zabaane yaar manturkee - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

ज़बाने यार मन तुर्की - 2

आम तौर पर फिल्मस्टारों को अपनी तरफ से कुछ बोलने का अभ्यास नहीं होता, क्योंकि उन्हें संवाद लेखक के लिखे संवाद बोलने के लिए दिए जाते हैं।
लेकिन उस दिन पार्टी के बाद चढ़ती रात के आलम में हिंदुस्तान के फ़िल्म वर्ल्ड की दो हीरोइनें एक दूसरी से ऐसी उलझीं कि उनके दिल के तरकश से एक से एक पैने संवाद अपने आप निकलते चले गए।
बबीता के भाई का जन्मदिन था। इसी उपलक्ष्य में थी पार्टी। केवल घर के लोग और चंद करीबी लोगों का जमावड़ा था।
हमेशा अपने काम से काम रखने वाली बड़ी बहन साधना को न जाने क्या सूझा उस दिन, कि बबीता को नसीहत दे बैठी। दोनों आपस में कुछ बात कर पाने की गरज़ से यहां एकांत में इसीलिए चली आई थीं।
असल में साधना को घरवालों की बातों से कुछ उड़ती- उड़ती भनक सी मिली थी कि राजकपूर और साधना के बीच दो- तीन बार बबीता को लेकर जो बातें हुई हैं, वो किसी तीसरे के माध्यम से बबीता के कानों तक भी पहुंच गई हैं और बबीता इस बात से खिन्न है। उसे ये अच्छा नहीं लगा है कि साधना ने कभी बबीता से इस बात को लेकर कोई ज़िक्र नहीं किया और न ही बबीता को विश्वास में लेकर उससे कुछ पूछने की कोशिश की। उसे लगता था कि साधना ने न जाने ऐसा क्या कहा है कि राजकपूर बबीता से बात भी करने से बचते हैं।
ये उन राजकपूर के घर की बात है जिनके दोनों छोटे भाई शम्मी कपूर और शशि कपूर ही नहीं, बल्कि बेटा रणधीर कपूर भी बबीता के साथ दोस्ताना ताल्लुक़ रखते हैं।
बबीता की उलझन ये थी कि राजकपूर के मन की थाह इनमें से कोई नहीं जानता था और इस बारे में राज जी ने केवल और केवल साधना से ही बात की थी।
शायद वे साधना को ही मानसिक रूप से अपने समकक्ष व अपनी मानसिकता के स्तर का समझते थे।
और लोग तो इन बातों के बारे में कोई बात करना भी पसंद नहीं करते थे, और इन्हें बच्चों की आपसी नोंक- झोंक समझ कर किसी भी तरह गंभीरता से ही नहीं लेते थे।
और शायद इसी कारण बबीता को ऐसा लग रहा था कि इस मामले में साधना बबीता की गार्जियन की तरह बात कर रही हैं।
अगर ऐसा था भी, तो इसमें ग़लत क्या था? साधना बबीता से पूरे सात साल बड़ी थीं। दूसरे, साधना ने अपने जीवन के पहले आठ सालों में ही जो कुछ देख लिया था, वो बबीता सोच भी नहीं सकती थी। बबीता का जन्म तो मुंबई में ही देश को आज़ादी मिलने के बाद आज़ाद भारत में एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसमें पिता फ़िल्म कलाकार थे तो माता एक विदेशी महिला।
जबकि साधना ने अपने परिवार को बचपन में ही दर- बदर होते हुए देखा था, अपने संपन्न परिवार के सपनों को विभाजन की आंच में सुलगते और छिन्न- भिन्न होते देखा था, एक मुल्क से दूसरे में पलायन के दर्द को देखा था और फ़िर जो मुकाम पाया वो अपनी सलाहियत,अपनी जिजीविषा के बल पर पाया था। ऐसे में परिपक्वता के मामले में उनके और बबीता के बीच का मानसिक अंतर सात साल से कहीं ज्यादा बड़ा था।
फ़िर एक बात और थी।
किसी- किसी का स्वभाव ऐसा निर्मल, आत्मीय और सहयोगी होता है कि वो सबसे अपनापन मानते हुए वही करते हैं जो सबके लिए उचित हो, लेकिन कुछ लोग इतने आत्मकेंद्रित व कैलकुलेटिव होते हैं कि उन्हें कुछ भी कहने या करने में केवल अपना हित नज़र आता है। ऐसे में वो किसी और के लिए अपनी तरफ़ से कुछ करने या कहने का जोखिम भी नहीं उठाते। वो ज़िन्दगी को तौल - मोल के जीने में ही यकीन रखते हैं।
- मैं तुमसे बड़ी हूं, तुम्हारा भला- बुरा सोच सकती हूं।
- हां हां, तुम बड़ी हो, इतनी बड़ी कि हम सब तो तुम्हारी ऊंचाई को छूने की सोच भी नहीं सकते! है न? तुम लाखों रुपए कमा रही हो...
- चुप कर! ये रुपए की बात बीच में कहां से आ गई? साधना लगभग चीख पड़ीं।
- आज तुम्हारी बात का सब यक़ीन करते हैं, तुम जो फ़ैसला करोगी वही माना जाएगा न, हम सब की वैल्यू क्या है, हमारी औकात क्या है! बबीता ने व्यंग्य किया।
- तू नहीं जानती, छोटी बहन तो अपनी औलाद की तरह होती है!
- वाह! औलाद की तरह? औलाद का कभी ऐसा भला मत सोचना कि ज़िन्दगी में औलाद के लिए तरस ही जाओ! कहते हुए बबीता रो ही पड़ी।
कोई और होता तो शायद उसका हाथ ही उठ जाता।
ऐसा श्राप मिलने पर शायद दुनिया की कोई भी औरत अपने होशो हवास में खड़ी नहीं रह सकेगी, पर वो साधना थीं। जिनके बोले एक एक संवाद ने हिंदुस्तान के घर घर में असर छोड़ा था, जिनकी शख्सियत को लोग जेब से पैसा देकर सिनेमा हॉल में देखने आते थे।
वो "मिस्ट्री गर्ल" अपने जेहन की पथरीली दीवार पर ज़हरीले तरकश से निकले तीर का ये वार चुपचाप सह गई, और दोनों बहनें छत से उतर कर नीचे के कोलाहल में आकर इस तरह घुल- मिल गईं जैसे कुछ हुआ ही न हो।
उन्नीस सौ छियासठ में साधना की शादी के बाद कई दिशाओं से उलझनों का उनकी ओर बढ़ते हुए आना हैरान करने वाला था। जिस तरह कभी ऐसा समय आता है कि मिट्टी को हाथ लगाने पर वो सोना बन जाए, उसी तरह कभी ऐसी ग्रहचाल से इंसान का सामना होता है कि वो सब कुछ अच्छा करे,फ़िर भी नतीजे निराशा जनक आएं। जाता हुआ ये साल शायद साधना के लिए ऐसा ही समय लाया था।
शम्मी कपूर के साथ इस साल रिलीज़ हुई फ़िल्म "बदतमीज" ने भी अजीबो- गरीब दास्तां रची। अच्छे गीत - संगीत, अच्छी कहानी, और बहुत अच्छी स्टार कास्ट के बावजूद फ़िल्म ने साधारण बिज़नेस ही किया।
शम्मी कपूर और साधना के चाहने वालों को सबसे ज़्यादा निराशा तो इस बात से हुई थी कि दोनों पहले "राजकुमार" जैसी शानदार रंगीन फ़िल्म दे चुकने के बाद अब इस ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म में क्यों आए हैं।
दरअसल ये भी गबन की तरह ही बहुत पहले शुरू की गई फ़िल्म थी। ये कुछ शूटिंग के बाद रुक गई थी। और अब मन मोहन देसाई ने इसे दोबारा से शूट करके रिलीज़ किया था।
इस सामान्य व्यावसायिक फ़िल्म ने भी एक और रिकॉर्ड साधना के नाम लिखा। इसमें पहली बार किसी नायिका पर पूरा गीत स्विमिंग सूट में फिल्माया गया। यूं नरगिस नूतन जैसी हीरोइनों ने भी ऐसे दृश्य किए थे किन्तु वो केवल कुछ समय के लिए झलकियों के रूप में ही थे। पूरा गीत किसी नायिका पर इस परिधान में फिल्माने का ये पहला ही अवसर था, और इसका श्रेय भी नायिका के शरीर की संतुलित सुंदरता को दिया गया।
फ़िल्मों की रिकॉर्ड बुक ऐसे कई प्रतिमानों से भरी पड़ी है। किसी फिल्म के नाम का किसी शहर के नाम पर होना भी लव इन शिमला से ही आरंभ हुआ था, जो साधना की पहली हिंदी फ़िल्म थी। इस के बाद तो टोक्यो,पेरिस, दिल्ली,मुंबई नामों में आते ही रहे।
फ़िल्म में शंकर जयकिशन का सुन्दर संगीत था और गाने भी अधिकांश अच्छे थे। एक गीत ने तो शायद अनजाने ही आने वाले दिनों का संकेत भी दे डाला था साधना को...
बुलंदियों से गिरोगे तुम भी, अगर निगाहों से हम गिरेंगे !
शोख़ चटख बुलंदियों के शोहरत - सिंहासन से उतर कर ही तो थायराइड के इलाज के लिए साधना को जाना पड़ा था।
कहते हैं थायराइड ग्रंथि गर्दन में नीचे की ओर तितली के आकार में होती है जो श्वास नली को घेरे रहती है।
इस ग्रंथि में आए विकार का असर वैसे तो पूरे शरीर के स्वास्थ्य पर ही पड़ता है, पर ये आंखों पर भी खास असर डालता है।
साधना के परी चेहरे पर ये विकार दिखाई देना शुरू होते ही आर के नय्यर की नाव तो डगमगाने लगी ही, साधना के शुभचिंतकों को भी गहरी निराशा हुई।
"अनीता" के बाद पूरे साल साधना की कोई और फ़िल्म नहीं आई। अगले साल भी साधना रजतपट से अनुपस्थित ही रहीं।
ऐसा लगने लगा था कि ख़ूबसूरती, जादू और फैशन की रौनकों का एक पूरा दौर मानो अपना जलवा समेट कर ले गया।
इसी समय लोगों का ध्यान इस बात पर भी गया कि लगातार नौ साल की धुआंधार सफ़लता के बाद भी साधना को कोई फिल्मी पुरस्कार नहीं मिला है, और ग्यारह सुपरहिट फिल्में एक के बाद एक देकर उनकी फ़िल्मों से विदाई भी हो गई।
और तभी मीडिया, बुद्धिजीवियों, दर्शकों और फिल्मकारों की नज़र इस बात पर भी गई कि आख़िर फ़िल्म पुरस्कारों का गणित क्या है?
क्या ये अवॉर्ड्स भी जटिल राजनीति के शिकार हैं?
क्या ये पुरस्कार पाना भी कोई प्रायोजित पराक्रम है?
क्या कला और परिश्रम की इस विरासत पर भी चंद घराने राज करते हैं?
क्या लाखों दर्शकों की भावनाओं और पसंद का कोई मोल नहीं है?
क्या "गॉड फादरों" के बिना यहां भी सफ़लता प्रमाण पत्रों पर दस्तखत नहीं होते?
क्या अपनी शर्तों पर जीने वालों के लिए इस सम्मान- महल में कोई कौना ख़ाली नहीं रहता?
और तब फ़िल्म जगत में हलचल के साथ ही एक बड़ी घटना घटी।
उन दिनों "फिल्मफेयर" फ़िल्म जगत की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित फ़िल्म पत्रिका मानी जाती थी। ये बाद में हिंदी में भी निकलने लगी थी किन्तु उन दिनों अंग्रेज़ी में ही निकला करती थी। इस पत्रिका की प्रकाशक कंपनी बैनेट एंड कोलमैन की ओर से ही फ़िल्मों के इस सबसे बड़े और प्रतिष्ठित फ़िल्म अवॉर्ड्स का आयोजन किया जाता था। इसमें साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ डायरेक्टर, अभिनेता, अभिनेत्रियों के साथ- साथ गीत संगीत, फोटोग्राफी, कोरियोग्राफी तथा फ़िल्म निर्माण के अन्य तकनीकी क्षेत्रों की हस्तियों को पुरस्कृत करने के लिए चुना जाता था।
इसी समूह की हिंदी पत्रिका "माधुरी" भी उस समय की सबसे बड़ी और प्रामाणिक फ़िल्म पत्रिका मानी जाती थी। इतना ही नहीं, बल्कि इसी समूह की अंग्रेज़ी पत्रिका "इलस्ट्रेटेड वीकली" और हिंदी पत्रिका "धर्मयुग" भी देशभर में सर्वाधिक ख्यात पत्रिकाएं थीं।
एक तरह से कहा जा सकता था कि देश की तात्कालिक बौद्धिकता को आंकने- नापने का बैरोमीटर मुंबई के इसी संस्थान के पास था।
जिस प्रकार पिछले कई वर्षों से फिल्मफेयर अवार्ड्स दिए जा रहे थे, उनका स्वरूप एक सांस्थानिक स्वरूप ले चुका था।
इसी माधुरी पत्रिका से जोड़ कर संस्थान ने ये घोषणा की कि देशभर के पाठकों- दर्शकों की राय के आधार पर प्रतिवर्ष फ़िल्म जगत के "नव रत्नों" को चुना जाएगा, जिन्हें "माधुरी नवरत्न" का खिताब प्रदान किया जाएगा।
इसमें सबसे बड़ी बात ये थी कि इनके चुनाव में किन्हीं आयोजकों, निर्णायकों या समीक्षकों का कोई दखल नहीं होगा और ये पूरा चयन पारदर्शी तरीक़े से पाठकों- दर्शकों की राय के खुले सर्वेक्षण के आधार पर होगा।
ये कहा गया कि इस तरह के चयन में कोई नामांकन, क्रिटिक्स की राय आदि नहीं होगी, और फ़िल्म की आय, खर्च, सफ़लता - असफलता से परे केवल दर्शक अपने आकलन में ये बताएंगे कि पूरे फ़िल्म- जगत के कौन से वो "नौ" प्रभावशाली व्यक्तित्व हैं जिन्होंने इस वर्ष में फ़िल्म - उद्योग को सर्वाधिक प्रभावित किया है।
इस घोषणा से पाठक समुदाय काफ़ी खुश हुआ और लोगों ने निर्धारित समय में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार बढ़ चढ़ कर भाग लिया। इस लोकतांत्रिक पद्धति में किसी पूर्वाग्रह या मैनिपुलेशन आदि की कोई आशंका नहीं थी, और वही सामने आना था जो सर्वाधिक लोग चाहते हों।
इस विराट सर्वेक्षण का परिणाम आया और इसमें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के रूप में राजेश खन्ना और सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के रूप में साधना का नाम आया।
माधुरी ने पूरे पृष्ठ के रंगीन फोटो इन सभी कलाकारों के छापे।
फ़िल्म फेयर अवॉर्ड्स की श्रृंखला में साधना को दो बार बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट किया गया था, लेकिन दोनों ही बार ये पुरस्कार अंतिम रूप से किसी अन्य अभिनेत्री को दे दिया गया।
अब सीधे जनता द्वारा इन नवरत्नों को चुना जाना स्पष्ट रूप से बताता था कि पुरस्कारों में गुटबाज़ी में लिप्त समीक्षकों, प्रायोजकों, आयोजकों का दखल इन प्रतिभा पुरस्कारों को किस तरह से प्रभावित करता है। ढेर सारे दर्शकों ने इस तथ्य को उजागर करने वाले मंतव्य प्रकट भी किए।
लेकिन इस उपक्रम की यही भव्य निष्पक्षता फ़िल्म जगत की नैया अपनी मनचाही दिशा में खेने वालों की आंख की किरकिरी बन गई।
उन्होंने पहले तो चयन प्रक्रिया में तोड़ - मरोड़ प्रस्तावित करके इसके प्रभाव को कुंद करने की कोशिश की ओर फ़िर एक वर्ष बाद ही इसे बंद करवा छोड़ा। एक स्वस्थ परंपरा इस तरह ठंडे बस्ते में चली गई।
फ़िल्मों के इसी दौर में एक नई प्रवृत्ति भी फिल्मी दुनिया में दिखाई दी।
पहले जहां फ़िल्म में किसी कलाकार को अभिनय का अवसर देने के लिए कई तरह की कड़ी जांच, परख, परीक्षा होती थी, अब ये चलन होने लगा कि जो जमे हुए स्थापित कलाकार हैं वही अपने बच्चों या अन्य परिजनों को मौक़ा देने या दिलवाने लगे।
ये एक गहरी चर्चा का विषय बन गया कि एक्टिंग नैसर्गिक प्रतिभा होती है, या फ़िर ये प्रशिक्षण के द्वारा सीखी जा सकने वाली कला है।
