जी-मेल एक्सप्रेस
अलका सिन्हा
2 - बीते लम्हों की यादें
अन्यमनस्क-सा दिन बीता और रात सुबह के इंतजार में गुजर गई।
नींद के झोंके भी स्कूल के दिनों में लिए जाते रहे। देखता रहा, बड़ा-सा वह चबूतरा, जहां प्रार्थना हुआ करती थी। नूपुर प्रार्थना कराने वाली टीम के साथ मंच पर खड़ी होती। उसकी यूनिफॉर्म हमेशा साफ और तरीके से प्रेस की हुई होती। स्कर्ट की बाईं ओर एक साफ सफेद रूमाल टंगा रहता। वह कभी उस रूमाल का इस्तेमाल करती हो, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। वह वैसे ही स्कर्ट के साथ लगा रहता जैसे उसे साथ में सिल दिया हो। जूते हमेशा पॉलिश किए और बालों में हलके तेल के साथ कसी हुई चोटी रहती। आंखें मूंदकर जब वह प्रार्थना कराती तो इस प्रकार मगन हो जाती जैसे वह सच में ईश्वर से संवाद कर रही हो। तब वह बहुत सच्ची मालूम पड़ती। उसके चेहरे का यह सच्चापन ही था जो अनजाने ही मेरी पूजा-प्रार्थना में शामिल होता जा रहा था।
‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतम् गमय...’
बरसों पुरानी प्रार्थना कानों में झंकार करती रही और मैं रात भर अधेड़पन से युवावस्था और युवावस्था से लड़कपन की ओर लौटता रहा...
एक नई ऊर्जा के साथ सुबह ने दस्तक दी और मैं भरपूर उल्लास के साथ दफ्तर के लिए तैयार होने लगा। प्रेस की हुई कमीज पहनने लगा तो निगाहें शीशे में खुद की जगह किसी और का ही चेहरा तलाशने लगीं।
अपने उत्साह को काबू में कर मैं ऊपरी तटस्थता के साथ नीचे उतर आया। गाड़ी स्टार्ट करते हुए एक बार डैशबोर्ड की पॉकेट में झांककर तसल्ली की और ऐक्सिलरेटर पर पैर दबा दिया।
सोचा तो यही था कि ऑफिस पहुंचते ही डायरी खोल लूंगा मगर सोचे हुए ढंग से जिंदगी चलती कहां है। गाड़ी पार्क कर डायरी निकाल ही रहा था कि डायरेक्टर साहब के ऑफिस से फोन आ गया कि मजूमदार वाले केस की फाइल लेकर तुरंत वहां पहुंचूं। जल्दी से अपनी सीट पर जाकर जरूरी फाइलें और डाटा समरी लेकर डायरेक्टर साहब के कैबिन में दस्तक दी। मजूमदार की इन्क्वायरी चल रही थी और मैं बतौर प्रेजेन्टिंग ऑफिसर लगा दिया गया था। हालांकि यह केस मेरे जिम्मे नहीं था मगर डायरेक्टर साहब से ऐसा कहने का साहस किसके पास था। मजबूरी में प्रॉक्सी बजाता रहा। मुश्किल सिर्फ एक दिन नहीं थी, अब यह केस मेरे नाम मार्क हो गया था और इसका अध्ययन करना मेरा दायित्व बन गया था। अनमने ढंग से फाइल पर नजर दौड़ाता रहा कि किस प्रकार मजूमदार ने नैनीताल में कंपनी की फ्रैन्चाइजी खोलने के लिए ‘नंदा देवी एन्टरप्राइजेज’ से मोटी रिश्वत खाई थी। केस की संवेदनशीलता का अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि डायरेक्टर साहब खुद इसकी जांच कर रहे थे।
