसा सौंदर्य था। लेकिन उस मूर्ति से अब अगरबत्ती जैसी गंध आने लगी थी। यह क्या हो रहा है। मेरी नज़रें उस ओर उठ क्यों नहीं रही थीं ? मैंने जमीन की ओर देखते हुए कई बार अपनी पलकों को झपकाया। मेरी आंखों से गर्द और मैल निकल गया था। कुछ देर पलकें झपकाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरी दृष्टि का धुंधलापन छंट गया है। मैं साफ-साफ देख पा रहा था।

उसने उल्टे हाथ से आंख पर आ रहे मेरे बाल हटाते हुए कहा, “बच्चे बने रहो। ये जो लोग हैं ना...बड़े, इनकी तरह मत बनो।”

कौन बड़े लोग ? कैसा बच्चा ? मैं उसकी बात का आशय नहीं समझा। पर कोई बात तो ऐसी थी जो मुझे अच्छी नहीं लग रही थी। मैं उसका हाथ झटक देना चाहता था, लेकिन ऐसा करने की जगह उठ खड़ा हुआ। बारिश तेज हो गई थी। इतनी तेज कि चारों ओर केवल पानी ही पानी नजर आ रहा था। जमीन पर गिर रही बूंदें बुलबुलों की शक्ल ले रही थीं। हम दोनों पेड़ों के झुरमुटों की आड़ में खड़े काफी हद तक बचे हुए थे, लेकिन फिर भी हवा के साथ फुहारें हम तक पहुंच रही थीं और हमें नम कर रही थीं। मैं उसकी ओर देखे बिना पेड़ों की आड़ से बाहर निकल आया। उसने लपक कर मेरा हाथ थाम लिया, “बहुत बारिश है। भीग जाओगे।”

मैं ठिठक गया। पर कोई उत्तर नहीं दिया। मेरी मां भी मुझे बारिश में जाने से इसी तरह रोकती थीं। बचपन में ही नहीं, अब भी। पिछली बारिश में उन्होंने इसी तरह मुझे घर से निकलने नहीं दिया। छाता लेकर भी नहीं। यह सोचते हुए मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। पर मैं सोच रहा था। मां की याद आने लगी थी। मन भारी हो गया। उसने अपने झोपड़े की ओर उंगली उठाई, “बारिश थमने तक वहां चलो। वो, उधर।”

मैंने एक बार उसकी उंगली की सीध में देखा। मैं जानता था कि वहां उसके बच्चे होंगे। उसका पति भी हो सकता है। मैंने उससे नजर नहीं मिलाई। वह मेरा संकोच समझ रही थी। बोली, “मेरा दो साल का बच्चा है। घर में पति है। चालीस साल का होगा। बीमार रहता है। झाड़-फूंक चल रहा है। ठीक हो जाएगा।”

मैं कहना चाहता था कि झाड़-फूंक से ठीक नहीं होगा, अस्पताल में दिखाओ। पर मैं बोला नहीं। मेरी कलाई पर उसके हाथ की पकड़ ज्यों ही ढीली पड़ी, मैं एक झटके के साथ खुले आकाश के नीचे आ गया। बारिश ने कुछ ही पलों में मुझे पूरी तरह भिगो दिया। वह मना करती रही। पर मैं भीगता हुआ निकल गया। मैंने मुड़ कर नहीं देखा। उसका मना करना मुझे फिर से मां की याद दिला रहा था। मां भी ऐसे ही जिद करती थी। मां की याद आते ही मेरे कदम और तेज हो गए। मैं एक बार पलट कर उसे देखना चाहता था। मुझे विश्वास था कि वह मुझे जाते हुए देख रही होगी। पर मुझमें उसे देखने का साहस नहीं था। वह कुछ कह रही थी। किंतु मैं सुन नहीं रहा था। बारिश और तेज हो गई थी। बूंदाबांदी में एक लय थी। नहीं। शायद दूर कहीं टिन शेड पर पड़ती बूंदों में कोई उदासी भरा संगीत था। और रास्ते के हर पेड़ की फुनगी में हंसी टंगी हुई थी।

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