कुछ ऐसे संस्थान भी खुल गए जो बाकायदा एक्टिंग का पूरा कोर्स करवा कर अभिनय का प्रशिक्षण देने लगे। एक्टिंग सीख कर आने वालों की एक पूरी खेप फ़िल्मों में सक्रिय हो गई। जिस तरह पहले डायरेक्टर, एडिटर, सिनेमेटोग्राफर आदि काम सीखते थे, वैसे ही एक्टिंग भी देश - विदेश में सीखी जाने लगी।
बदलाव का ये दौर एक ताज़गी भरे झौंके की तरह फ़िल्म जगत में भी दिखाई देने लगा।

सिनेमा हॉल भी थे, कहानियां भी थीं और फ़िल्में देखने वाले भी थे।
पर साधना नहीं दिखाई दे रही थीं। उनकी आवा- जाही अब कैमरे और लाइटों के सामने नहीं, वरन् डॉक्टरों और विदेशी क्लीनिकों में हो गई थी।
उनकी समकालीन अभिनेत्रियों में नूतन " लाट साहब" और "मिलन", आशा पारेख "शिकार" और "आए दिन बहार के", वहीदा रहमान "पालकी" और "पत्थर के सनम", माला सिन्हा "गीत" और "ललकार", सायरा बानो "पड़ोसन" और "शागिर्द" में लगातार दिखाई दे रही थीं लेकिन साधना की कई फिल्में या तो रुक गईं या बदल कर दूसरी हीरोइनों के हाथों में चली गईं।
रणधीर कपूर और बबीता प्रकरण ने इधर साधना और उधर राजकपूर, दोनों को ही जैसे चुप कर दिया। वे दोनों आपस में भी बात नहीं करते थे।
यहां तक कि राजकपूर के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट "अराउंड द वर्ल्ड" के निर्माता पाछी को भी दोनों का ये अबोला और ठंडापन बेचैन कर गया। क्योंकि इस फ़िल्म की कहानी पूरी तरह साधना को दिमाग़ में रख कर ही लिखी गई थी। इसकी शूटिंग दुनिया भर के अनेकों देशों में होनी थी। और राजकपूर व साधना ये सोच भी नहीं पा रहे थे कि उनका इतना लंबा साथ भला कैसे रह सकेगा।
फ़िल्म में राजश्री को ले लिया गया।
उधर राजकपूर ने अपनी फ़िल्म "मेरा नाम जोकर" के एक पार्ट में अपने बेटे ऋषि कपूर की टीचर के रूप में साधना की बुद्धिमत्ता पूर्ण सुंदरता को कैश कराने का जो प्लान बनाया था उस पर भी गाज़ गिरी और इस इंटेलीजेंट शिक्षिका के रूप में दर्शकों ने फ़िर सिमी ग्रेवाल को देखा।
ख़ैर, साधना अमरीका गई थीं इलाज के लिए। और जैसे कभी किसी शहंशाह ने कश्मीर के लिए कहा था कि अगर कहीं धरती पर ज़न्नत है तो यहीं है, वैसे ही अमरीका के लिए कहा जाता है कि अगर किसी रोग का धरती पर कोई इलाज है तो यहीं है। अगले साल के अंत तक साधना लौट आईं। स्वस्थ होकर, बीमारी से निजात पाकर।
उनके लौटते ही उनके पति आर के नय्यर ने उनके लिए एक दमदार कहानी लेकर अपने ही निर्देशन में उन्हें एक ख़ूबसूरत फ़िल्म "इंतकाम" में पर्दे पर उतार दिया।
ये उनके लिए भी और खुद साधना के लिए भी "पैराडाइज री गेंड" जैसी चुनौती थी। एक शानदार मौक़ा था अपने करोड़ों दर्शकों की महफ़िल में फ़िर से लौटने का।
साधना ने इस मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठाया और एक जानदार कथानक में जानदार अभिनय के सहारे जान ही डाल दी।
हालांकि अब उनके चेहरे पर बीमारी के इलाज के बाद आई हल्की छाया दर्शकों को नजर आती रही, फ़िर भी फ़िल्म ने बेहतरीन व्यवसाय किया।
कहानी में भी नयापन था। दुख, लांछन और अवहेलना सहती नारी के उस दौर में दर्शकों को बदला लेने वाली आधुनिक औरत पसंद आई।
इस फ़िल्म में साधना के लिए ही नहीं, बल्कि उस पात्र के लिए भी हमदर्दी की पूरी गुंजाइश थी जो साधना अभिनीत कर रही थी।
इसमें एक गरीब परिवार की लड़की जो अपना और अपनी मां का पेट पालने के लिए एक छोटी सी दुकान में नौकरी कर रही है, उसे मालिक जिस्म का सौदा न करने पर झूठे आरोप में फंसा कर जेल करवा देता है।
जेल से लौट कर लड़की उस धन पिशाच से अपने तरीक़े से बदला लेती है। वो उस शख़्स के युवा बेटे से प्रेम करके शादी करती है और शादी के अगले ही दिन रिसेप्शन पार्टी में खुद शराब पीकर उस मालिक को जलील करके उससे बदला लेती है जो अब उसका श्वसुर है।
इस फ़िल्म का गीत संगीत भी बहुत प्रभावशाली था और शराब के नशे में साधना पर फिल्माए गए गीत "कैसे रहूं चुप कि मैंने पी ही क्या है, होश अभी तक है बाक़ी..." ने भी समा बांध दिया। उसे साल का सर्वश्रेष्ठ गीत ठहराया गया।
फ़िल्म की कमाई से साधना के पति नय्यर साहब के कर्ज भी उतर गए, और गाड़ी एक बार फिर से पटरी पर आ गई।
दर्शकों ने जहां साधना के अभिनय और गीत को बेहद पसंद किया वहीं फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने इस बात पर आपत्ति जताई कि फ़िल्म में नायिका को शराब पीते हुए कैसे दिखाया जा सकता है, ये ग़लत होगा।
और तब फ़िल्म के निर्देशक को इस गीत के तुरंत बाद एक छोटा सा दृश्य और जोड़ना पड़ा जिसमें साधना अपनी मित्र से कहती है कि मैंने तो बदला लेने के लिए शराब पीने का नाटक किया, वास्तव में मेरे हाथ में तो ग्लास में कोका कोला थी।
ऐसी आपत्ति उठा कर और छद्म समाधान करवा कर सेंसर बोर्ड ने शायद अपनी हंसी ही उड़वाई।
हमारे फ़िल्म जगत ने अपने चंद चहेतों के ऐसे दृश्य और फ़िल्में भी धड़ल्ले से पास किए हैं जिनमें हीरोइनें फ़िल्म के पर्दे पर भी और वास्तविक जीवन में भी शराब पीते - पीते दिवंगत हो गईं और सेंसर बोर्ड के कानों पर जूं तक न रेंगी।
बहरहाल इंतकाम फ़िल्म से एक तरह से साधना की वापसी ही हुई।
यद्यपि इस दशक के ख़त्म होने तक फ़िल्म जगत में भारी बदलाव दिखाई देने लगा था, फ़िर भी साधना ने एक बार दोबारा ये सिद्ध किया कि वास्तविक कलाकारी देखने वालों की नज़र से इतनी आसानी से ओझल नहीं होती और बेहतरीन काम दर्शकों द्वारा सराहा ही जाता है।
कुछ वरिष्ठ समीक्षक और फ़िल्म वर्ल्ड के सयाने साधना के कभी पुरस्कृत न होने के सवाल पर ये कहते थे कि वस्तुतः पुरस्कार एक प्रोत्साहन है जो उपलब्धि पर बांटने के लिए नहीं, बल्कि उपलब्धि के लिए प्रयास करने को उकसाने के लिए है। कभी - कभी ऐसी बातें सत्य प्रतीत होती थीं।
एक बार एक पत्रकार ने साधना का साक्षात्कार लेते हुए उनसे ये सवाल किया कि ऐसे कौन से नायक हैं जिन्होंने साथ में काम करते हुए आपको सताया या तंग किया हो। साधना ने कहा एक हीरो मुझे याद है कि वो अपने उल्टे- सीधे कॉमेंट्स से मुझे खिजा देता था। मेरा मन नहीं होता था कि इसके साथ काम करूं। निर्देशक उसके साथ दृश्य फिल्माने के लिए बैठा मेरा इंतजार करता रहता था, पर मैं काफ़ी देर तक उठ कर जाती ही नहीं थी। मेरा मन ही नहीं करता था।
उसके कॉमेंट्स इतने बचकाने होते थे कि मुझे उन पर गुस्सा भी आता था और हंसी भी। मैं मन ही मन सोचती, कैसे - कैसे लोग होते हैं।
एक दिन तो हद ही हो गई।
शूटिंग से पहले मैं बैठी हुई कुछ खा रही थी। शूटिंग शुरू होने में कुछ वक़्त था। वो कहीं से टहलता हुआ आया और बोला- इसे जब देखो, कुछ न कुछ खाती ही रहती है।
मुझे एक दम से गुस्सा आ गया। मैं ज़ोर से बोल पड़ी- मेरे खाने का पेमेंट आप तो नहीं कर रहे हैं।
वो एकदम से सकपका गया। यूनिट के सभी लोग हंस पड़े तो उसे और भी इंसल्टिंग लगा। बेचारा खिसिया कर कुछ दूर अलग थलग जा बैठा।
तुरंत ही डायरेक्टर ने शूटिंग शुरू कर दी। और हमें बुलाया। हम दोनों का एक बहुत अंतरंग प्रेम दृश्य था। उधर वो मुरझाया बैठा था इधर मैं तमतमाई बैठी थी।
मैंने सोचा, कैसे होगा ये दृश्य। मुझे उठने में भी ज़ोर आने लगा। पर हम उठे, कैमरे के सामने आए और एक बार में ही शॉट ओके हो गया। मैंने राहत की सांस ली।
संयोग देखिए, इसी हीरो संजय खान ने साधना के साथ दो फ़िल्में की, और दोनों ही सुपरहिट साबित हुईं।
इंतकाम के बाद संजय खान और साधना की फ़िल्म "एक फूल दो माली" आई और ये इंतकाम से भी बड़ी हिट साबित हुई। लोगों ने कहा कि साधना संजय की जोड़ी ज़बरदस्त हिट रही।
साधना का कहना था कि इन दोनों ही फ़िल्मों में एक एक सीनियर सोबर आर्टिस्ट - अशोक कुमार और बलराज साहनी साथ में थे इसलिए शूटिंग का समय अच्छा कट गया।
कहा जाता है कि संजय खान के इस व्यवहार में संजय की ज़्यादा गलती नहीं थी।
क्योंकि एक तो संजय फिरोज़ खान का भाई होने के कारण बहुत पहले से ही छुटपन से फिल्मों में आ रहा था, इसलिए कई कलाकारों के मुंह लगा हुआ था, और वो उसकी बातों का बुरा भी नहीं मानते थे।
दूसरे जब आर के नय्यर ने उसे इंतकाम के लिए साइन किया तो उसे बताया गया था कि वो साधना से उम्र में छोटा है, अतः अगर वो इस ग्रंथि को पालेगा कि हीरोइन उससे सीनियर हैं तो उनके साथ प्रेम दृश्य अच्छी तरह नहीं कर सकेगा, इसलिए उसको साधना से उसे अपने बराबर की दोस्त समझ कर उससे दोस्ताना व्यवहार रखने की कोशिश करनी है। यही कारण था कि संजय कुछ न कुछ ऐसा कह जाता था जो साधना को अटपटा लगता था।
नय्यर को ये भी मालूम था कि संजय खान बबीता के साथ एक हिट नंबर कर चुका है और उसके साथ काफ़ी घुला- मिला है।
शायद साधना को भी ये बात इरिटेट करती हो।
यहां भी वही बात थी कि उसने छोटी बहन के साथ पहले काम कर लिया और बड़ी के साथ बाद में कर रहा था।
इंतकाम में संजय खान के काम की भी काफी तारीफ़ हुई। कुछ समीक्षकों का तो यहां तक कहना था कि इंतकाम की भूमिका संजय खान के कैरियर की सर्वश्रेष्ठ भूमिका थी।
लगातार एक के बाद एक दो हिट फ़िल्में देने से साधना का आत्म विश्वास लौटा ही, संजय खान के लिए भी साधना लकी सिद्ध हुईं।
"एक फूल दो माली" देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म थी जो एक बेहद सफल हॉलीवुड फ़िल्म "फैनी" पर आधारित थी।
देवेन्द्र गोयल काफ़ी पहले से साधना के साथ कोई फ़िल्म करना चाहते थे। वैसे बबीता और संजय खान को लेकर बनाई गई फ़िल्म "दस लाख" भी उन्हीं की थी, पर उनका कहना था कि साधना जैसी सफल प्रतिभाशाली अभिनेत्री के साथ फ़िल्म करने का मज़ा और ही था।
देवेन्द्र गोयल जानते थे कि बीमारी के कारण साधना के चेहरे की आभा प्रभावित हो चुकी है, फ़िर भी उनका मानना था कि साधना जैसी शख्सियत का तिलिस्म दर्शकों के दिमाग़ से इतनी जल्दी नहीं उतर सकता और वो उसे देखने अब भी आयेंगे।
फ़िल्म का गीत संगीत भी मार्के का था, और एक फ़िल्म में जहां कैबरे और शराब पीने के बाद के गाने लता मंगेशकर से गवाए गए थे, वहीं दूसरी फ़िल्म में पारिवारिक गीत भी आशा भोंसले ने गाए थे। ये भी एक नए किस्म का चमत्कार था। फ़िल्म हिमाचल के कुलू मनाली में सेब के बगीचों के बीच फिल्माई गई थी जिसमें साधना का ग्लैमर और संजय का युवा लड़कपन एक बेहतरीन काम कर गया था।
दशक के बीतते - बीतते साधना ने फिर ये सिद्ध कर दिया था कि ये पूरा दशक लगभग उसके नाम ही रहा।
एक फूल दो माली ने कई जगह सिल्वर जुबली मनाई और ये वर्ष की एक अन्य ब्लॉकबस्टर "आराधना" को टक्कर देने वाली फ़िल्म साबित हुई।
आराधना शर्मिला टैगोर के डबल रोल वाली फ़िल्म थी, जो साल की सबसे बड़ी फ़िल्म साबित हुई।
फ़िल्म वक़्त में साधना और शर्मिला टैगोर ने एक साथ काम किया था और साधना ने अपनी बेहतरी भी वहां सिद्ध की थी, किन्तु दशक के बीतने के साथ इस मुकाम पर शर्मिला टैगोर का पलड़ा अब उनके मुकाबले भारी था।
ये दशक बीतते- बीतते कई नई तारिकाओं का आगमन फ़िल्म जगत में हुआ और साधना व अन्य समकालीन अभिनेत्रियों की एक पूरी खेप नई पीढ़ी के नए सपनों से लगभग बाहर हो गई।
इस दौर ने हेमा मालिनी, मुमताज़, जया भादुड़ी, बबीता, ज़ीनत अमान,रेखा, रीना रॉय, परवीन बॉबी, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल के स्वागत में बंदनवार सजा दिए।
फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट से एक्टिंग सीख कर भी कई कलाकार फ़िल्मों में आए, और उन्होंने कुछ समय के लिए फ़िल्म उद्योग की बुनियादी मान्यताएं बदल डालीं।
अब फ़िल्म निर्माता सौंदर्य, प्यार, जादू, तिलिस्म, प्रकृति, सरलता, निश्छलता जैसे तत्वों को छोड़ कर तर्क, व्यवहार, व्यावसायिकता, हिंसा, क्रूरता,प्रतिशोध,तकनीक जैसे तत्वों की ओर बढ़ने लगे।
देखते - देखते परिदृश्य बदल गया।
अब महत्वपूर्ण ये था कि पुराने कलाकार क्या करें।
उनके सामने तीन रास्ते थे।
एक, वो शांति सद्भाव और संतुष्टि के साथ रजत पट से विदा ले लें।
दो, वो मां,भाभी, आंटी, पिता, अंकल की सहायक, चरित्र भूमिकाएं
स्वीकार करके कैमरे के सामने बने रहें।
तीन, वो निर्देशक, निर्माता, वितरक, फाइनेंसर आदि बन कर पर्दे के पीछे की भूमिकाएं ले लें और अपने मन को समझा लें कि अब वो रंगमंच की पुतलियां नहीं, बल्कि नेपथ्य के नियामक हैं।
पिछले दशक के अधिकांश कलाकार इन तीन क्षेत्रों में बंट गए।
साधना का मन भी अब निर्देशन के क्षेत्र में हाथ आजमाने का था। वे मन ही मन इसके लिए तैयार होने लगीं।
किन्तु यदि आपने बरसों बरस किसी बाग में गाते- बजाते धुआंधार मेले लगाए हों, तो उनकी गमक कोई एक दिन में तो मिट नहीं सकती।
कुछ- कुछ पुराने प्रोजेक्ट्स, अधूरी फ़िल्में, लेट- लतीफी के नतीजे साधना और आर के नय्यर के पास भी थे जो धीरे - धीरे लोगों के सामने आते रहे।


दौड़ ख़त्म हो गई थी।
दुनिया के लिए नहीं, साधना के लिए।
लेकिन दुनिया के मेले यूं आहिस्ता से छोड़ जाने के लिए भी तो दिल नहीं मानता। हर कोई चाहता है, अच्छा बस एक मौक़ा और!