हमारा ऑफिस दरअसल पर्यटन मंत्रालय के अधीन काम कर रहा एक निकाय है जिसके तहत हमें विभिन्न शहरों में आने वाले पर्यटकों के अनुसार अपनी सेवाएं प्रदान करनी होती हैं। इसलिए देश के कोने-कोने में घूमना, होटल सुविधाओं का आकलन करना हमारे काम में शामिल है। उच्च अधिकारी मौज लूटते हैं और मोटे-मोटे बिल भरते हैं। मगर असली कमाई तो दूसरे स्टेशनों पर अपना एजेंट नियुक्त करने में होती है। मजूमदार ने कुछ अनोखा किया था, ऐसा नहीं था, मगर हां, हो सकता है अपने सीनियर्स को सही शेयर नहीं पहुंचाया होगा जो उसकी पीली फाइल खुल गई।
मैं जितना ही इस केस को समझने की कोशिश कर रहा था, उतना ही उबाल उठ रहा था। हालांकि मेरे जैसे व्यक्ति का उबाल मायने ही क्या रखता है, इसलिए ब्लड-प्रेशर बढ़ाने से अच्छा है कि यंत्रवत् अपना काम किए जाओ। मैंने भी ऐसा ही किया। जो कागज मांगे गए, उन्हें ढूंढ़कर सामने रखता रहा, बाकी इसमें बहुत शामिल होने की न मेरी औकात थी, न ही जरूरत। यही बड़ी गनीमत थी कि यकबयक जो काम मुझे सौंपा गया था, मैंने उसका ठीक प्रकार निर्वहन कर लिया था। दूसरी तारीख ठीक एक सप्ताह बाद, यानी अगले सोमवार को रखी गई थी। मुझे ताकीद की गई कि मैं अगले सोमवार छुट्टी न लूं और संबंधित कागजों को फ्लैग लगा कर तैयार रखूं। मैं तो खैर वैसे ही छुट्टी बहुत कम लेता हूं मगर समझने की बात यह थी कि इस केस को जल्द से जल्द निपटाया जाना है।
झटकती चाल से मैं अपनी सीट पर वापस लौटा। लंच का समय हो चुका था और सभी लोग भोजन करके बाहर टहलने निकल गए थे। दराज खोली तो कागजों के ढेर में दबी डायरी ने शिकायत दर्ज की, पहले ही दिन इतनी उपेक्षा?
मैं शर्मिंदा हो गया, ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने खाना खाने के बदले डायरी निकाल ली। हौले हाथ से उसे सहलाया, उसके पन्नों को पलटा। उस लिखाई से पहचान बनाने लगा जिससे कल ही पहली बार मिलना हुआ था मगर जो मेरे बहुत करीब आ चुकी थी। डायरी ने भी परिचित मुस्कान के साथ मेरी आत्मीयता का स्वागत किया और अपना मन खोल कर बैठ गई।
डायरी का पहला पन्ना, जिस पर अंगरेजी के कैपिटल अक्षरों में लिखा था--‘कन्फेशन’
कन्फेशन यानी कबूल करना, स्वीकारोक्ति।
मेरे दिमाग में हरकत हुई, किसकी स्वीकारोक्ति? कैसा कबूलनामा?
जाहिर है, कुछ ऐसा जिसे स्वीकारने के लिए हिम्मत चाहिये।
यानी इकरारे जुर्म?
मैंने पन्ना पलटा।
पहली मुहब्बत का अहसास, किसी ‘आर’ के साथ बढ़ती आत्मीयता का जिक्र।
कौन ‘आर’? किसके साथ? निगाहें पेज के अंतिम छोर तक जा फिसलीं। वहां शून्य लिख कर उसे बीच से काट दिया था। जरा और गौर से देखा तो ‘क्यू’ जैसा दिखाई दिया।
नजरों ने क्यू और आर को जोड़ कर देखा।
वे दोनों स्कूल के सालाना जलसे की तैयारियां कर रहे हैं।
क्यू ने लिखा है, डांस करते हुए आर उसे अपने आलिंगन में कस लेता है, वह उसकी बाहों में झूल जाती है।
उसने लिखा है, काश! उन दोनों के बीच की ये लय कभी न टूटे और जिंदगी इसी तरह नाचते-गाते बीत जाए...
