भदूकड़ा - 15 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 15

अगले दो दिन तैयरियों में बीते. छोटा-बड़ा तमाम सामान सहेजा गया. अनाज की बोरियां भरी गयीं. मसाले, अचार, पापड़, बड़ियां ....सब कुछ. ज़रूरी बर्तन और बिस्तरों का पुलिंदा बनाया गया. सुमित्रा जी सब देख रही थीं चुपचाप. अन्दर ही अन्दर घर से दूर जाने से घबरा भी रही थीं. कैसे सम्भालेंगीं बच्चों और घर को! हमेशा भरे-पूरे घर में रहने की आदी सुमित्रा जी का मन, अकेलेपन की कल्पना से ही दहशत से भरा जा रहा था. लेकिन अब बड़े दादा का आदेश था तो जाना तो पड़ेगा ही. दो दिन बाद जब सामान ट्रैक्टर में लादा जा रहा था तो न रमा की रुलाई रुक रही थी न सुमित्रा जी की. छोटी काकी भी बहुत भारी मन से सामान लदवा रही थीं. पहली बार कोई बहू घर से अलग जा रही थी. और कुन्ती? उसे काटो तो खून नहीं! इस उसे अफ़सोस इस बात का नहीं था कि उसका झूठ पकड़ा गया, बल्कि खुन्दक इस बात से थी कि अब सुमित्रा अलग गृहस्थी बसायेगी वो भी शहर में. लगभग पूरा गांव, आंखें नम किये, सुमित्रा और तिवारी जी को छोड़ने कच्चे रास्ते से होता हुआ, शहर जाने वाली मुख्य सड़क तक आया. धूल उड़ाती सुमित्रा की जीप जब तक आंख से ओझल न हो गयी, तब तक सब रोड किनारे खड़े रहे.
गांव की इतनी बड़ी हवेली, एक व्यक्ति के जाने से ही सूनी-सूनी सी लगने लगी थी. सब चुप थे. कोई किसी से बात करने का इच्छुक नहीं था. ये जाना यदि बिना किसी वजह से होता, तो परिवार ऐसा शोकाकुल न होता. पर ये जाना हुआ था किसी झूठे लांछन के तहत...... सूनापन तो भरना ही था. छोटी काकी बिल्कुल गुमसुम सी अपने कमरे में पड़ी थीं. रमा का मन आज डला भर रोटियां सेंकने का नहीं था

बड़के दादा जी पहले ही भूख न होने का ऐलान कर चुके थे. सबसे अधिक दु:खी तो दादा जी ही थे. उन्हीं ने तो सुमित्रा पर इल्ज़ाम लगाये थे, अपने मुंह से. भले ही वे बताये किसी और ने थे पर सुनाने के लिये तो उन्हीं का मुखारबिंद इस्तेमाल हुआ था. सुमित्रा की आंखों से झरते आंसू भी याद हैं उन्हें जो घूंघट की सीमा तोड़ के नीचे, गोबर लिपे फ़र्श पर गिर के अपना निशान बनाते चल रहे थे. आज दोपहर बाद दादाजी बैठक में अपनी आराम कुर्सी पर ही लेटे रहे. अपने कमरे में नहीं गये. पता नहीं क्यों, कुन्ती का सामना नहीं करना चाहते थे वे. कुन्ती से अधिक, उन्हें खुद पर क्रोध था. कैसे वे ये सब न समझ पाये? कैसे कुन्ती की बात मानते चले गये? सुमित्रा को तो जानते थे वे पिछले दो साल से. इतनी सुशील लड़की पर कैसे आरोप लगा पाये वे!!!!! खुद को धिक्कारते-धिक्कारते दिन बीतने थे अब, क्योंकि जो हुआ, वो नासूर बन के तक़लीफ़ देगा ही. पिंड छूटेगा नहीं, वे चाहे जितना चाहें. चाहेंगे भी कैसे? आखिर खुद ही सामने से सुमित्रा पर चोरी के आरोप लगाये थे!!! उफ़्फ़!!!! क्या सोचती होगी वो स्वाभिमानी लड़की??? आज उन्हें अपनी पहली पत्नी भी बहुत याद आ रही थीं. कितनी शान्त-शालीन थी सुशीला....! लगभग सुमित्रा जैसी ही.
(क्रमशः)