उन्नीस सौ सत्तर आ जाने के बाद यही कुछ खयालात साधना शिवदासानी, जो अब साधना नय्यर थीं, उनके दिलो दिमाग में भी आए।
पिछले दशक की एक सुपरहिट फिल्म "राजकुमार" की टीम एक बार फिर से जुटी। डायरेक्टर के शंकर, संगीत निर्देशक शंकर जयकिशन को साथ में लेकर साधना और शम्मी कपूर के पास एक प्रस्ताव ले आए। उनके पास दक्षिण की एक सफ़ल फ़िल्म के रीमेक की पटकथा तैयार थी।
इस बीच गंगा से बेशुमार पानी बह कर सागर में मिल चुका था। चीज़ें वो नहीं रही थीं, जो कभी हुआ करती थीं।
दक्षिण में के शंकर का सिंहासन हिल गया था। शंकर जयकिशन का काम, दाम और नाम अब लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ले जाने लगे थे।
साधना का जादू उतर चुका था। शम्मी कपूर अब शशि कपूर ही नहीं, बल्कि रणधीर कपूर और ऋषि कपूर तक को काम पर जाते देख रहे थे।
लेकिन फ़िर भी, एक बार कोशिश करने में हर्ज क्या था?
साधना जब पहली बार लव इन शिमला में लॉन्च की जा रही थीं तब पहले हीरो के तौर पर संजीव कुमार को लेने की गुज़ारिश निर्देशक ने की थी। लेकिन उस समय जॉय मुखर्जी को लेकर फ़िल्म परवान चढ़ गई थी।
अब तक संजीव कुमार भी एक छवि बना चुके थे, और बड़ा नाम थे। उन्हें भी लिया गया, और शम्मी कपूर के साथ दो नायकों वाली फ़िल्म की भूमिका तैयार हुई।
कहते हैं कि उनका चढ़ता बाज़ार देख कर फिल्मकार ने इस फ़िल्म में भी शंकर जयकिशन की जगह लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लेने का विचार बनाया था पर शंकर जयकिशन ने बहुत भावुक होकर निर्माता को समझाया कि दिन बदलते हैं, हुनर नहीं। हमें मौक़ा देकर देखिए।
जब हम ज़िन्दगी में युवावस्था के तमाम उत्सव मना रहे होते हैं तब नाच -गाना -खाना - पीना सब भाता है, लेकिन जब जीवन के ढलान पर हम कीर्तन में मन रमा रहे होते हैं तो अच्छी बातें ही लुभाती हैं।
फ़िल्म की पटकथा कुछ इस तरह थी कि शम्मी कपूर और संजीव कुमार कॉलेज में पढ़ने वाले दोस्त हैं। शम्मी कपूर कुछ शरारती, शैतान तबीयत और अपराधिक गतिविधियों को पसंद करने वाले हैं और संजीव कुमार सीधे , सच्चे और ईमान की राह के राही।
एक दिन दोनों कॉलेज छोड़ते समय महात्मा गांधी की मूर्ति के नीचे खड़े होकर तय करते हैं कि वो दोनों तीन साल बाद एक दिन यहीं मिलेंगे और तब देखेंगे कि अपने अपने रास्ते चलते हुए ज़िन्दगी ने उन्हें क्या दिया,क्या छीना!
इस बीच शम्मी कपूर को नायिका साधना मिल गईं और वो उनकी सोहबत में अच्छे इंसान बन गए। उधर संजीव कुमार को उनके रास्ते से डिगा कर परिस्थितियों ने डाकू बना डाला।
अब जब दोनों यार मिले तो मंज़र बदला हुआ तो था ही, शम्मी कपूर पर ही संजीव कुमार को पकड़ने की ज़िम्मेदारी भी। नायक ने फ़र्ज़ के लिए दोस्त के सामने बंदूक तान देने में देर नहीं की।
पर विडम्बना देखिए, दोस्त संजीव डाकू हो तो हो, वो जोरू का भाई भी है। अब?
जिस साधना के साथ कभी संजीव कुमार को लेकर एक डायरेक्टर ने हसीन, खूबसूरत और दिलकश साधना के साथ उनके लिए रंगीनियां बिछाने की पेशकश की थी, वहीं दूसरे डायरेक्टर ने संजीव कुमार की कलाई पर साधना के हाथ से राखी बंधवा दी।
फ़िल्म नए दौर में मिसफिट मानी गई। और इस टीम के सामने ये सच्चाई आ गई कि गए दिन लौटते नहीं।
और हां, फ़िल्म का नाम था "सच्चाई"।
सन उन्नीस सौ सत्तर में साधना की एक फ़िल्म और रिलीज़ हुई, जिसका टाइटल एक मशहूर शेर की पंक्ति को बनाया गया था- "इश्क़ पर ज़ोर नहीं"।
वैसे तो इसका नाम पहले "बैरागी भंवरा" रखा गया था पर फ़िल्म बनते बनते इसका नाम बदल गया। इस तरह फ़िल्म का एक गीत "सच कहती है दुनिया, इश्क़ पर ज़ोर नहीं" इसका टाइटल सॉन्ग भी बन गया।
फ़िल्म का बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तो बहुत अच्छा नहीं था पर कलात्मक मानदंडों पर फ़िल्म में कई खूबियां थीं। देखने वालों का कहना था कि यही फ़िल्म अगर दो- चार साल पहले रिलीज़ हुई होती तो पूरी संभावना थी कि फ़िल्म ब्लॉकबस्टर साबित होती। इस फ़िल्म को देखने वालों ने ' बेहतरीन चाय जो ठंडी हो गई' के अंदाज़ में सिप किया।
फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी ये थी कि इसमें धर्मेन्द्र और विश्वजीत जैसे दो हीरो पहली बार साधना के साथ कास्ट किए गए। फ़िर रमेश सैगल ने बतौर निर्देशक इसे बनाया जो बेहद सफ़ल निर्देशक कहे जाते थे।
दर्शकों को साधना की फ़िल्मों में जो बेहद सुरीला जादू भरा संगीत मिलता रहा था, यहां पहली बार एस डी बर्मन ने उसका ज़िम्मा संभाला।
इसमें फोटोग्राफी का कमाल इतना ज़बरदस्त था कि दर्शकों को लगा, साधना के कुछ दृश्य उनकी बीमारी के पहले शूट किए गए पुराने हैं, जबकि असलियत ये थी कि साधना ने थायराइड का इलाज करा कर बॉस्टन से लौटने के बाद ही इसे साइन किया था। छायाकार ने खूबसूरत लोकेशन्स को फिल्माने का कमाल साधना के चेहरे को फिल्माने में भी दिखाया।
दोनों नायकों के साथ नायिका का प्रेम त्रिकोण था, इस तरह कहानी तो साधारण सी थी।
पिछले दशक के बड़े नामों ने मिलकर दर्शक खींचे।
सिनेमा के ट्रेड पंडितों ने बड़ी बारीकी से कुछ निष्कर्ष और भी निकाले।
लोग कहते थे कि साधना का व्यक्तित्व इतना फ़ैलाव लिए हुए था कि अधिकांश फ़िल्मों में उनके साथ दो नायक दिखाई देते थे। एक ही नायक वाली कई फिल्मों में उनके डबल रोल कर दिए जाते ताकि उनकी पर्सनैलिटी बंट जाए।
जिन लोगों ने साधना को वक़्त में राजकुमार और सुनील दत्त, आरज़ू में राजेन्द्र कुमार और फिरोज़ खान, एक फूल दो माली में संजय खान और बलराज साहनी, सच्चाई में शम्मी कपूर और संजीव कुमार, इश्क़ पर ज़ोर नहीं में धर्मेन्द्र और विश्वजीत, गीता मेरा नाम में सुनील दत्त और फिरोज़ खान के साथ देखा है वो ट्रेड पंडितों की इस बात से कुछ इत्तेफ़ाक ज़रूर रखते होंगे।
कुछ लोग तो बात को यहां तक खींच ले गए कि इसी कारण दिलीप कुमार ने कभी साधना के साथ काम नहीं किया।
फ़िल्म समीक्षक ये भी कभी नहीं भूल पाते कि वैजयंती माला ने तो अपनी सहायक अभिनेत्री तक की भूमिका में साधना को लेना स्वीकार नहीं किया।
प्रतिभाशाली अभिनेत्री शर्मिला टैगोर और सदाबहार आशा पारेख के कैरियर ने भी गति तभी पकड़ी जब बीमारी ने साधना को स्पर्धा से हटा दिया।
साधना की अनुपस्थिति में बबीता के साथ लगभग उन सभी नायकों ने काम किया जो कभी साधना के हीरो रहे थे। उनकी फिल्में सफल भी हुईं किन्तु दर्शक सिनेमा हॉल में बबीता के चेहरे में साधना की कशिश को ही ढूंढ़ते थे। राजेन्द्र कुमार की अनजाना, मनोज कुमार की पहचान और बेईमान,शम्मी कपूर की तुमसेअच्छा कौन है, शशि कपूर की एक श्रीमान एक श्रीमती और हसीना मान जाएगी आदि इसकी मिसाल हैं।
फिल्मी लोग कहते थे - आपने कभी अपनी दादी - नानी नुमा पुरानी महिला को रसोई में काम करते देखा है?वो सब्ज़ी काटते वक़्त बहू के लाए तरह - तरह के कटर, छुरी आदि को झुंझला कर फेंक देती है, और फिर अपना पुराना चाकू उठा लाती है। अब उसे सब्ज़ी काटने में मज़ा आने लगता है।
सत्तर का दशक आते ही निर्माता- निर्देशक मोहन कुमार को भी इसी तरह नए कलाकारों से ऊब हुई और वो मेरे मेहबूब, आरज़ू जैसी फ़िल्मों का जादू फ़िर से रचने के ख़्याल से राजेन्द्र कुमार और साधना को एक बार और आजमाने चले आए। छायांकन के लिए कैमरामैन भी वही, और लोकेशन्स भी वही।
दौर में तहलका मचा रहे संगीतकार और गीतकार भी उन्होंने तलाश कर लिए।
फ़िल्म थी "आप आए बहार आई"।
कहानी तो साधारण थी पर उन्होंने निर्माण की भव्यता में कोई कमी नहीं छोड़ी।
शालीमार और निशात बाग़ की खूबसूरती के साथ साथ कैमरा मैन ने साधना की खूबसूरती और उनकी राजेन्द्र कुमार के साथ केमिस्ट्री को भी पकड़ने में पूरा ज़ोर लगा दिया। लेकिन गए दिनों की गंध उन्हें कहीं नहीं मिली और उन्नीस सौ इकत्तर में रिलीज़ फ़िल्म भी बस साधना की एक और फ़िल्म ही साबित हुई।
दर्शक न इसके गम में रोए और न इसके उन्माद में मुस्कराए। कहीं कोई बहार नहीं आई।
एक बार फ़िर सिद्ध हुआ कि आदमी की काबिलियत ही नहीं, बल्कि उसका वक़्त लाता है बहारें, वक़्त ही लाता है खिजां।
कुछ समय पहले जब फ़िल्म पत्रिका माधुरी ने जनता की राय से हर साल " माधुरी नवरत्न" चुनने का फ़ैसला किया था तो पहले ही साल देशभर की जनता ने राजेश खन्ना और साधना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और अभिनेत्री के तौर पर चुना था।
सहसा आल इंडिया पिक्चर्स के पी एन अरोड़ा का ध्यान इस बात पर चला गया कि राजेश खन्ना और साधना ने अब तक किसी भी फ़िल्म में एक साथ काम नहीं किया है। ये वास्तव में बड़े आश्चर्य की बात थी।
उधर राजेश खन्ना कुछ ही समय पहले राज़, डोली और आराधना जैसी फ़िल्में कर चुके थे, और साधना ने भी बीमारी के बावजूद इंतकाम और एक फूल दो माली जैसी हिट, और इश्क़ पर ज़ोर नहीं जैसी सफल फ़िल्म दी थी।
झटपट आल इंडिया पिक्चर्स स्टोरी डिपार्टमेंट ने एक सफल हॉलीवुड फिल्म "इट हैपेंड ऑन फिफ्थ एवेन्यू" को आधार बना कर एक शानदार पटकथा तैयार कर दी। इस कहानी को बहुत पहले उन्नीस सौ अड़तालिस में "पगड़ी" शीर्षक से भी बनाया गया था और ये सफल रही थी।
इस बार इस कहानी का नाम रखा गया "दिल दौलत दुनिया"।
ज़माना बदल चुका था। हेमा मालिनी,रेखा, ज़ीनत अमान जैसी हीरोइनें नई पीढ़ी के युवा दर्शकों के दिल पर राज करने लगी थीं।
लेकिन उत्साही निर्माता को अब भी लगता था कि पुराने चावल आखिर पुराने ही होते हैं। इनकी खुशबू लोग आसानी से नहीं भूलते।
उन्होंने राजेश खन्ना और साधना को लेकर दिल दौलत दुनिया शुरू कर दी। सहायक कलाकारों में भी अशोक कुमार, ओम प्रकाश, हेलेन,जगदीप, सुलोचना जैसे जमे हुए आर्टिस्ट्स लिए गए। शंकर जयकिशन का संगीत था और हसरत जयपुरी, वर्मा मलिक, शैली शैलेन्द्र के गीत।
फ़िल्म की कहानी दिलचस्प थी। हल्की- फुल्की कॉमेडी के साथ ज़बरदस्त संदेश था।
एक करोड़पति सेठ साल के छः महीने मुंबई में और छः महीने मसूरी में रहता है। बाक़ी समय उसका लम्बा- चौड़ा बंगला ख़ाली पड़ा रहता है।
इस बात का फायदा उठा कर एक बूढ़ा उस मकान को अपना छः महीने रहने का ठिकाना बना लेता है और पीछे के चोर दरवाज़े से आना- जाना करता हुआ उसमें रखे सामान व राशन का उपभोग करता रहता है।
इतना ही नहीं, बल्कि वो रास्ते चलते मिल गए कुछ साथियों को भी पनाह देता हुआ अपने साथ रहने की जगह देता जाता है। इस तरह बंगले में बेरोजगार नायक का भी आगमन हो जाता है।
एक दिन करोड़पति सेठ की बेटी अकस्मात वहां आ जाती है पर सारा माजरा भांपने के लिए उन्हें अपनी असलियत नहीं बताती और एक स्कूल टीचर के रूप में वो भी उनके साथ ही चोरी से वहां रहने का नाटक करने लगती है।
बेटी उन बेरोजगारों और घर विहीनों की ज़िन्दगी से इतनी प्रभावित होती है कि एक दिन अपने माता- पिता को भी उनकी पहचान छिपा कर वहां रहने ले आती हैं।
बंगले का मालिक करोड़पति सेठ सपत्नीक अपनी बेटी की ज़िद पर वहां बावर्ची के रूप में आकर रहने लगता है।
और फिर अमीर लोग देखते हैं कि ज़रूरत से ज़्यादा इकट्ठा करने के लोभ में वो जीवन में क्या खो देते हैं,जिसका आनंद निर्धन उठाते हैं।
इस कहानी में न तो युनाइटेड टैलेंट हंट जीत कर फ़िल्मों में आए हीरो राजेश खन्ना के लिए कोई बड़ी चुनौती थी और न ही राजरानी सी खूबसूरत ग्लैमरस साधना के लिए।
लेकिन फ़िर भी फ़िल्म में ताज़गी थी। कहानी अच्छी थी। गीत संगीत ठीक- ठीक था। पर फ़िल्म केवल ये उम्मीद लेकर बनाई गई थी कि शायद राजेश खन्ना और साधना को एक साथ देख कर दर्शकों को रोमांच होगा।
फ़िल्म नहीं चली। जो राजेश खन्ना सुपरहिट आराधना देने के बाद अब मुमताज़ के साथ दो रास्ते, दुश्मन जैसी फिल्म दे रहा था, जया भादुड़ी के साथ बावर्ची, हेमा मालिनी के साथ प्रेमनगर और मेहबूबा, ज़ीनत अमान के साथ अजनबी, बबीता के साथ राज़ और डोली जैसी फ़िल्में दे रहा था, उसे साधना के साथ नोटिस नहीं लिया गया और वो भी इस बीते दशक की हसीना से उदासीन ही रहा।
साधना को भी शायद शिद्दत से ये महसूस हो गया था कि अब हीरोइनों की नई लहर में उनके जलवे बिखेरने का कोई मोल नहीं रहने वाला।
उन्हें भी आगे पीछे नूतन, माला सिन्हा, वहीदा रहमान, नंदा और आशा पारेख की तरह सीनियर भूमिकाओं के लिए अपने को तैयार करना होगा जिसके लिए उनका ज़मीर गवाही नहीं दे रहा था।
रंगमंच का कायदा यही है कि नाचो, नहीं तो हटो!

