ज़बाने यार मन तुर्की - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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ज़बाने यार मन तुर्की - 3

एक बार एक महिला पत्रकार को किसी कारण से मीना कुमारी के साथ कुछ घंटे रहने का मौक़ा मिला। ढेरों बातें हुईं।
पत्रकार महिला ने बातों बातों में मीना कुमारी से पूछा - आजकल आने वाली नई पीढ़ी की अभिनेत्रियों में से किसे देख कर आपको ऐसा लगता है कि ये लड़की भविष्य में आपकी जगह लेने की क्षमता रखती है?
मीना कुमारी ने एक पल की भी देर लगाए बिना कहा कि मुझे साधना ऐसी ही लगती है।
पत्रकार को घोर आश्चर्य हुआ। उसे लगता था कि मीना कुमारी वहीदा रहमान, नंदा, माला सिन्हा में से कोई नाम लेंगी। लेकिन शायद प्रोड्यूसर बिमल रॉय की तरह ही मीना कुमारी ने भी साधना की अभिव्यक्ति की क्षमता को पहचान लिया था।
देखते देखते साधना की गिनती मीना कुमारी, वहीदा रहमान,नूतन जैसी अभिनेत्रियों के साथ होने लगी, जबकि अभी उनकी कुछ गिनी - चुनी फ़िल्में ही आई थीं।
यद्यपि व्यावसायिक पैमाने पर कहीं कोई गतिरोध नहीं था, जॉय मुखर्जी के साथ साधना की दूसरी फ़िल्म "एक मुसाफ़िर एक हसीना" शुरू हो गई। एस मुखर्जी की कंपनी फिल्मालय के साथ साधना का करार तीन साल का था। इस कॉन्ट्रेक्ट में साधना को पहले साल सात सौ पचास रुपए महीने, दूसरे साल पंद्रह सौ रुपए महीने और तीसरे साल तीन हज़ार रुपए महीने का भुगतान किया गया था। एक मुसाफ़िर एक हसीना भी सुन्दर गीतों से सजी एक कामयाब फिल्म थी।
बिमल रॉय ने साधना से एक बार कहा कि उन्हें साधना के साथ काम करते हुए नूतन याद हो उठती है, क्योंकि दोनों में इतनी अधिक समानता है। जिज्ञासावश साधना ने उनसे पूछ लिया कि उन्हें दोनों में क्या समानता नज़र आती है। उन्होंने कहा- यदि आंख बंद करके तुम दोनों की किसी फ़िल्म का साउंडट्रेक सुना जाए तो कई बार एक दूसरी का धोखा हो जाता है क्योंकि तुम दोनों की आवाज़ का उतार- चढ़ाव, वाक्यों पर ज़ोर देने का तरीका, और संवाद अदायगी बिल्कुल एक सी है।
लेकिन अचंभे की बात ये है कि मीना कुमारी द्वारा साधना को इतना पसंद किए जाने के बावजूद साधना को मीना कुमारी जैसी भूमिकाएं करना पसंद नहीं था। उसे मीना कुमारी जैसे त्रासद, रोने- धोने- सहने वाले रोल नहीं पसंद आते थे और वो अपने हक़ के लिए लड़ने और अपनी समस्या खुद सुलझाने वाली शिक्षित महिला की भूमिकाएं पसंद करती थी। साधना नैसर्गिक यथार्थ वाली भूमिकाओं को आदर्श गढ़ने वाली भूमिकाओं के मुकाबले ज़्यादा कारगर मानती थी और उनमें सहज महसूस करती थी। शायद इसीलिए उसकी कुछ आरंभिक फ़िल्मों के बाद मीना कुमारी ने भी मान लिया कि साधना का रास्ता अलग है, ये रास्ता मीना कुमारी की मंज़िल पर नहीं आता।
फ़िल्मों का ये दौर नरगिस और मधुबाला की लोकप्रियता के उतार का दौर था। वो मदर इंडिया और मुगले आज़म में जो ऊंचाइयां छू चुकी थीं उसके बाद आगे उनके लिए कुछ नहीं बचता था। अतः हिंदी फ़िल्म जगत के दर्शक उन्हें सम्मान के साथ लगभग विदाई दे चुके थे।
मीना कुमारी और नूतन की फ़िल्में अा रही थीं लेकिन उन पर एक ख़ास तरह की अदायगी का ठप्पा लगा था। वे पर्दे पर दुख- दर्द जीती थीं। औरत की विवशता,उपेक्षा और बेकद्री को जीवंत करती थीं। दर्शक इस नए दशक में कुछ नया चाहते थे। आखिर ये मनोरंजन उद्योग था।
यहां अपनी जेब से पैसा खर्च करके लोग आते थे। अपने खर्चे पर मायूसी और बेज़ारी आखिर कब तक पसंद की जाती?