मन में संवेदना जगी, सहानुभूति हुई। पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती कोई मासू्म लड़की, जैसे पलकें झुकाए, लड़कपन में किए गए प्रेम का जुर्म स्वीकारने को तैयार खड़ी हो।
कैसे समझा कि यह एक लड़की ही है और जुर्म का मतलब प्रेम ही है? मन ने तर्क किया।
तर्क वाजिब था, जवाब दिए बिना आगे बढ़ना मुश्किल लगा। मैंने और गंभीरता के साथ डायरी पर निगाहें गड़ा दीं।
अंगरेजी में लिखी तहरीर से यह तय कर पाना कठिन लगा कि लिखने वाला लड़का है या लड़की। आधे-अधूरे वाक्य खंड, जैसे नोट्स बना रखे हों। अपने नाम की जगह क्यू और अपने डांसिंग पार्टनर के नाम की जगह कैपिटल ‘आर’ लिखना, जैसे बहुत सूझ-बूझ कर कोड्स में अपनी बात लिखी हो।
इंटरेस्टिंग, मैंने महसूस किया। मन ही मन लिखने वाले की उस अदा पर रीझ गया जिसके जरिये सब कुछ जाहिर कर के भी उसने खुद को बेपर्दा होने से बचा लिया था।
डायरी की गोपनीयता मेरे आकर्षण को बढ़ा रही थी और मैं सोच रहा था कि अगर मैं भी इसी होशियारी के साथ अपनी डायरी लिखता तो क्या लिखता?
....ओ मेरे प्रवासी मन,
मेरा होकर भी मुझसे जुदा क्यों है?
हर वक्त निगाहों में जो रहता है छाया,
उस चेहरे पर इतना फिदा क्यों है?
अरे, मेरी डायरी में ये किसकी दखलअंदाजी होने लगी? मगर उसका जिक्र किए बिना, लिखने को बचेगा ही क्या? और ऐसा ही रहा, तो यह मेरी डायरी कैसे हुई? छोड़ो परे, अपनी बखिया उधेड़ने से बेहतर, देखा जाए कि इस डायरी में किस चेहरे का जिक्र किया गया है? किस तरह से किया गया है? दफ्तर की फाइल के बीच डायरी दबाए, मैं किसी अनजानी दुनिया में प्रवेश कर रहा था—
स्कूल के भीतर का माहौल... वार्षिकोत्सव की तैयारियों में मगन छात्र और शिक्षक... यहीं क्यू की मुलाकात कैपिटल आर से कुछ इस तरह हुई कि उसने अचानक ही अहसास किया जैसे वह अब बच्ची नहीं रही, ‘ग्रोन अप’ हो गई हो। वेस्टर्न डांस रूम में प्रैक्टिस करते हुए क्यू और आर एक दूसरे के आगोश में थिरक रहे थे। मैंने गौर से दोनों के चेहरों से पहचान बनाने की कोशिश की मगर तब तक सेक्शन में आवाजाही शुरु हो गई और मुझे मजबूरन डायरी को वापस दराज में रख देना पड़ा।
पहेलियों में लिखे जाने के अलावा डायरी की एक खासियत यह भी थी कि सामान्य डायरियों की तरह इसमें तारीखवार नोटिंग्स नहीं की गई थीं। कुछ खास दिनों की यादें थीं जैसे किसी ने अपनी आत्मकथा लिखने के लिए कुछ नोट्स बना रखे हों।
अब वह अपनी आत्मकथा कैसे लिखेगी? मुझे अफसोस हुआ।
मेरे जहन में एक अनजान लड़की का मायूस चेहरा आकार लेने लगा जिसके लिखे नोट्स पिछले साल की किताबों के साथ रद्दी में बिक गए थे।
‘ऑब्जेक्शन मी लॉर्ड, पहले सिद्ध करो कि यह एक लड़की की ही डायरी है।’ मन का वकील फिर आड़े आ गया।
‘बीते वक्त की यादों को संभालकर रखना लड़कों के बस की बात नहीं।’ मन ने ऑब्जेक्शन खारिज कर दिया, ‘वैसे भी बातों को छुपा-छुपाकर जाहिर करने की कला प्रायः लड़कियों में ही होती है। नाम के बदले उसके पहले अक्षर का लिखना नारी स्वभाव के सहज संकोच को झलकाता है जबकि पुरुष अपने प्रेम संबंधों को छुपाता नहीं, बल्कि शान से जाहिर करता है!’