एक बार साधना से एक इंटरव्यू में एक फ़िल्म पत्रकार ने पूछा- मैडम, लोग कहते हैं कि फ़िल्म का निर्देशन करना औरतों का काम नहीं है, इसे पुरुष ही कर सकते हैं। इस कथन पर आपकी राय क्या है, आप एक अत्यधिक सफल अभिनेत्री होने के साथ -साथ एक फ़िल्म निर्देशक की पत्नी भी हैं।
साधना ने कुछ मुस्करा कर कहा, इस सवाल के जवाब के लिए कुछ दिन ठहर जाइए, मैं खुद निर्देशन के क्षेत्र में उतर रही हूं।
कुछ दिन गुज़रे होंगे कि "गीता मेरा नाम" फ़िल्म की घोषणा हो गई। साधना इसकी निर्देशक थीं। साथ ही वो इसमें दोहरी भूमिका भी कर रही थीं।
इस फ़िल्म में दो नायक थे। साधना के साथ कई बेहतरीन फ़िल्में देने वाले सुनील दत्त और आरज़ू में उनके साथ काम कर चुके फिरोज़ खान को इस फ़िल्म में लिया गया।
कहते हैं एक बार साधना की बीमारी में उनकी मिजाज़ पुरसी करने के लिए आए फिरोज़ खान ने मज़ाक में साधना से कहा कि आपकी छोटी बहन बबीता को मेरे छोटे भाई संजय के साथ जोड़ी बनाने दीजिए, आप बड़ी बहन हैं, बड़े भाई के साथ जोड़ी बनाने की सोचिये।
संजय खान के साथ साधना ने इंतकाम और एक फूल दो माली जैसी हिट फ़िल्में अपनी बीमारी के बाद भी दी थीं।
मज़ाक में कही गई बात साधना के दिमाग में कहीं दबी रह गई। बाद में जब साधना ने उन्नीस सौ तिहत्तर में खुद अपनी फ़िल्म का निर्देशन करने की घोषणा की तो सच में फिरोज़ खान उसमें थे।
आर के नय्यर के साधना की पहली फ़िल्म लव इन शिमला का निर्देशन करने के साथ- साथ ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है, ये रास्ते हैं प्यार के, आओ प्यार करें, कत्ल और पति परमेश्वर जैसी अनेक फ़िल्मों का निर्देशन किया था। उन्हें अपनी प्रतिभा को मांजने का मौक़ा राजकपूर के सहायक बन कर रहने से भी मिला था।
लेकिन ये भी सच था कि और अभिनेत्रियां जहां शूटिंग से लौटने के बाद मिलने- जुलने और पार्टियों में वक़्त बिताती पाई जाती रहीं, वहीं साधना ने अपने काम के साथ - साथ नय्यर के काम में भी पूरा सहयोग दिया।
वे निर्देशक- स्टार की मुलाकातों में उपस्थित रहती थीं बल्कि समय- समय पर अपने सुझाव और राय भी खुल कर देती थीं। नय्यर इस बात को मानते थे कि साधना के कई सुझावों से उन्हें फ़ायदा पहुंचा, वहीं उन्हें ऐसी एक भी घटना याद नहीं थी कि जब साधना की बात मानने से उन्हें कोई नुक़सान हुआ हो, या कोई बात बिगड़ गई हो।
यही कारण था कि साधना का निर्देशन करने के पंद्रह साल बाद जब साधना ने खुद निर्देशन की कमान संभाली तो नय्यर एक बार फ़िर उनके साथ बाकायदा सहायक निर्देशक की भूमिका में आ गए।
उन्हें साधना को लेकर कभी कोई हीन भावना या ग्रंथि अपने भीतर नहीं दिखाई दी। इसका कारण केवल ये नहीं था कि वो साधना से बेइंतेहा प्यार करते थे, बल्कि इसका कारण ये था कि उन्होंने कई बार साधना की तीक्ष्ण दृष्टि, बुद्धिमत्ता और सहयोग भावना का खुल कर अनुभव हुआ था।
खुद साधना कई नाकाबिल निर्देशकों से दो - चार हो चुकी थीं जो अपने बचकाने सुझाव स्टारों पर लादते दिखाई देते थे। एक दिन अपनी प्रिय सहेली आशा पारेख के साथ गप्प लड़ाते हुए इन दोनों अप्रतिम अदाकाराओं ने ऐसे अप्रशिक्षित निर्देशकों का जम कर मज़ाक उड़ाया था, जिन्होंने अपने बेतुके निर्देशन से कई हास्यास्पद फ़ैसले दिए थे।
आशा पारेख मानती थीं कि यदि उनके पास फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूशन और समाज सेवा जैसे दूसरे कई कार्य न होते तो वो भी अभिनय से बचे समय में निर्देशन करने की बात ही सोचतीं।
लेकिन इस बात पर भी पूरी सतर्कता से ध्यान दिया जाना चाहिए कि कुछ लोग साधना के निर्देशन को उनकी मजबूरी भी कहते हैं। दरअसल आर के नय्यर की कुछ फ़िल्में न चलने के कारण उन पर काफी कर्ज हो गया था। बाज़ार में उनकी साख को बट्टा लगा था। उनकी एक फ़िल्म पति परमेश्वर तो सेंसर बोर्ड की नामंजूरी की गिरफ्त में भी आ गई थी।
लेकिन जब साधना की दो- तीन फ़िल्मों के सफ़ल हो जाने के बाद वो दोबारा फ़िल्म बनाने की स्थिति में आए तो वित्तीय संकट को छिपाने के मक़सद से उन्होंने निर्देशक के रूप में साधना का नाम दे दिया,जबकि सच्चाई यही थी कि फ़िल्म का सारा काम और ज़िम्मेदारी उन्होंने खुद संभाली।
उन्नीस सौ चौहत्तर में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म "गीता मेरा नाम" को साधना की फ़िल्म जगत से विदाई के रूप में भी देखा जा सकता है क्योंकि इसके बाद उन्होंने और कोई भी नई फ़िल्म साइन नहीं की।
इसके बाद समय - समय पर उनकी कुछ फ़िल्में आधे - अधूरे ढंग से पर्दे पर आने की खबरें ज़रूर मिलती रहीं, किन्तु ये सब पुरानी साइन की हुई वही फ़िल्में थीं जो किसी कारण से बीच में रुक गई थीं या लेट हो गई थीं।
डबल रोल वाली फ़िल्म गीता मेरा नाम उस समय आई जबकि सीता और गीता या जॉनी मेरा नाम जैसी फ़िल्में पर्दे पर दर्शक देख चुके थे। इन दोनों ही फ़िल्मों में काम करने वाली हेमा मालिनी तब तक "ड्रीम गर्ल" का खिताब पा चुकी थीं और लगातार लोकप्रियता की पायदान चढ़ रही थीं।
अतः फ़िल्म में नए पन के नाम पर केवल यही एक तथ्य था कि इससे साधना जैसी नामी - गिरामी हस्ती निर्देशन के क्षेत्र में आ रही थी।
कहानी काफ़ी आम थी जहां एक अच्छी और एक बुरी लड़की को दर्शक कई बार देख चुके थे।
फ़िल्म की पटकथा ने साधना के लिए तो परस्पर विपरीत दो भूमिकाओं की गुंजाइश निकाली ही थी, सुनील दत्त की भूमिका में नयापन और ताज़गी लाने के लिए भी काफ़ी मेहनत की गई थी। सुनील दत्त की भूमिका एक बेहद मशहूर हॉलीवुड फ़िल्म "म्यूज़ियम ऑफ वैक्स" से प्रभावित थी, जिसमें वे एक खल पात्र के रूप में दर्शाए गए थे जो अपने गिरोह के किसी व्यक्ति को भूल करने पर मोम के गर्म कड़ाह में फेंक कर मोम के पुतले के रूप में तब्दील कर देने जैसा क्रूर व्यक्ति है।
मज़े की बात ये कि फ़िल्म में सुनील दत्त ने नायिका साधना के भाई की भूमिका अभिनीत की थी।
दर्शकों के लिए ये देखना विचित्र था कि जिन सुनील दत्त को उन्होंने साधना के हीरो के रूप में वक़्त, मेरा साया, गबन जैसी फ़िल्मों में पहले देखा था, वो यहां हीरोइन के बचपन में किसी मेले में खोए हुए भाई की भूमिका में थे।
हर बात पर पर्याप्त ध्यान देने वाले सजग दर्शकों को ये बात भी चौंकाती थी कि साधना को उनकी कई फ़िल्मों में स्कूल टीचर की भूमिका दी गई थी।
सोचने पर इसके कुछ कारण नजर आते थे, जैसे - वास्तविक जीवन में साधना की मां एक स्कूल टीचर ही रही थीं और साधना उनकी इकलौती संतान होने के कारण उनका अपनी मां से लगाव जगजाहिर था।
दूसरे साधना का नैसर्गिक सौंदर्य, युवा सोच, और शालीन पहनावा दर्शाने के लिए शिक्षक की भूमिका सहयोगी सिद्ध होती थी। कई अभिनेत्रियां जहां अपने लुक्स को लेकर इतनी सतर्क रहती हैं कि अपने आभा मंडल को बचाए रखने के लिए युवाओं के साथ आने से कतराती हैं, वहीं साधना में ये कुंठा कहीं दूर - दूर तक नहीं थी। वो ढेर सारे फूलों के बीच भी गुलाब की तरह अलग ही दमक जाती थीं।
उनके कुछ फ़िल्मकार कहते थे कि किसी विदुषी, बुद्धिमान महिला पर शिक्षक की भूमिका वैसे भी अच्छी लगती है।
हिंदी फ़िल्मों के उस स्वर्णयुग में, जहां सारा दारोमदार ही सौंदर्य और युवावस्था पर टिका होता था, वहां एक अभिनेत्री का पंद्रह वर्ष तक अपना जलवा बरकरार रख पाना एक बड़ी बात थी। खासकर तब, जब अपनी जवानी में ही उन्हें एक ऐसे रोग ने घेर लिया हो जो भीतरी कमज़ोरी के साथ शारीरिक विकलता भी देता हो।
कुछ लोग शायद इस बात से नाराज़ हो जाएं, किन्तु ये भी एक कटु सत्य है कि एस मुखर्जी जैसे गॉडफादर का अपने पुत्र के कारण, और राजकपूर जैसे संरक्षक का अपनी बहू के कारण साधना से अकारण हुआ मनमुटाव भी साधना के हंसते - खेलते जीवन में तनाव का सबब बना। वे ऐसी घटनाओं से विचलित तो नहीं हुईं पर भीतर से कहीं अकेली और असुरक्षित ज़रूर हो गईं।
इस अकेलेपन को संतान न होने के खालीपन ने और गहरा दिया।
जॉय मुखर्जी के बेटे बॉय मुखर्जी ने अपने पिता की किसी डायरी के हवाले से एक बार बताया था कि साधना जॉय मुखर्जी की फेवरेट हीरोइन ही नहीं, बल्कि निजी जीवन में भी उनकी पहली पसंद थीं।
साधना की शादी के समारोह में उनके किसी हीरो का न पहुंचना भी साधना ने भीतर तक महसूस किया था।
मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान साधना का शुक्रिया आज भी अदा करना नहीं भूलती हैं, क्योंकि उन्हें किसी फ़िल्म में अकेले पहलीबार डांस डायरेक्टर बनने का मौक़ा फ़िल्म गीता मेरा नाम में साधना ने ही दिया। उससे पहले वो सहायक हुआ करती थीं।
अगले ही वर्ष साधना की एक और पुरानी अधूरी फ़िल्म "वंदना" पूरी होकर पर्दे पर आई। इस फ़िल्म में उनके हीरो परीक्षित साहनी थे जो पहले अजय साहनी नाम से फ़िल्मों में आए थे। परीक्षित उन बलराज साहनी के बेटे थे जिन्होंने कभी साधना के साथ एक फूल दो माली और वक़्त में काम किया था।
ये फ़िल्म अपने समय से काफ़ी पीछे थी अतः ये पूरे भारत में नहीं, बल्कि कुछ टेरिटरीज़ में ही रिलीज़ हो पाई।
फ़िल्म में "आपकी इनायतें, आपके करम, आप ही बताएं कैसे भूलेंगे हम" जैसे कर्णप्रिय और नफासत भरे गीत थे मगर तब तक "शोले" और "ज़ंजीर" का ज़माना आ चुका था, जहां "कोई हसीना जब रूठ जाती है, तो और भी नमकीन हो जाती है... हट साले!" जैसे गाने दौर का सच बन चुके थे।
किसी फ़िल्म में निर्देशक की भूमिका को लेकर साधना के अपने स्पष्ट विचार थे। वो कहती थीं कि किसी अच्छे अभिनेता में औरों की तुलना में कुछ "एक्स्ट्रा" होता है, किसी अच्छे निर्देशक को सिर्फ़ उस एक्स्ट्रा को परफॉर्मेंस में आने देना होता है,और बस, इससे वो शॉट बेहतरीन बन जाता है।
लेकिन अगर दकियानूसी सोच वाला निर्देशक कलाकार को लिखे हुए दृश्य या संवाद से ज़रा भी इधर उधर हटने की मोहलत न दे तो वो बेहतरी की संभावना तो खो ही देता है, कलाकार के बेहतर कर पाने की मौजूदा क्षमता को भी आहत कर देता है।
उन्होंने एकबार एक पत्रकार से बात करते हुए अपनी बात का उदाहरण भी पेश कर दिया था। उन्होंने बताया- एक फ़िल्म में रोमांटिक दृश्य था जिसमें हीरोइन और हीरो साथ - साथ चल रहे हैं। तभी अचानक हीरो का हाथ हीरोइन के हाथ से अनजाने में छू जाता है। ऐसा होने पर हीरोइन को शरमा कर प्यार भरी नजर से हीरो की ओर देखना था।
निदेशक ने मुझसे कहा कि अब मैं कुछ सेकेंड्स ( निर्देशक महाशय ने ये भी बताया कि कितने सेकेंड्स) के लिए नज़रें झुका लूं, फ़िर निगाहें ज़रा उठाऊं और अपना चेहरा पैंतालीस डिग्री के कोण से तिरछा करके अपनी आंखों को तीन बार फड़फड़ाऊं, और पुनः नीचे देखूं।
साधना ने आगे बताया कि मैं और सेट पर उपस्थित कोई भी शख़्स निर्देशक को समझा नहीं सका कि ये ठीक नहीं लगेगा, और अगर मैं बिल्कुल उसके कहे अनुसार नहीं करूं, यहां तक कि आंखें तीन की जगह दो बार फड़फड़ा दूं, तो वो उखड़ जाता था। ऐसी सोच से कोई भी कलाकार अपना उम्दा नहीं दे सकता।
एक अच्छा निर्देशक कलाकार को दृश्य करने के खुले अवसर देता है और फ़िर कलाकार जो अपनी रेंज के दो चार छह विकल्प करके दिखाए, उनमें से बेस्ट चुन लेता है।
ऐसी परिपक्वता आख़िर कितने कलाकारों में होती है?
वो शायद इसीलिए साधना थीं।
साधना की ये फ़िल्म "अमानत" एक बड़े बजट की फ़िल्म थी जिसमें लगभग हर चीज़ में भव्यता का ध्यान रखते हुए उन्हीं सफल लोगों की टीम जुटाई गई थी जो कभी न कभी साधना की फ़िल्मों में अच्छा परिणाम दे चुके थे और अच्छा प्रदर्शन करते रहे थे।
इस फ़िल्म में एक विशेष बात ये थी कि इसकी मूल पटकथा को फ़िर से संवारने का काम सुविख्यात लेखक निर्देशक राजेंदर सिंह बेदी से करवाया गया था। इसके संवाद वेद राही ने लिखे थे।
और इसमें "वो कौन थी" की जोड़ी साधना और मनोज कुमार को ही दोहराया गया था।
फ़िल्म रुक - रुक कर बनी थी। बीच में एक बार निर्देशक को बदला गया था।
इतना ही नहीं, बल्कि फ़िल्म के गीत पॉपुलर हो जाने के बावजूद फ़िल्म संगीत जारी हो जाने के छः साल बाद रिलीज़ की जाने से लोग उन मधुर गीतों को भूल चुके थे।
ये सारी अस्त - व्यस्तता उसी दोहे को याद दिलाती थी- बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो तिन कोय !