और ऐसे में आई एच एस रवैल की "मेरे मेहबूब"।
तहलका सा मच गया। राजेन्द्र कुमार और साधना की जोड़ी इस फ़िल्म में बहुत जमी। ये ब्लॉकबस्टर फ़िल्म साधना के कैरियर में एक जलजला सिद्ध हुई। इससे साधना का केश विन्यास "साधना कट" हेयर स्टाइल के रूप में शहर शहर, बस्ती बस्ती, गली गली और घर घर लोकप्रिय हो गया। ब्यूटी पार्लर और सामान्य केश कर्तनालय साधना कट बालों का फैशन चलाने और फैलाने वाले केंद्र बन गए। लड़कियां तो लड़कियां, सुन्दर लड़कों तक को देख कर नाई पूछते थे कि साधना कट कर दें सामने से?
साधना नई पीढ़ी की फ़ैशन अाइकॉन बन गई। इसी फ़िल्म से साधना का पहना गया चूड़ीदार पायजामा भी देश भर का फैशन बन गया। कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा लड़कियों का मानो सामान्य परिधान ही बन गया।
लड़के भी कुर्ते और शेरवानी के साथ चूड़ीदार पायजामा पहने हुए नज़र आने लगे। ये शानदार लिबास शादी ब्याह की रौनक बन गया।
मेरे मेहबूब हिन्दू - मुस्लिम संस्कृति के समन्वय का एक नफासत भरा दस्तावेज़ साबित हुआ और इस गंगा- जमनी तहज़ीब को लोगों ने दिल से पसंद किया। एक ओर जहां फ़िल्मों में मुस्लिम कलाकारों की बहुतायत थी, वहीं एक से एक उर्दू शायर, गीतकार और पटकथाकार भी मौजूद थे। साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, राजा मेहंदी अली खान, कैफ़ी आज़मी की कलम से निकली तहज़ीब ने फिल्म जगत को एक खुशबूदार जलवे से भर दिया था। साधना रातों रात बड़ी स्टार बन गई। राजेन्द्र कुमार के साथ उसकी जोड़ी भी लोगों को बहुत पसंद आई। फ़िल्म मील का पत्थर साबित हुई।
अभिनय की ललक और खूबसूरती के जलवे का ये गठजोड़ साधना को रास आने लगा और जल्दी ही उसे मनोजकुमार के साथ "वो कौन थी" जैसी फिल्म मिली। राज खोसला की ये फ़िल्म भी बहुत कामयाब हुई और इसमें साधना को फिल्मफेयर अवार्ड्स में बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन मिला।
लव इन शिमला के समय आर के नय्यर का जो प्यार साधना के लिए पनपा था, वो एक मुकाम पर कुछ ठहरा हुआ सा था। इसका कारण ये था कि साधना ने नय्यर से साफ कह दिया था कि उसे अपने माता पिता के परिवार की ज़िम्मेदारी निभानी है और वो अभी शादी की बात सोच भी नहीं सकती। एक सच्चे प्रेमी की तरह अपने मन को इंतजार के लिए समझा कर नय्यर ठहर गए थे और साधना की ही तरह अपने काम में व्यस्त हो गए थे।
उन्नीस सौ साठ में लव इन शिमला और परख के आने के बाद एक फ़िल्म निर्माता ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर आधारित फ़िल्म गबन बनाने की योजना बनाई तो उसमें पति को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने वाली घरेलू सामान्य लालची महिला जालपा की भूमिका के लिए प्रोड्यूसर ने साधना को लेने का ही मन बनाया। पर एक तो साधना उस समय तीन साल के लिए एस मुखर्जी की फ़िल्म कंपनी के करार में थी, दूसरे लव इन शिमला जैसी प्रेमकहानी में उसे दर्शकों के बेहद पसंद करने के बाद निर्माता इस भ्रम में था कि न जाने मुंशी प्रेमचंद के घरेलू पात्र की भूमिका साधना स्वीकार भी करेगी या नहीं, लिहाज़ा उसने फिल्म का विचार किसी उचित समय पर अमल के लिए छोड़ दिया।