दलील कुछ हद तक सही मालूम पड़ी और तार्किकता ने भावनाओं के लिए रास्ता खाली कर दिया।
दफ्तर का समय कैसे बीता, पता ही न चला। घर पहुंचकर फेसबुक खोलकर बैठ गया। स्कूल के दिनों की कुछ और तस्वीरें अपलोड की गई थीं। मेरी निगाहें तेजी से उन तस्वीरों की स्क्रीनिंग करने लगीं और जा टिकीं उस तस्वीर पर जिसमें हमारे क्लास की लड़कियां बंगाली परिधान पहने नृत्य कर रही थीं। नूपुर इनके ठीक बीच में थी।
‘ओरे भाए फागून लेगे छे बोने-बोने...’
मेरे कानों में सम्मिलित स्वर में वह गान गूंज उठा जो आज से बरसों पहले सुना था और फिर दोबारा कभी नहीं सुना। मुझे याद है, उस रोज लंच के समय वह दत्ता मैम से इस गीत का अर्थ समझ रही थी। उसका कहना था कि गीत का मतलब पता होगा तो नृत्य जीवंत हो उठेगा और सचमुच उसका नृत्य जीवंत हो उठा था। मेरी आंखों के सामने स्कूल का वह प्रांगण उभरने लगा था जहां वार्षिक उत्सव में नूपुर ने अन्य लड़कियों के साथ यह नृत्य प्रस्तुत किया था।
पता नहीं, डायरी की कहानी मेरे संस्मरणों में प्राण-प्रतिष्ठा कर रही थी या फिर, मेरे संस्मरण डायरी की कहानी को जीवंत बना रहे थे मगर मेरे जहन में प्रार्थना सभा के लिए तैयार सीमेंट का वह ऊंचा चबूतरा आकार लेने लगा जहां किसी भी तरह के कार्यक्रम की व्यवस्था की जाती थी। चबूतरे को तीन तरफ रंगीन परदे से ढक दिया जाता और सामने पंडाल सजा कर दर्शकों के बैठने की व्यवस्था की जाती।
...मैं देख रहा था, लाल पाड़ की साड़ी बांधे वह कई और लड़कियों के साथ थिरकती हुई उस चबूतरे पर बढ़ती चली आ रही है...
‘रौंगे-रौंगे-रौंगीलो आकाश, डारी-डारी निखिरो पाताश...’ उस गीत के भूले-बिसरे शब्द यादों में गड्डमड्ड होने लगे।
हाथों को आकाश की ओर उठाते हुए, एकाएक पंजों के बल घूम जाना... तबले की थाप के साथ उसकी समूची देह का थिरक पड़ना और देर तक थरथराती हुई काया को नियंत्रित किये रहना... उसकी मोहक भाव-भंगिमाएं... सब सजीव होता जा रहा है। मैं देख रहा हूं, समूह की बाकी लड़कियां एक-एक कर मंच से पीछे की ओर उतरती जा रही हैं... अंत में वह मंच पर अकेली खड़ी रह गई है, तबले की थाप मद्धिम पड़ती जा रही है, उसका थिरकता बदन धीमे-धीमे स्थिर हो गया है और पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा है, उसने बहुत कलात्मक अंदाज में झुक कर सभी का अभिवादन किया और घुंघरू छनकाती मंच से अदृश्य हो गई।
शायद कुछ ऐसा ही दृश्य क्यू के स्कूल का भी रहा होगा। वह आर नाम के लड़के के साथ वेस्टर्न डांस का अभ्यास कर रही होगी।
(अगले अंक में जारी....)