"जिसने डाली, बुरी नज़र डाली", अच्छी सूरत की यही कहानी है!
लोग दुश्मन हो जाते हैं!
आते - जाते हुए जहां लोगों ने आपको देखा कि बस, उनके मन में जलन के तपते शरारों का दहकना शुरू हो जाता है - राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला???
साधना की कहानी दो लफ़्ज़ों की कहानी ही थी - या है मोहब्बत या है जवानी।
लेकिन इन्हीं दो लफ़्ज़ों के अगर आप हिज्जे करने बैठें तो आप रेशा -रेशा, कतरा -कतरा, लम्हा -लम्हा धुनते रहिए, आपको लगेगा रैना बीती जाए।
साधना से सवाल हुआ : सच - सच बताइए, क्या ज़िन्दगी में आपको कोई दुःख भी था?
साधना ने साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार को न जाने क्या जवाब दिया।
लेकिन इस दुख को किसी से कहा नहीं जा सकता। देखने वालों को ख़ुद देखना होगा, भांपने वालों को ख़ुद भांपना होगा।
गुलाब को क्या दुःख होता है?
यही, कि आसपास के फूल ईर्ष्या के कारण उससे दुश्मनी पालते हैं।
कुदरत को सब मालूम है, वो सब जानती है, इसी से तो उसे ज़ेड प्लस सुरक्षा देकर रखती है, कांटों से घेर देती है।
दुनिया में एक विचित्र शै और है, जो विस्मित करने वाली है।
ये है "नज़र लगना"।
वैसे तो सबके पास आंखें हैं, जिनके पास नहीं हैं उनके पास अहसास हैं। सबके पास दृष्टि है, जिनके पास नहीं है उनके लिए व्याख्याकार हैं।
सब देखते हैं दुनिया।
लेकिन फ़िर भी एक मज़ेदार कल्पना है "नज़र लग जाना"।
हम आइने के सामने घंटों खड़े होकर सज- धज कर घर से निकलते हैं लेकिन कभी - कभी बुझे बीमार मन से वापस लौटते हैं। हमें लगता है कि हमें किसी की नज़र लग गई।
हम शानदार मकान बनाते हैं, उस पर सुन्दर सजावटी रंग - रोगन करते हैं, और फिर डरते हैं कि किसी की नज़र न लग जाए। उस पर काला, बदसूरत सा कुछ टांग देते हैं।
लेकिन अगर हम सुन्दर तन, मुखर प्रतिभा और दमकता लावण्य लेकर पैदा हो जाएं तो "नज़र" से कैसे बचें? नज़र लग ही जाती है।
कम से कम बॉलीवुड का इतिहास तो यही कहता है।
साधना का सबसे बड़ा दुश्मन सौंदर्य, प्रतिभा और लावण्य का यही संगम था।
उनकी समकालीन कई अभिनेत्रियां आज तक इस भावना से ग्रसित हैं।
आज पुरानी बातों,पुरानी चीज़ों,पुराने मूल्यों को सहेज कर रखने वाले आधुनिक, तकनीकी, विलक्षण, कई साधन हैं लेकिन यदि आप गौर से इनका अध्ययन या अनुसंधान करें तो आप देख पाएंगे कि आपकी विरासत को संजोने - संभालने का काम केवल आपके परिजन या आपकी संतान ही कर रही है। यदि आपकी संतान नहीं है, या आपके परिजन नहीं रहे तो आप का आगे याद किया जाना मुश्किल है।
बात को और साफ़ कहा जाए, पिछले उन्हीं निर्माता, निर्देशक, संगीतकारों का काम और नाम ज़िंदा है जिनके बेटे- पोते - भाई - भतीजे अब कला के मैदान में हैं।
पिछले वही कलाकार अब महान सिद्ध किए जा रहे हैं जिनके बच्चे या वंशज अब कला के हरे कक्ष में हैं।
और इसका ये मतलब कतई नहीं है कि सबके बच्चे आज्ञाकारी हैं या उन्हें अपने पूर्वजों से प्यार है, इसका मतलब ये है कि वो अपने पूर्वजों के नाम की रोटी ही खा रहे हैं। उनका सबसे बड़ा हथियार उनके पूर्वजों की विरासत ही है। यदि पूर्वजों का छोड़ा पैसा, उनके संपर्क,उनके साधन, उनकी मिल्कियत इन्हें नहीं मिलते तो आज इनकी हैसियत भी शायद वो नहीं होती जो दिखाई देती है।
और दुःख की बात ये है कि वर्तमान दौर के अधिकांश कलाकारों ने संघर्ष, प्रयास या लगन की वो आंधियां नहीं झेली हैं जो पिछली सदी के इनके पूर्ववर्तियों ने सहन की थीं।
आज यदि किसी राजकपूर,किसी धर्मेन्द्र,किसी राजेश खन्ना के वंशज को फिल्मी दुनिया में कदम रखना है तो उसकी चिंता केवल इतनी सी है कि कौन सी ब्रांड की ज़ींस पहनूं, कैसे जूते पहनूं, किस देश का हेयर स्टाइल बनाऊं और लॉन्चिंग के लिए कौन सी गर्ल फ्रेंड को साथ में लूं!
जबकि इसी फ़िल्म जगत ने कई ऐसे कलाकार भी देखे, जिन्होंने गांव से मुंबई आने की बात अपने पिता से छिपाने के लिए किराए के ख़र्च हेतु पार्टटाइम नौकरियां की, मां के ताने उलाहने सुने, बहन को अपने सपने की खिल्ली उड़ाते देखा और दोस्तों से बेकार की बातें छोड़ने की नसीहतें सुनीं। और जब फिल्मी दुनिया में आए तो बरसों बरस दर्शकों के दिल पर राज़ किया।
जो कलाकार गर्दिशों के जलजले सह कर भी अपने चेहरे की लुनाई बचाए रखने में समर्थ रहे, सेल्युलाइड की दिलकश रोशनियों में उनके चेहरे बीमारी से मुरझा जाएं, ये नज़र लगना नहीं, तो और क्या है?
ये सवाल साधना के शुभचिंतकों को हमेशा से परेशान करता रहा। खुद साधना इस दुविधा से लड़ कर अपने चाहने वालों की उम्मीद की कोशिश आखिरी वक़्त तक करती रहीं।
लेकिन और दूसरे सितारों तथा साधना के बुनियादी सोच में एक बड़ा फ़र्क रहा।
दूसरे स्टार जहां समय के साथ समझौता करते हुए अपनी उम्र और शख्सियत के अनुसार भूमिकाएं करते हुए फिल्मों, टी वी, विज्ञापनों, मॉडलिंग आदि के क्षेत्र में बने रहे वहीं साधना अपनी एक, सिर्फ़ एक, वही एक छवि चाहती थीं। उनका सोचना था कि उनके चाहने वाले,उनके शुभचिंतकों और दर्शकों के दिलों दिमाग में उनके चोटी के दिनों की स्टार की छवि ही बसी रहे।
हां, उस छवि को देर तक बनाए बचाए रखने की कोशिश में उन्होंने कभी कोई कोताही नहीं की।
लेकिन कामयाबी के शिखर पर हमेशा बने रहने में भला कौन कामयाब हुआ है। एक दिन वो भी आया कि सिनेमा हॉल में खुद साधना दर्शकों के साथ बैठी अपनी ही फ़िल्म देख रही हैं और दर्शकों ने उन्हें नोटिस नहीं किया।
शायद साधना की वही आखिरी फ़िल्म रही जो उन्होंने देखी। उसके बाद उन्होंने अपनी कोई फ़िल्म कभी नहीं देखी, घर पर टी वी में भी नहीं, जबकि उनके पास अपनी सभी फ़िल्मों का पूरा कलेक्शन था। इसके अलावा पति आर के नय्यर के फ़िल्म निर्देशक होने के चलते कई देशी विदेशी फ़िल्मों का सुन्दर संग्रह भी था।
कभी - कभी ऐसा होता है परिवार की कोई बुज़ुर्ग या प्रौढ़ महिला अपना पुराना संदूक खोल कर बैठ जाती है। उसमें से एक - एक करके चमचमाती ज़री -गोटे -सलमे -सितारों की पुरानी साड़ियां निकलती जाती हैं और वो अभिभूत होकर उन पर हाथ फेरती हुई उन पुराने दिनों की याद में खो जाती है, जब वो इन्हें पहना करती थी। तभी उसकी बेटी, पोती, बहू या और कोई लड़की वहां से ये कहती हुई गुजरती है कि इन्हें किसी को दे दो, कम से कम फेंकने से पहले कुछ दिन पहनी तो जाएंगी।
अमानत के साथ इसी साल साधना की एक और फ़िल्म "छोटे सरकार" रिलीज़ हुई।
इस फ़िल्म की भी वही दास्तान थी। साइन करने के छः साल बाद मुश्किल से पूरी होकर देश के किसी किसी हिस्से में प्रदर्शित हो पाई।
फ़िल्म गुलशन नंदा की कहानी पर बनी थी। नंदा फ़िल्म लेखन और उपन्यास लेखन में एक लोकप्रिय नाम थे। उनकी कई फ़िल्मों ने धूम मचाई थी। मुमताज़ की खिलौना और झील के उस पार, आशा पारेख की कटी पतंग, वहीदा रहमान की नीलकमल और पालकी, मीना कुमारी की काजल, राखी की अनोखी पहचान, शर्मिला टैगोर की दाग आदि सभी फ़िल्में गुलशन नंदा की लिखी हुई थीं। गुलशन नंदा को लोग साहित्यकार तो नहीं मानते थे पर कई साहित्यकार जिस फिल्मी दुनिया में भाग्य आजमाने चोरी - छिपे पहुंचा करते थे उसके बेताज बादशाह कई साल तक गुलशन नंदा ज़रूर थे।
छोटे सरकार में आरंभ में डबल रोल के लिए सुनील दत्त को साइन किया गया था। पर बाद में सुनील दत्त ने फ़िल्म छोड़ दी थी। कहा जाता था कि सुनील दत्त अपना चोला बदल कर ज़ख्मी, हीरा जैसी फ़िल्मों में नए दौर की भूमिकाओं में व्यस्त हो गए थे। बाद में ये रोल शम्मी कपूर को दिया गया, जिन्होंने इसे कुशलता से पूरा तो कर दिया पर जब तक फ़िल्म रिलीज़ हुई तब तक वो भी चरित्र भूमिकाओं में अच्छी तरह फिट हो चुके थे। पिता की भूमिकाएं निभाने लगे थे।
साधना भी फ़िल्म के बार बार बीच में रुक जाने से खिन्न थीं और उन्होंने फ़िल्म के रिलीज़ में कोई दिलचस्पी नहीं ली। बल्कि उनकी विरक्ति तो इस हद तक बढ़ी कि बाद के कुछ दृश्यों में तो वो डबिंग के लिए भी नहीं आईं और फ़िल्म के कुछ संवाद किसी और की आवाज़ में पूरे किए गए।
शशिकला जैसी चरित्र अभिनेत्रियां भी अब आउट ऑफ डेट हो गई थीं क्योंकि पुरानी फ़िल्मों में उनके जैसे छल कपट अब नए दौर में हीरोइनें खुद करने लगी थीं।
यही हाल हर फ़िल्म में कैबरे डांस के लिए रहने वाली हेलन का हो गया था क्योंकि अब हेमा मालिनी, ज़ीनत अमान, रेखा जैसी हीरोइनें अपनी फ़िल्मों में कैबरे भी खुद ही निपटाने लगी थीं।
यही हाल नायकों का था, हास्य अभिनेता को जो कुछ दोगे, वो हमारी फीस में ही जोड़ दो, कॉमेडी भी हम कर लेंगे।
लोकप्रिय संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन के जयकिशन सन उन्नीस सौ इकहत्तर में दिवंगत हो चुके थे।
फ़िल्म में हीरो का डबल रोल हमशक्ल भाइयों का नहीं,बल्कि बड़े और छोटे दो भाइयों का था, जिसे शम्मी कपूर ने कुशलता से अंजाम दिया, मगर साधना के लिए फ़िल्म में कोई स्कोप नहीं था। गरीब लाचार लड़की की भूमिका मिलने से पहन- ओढ़ कर ख़ूबसूरत दिखने की ज़िम्मेदारी भी नहीं थी।
ऐसे में फ़िल्म कब आई और कब गई, किसी को पता नहीं चला।
कभी - कभी लगता है कि साधना ने दर्शकों की निगाह में हमेशा हीरोइन की छवि ही बनाए रखने का जो कौल ले लिया था, वही उनके विरुद्ध चला गया।
इससे तो बेहतर होता कि वो सहायक भूमिकाओं में हेमा मालिनी,रेखा, श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित की बहन,भाभी, मां बन कर कहीं ज़्यादा सुर्खियों में रह सकती थीं, जैसा वहीदा रहमान, माला सिन्हा, नंदा, आशा पारेख, शर्मिला टैगोर और नूतन ने किया।
जैसे किसी लहलहाते हुए खेत में फसल चौपट कर जाने के लिए कई दुश्मन आते हैं : कभी बाढ़, कभी अकाल, कभी कीट पतंगों के रूप में रोग, कभी पौधों को पैरों तले रौंदने वाले जंगली जानवर तो कभी कर्ज और ब्याज की बहियां बगल में दबाए हुए साहूकार,
वैसे ही फिल्मी दुनिया में खिले गुलाबों को रौंदने के लिए भी ज़हरीले दुश्मन आते हैं। जैसे नरगिस के बाग में कैंसर, मधुबाला के बाग में मोहब्बत, मीना कुमारी के बाग़ में शराब, साधना के बाग़ में थायरॉइड...और इनके साए में सब दफन हो जाता है। लोग इन दुश्मनों को कोसते रहते हैं और सब कुछ किसी धुंध में चला जाता है।
लेकिन लहलहाती फसलों को रौंदने वाले इस बेजान ज़हर के पांव नहीं होते। ये अपने आप नहीं आता। इसे भी कोई न कोई लाता ही है।
इतिहास जब ढूंढने बैठता है तो गए वक़्त के खंडहरों से भी कुछ न कुछ निकाल कर ही उठता है। कई बिजलियां चमकने लगती हैं और उनके उजास में कई चेहरे भी नज़र आने लगते हैं।
कई बड़े - बड़े चेहरे!
फिल्मी दुनिया में शोध और अनुसंधान करने वाले जानते हैं कि देश का नाम ऊंचा करने में बंगाल और पंजाब हमेशा आगे रहे।
इन दोनों सूबों से एक से बढ़कर एक फिल्मकार और कलाकार निकले। साहित्य का नोबल पुरस्कार हो, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के फ़िल्म पुरस्कार हों, देश के राष्ट्रगान लिखने वाले हों, कई बड़े बड़े निर्माता निर्देशक हों, या फिर सुचित्रा सेन, शर्मिला टैगोर, जया भादुड़ी, राखी जैसी हीरोइनें हों, सुष्मिता सेन, लारा दत्ता जैसी ब्रह्माण्ड सुंदरियां हों, बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी, शक्ति सामंत जैसे निर्देशक हों, अनिल बिस्वास, एस डी बर्मन, आर डी बर्मन जैसे संगीतकार हों, या अशोक कुमार, किशोर कुमार, उत्तम कुमार हों, ये सब हमें बंगाल से ही मिले।
शायद फ़िल्म वर्ल्ड को जितने कामयाब नायक पंजाब ने दिए उतने तो किसी प्रांत ने नहीं दिए। इनकी एक लम्बी फेहरिस्त है । विभाजन पूर्व पाकिस्तान से भी कई कलाकार हिंदुस्तान में आए।
इसी तरह मद्रास, जो अब तमिलनाडु है, कामयाब हीरोइनें देने में हमेशा आगे रहा।
मुंबई तो सबकी कर्मस्थली रही।
इसी मुंबई में भारतीय फ़िल्म उद्योग पनपा। देशभर के कौने- कौने से आकर लोग यहां बस गए और उन्होंने फ़िल्म के विभिन्न पक्षों को अपने हुनर से संवारने में ज़िंदगियां खपा दीं।
फ़िल्म जगत में आने से पहले की कहानियां, फ़िल्म जगत में आने के बाद की कहानियां दोनों ही दिलचस्प हैं, हैरतअंगेज हैं, हृदय विदारक हैं।
जिस तरह जब हम किसी बस के इंतजार में सड़क के किनारे खड़े होते हैं,तो बस आने पर हम चाहते हैं कि बस ज़रूर रुके, चाहे वो कितनी भी खचाखच भरी हुई ही क्यों न हो। उसी तरह जब हम किसी बस में बैठे हों तो हम चाहते हैं कि बस अब ये कहीं न रुके। भरी हुई हो, तब तो बिल्कुल न रुके।
ये मानव स्वभाव है। हम चाहे फ़िल्म जगत के कामयाब लोगों को "सितारे" कहें, पर वो होते इंसान ही हैं।
और इसीलिए, कोई बस में चढ़ पाए, या न चढ़ पाए, अपनी मंज़िल पर पहुंचे या न पहुंचे, हमें क्या???