"वो कौन थी" ने भी जैसे एक इतिहास रच दिया। गीत संगीत के साथ रहस्य रोमांच का तड़का लोगों को पसंद आया। एक अलग तरह का सौंदर्य साधना ने इस फ़िल्म बिखेरा। "लग जा गले कि फ़िर ये हसीन रात हो न हो, शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो, और नैना बरसे रिमझिम रिमझिम जैसे गाने लोगों की जबान पर चढ़ गए।
इस फिल्म के बाद जब जब भी किसी निर्माता ने किसी फ़िल्म में किसी औरत की रूह को भटकते हुए दिखाया, उसने श्वेत वसना साधना का ही जादू रचा। दर्शक जैसे दिल ही दिल में ये छवि बसा बैठे कि भटकती हुई रूह ऐसी होती है!
यहां तक कि जब -जब किसी स्त्री को दुख- दर्द या धोखे में छला गया दिखाया गया, उसे इसी तरह फिल्माया गया।
साधना की जोड़ी देवानंद के साथ भी जमी। पहले "हम दोनों" में ये साथ - साथ आए, फ़िर हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म असली - नक़ली आई।
हम दोनों में देवानंद दोहरी भूमिका में थे, और साथ में नंदा भी थी। ये बड़े आश्चर्य की बात है कि जब कोई दो हीरो किसी फ़िल्म में एक साथ आते हैं तो कभी उनमें कोई तुलना या टक्कर जैसा कुछ नहीं होता, बल्कि उनकी दोस्ती या भाईचारा लोगों का ध्यान खींचता है, किन्तु जब दो हीरोइनें एक साथ परदे पर आती हैं तो उनमें रोल को लेकर, परिधान को लेकर, सौंदर्य को लेकर, अभिनय को लेकर या लोकप्रियता को लेकर तुलना होने लग जाती है। यहां भी ऐसा ही हुआ। साधना और नंदा की तुलना हुई। ये अवश्य है कि ऐसी तुलना कालांतर में दोनों को ही नोटिस में लाती है और विजेता को लाभ पहुंचाती है।
अधिकांश गंभीर अध्येता या सिने दर्शक ये मानने लगे थे कि साधना और नंदा दोनों ही स्त्रियों के आधुनिक वर्जन हैं, जो उनकी छवि को पुरुष के आधिपत्य में, उसके रहमो - करम पर पलने वाले प्राणी की इमेज से निकालने वाली भूमिकाएं सहजता से निभाती हैं, फ़िर भी साधना बुद्धिमत्ता के निर्वाह में अपनी अभिनय रेंज में नंदा से कुछ आगे निकल जाती हैं। कुछ यही स्थिति नूतन और तनुजा के मामले में भी होती थी और दर्शक नूतन को देख कर इस बात की सार्थकता को आसानी से समझ जाते थे।
साधना के चाचा हरि शिवदासानी फ़िल्मों में भूमिकाएं करते हुए राजकपूर के काफ़ी करीब थे। बहुत पहले जब राजकपूर की फ़िल्म श्री चार सौ बीस के सेट पर एक समूह गीत की शूटिंग पर साधना पहुंची थी, तो वहां संगीतकार जयकिशन के साथ राजकपूर के दोनों सुपुत्रों रणधीर कपूर और ऋषि कपूर को भी उसने देखा था। संगीतकार जयकिशन तो "मुड़ मुड़ के ना देख" गाने में खुद भी थोड़ी देर के लिए परदे पर दिखाई दिए थे।
बाद में साधना को ये भी पता चला कि उसकी चचेरी छोटी बहन बबीता की रुचि भी धीरे- धीरे फ़िल्म जगत में हो रही है।
