भदूकड़ा - 16 vandana A dubey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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भदूकड़ा - 16

आज उन्हें अपनी पहली पत्नी भी बहुत याद आ रही थीं. कितनी शान्त-शालीन थी सुशीला....! लगभग सुमित्रा जैसी ही. दोनों में प्यार भी बहुत था. शादी के बाद जब तक सुशीला ज़िन्दा थी, सुमित्रा की चोटी वही किया करती थी, बिल्कुल मां की तरह. सुशीला के साथ का अनुभव इतना अच्छा था कि वे समझ ही न पाये कि दुनिया में कोई स्त्री इतनी खुराफ़ाती भी हो सकती है!! पूरे खानदान में ऐसी कोई महिला न थी तो तिवारी जी सोच भी कैसे पाते? फिर ये तो सुमित्रा की बहन थी.... कहां सुमित्रा और कहां कुन्ती!!!!

उधर कुन्ती भी तिलमिलाई सी घूम रही थी. कहीं चैन न पड़ रहा था. कमरे में झटपट करती घूमती रही. चैन न पड़ा तो अटारी से लगी छत पे आ गयी. यहां भी मन न लगा तो पीछे बगिया में चली गयी. इतना सब भांडा फूटने के बाद भी उसके चेहरे पर मलाल की रेखा तक न थी. बल्कि कोई बिगाड़ न कर पाने का अफ़सोस ज़रूर चेहरे से झांक रहा था. छोटी काकी के कमरे में झांकने गयी, तो उन्होंने उसे टके सा फेर दिया ये कहते हुए, कि ’रानी अभी कोई बात न करना.’

बैठक में दादाजी को देखने गयी तो वे आंखें बन्द किये आराम कुर्सी पर बैठे थे. आहट पा के भी उन्होंने आंखें नहीं खोलीं, तो कुन्ती कब तक इंतज़ार करती? जानती थी कि वे जानबूझ के आंखें बन्द किये हैं , खोलेंगे भी नहीं. जाग रहे हैं, ये उनकी झूलती कुर्सी बता रही थी. उधर से भी मायूस हो लौटती कुन्ती को रमा का खयाल आया, लेकिन उसके कमरे तक जाने की उसकी हिम्मत ही न पड़ी.

कितनी ही खुराफ़ात कर ले, अन्तत: थी तो पांडे जी की लड़की. कुछ तो शर्मिन्दगी आयेगी ही ग़लत काम करने पर. फिर रमा, जो कि पदवी में उनसे काफ़ी छोटी थी, यदि उन्हें पलट के कुछ कह दे तो? सो अपनी इज़्ज़त बचाने की चिन्ता ज़्यादा थी कुन्ती को, इस वक़्त. बड़ा अजब हाल था....! एक तो सुमित्रा की इस बड़े से कुनबे से आज़ादी, उस पर कोई बात भी न कर रहा था उससे....! ऐसे तो न चल पायेगा कुन्ती. तुम्हारा भभका बना रहना चाहिये बैन....! कुन्ती की अन्तरात्मा उसे बार-बार उकसा रही थी किसी नये गुड़तान के लिये. वैसे भी सबका ध्यान आकर्षैत करने के लिये कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. इसी उधेड़बुन में कुन्ती वापस अपनी अटारी में आ गयी और मुंह ढांप के लेट गयी.
शाम को रमा और कौशल्या, रमा से छोटी बहू, जिसने अब सुमित्रा की ड्यूटी सम्भाली थी, दोनों ने मिल के सबके लिये चाय बनाई. चाय लेने सब रसोई तक खुद ही आते थे, बस बड़के दादाजी की चाय बैठक में पहुंचाई जाती थी. छोटी काकी भी रसोई के आगे वाले छोटी छत पर बैठ के ही चाय पीती थीं. दादाजी की चाय भिजवा दी गयी, सभी देवर, लड़के-बच्चे अपनी चाय ले गये. कुन्ती की सारी सगी-चचेरी देवरानियां बैठी थीं, कि बड़की जीजी आयें, अपनी चाय लें तो फिर सबको दे दी जाये. लेकिन बड़की जीजी यानी कुन्ती के तो आज दर्शन ही न हो रहे थे. चाय से निपटतीं, तो शाम की आरती की तैयारी करतीं सब. चाय की चहास ज़ोर मार रही थी और जीजी आ ही नहीं रही.....!
(क्रमशः)