लोगों का एक सवाल और था।
जब माधुरी पत्रिका ने पाठकों की पसंद से साल के नवरत्न चुनने शुरू किए तो पहले ही साल राजेश खन्ना के साथ नायकों में दूसरे नंबर पर जीतेन्द्र को चुना गया था। जीतेन्द्र हिंदी फ़िल्म जगत में आने वाले अब तक के सबसे सुंदर (स्मार्ट नहीं) नायक रहे। उन्होंने "सेहरा" फ़िल्म से पदार्पण किया था और उसके बाद "बूंद जो बन गई मोती", "फ़र्ज़","धरती कहे पुकार के" जैसी फ़िल्मों में अपनी कामयाबी दर्ज़ करवाई थी।
चढ़ता सूरज था, जिसकी तुलना राजेश खन्ना से की जाती थी। तो लोग यही सोचते थे कि इस दशक की सबसे ख़ूबसूरत कही जाने वाली हीरोइन साधना को जीतेन्द्र के साथ क्यों नहीं उतारा गया। जबकि जीतेन्द्र ने बबीता के,और साधना ने संजय खान के साथ हिट फिल्में की।
अपना थायराइड का इलाज़ करवाने के बाद बॉस्टन से वापसी पर साधना ने जो फ़िल्में साइन की उनमें एक फ़िल्म जीतेन्द्र के साथ भी थी। इसकी शूटिंग में भी पांच दिन तक जीतेन्द्र ने भाग लिया। लेकिन अपनी सुपरहिट फिल्म "फ़र्ज़" की नायिका बबीता के उसे हतोत्साहित करने के बाद न जाने क्यों जीतेन्द्र ने साइनिंग अमाउंट लौटा दिया। और इस फ़िल्म से पल्ला झाड़ लिया।
कुछ लोग कहते हैं कि जिन दिनों जीतेन्द्र सेहरा में छोटी सी भूमिका कर रहे थे उन दिनों वक़्त, आरज़ू और मेरे मेहबूब के शोर- शराबे को जीतेन्द्र ने भी अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना था। अतः अब जब एक निर्माता ने उन्हें साधना के साथ हीरो के तौर पर चुना तो पहले तो जीतेन्द्र ख़ुशी से फूले नहीं समाए। पर शूटिंग शुरू होने के चंद दिनों बाद ही युवा जीतेंद्र कुछ हड़बड़ाहट व हीनभावना का शिकार हो गये, और उसी धड़क ने उन्हें अब अपने कदम पीछे हटा लेने पर विवश कर दिया।
कहते हैं कि बबीता ने जीतेन्द्र का मज़ाक उड़ाते हुए कहा था कि उन्हें सब अपने से बड़ी- बड़ी महिलाओं के साथ ही काम मिल रहा है।
सच में उन दिनों जीतेन्द्र मुमताज़ व राजश्री के साथ काम कर लेने के बाद नंदा और आशा पारेख के साथ जोड़ी बनाने वाली फ़िल्में चुन रहे थे।
बबीता ने हो जीतेन्द्र को ये जानकारी दी कि साधना बबीता से सात साल बड़ी हैं और विदेश से बीमारी का इलाज़ करवा कर हाल ही में लौटी हैं। इतना ही नहीं बल्कि ये तक कहा गया कि बीच में चैक- अप के लिए उन्हें कभी भी वापस अमेरिका जाना पड़ेगा और फ़िल्म बीच में अधर झूल में लटक जाएगी।
जीतेन्द्र को इतना समझौता करने की कहां ज़रूरत थी, उन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। और इस तरह दशक की सबसे ख़ूबसूरत हीरोइन और दौर के सबसे हैंडसम हीरो को एकसाथ देखने से पब्लिक वंचित रह गई।
लेकिन फ़िल्म की कहानी ही कुछ ऐसी थी कि हीरो युवा ही चाहिए था, चाहे न्यूकमर ही क्यों न हो। लिहाज़ा नए हीरो की तलाश में फ़िल्म रुक गई और प्रोडक्शन को पहला झटका लगा।
जीतेन्द्र के साथ शूट किए जा चुके सीन्स दोबारा फिल्माए जाने थे, जिससे फ़िल्म के बजट पर भी आंच आई।
फाइनेंसर ये भी देख रहे थे कि फ़िल्म को अभी तक हीरो नहीं मिला है। प्रायः फ़िल्म का फाइनेंस हीरो के नाम पर ही होता रहा है। इससे फ़िल्म और भी विलंब का शिकार होती चली गई।
ये वो दौर था जब फ़िल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट से प्रशिक्षण लेकर लोग आ रहे थे। प्रचारित किया जा रहा था कि फ़िल्मों में अब सुन्दर और सजावटी चेहरों की नहीं, बल्कि ज्वलंत मौजूदा समस्याओं पर आधारित कथानकों की ज़रूरत है। साधारण से दिखने वाले आमआदमी नुमा लोग फ़िल्मों में हीरो - हिरोइन बन रहे थे। फिल्मकारों का फोकस ख़ूबसूरती पर नहीं, बल्कि एक्टिंग के गुर सीखे व्यक्तियों पर था।
इसी समय एक फ़िल्म आई - चेतना। बाबूराम इशारा की फ़िल्म थी जिसे अपने सब्जेक्ट और कंटेंट के चलते बोल्ड फ़िल्म कहा जा रहा था। फ़िल्म सुपरहिट थी और इसके कलाकार अनिल धवन तथा रेहाना सुल्तान रातों रात ख्याति पा गए थे। अनिल धवन के युवा चिकने चेहरे में भोलापन और ताज़गी भी थी। फ़िल्म में सेक्स का तड़का इतना ज़बरदस्त था कि फ़िल्म को न्यूड वेव ला देने वाली फ़िल्म करार दिया जा रहा था।
ये तो प्रशिक्षित लोगों का बौद्धिक कमाल था कि जल्दी ही इस न्यूड वेव की व्याख्या "न्यू वेव" के रूप में करके इसे नई पीढ़ी के लिए वक़्त की मांग बताया जाने लगा।
जल्दी ही अनिल को एक पारिवारिक फ़िल्म "पिया का घर" जया भादुड़ी के साथ भी मिल गई थी।
अनिल धवन को ही साधना के साथ जीतेन्द्र की छोड़ी हुई इस फ़िल्म "महफ़िल" में साइन कर लिया गया।
साधना की ये एक अत्यंत महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी, जिसके निर्माता कृष्ण कुमार थे।
इधर कई लोग तो स्पष्ट रूप से ये मानने लगे थे कि केवल नक्षत्रों की चाल ही नहीं, बल्कि कुछ फिल्मी हस्तियों की छिपी हुई चाल भी साधना का रास्ता रोक रही थी।
भाग्य केवल उन्हें बीमार करके ही संतुष्ट नहीं था बल्कि उनसे खिन्न लोगों की खुनस भी समानांतर रूप से चल रही थी।
ये कौन लोग थे?
और इससे भी बड़ा सवाल ये था कि ये लोग क्यों ऐसा कर रहे थे?
क्यों खुद उनके अपने भी उनसे ईर्ष्या पाल कर अपनी दुनिया को सुलगाए बैठे थे?
उन्होंने किसका क्या बिगाड़ा था?
बात केवल नज़र लग जाने तक ही सीमित नहीं थी, कोई था जो छिप कर उनकी हर बात, उनकी गतिविधियों पर पैनी निगाह रखे था, और उन्हें नुक़सान पहुंचाने के लिए हर हद तक जा रहा था।
किस्मत से उनके कुछ ऐसे शुभचिंतक भी थे जो बिना किसी स्वार्थ के उनके साथ थे, और उनकी मदद करते हुए उनके अच्छे दिन लाने की कोशिशों में लगे हुए थे।
साधना को मिस्ट्री गर्ल का खिताब ज़रूर मिला था पर शीशे की तरह साफ़ दिल, पारदर्शी साधना के लिए न जाने ये कौन लोग थे जो "मिस्ट्री" बने हुए थे।
जिस तरह दुर्भाग्य से लड़ता हुआ मनुष्य ये नहीं जानता कि किस देवता के प्रकोप और नाराज़गी से उसके सब काम बिगड़ रहे हैं और वह हार कर सभी देवताओं का पूजन - मनन करने लग जाता है, वैसे ही शायद महफ़िल फ़िल्म के निर्माता की भी मनःस्थिति थी। उन्होंने कोई कोर- कसर नहीं छोड़ी थी रूठे देवों को मनाने में।
महफ़िल की पटकथा के रूप में उन्होंने उन्नीस सौ चौवन में आई एक फ़िल्म "अनहोनी" को चुना था, जिसका रीमेक "महफ़िल" थी।
इस फ़िल्म में उस समय राजकपूर और नरगिस ने काम किया था।
निर्माता इस फ़िल्म की भव्यता में कोई कोर - कसर नहीं छोड़ना चाहता था इसलिए इसकी कहानी सुविख्यात उर्दू -हिन्दी लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास से लिखवाई गई।
फ़िल्म के सशक्त संवाद मशहूर लेखिका इस्मत चुग़ताई से लिखवाए गए।
फ़िल्म में कई नृत्य थे, लिहाज़ा नृत्य निर्देशक गोपी किशन को टीम में शामिल किया गया।
मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों को शंकर जयकिशन से स्वरबद्ध करवाया गया। उस समय तक जयकिशन का निधन हो चुका था किन्तु शंकर अपने जोड़ीदार मित्र को श्रद्धांजलि देने के लिए अकेले हो जाने पर भी उनका नाम अपने नाम के साथ जोड़े हुए थे। फ़िल्म में एक अहम केंद्रीय भूमिका के लिए अशोक कुमार को भी साइन किया गया था।
तात्पर्य ये, कि फ़िल्म की कामयाबी की संभावना का कोई कोण बाक़ी नहीं छोड़ा गया था। अब तो सारा दारोमदार क़िस्मत पर था।
के ए अब्बास कई सार्थक फ़िल्मों की पटकथा और निर्माण का काम देख चुके थे। उन फ़िल्मों की सफ़लता व्यावसायिक रूप से चाहे जैसी भी हो, उनकी अर्थवत्ता जगजाहिर रही थी। यही कारण था कि इस बार कहानी का दारोमदार उन पर छोड़ा गया था।
साधना की ज़बरदस्त सफ़ल फ़िल्मों को भी कुछ लकीर के फ़कीर मानसिकता के लोगों ने ख़ूबसूरती और ग्लैमर का जलवा कह कर उनकी अनदेखी की थी। इसी बात का जवाब था फ़िल्म महफ़िल का कथानक।
इसमें बाकायदा एक ज्वलंत समस्या का निर्वाह था, उसकी मीमांसा थी और थी उसके निराकरण पर लोगों की मानसिकता बनाने की कोशिश। अब्बास का नाम था। जब विचारधारा संकीर्ण गुटबाज़ी में तब्दील हो जाती है तो कुछ लोगों की "न्यूसेंस वैल्यू" भी हो जाती है। पर निर्देशक और निर्माता कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। साधना भी एक मूक दर्शक की तरह सारे खेल का आनंद ले रही थीं। शायद अंदर ही अंदर उन्हें ये अहसास भी हो गया था कि ये फ़िल्म जगत में उनकी अंतिम फ़िल्म होगी और इसे संभवतः फिल्मी दुनिया से उनकी विदाई की तरह ही देखा जाएगा।
काश ऐसा हो पाता।
मीना कुमारी अपनी आखिरी फ़िल्म "पाकीज़ा" से इसी तरह जुड़ी थीं और वो अंततः उनका विदा गीत ही साबित हुई थी।
महफ़िल में एक बार फिर साधना के लिए दोहरी भूमिका लिखी गई।
फ़िल्म जगत में शायद ही कोई ऐसी फ़िल्म आई हो जिसमें डबल रोल करते कलाकार के लिए दोनों अच्छे या दोनों बुरे रोल लिखे गए हों। हमेशा ये एक अच्छा चरित्र और दूसरा बुरा चरित्र ही दिखाया गया। और अंत में दोनों का रक्त संबंध निकल आना भी ये संदेश देता रहा कि वस्तुतः दोहरी भूमिका और कुछ नहीं, बल्कि एक ही इंसान की स्प्लिट पर्सनैलिटी का खेल है जो "जैसा मिला हवा पानी, वैसी ही बिरवे की कहानी" की सत्यता को दर्शाता है।
जब फ़िल्म की कलाकारी से अब्बास और इस्मत चुग़ताई जैसे लोग जुड़े तो मानो इस सच्चाई पर प्रामाणिकता की मोहर लग गई।
लेकिन फ़िल्म के सितारे (ज़मीनी नहीं, आसमानी सितारे यानी नक्षत्र) शायद शुरू से ही गर्दिश में रहे।
कभी ज्वैलथीफ की सफ़लता के बाद अशोक कुमार की तारीखों का चक्कर, कभी जयकिशन की मृत्यु के बाद शंकर की डांवाडोल स्थिति, कभी अनिल धवन और साधना की संभावित केमिस्ट्री पर फाइनेंसरों की संदिग्धता, तो कभी राजकपूर के शुभचिंतकों का उनकी फ़िल्म के रीमेक पर संदेह, कुछ न कुछ फ़िल्म को हिचकोले खिलाता रहा।
फ़िल्म के पूरा होने तक राम और श्याम, सीता और गीता जैसी फ़िल्मों का रिलीज़ हो जाना तो अपनी जगह था ही, पटकथा "लीकेज" का मामला भी सामने आया।
निर्माता को विश्वस्त सूत्रों के हवाले से पता चला कि उनकी "रत्ना" का रोल समानांतर रूप से शर्मिला टैगोर पर भी फिल्माया जा रहा है, जो उन दिनों संजीव कुमार के साथ कमलेश्वर की कहानी "आगामी अतीत" पर बन रही गुलज़ार की मौसम में काम कर रही थीं।
शर्मिला टैगोर और साधना की जुगल बंदी दर्शक फ़िल्म वक़्त के ज़माने में देख चुके थे। इसलिए ये साधना के शुभचिंतकों के लिए कोई बड़ी चिंता की बात नहीं थी कि साधना और शर्मिला टैगोर एक सी भूमिका अभिनीत कर रही हैं, किन्तु ये चिंता की बात ज़रूर थी कि लगभग इन्हीं दिनों आराधना, अमरप्रेम जैसी फ़िल्मों के अा जाने के बाद नक्शा नज़ारा कुछ बदल गया था। इन्हीं दिनों की बात है, साधना और शर्मिला टैगोर का एक फिल्मी समारोह में साथ- साथ शिरक़त करना हुआ।
साधना की इसी दौर में दिल दौलत दुनिया फ़िल्म राजेश खन्ना के साथ रिलीज़ हुई थी, जबकि शर्मिला की अमर प्रेम। लेकिन शायद दर्शक एक को उगता सूरज और दूसरी को डूबता सूरज की तरह देखने लगे थे।
समारोह के ख़त्म होते ही साधना ने देखा कि युवाओं की सारी भीड़ शर्मिला टैगोर के ऑटोग्राफ लेने के लिए टूट पड़ी, जबकि साधना से मुखातिब होने वाले गिने- चुने ही थे।
साधना ने ये नज़ारा अपनी आंखों से खुद देखा। उन्हें वक़्त फ़िल्म का वो आलम उस वक़्त ज़रूर याद आया होगा जब उनके दिन थे, और उनके साथ नई तारिका की तरह केवल एक गीत में लोगों ने शर्मिला को देखा था।
यद्यपि ये कोई नई बात नहीं थी। खुद साधना ने भी अपनी फ़िल्म अबाना के समय शीला रमानी को इसी हाल में देखा था।
साधना की सहायक ने काले चश्मे के पीछे से उनके आंसुओं को भांप कर उन्हें दिलासा भी दिया था कि उन्होंने आज आंखों में दवा नहीं डाली है, इसलिए आंखों से पानी आ रहा है।
साधना थायरॉइड के इलाज के बाद अमेरिका से वापस लौटी थीं। इस बीच उनका रोग तो खत्म हो गया था पर उन्हें आंखों की एक बीमारी " यू वाइटिस" हो गई थी।
इस रोग के चलते उनकी आंखें सामान्य से ज़्यादा बड़े आकार में फ़ैल गई थीं, पर उनमें दूसरी जटिलता शामिल हो गई थी।
दो रोगों के एक साथ चलने के कारण स्थिति इतनी जटिल हो गई थी कि एक बार कुछ समय के लिए साधना की आंखों के आगे पूरी तरह अंधेरा ही छा गया। उनकी एक आंख की रोशनी चली गई।
और जिन आंखों को कभी ये दुआएं मिली थीं कि छलके तेरी आंखों से शराब और ज़्यादा...वो नर्गिसी आंखें उजाले के लिए ही तरस गई।
उनके कई चाहने वाले कहते हैं कि साधना की फ़िल्म "महफ़िल" यदि सही समय पर साठ के दशक में ही रिलीज़ हुई होती तो ये उनके जीवन की सर्वश्रेष्ठ भूमिका होती और किसी भी पुरस्कार समिति के लिए इसमें उनके अभिनय की अनदेखी करना
असम्भव ही होता। हो सकता था कि रत्ना की इस भूमिका को ताउम्र उसी तरह याद किया जाता जैसे मदर इंडिया की नरगिस, मुगले आज़म की मधुबाला या पाकीज़ा की मीना कुमारी को याद किया जाता है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि साधना के अंतिम दिनों में उनकी केवल एक ही आंख में रोशनी शेष रही, दूसरी आंख पूरी तरह ख़राब हो चुकी थी।
...इस दिल में अभी और भी ज़ख्मों की जगह है !