साधना के परिवार ने 1961 में परख फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद अपना पुराना सायन वाला मकान छोड़ दिया था और अब उसका पूरा परिवार रहने के लिए कार्टर रोड के एक शानदार आवास में आ गया था। अपनी पहली फ़िल्म अबाना में एक रुपया पारिश्रमिक टोकन मनी लेने वाली साधना को सुपर हिट मेरे मेहबूब के बाद प्रति फ़िल्म चार लाख रुपए मिलने लगे थे जो उस दौर में किसी भी अभिनेत्री को मिलने वाली मेहनताने की सर्वाधिक राशि थी।
सायन की उस कॉलोनी के लोग अब गर्व से सब आने- जाने वालों को बताते थे कि साधना यहां रहती थी। शाम को कोलाबा से टाइप की क्लास से आने के बाद इस बस स्टॉप पर उतरती थी।
वहां की एक दर्जी की दुकान पर बैठने वाले बुज़ुर्ग मियां जी तो अपनी दुकान पर आने वाले हर छोटे से छोटे ग्राहक से सबसे पहले बात ही इसी तरह शुरू करते थे कि चिंता मत करो, साधना अपने कपड़े यहीं सिलवाती थी। चाहे आने वाला कोई चड्डी सिलवाने वाला किशोर लड़का ही क्यों न हो। फ़िर वो हैरानी से बुज़ुर्ग मियां जी को देखने लगता।
अपने बराबर के बड़े- बूढ़ों को देख कर तो मियां जी कपड़ा काटते- काटते गुनगुना ही उठते थे- मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम...फ़िर मुझे नर्गिसी आंखों का सहारा दे दे...मेरा खोया हुआ रंगीन नज़ारा दे दे...
साधना की सगी बड़ी बहन का नाम सरला था। लेकिन उसके बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। यदि वो विभाजन के दौरान परिवार के हिंदुस्तान आते समय साथ में नहीं आ सकी, तो अब वो कहां थी, क्या कर रही थी, किसके साथ थी, ये कोई नहीं जानता था।
लेकिन अपने भावुक पलों में साधना उसे याद ज़रूर करती थी। साधना ने जब भी ऐसे रोल किए जिनमें वो दोहरी भूमिका में होने के कारण अपनी जुड़वां बहन से बिछड़ती है, इस दर्द और आशंका की पीड़ा उसके हाव - भाव में इस तरह उभर आती थी कि उसकी फ़िल्म के निर्देशक, सह कलाकार और बाद में फ़िल्म देखने वाले दर्शक तक गमगीन हो जाते थे।
ऐसे दृश्यों में उसकी परिणति इतनी परिपक्व और स्वाभाविक होकर उतरती थी कि पटकथाकार उसके लिए कहीं न कहीं ऐसे दृश्य लिखने की सायास कोशिश करते थे।
किसी भी फ़िल्म में किसी बात पर अकेले होकर निकल जाना भी साधना के अभिनय में विशेषज्ञता का क्षण जोड़ता था।
"एक धुंध से आना है, एक धुंध में जाना है" ...जैसा फ़लसफ़ा साधना के अकेलेपन को जैसे जीवंत कर देता है। लेकिन साधना ने अपने इस अकेलेपन को मीना कुमारी की तरह शराब में नहीं डुबोया। उसका मानना था कि नशा हमारी नकारात्मकता पर हमला करता है, यदि हम पॉजिटिव या वाइब्रेंट हैं तो नशा हमसे खुद ही दूर रहेगा।
एक बार एक निर्माता ने साधना से परिहास में पूछा- तुम अपनी सुन्दरता को किसकी तरह मानती हो? साधना ने तपाक से कहा- मैं खूबसूरत नहीं हूं, पर चार्मिंग ज़रूर हूं। निर्माता हंस कर उसकी हाज़िर जवाबी का कायल हो गया। बाद में उसी निर्माता ने साधना की अनुपस्थिति में एक महिला पत्रकार से कहा- देखो, कितनी सादगी से कह कर चली गई कि मैं खूबसूरत नहीं हूं, पर इसमें मधुबाला की सुंदरता, नरगिस की बुद्धिमत्ता, वैजयंती माला की चपलता और नूतन की भावप्रवणता एक साथ बसती है।