जिस समय "महफ़िल" रिलीज़ हुई, ये वो समय था जब लोग कह रहे थे कि राजेश खन्ना का ज़माना गया, अब तो सुपरस्टार अमिताभ बच्चन है।
जिस समय महफ़िल बननी शुरू हुई, वो समय था जब आराधना, दो रास्ते, दुश्मन जैसी फ़िल्मों के साथ राजेश खन्ना को फ़िल्म जगत का नया सुपरस्टार बताया जा रहा था।
इस रोज़ रंग बदलती दुनिया में हिचकोले खाती हुई कोई फ़िल्म अगर अपनी शुरुआत के एक दशक बाद सिनेमा घरों में पहुंचे तो उसका जो हाल होगा, वही महफ़िल का हुआ।
सिनेमा हॉल खाली रहे, समीक्षक चुप रहे, फ़िल्म पत्रिकाएं कुछ कहने से बचती दिखीं, ख़्वाजा अहमद अब्बास और इस्मत चुग़ताई के मुरीद कहते पाए गए कि ये अदब के लोग हैं, सिनेमा के नहीं!
और साधना के चाहने वाले मन ही मन उन काल्पनिक दुश्मनों को कोसते दिखे जो कभी खुल कर सामने तो नहीं आए, पर उन्होंने साधना के किसी फूल को सफ़लता के देव पर चढ़ने नहीं दिया।
उनका पंद्रह वर्ष पुराना कैरियर वापस लौट जाने के लिए अपना सामान समेटने लगा, लेकिन उन्हें फ़िल्म जगत ने कभी किसी सम्मान- पुरस्कार से नहीं नवाज़ कर दिया।
उनकी बहन बबीता की शादी भी तमाम प्रतिरोध - गतिरोध के बावजूद रणधीर कपूर से हो गई। वो राजकपूर की बहू बन गई।
ये बात और है कि साधना को शादी में आमंत्रित किया गया या नहीं।
राजकपूर का वो बहुत बड़े दिलवाला परिवार था। उसमें बहू बबीता ने अपने दादाश्वसुर पृथ्वीराज कपूर और श्वसुर राजकपूर के साथ तो काम किया ही, अपने चाचा श्वसुर शम्मी कपूर और शशि कपूर के साथ भी फ़िल्में की। उन्होंने पति रणधीर कपूर के साथ भी अपनी फिल्मी जोड़ी जमाई।
और फिर इस बड़े दिल वाले परिवार की बहू बन कर फ़िल्मों में काम करना छोड़ दिया।
क्योंकि इस महान परिवार में बेटियां और बहुएं फ़िल्मों में काम नहीं करती थीं!
इसके बाद साधना ने इस परिवार में किसी के साथ काम नहीं किया। अराउंड द वर्ल्ड में उनका काम राजश्री ने किया, मेरा नाम जोकर में उनकी जगह सिमी ग्रेवाल रहीं, राजकपूर की महत्वाकांक्षी फ़िल्म "बॉबी" में ऋषि कपूर की मां की भूमिका के लिए खुद साधना ने इनकार कर दिया और उसके बाद उनकी हर फ़िल्म की कहानी एक सी रही...शुरू हुईं तो पूरी नहीं हुईं, पूरी हुईं तो रिलीज़ नहीं हुईं, रिलीज़ हुईं तो देखने वाले नहीं मिले।
उनके दौर के फ़िल्म पुरस्कारों की कहानी भी उनकी ख़ुद की कहानी की तरह रही। जिस साल उनकी कोई व्यावसायिक फ़िल्म हिट होती, उस साल सारे पुरस्कार कला फ़िल्मों को मिलते। और जिस साल उनकी किसी फ़िल्म की कलात्मकता की प्रशंसा दर्शक और समीक्षक करते, उस साल सारे पुरस्कार व्यावसायिक फ़िल्मों को चले जाते।
अगर किसी पत्रिका ने उन्हें बड़ा बताया तो उस पत्रिका को छोटा बता दिया गया।
जब वो सादगी से बिमल रॉय, ऋषिकेश मुखर्जी के साथ काम करतीं तो मीना कुमारी, वैजयंती माला, सायरा बानो की खूबसूरती की मिसाल दी जाती, जब वो अपनी खूबसूरती का जलवा बिखेर कर देश भर की फैशन आइकन बन गई तो लोग सादगी को अदा बता कर नूतन और वहीदा रहमान का गुणगान करने लगे।
सीधे - सीधे एक वाक्य में यही कहा जा सकता है कि साधना "चाल" की शिकार एक प्रतिभाशाली महान अभिनेत्री थी। अब चाहे ये चाल नक्षत्रों की हो, या क्षत्रपों की!
उन्नीस सौ अठहत्तर में अपनी फ़िल्म "महफ़िल" की इस बेरौनक रिलीज़ के बाद साधना ने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया और अपनी प्रतिभा तथा ख़ूबसूरती के इस दुनियावी मेले का पर्दा हमेशा के लिए गिरा दिया।
आर के नय्यर फ़िल्म निर्माण या निर्देशन कर ज़रूर रहे थे पर उनका भी काम कोई बहुत संतोषजनक ढंग से चल नहीं रहा था। वे निर्देशक बनने से पहले कुछ लोगों के सहायक निर्देशक भी रहे थे। अब साधना के पूरी तरह काम छोड़ देने के बाद वे अपने ढेर सारे मित्रों के बीच अपना रास्ता बनाने का प्रयास कर रहे थे।
साधना ने ज़िन्दगी के इस मोड़ पर फ़िल्मों में अपनी सफल पारी का महोत्सव मनाने के बाद अब कुछ आराम करने की बात सोची।
एक संकल्प तो ये लिया कि अब फ़िल्म में काम नहीं करेंगी, और अन्य समकालीन अभिनेत्रियों की तरह सहायक भूमिकाएं निभाने का तो सवाल ही नहीं उठता।
उस समय नूतन, आशा पारेख, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर, नंदा, तनुजा, माला सिन्हा फ़िल्मों में मां, भाभी या बहन के छोटे किरदारों में दिखाई दे रही थीं। लेकिन शायद इन सबके भी अलग - अलग अपने कारण थे।
आशा पारेख,नंदा, वहीदा रहमान की शादी नहीं हुई थी और वो किसी पारिवारिक दायित्व से मुक्त थीं। इसलिए उनके लिए फ़िल्में अच्छा टाइम पास था।
माला सिन्हा अपनी बेटी प्रतिभा को, शर्मिला टैगोर अपने बच्चों सैफ़ और सोहा को, नूतन अपने बेटे मोहनीश को और तनुजा अपनी बेटी काजोल को फ़िल्मों में लाना चाहती थीं, इसलिए उनके आने और स्थापित हो जाने तक कैमरे के सामने अपना बाज़ार बनाए रखना चाहती थीं।
साधना की एक अन्य समकालीन तारिका सायरा बानो ने दिलीप कुमार से शादी की थी और सायरा बानो के "साहब" उनके लिए फुलटाइम जॉब थे।
साधना की स्थिति इन सब से अलग थी। आर के नय्यर के निर्देशक होने के नाते वो फिल्मी दुनिया के पार्श्व में अपनी भूमिका निभा रही थीं और कोई दायित्व न होने के कारण उससे प्रत्यक्ष रूप से जुड़े भी नहीं रहना चाहती थीं।
कुछ समय आराम से गुजरा और फ़िर उन्नीस सौ तिरासी में कुदरत ने उन्हें स्त्री जीवन की सबसे बड़ी भूमिका सौंपी। वो मां बनने की राह पर आगे बढ़ीं। जीवन एक बार फिर नए एहसासों की हरीतिमा में चहचहाने लगा।
लेकिन यहां भी नक्षत्रों ने चाल चल दी।
पैदा हुआ पुत्र उन्हें एक झलक दिखा कर तुरंत सामने से हटा लिया गया, क्योंकि वह मृत ही जन्मा था।
बॉलीवुड की वो प्रख्यात फ़िल्मतारिका जिसे फ़िल्म वर्ल्ड की ग्रेटा गार्बो कहा जाता था, अपनी आंखों को तीन बार झपका कर हैरानी से देखती हुई ये भी नहीं समझ पाई कि ये किसी फ़िल्म की शूटिंग है या कुदरत का उसके साथ खेला हुआ कोई छल!
और डॉक्टरों से ये सुन कर तो वो जैसे फ़िर किसी धुंध के बादल में मिस्ट्री गर्ल की तरह अकेली चली गई कि थायरॉइड के फ़िर न उखड़ आने के खौफ से उसे दी गई दवाएं अब उसे कभी मां नहीं बनने देंगी।
उसने इस आस को भी अलविदा कहने का मन बना लिया।
पति पत्नी ने एक बार इस सारे झमेले को भुलाने की गरज से कहीं घूमने जाने का प्लान बनाया और वो दोनों दुनिया भर में घूमने निकल गए। घूमना -फिरना -खाना और संसार भर की फैली रौनकें देखना, यही दिनचर्या लेकर दोनों ने जम कर सैर सपाटा किया।
जब व्यस्तताएं होती हैं तो कुछ पता नहीं चलता, कि वक़्त कैसे गुज़र जाता है। लेकिन जब इंसान कुछ फुरसत में हो, तो हर बात का सियाह - सफ़ेद दिखाई देने लगता है।
नय्यर साहब का काम भी कुछ ख़ास नहीं चल रहा था और साधना तो ये तय करके ही बैठी थीं कि बस, बहुत हुआ, अब काम नहीं करना है।
लेकिन कभी इतनी बड़ी फिल्मी हस्ती रहीं साधना आसपास वालों की नज़र में तो रहती ही थीं कि अब मैडम कहां हैं, क्या कर रही हैं। उनके इंटरव्यू भी फ़िल्म मैग्जीन्स में जब तब आते ही रहते थे।
एक मुंह लगी पत्रकार ने एक साक्षात्कार में साधना से पूछ ही लिया - हमें पता चला है कि आपका भी कभी - कभी अपने पतिदेव से झगड़ा हो जाता है, तो आप बताएंगी कि झगड़े का कारण क्या रहता है?
यानी ये नहीं पूछा जा रहा था, कि क्या आपका अपने पति से झगड़ा होता है या नहीं। सीधे ये पूछा जा रहा था कि झगड़ा किस बात पर होता है?
अब साधना जैसी इंटेलीजेंट एक्ट्रेस ये तो कर नहीं सकती थी कि पूछा कुछ जाए, और बताया कुछ जाए। साधना ने भोलेपन से यही बताना शुरू किया कि झगड़ा किस बात पर होता है।
बोलीं- अरे बाबा, हमारी तो शादी ही तूफ़ान लेकर आई है। पहले मेरे माता -पिता नहीं माने, उन्हें मनाया, और अब इन्हें लगता है कि मैं बहुत डॉमिनेटिंग हूं, इन पर हुकुम चलाती हूं।
- आपको क्या लगता है? क्या आप वाकई हुकुम चलाती हैं? महिला ने पूछा।
- पहले तो हुकुम चलाना इन्हीं ने मुझे सिखाया। मुश्किल से सीखी। और अब सीख गई तो कहते हैं कि मैं हुकुम चलाती हूं। कह कर साधना ज़ोर से हंसीं, और बताने लगीं कि जब मैं अपनी फ़िल्म "गीता मेरा नाम" कर रही थी, तो इनका ही प्रस्ताव था कि फ़िल्म को डायरेक्ट तुम करो, मैं असिस्टेंट डायरेक्टर रहूंगा। अब असिस्टेंट पर तो हुकुम चलाना ही पड़ेगा न। कह कर साधना फ़िर खिलखिला पड़ीं।
लेकिन तुरंत ही संजीदा होकर कहने लगीं - सच बताऊं, ये ज़रूरत से ज़्यादा सोशल हैं, जब घर आयेंगे तो साथ में ढेर सारे दोस्तों को लेकर आ जाएंगे। अब बताओ, ये कोई बात हुई? पहले से प्लान बनाए बिना कोई घर में इस तरह आ जाए तो मुश्किल तो होगी न?
- अच्छा, तो आपको मेहमान नवाज़ी करनी पड़ जाती होगी। एक बात बताइए कि क्या आपको कुकिंग का शौक़ है या नहीं? पत्रकार ने पूछा।
- बहुत, इनके खाने- पीने का मैंने हमेशा बहुत ख़्याल रखा है, महीने में बीस तरह की तो दाल बना कर परोस दी इन्हें! साधना गर्व से बोलीं।
- अच्छा, नय्यर साहब भी आपका इतना ही ध्यान रखते हैं? सवाल किया पत्रकार ने।
- केवल तब, जब चैक पर साइन लेने आते हैं। कह कर साधना फ़िर हंस पड़ीं।
- चलिए,पैसे आपके कब्ज़े में रहते हैं, इसका मतलब ध्यान रखना ही हुआ न ! महिला ने कहा।
साधना फ़िर गंभीर होकर धीरे से बोलीं- पहले मैं इस बात से बहुत चिढ़ती थी कि ये शख़्स हमेशा दोस्तों से घिरा रहता है, इसे बीवी की प्राइवेसी का ज़रा ख़्याल नहीं है, आख़िर मेरा भी मन है, मूड है, वैसे ही दस झमेले लगे रहते थे।
- तब, आपने कुछ कहा नहीं इनसे?
- कहा न, कहती ही थी, मेरे भी मिलने जुलने वाले आते हैं, मेरा भी सर्कल है...
- जी बिल्कुल, फ़िर कोई रास्ता निकाला उन्होंने। आपके पतिदेव ने?
- हां, अब हम एक दूसरे को पर्याप्त स्पेस देते हैं, अपने रूटीन में भी, और लिट्रली घर में भी। हमने अपना सांताक्रुज वाला बंगला रिटेन कर लिया है । अब मैं कार्टर रोड वाले फ्लैट और इस बंगले के बीच शंटिंग कर लेती हूं। साधना ने बताया।
साधना सांताक्रुज के जिस "संगीता" बंगले में रहती थीं, वो दरअसल आशा भोंसले का बंगला था जो उन्होंने किराए पर नय्यर परिवार को दिया हुआ था।
अपनी शादी के बाद वो कार्टर रोड पर अपने आलीशान फ्लैट में रहने आई थीं।
ऐसे ही एक इंटरव्यू में एक पत्रकार ने उनसे पूछा - ज़िन्दगी के कई बेहतरीन साल कैमरे के सामने स्पॉटलाइटों में बिताने के बाद क्या आपका मन नहीं करता कि अब फ़िर से आप फ़िल्मों का रुख करें। जबकि कई अभिनेत्रियों ने विराम लेने के बाद अपनी शानदार वापसी की है और प्रशंसा पाई है।
- नहीं, मैंने हमेशा से यही चाहा है कि फ़िल्मों से उसी समय संन्यास लूं जब मेरी मांग बनी हुई हो। साधना ने जवाब दिया।
लेकिन युवा पत्रकार शायद इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। उसने कहा- ये ज़रूरी तो नहीं कि जीवन में युवावस्था ही सब कुछ हो, कई बार बड़ी उम्र के लोग ऐसे काम कर जाते हैं जिन्हें पर्दे पर उतारना गर्व की बात हो। कई बार मां का रोल इतना दमदार होता है कि संतान के लिए वही नायिका बन जाती है। आपने देखा होगा कि हाल में आशा पारेख ने "मैं तुलसी तेरे आंगन की" में जो रोल किया है, वो उनकी अब तक की सभी भूमिकाओं में सबसे दमदार माना जा रहा है।
शायद इस सवाल ने साधना की किसी दुखती रग को छू दिया। वो दो पल के लिए खामोश हुईं और फ़िर बोलीं- हां, यदि अपनी डिग्निटी को बनाए रख कर लिखी गई कोई विशेष भूमिका मुझे मिले तो मैं भी सोच सकती हूं कि कैमरा फेस करूं।
इन्हीं दिनों कभी साधना के सबसे सफल जोड़ीदार रहे राजेन्द्र कुमार फ़िल्म निर्माता बन गए थे। उनकी अपने बेटे को लेकर बनाई गई फ़िल्म "लव स्टोरी" बेहद कामयाब रही थी, और वो फिर किसी दमदार पटकथा की तलाश में थे। वे चाहते थे कि कहानी में खुद उनके लिए भी कोई चुनौती पूर्ण भूमिका हो ताकि वो बेटे के साथ फ़िर काम करने का अवसर पाएं।
इन्हीं दिनों राजेन्द्र कुमार को एक कहानी मिली, जो पहली नज़र में ही उनके दिल को छू गई।
कहानी एक ऐसे युवक की थी, जो अपनी मां के मरने के बाद पिता के साथ रहता है। पिता अपने अकेलेपन से त्रस्त होकर एक सुबह जॉगिंग के लिए पार्क में आई प्रौढ़ महिला से दोस्ती कर बैठता है जो बाद में प्यार में बदलने लगती है।
लड़का अपनी मां को याद करते हुए ऐसा नहीं चाहता कि कोई उसके पिता के दिल में उसकी मां की जगह लेने की कोशिश करे। वह पिता से कुछ कह कर उनका दिल भी नहीं दुखाना चाहता। ऐसे में वो अपनी प्रेमिका के साथ मिल कर एक प्लान बनाता है कि वो अपने पिता को उस प्रौढ़ महिला से दूर रखने के लिए उस महिला से प्यार का नाटक करेगा और उसे व्यस्त रख कर अपने पिता से मिलने का मौक़ा ही नहीं देगा।
इस कोशिश में वो महिला के साथ ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त बिताता है और उसके पिता और उसकी प्रेमिका अलग- अलग उन दोनों को देखकर जलते रहते हैं। लड़के की प्रेमिका एक डांस टीचर है अतः वो हर मौक़े पर अपने को डांस में व्यस्त रख कर अपनी जलन मिटाती है। लड़के का पिता मायूस होकर घर बैठ जाता है और महिला का ख्याल दिल से निकाल देता है।
राजेन्द्र कुमार ने इस कहानी को पसंद करके इस पर पटकथा लिखवाने का आदेश दे दिया। कहानी का शीर्षक था "निस्बत"।

राजेन्द्र कुमार ने "निस्बत" की जो कहानी पसंद की थी, उसकी सबसे विशेष बात ये थी कि इसमें उस महिला का पात्र, जिससे पहले राजेन्द्र कुमार प्यार करते हैं, और बाद में उनका बेटा कुमार गौरव, साधना के लिए ही ख़ासतौर पर लिखा गया था। राजेन्द्र कुमार को वो इंटरव्यू भी दिखा दिया गया था जिसमें साधना ने अपने लायक कोई भूमिका होने पर फ़िल्मों में वापसी की बात कही थी। कुमार गौरव की प्रेमिका के रूप में वो माधुरी दीक्षित को लेना चाहते थे, जिन्हें अपनी फ़िल्म "फूल" के दौरान ही वो साइन कर चुके थे।
लेकिन इस फ़िल्म से साधना के सितारे जुड़ते, इससे पहले ही इस फिल्म की कहानी का हश्र वही हो गया जो बीमारी के बाद से उनकी लगभग हर फ़िल्म का हुआ। राजेन्द्र कुमार स्वयं भी बीमार हो गए। पटकथा उनके बांद्रा स्थित ऑफिस में किन्हीं फाइलों के बीच दबी रह गई।
इससे पहले कि साधना के फिल्मी कैरियर का पूरी तरह से पटाक्षेप होने की राम कहानी खत्म हो, पाठकों को एक वाकया और जान लेना चाहिए।
सन उन्नीस सौ उन्हत्तर में इंतकाम और एक फूल दो माली के कामयाब होने के बाद के दिनों में एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म निर्माता ने राजकुमार, साधना और वहीदा रहमान को एक साथ साइन कर लिया था। फ़िल्म का नाम था "उल्फत"।
राजकुमार ने साधना के साथ महा कामयाब फ़िल्म वक़्त की थी और वहीदा रहमान ने उसी समय नीलकमल में राजकुमार के साथ काम किया था। निर्माता को लगा कि दशक के बीतते - बीतते इस त्रिकोण का एक साथ आना एक बड़ा शाहकार सिद्ध होगा।
1970 में फ़िल्म की रिलीज़ डेट्स घोषित कर के तमाम पोस्टर्स तक लगा दिए गए थे। फ़िल्म का संगीत भी बिकना शुरू हो गया था। अख़बारों में खबर थी कि संगीत के रिकॉर्ड्स धड़ाधड़ बिक रहे हैं।
लेकिन तभी न जाने क्या हुआ कि फ़िल्म के पूरी होने से पहले ही बंद हो जाने की खबरें छपी। योग- संयोग इतने नहीं हो सकते, कभी - कभी लगता है कि कोई कॉकस ज़रूर काम कर रहा था। जिस तरह मल्टी नेशनल कंपनियां कोई प्रॉडक्ट लॉन्च करने से पहले बाज़ार के मौजूदा उत्पाद को झूठे सच्चे विज्ञापन से आउट करने की कोशिश करती हैं, शायद इसी तरह कलाकारों की नई खेप के आने के पहले कुछ खुराफ़ाती तत्वों द्वारा कोई गुल खिलाए जा रहे थे।
बहरहाल, फ़िल्म बंद होते ही राजकुमार ने इस फ़िल्म को निर्माताओं से ख़रीद लिया ताकि इसे पूरा करके रिलीज़ किया जा सके।
साधना और आशा पारेख अपने कैरियर में लगभग शुरू से ही साथ रहीं और दोनों में गहरी मित्रता भी थी, किन्तु एक काम आशा पारेख ने ऐसा किया, जिस पर साधना ने कभी ध्यान नहीं दिया। आशा पारेख खुद फ़िल्म वितरण के क्षेत्र में भी आ गई थीं और इस तरह उनकी आय उनके मेहनताने के अलावा भी होती रही।
इस बात की परवाह करने की साधना को कभी ज़रूरत भी नहीं रही। एक तो लगातार हिट होती फ़िल्मों के कारण शानदार पारिश्रमिक और फ़िर पति का फ़िल्म डायरेक्टर होना। कभी ऐसी ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि पैसे को लेकर हिसाब किताब देखा जाए।
राजकुमार ने फ़िल्म "उल्फत" खरीद तो ली, किन्तु उसे पूरा करने के लिए लंबे समय तक संसाधन नहीं जुटा पाए।
राजकुमार भी उन्हीं महत्वाकांक्षी कलाकारों में थे जो भविष्य में अपनी संतान को अपनी जगह देने की आकांक्षा रखते थे, और अपने बेटे पुरू को फ़िल्मों में लाना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म निर्माण व वितरण की गतिविधियों से जुड़े रहने की उनकी दिली इच्छा तो थी, पर अनुभव और वो व्यवहार कुशलता नहीं थी जो एक फ़िल्म निर्माता के लिए जरूरी होती है।
कहा जाता है कि फ़िल्म निर्माण भी एक तराजू में ज़िंदा मेंढ़कों को तौलने जैसा ही काम है जिसमें जब तक आप एक को संभालें तब तक दूसरा फुदक जाता है। बहुत धैर्य और कौशल चाहिए।
साधना के पति आर के नय्यर जब कभी उनकी तबीयत ज़रा ढीली होती तो साधना से कहते थे कि अगर मुझे कुछ हो गया, तो तुम अकेली कैसे रहोगी? तुमने तो ज़िन्दगी में मेरे अलावा और किसी पर कभी ध्यान ही नहीं दिया।
ये बहुत गहरी बात थी और ये साधना को अपने पति की ओर से मिला सबसे बड़ा कॉम्प्लीमेंट था।
इसके उत्तर में साधना उनसे कहती थीं कि मैं आपसे पहले चली जाऊंगी।
इस पर राम कृष्ण नय्यर, जिन्हें प्यार से साधना रम्मी कहती थीं, कहते- अगर ऐसा हुआ तो दो अर्थियां घर से एक साथ उठेंगी। मैं तुम्हारे बिना नहीं जियूंगा !
उनकी ये नोक - झोंक न जाने किस बात का पूर्व संकेत थी।
उल्फत फ़िल्म के मुहूर्त के पूरे पच्चीस साल बीत जाने के बाद एक दिन राजकुमार का फोन आया कि वो उल्फत को पूरा करके रिलीज़ करना चाहते हैं और उन्होंने वहीदा रहमान से शूटिंग की तारीखें भी ले ली हैं, अब साधना जी भी शूटिंग के लिए समय निकालें और बचे हुए काम को पूरा करें।
साधना हैरान रह गईं। उन्हें लगा - ये किन दिनों की बात है, तुम कौन हो, मैं कौन हूं, जाना कहां है हमसफ़र!
लेकिन उन्होंने फ़ौरन संभल कर राजकुमार से इतना कहा- मेरे दस लाख रुपए का भुगतान बाक़ी है, पहले वो भिजवा दीजिए, फ़िर देखते हैं।
ये वही राजकुमार और वही साधना थे, जिन्होंने कभी "वक़्त" फ़िल्म में एक दूसरे को देखकर गाया था- कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी, दिल के सोये हुए तारों में खनक जाग उठी!
लेकिन उस बात को पूरे तीस साल बीत चुके थे।
उसी फ़िल्म में दोनों ने ये भी तो सुना था कि आगे भी जाने ना तू, पीछे भी जाने ना तू, जो भी है बस यही एक पल है!
राजकुमार का जवाब आया कि वो फ़िल्म को साधना की "डुप्लिकेट" लेकर पूरा करेंगे!
फ़िल्म का नाम बदल कर अब "उल्फत की नई मंजिलें" हो गया।
साधना ने बीस दिन दे दिए।
लेकिन राजकुमार तो ठहरे राजकुमार! उन्हें नखरे करना तो ख़ूब आता था, पर नखरे उठाना उन्होंने कभी सीखा नहीं था।
पूरे बीस दिन तक कश्मीर में डायरेक्टर के साथ साधना और वहीदा रहमान शूटिंग करती रहीं, और जब वापस लौटने के लिए होटल में अपना सामान पैक कर रही थीं तब राजकुमार साहब वहां पहुंचे।
लेकिन उन्हें यही सुनने को मिला- जानी, अगर तुम राजकुमार हो, तो हम भी साधना और वहीदा रहमान हैं!
अगली फ्लाइट से दोनों मुंबई लौट आईं। राजकुमार वहां निर्देशक के साथ डुप्लीकेटों की मदद से पैच वर्क कराते रहे और शायद मन ही मन गुनगुनाते रहे- इतने युगों तक इतने दुखों को कोई सह न सकेगा!
आख़िर उन्नीस सौ चौरानबे में ये फ़िल्म केवल दो प्रिंट्स के सहारे इने- गिने सिनेमा घरों में किसी तरह प्रदर्शित की गई जहां इसे इन नामों के सहारे पहुंच कर गिने चुने दर्शकों ने ही देखा।
जिस साधना को कभी देश भर की पब्लिक ने देख कर ये कहा कि वो कौन थी? उसी को देखकर दर्शकों ने कहा- ये कौन है? राजकुमार के संवाद जो कभी दर्शकों को गुदगुदाया करते थे, अब केवल उनका उपहास करने के काम आए।
संपादन का हाल ये था कि एक ही गीत में कलाकार कभी युवा तो कभी बूढ़े दिखते। आधा संवाद स्टार बोलते तो आधा उनके डुप्लीकेट।
तात्पर्य ये कि फ़िल्म अपने समय के तीन महान कलाकारों के जलवों का खंडहर बन कर रह गई।
इसके अगले ही साल साधना ने अपने जीवन का सबसे बड़ा आघात झेला, जब उनके पति आर के नय्यर दिवंगत हो गए।
साधना विधवा हो गईं।
नय्यर साहब के समय के कर्ज चुकाना मुश्किल हो गया। लोग अब ये चाहते थे कि उनका बकाया पैसा लौटाया जाए।
साधना ने उनके ऑफिस को बंद करने का निर्णय लिया। भीगी आंखों से उनके स्टाफ को अलविदा कहा। अपने कार्टर रोड वाले फ्लैट को भी निकालना पड़ा।
सदी बीतते- बीतते अकेली साधना का सफर एक बार फिर उसी मुकाम पर आ खड़ा हुआ जहां से वो शुरू हुआ।
नई सदी में वो एक इतिहास की तरह दाख़िल हुईं। एक सुनहरा इतिहास!
उनके इर्द- गिर्द इन तमाम सालों में जो कुछ एहसास, अनुभव और अंजाम की शक्ल में इकट्ठा हुआ था, उसी को असबाब की तरह समेट कर फ़िल्म जगत की ये "ग्रेटा गार्बो" अपने अकेलेपन की वीरान दुनिया में चली आई।
साधना अब सांताक्रुज वाले दो मंजिले बंगले "संगीता" में नीचे की मंज़िल पर रहती थीं। ये बंगला मूल रूप से आशा भोंसले के पति का बंगला था। किन्तु बाद में आशा भोंसले का अपने पति से तलाक हो गया था इसलिए उनका आना जाना यहां नहीं होता था। आशा जी अपने पेडर रोड स्थित आवास में रहती थीं। यहीं उनकी बड़ी बहन लता मंगेशकर का आवास भी था।
साधना के पति क्योंकि खाने- पीने के बहुत शौक़ीन थे और उनके रहते साधना देशी- विदेशी हर तरह के खाने की अभ्यस्त थीं, इसलिए साधना के मित्रों की मंडली कभी - कभी यहां जमती थी। साधना के मित्रों में नंदा, वहीदा रहमान, आशा पारेख, हेलेन आदि अपने समय की नामचीन अभिनेत्रियां शामिल थीं।
साधना फ़िल्में देखने की शौक़ीन ज़रूर थीं पर वो कभी अपनी खुद की फ़िल्में नहीं देखती थीं। उनके पास बेहतरीन देशी - विदेशी फ़िल्मों का संग्रह मौजूद था, जो उनके अकेलेपन का भी साथी था, और उनकी मित्र महफिलों का भी।
साधना को कभी कुत्ते पालने का शौक़ हुआ करता था, और अपना मनपसंद कुत्ता अब भी वो अपने साथ में रखती थीं।
उन्होंने अपने निजी स्टाफ को अब छुट्टी दे दी थी किन्तु उनकी एक सहायक अब भी उनके साथ हमेशा रहती थी।
कहा जाता है कि इसी सहायक की पुत्री को साधना ने अपनी पुत्री मान लिया था और इसका सारा खर्च वही उठाती थीं। उसकी पढ़ाई, शादी आदि की तमाम व्यवस्था साधना ने ही करवाई थी।
हालांकि अपनी इस दत्तक पुत्री को गोद लेने की कोई कानूनी औपचारिकता उन्होंने पूरी नहीं की थी।
यही युवती जब कभी साधना के साथ उनके कक्षों की सफ़ाई के दौरान फाइलों में दबी पड़ी उन फ़िल्मों की पटकथाओं को देखती जिन पर फ़िल्में कभी बन ही नहीं पाईं तो उनमें खो जाती थी। साधना के कहने पर भी उसने उन्हें फेंका नहीं था। वो उन्हें साफ़ करके जस का तस रख देती थी।
इन फिल्मों में गुरुदत्त के साथ "पिकनिक", राजेश खन्ना के साथ "प्रायश्चित", राजकुमार और विश्वजीत के साथ "तेरी आरज़ू", राजेन्द्र कुमार के साथ "इंतजार" और दिलीप कुमार के साथ "पुरस्कार" शामिल थीं।
फिल्मी चमक- दमक से दूर अकेली रहतीं साधना का इंटरव्यू लेने टी वी या अख़बार वाले अब भी, जब - तब पहुंचते रहते थे। वे बातचीत करतीं, हर बात का जवाब देती थीं और तब फ़िल्म पत्र- पत्रिकाएं एक बार फ़िर उनकी चर्चा छेड़ देते थे।
सबसे बड़ी चर्चा इस बात को लेकर होती थी कि साधना को कभी भी फ़िल्मफेयर का बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड नहीं दिया गया।
आश्चर्य की बात ये थी कि कई बार देखने वालों ने उनके साथ हुए इस अन्याय को साफ़ भांप लिया, जब बेहद मामूली या नामालूम सी भूमिकाओं के लिए साधारण अभिनेत्रियों को भी ये दे दिए गए।
लेकिन इंटरनेशनल इंडियन फिल्म अकेडमी ( आई आई एफ ए) द्वारा दिया जाने वाला लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड सन दो हज़ार दो में साधना को दिया गया। उनके साथ ये पुरस्कार यश चोपड़ा को भी मिला जो कभी वक़्त फ़िल्म में उनके निर्देशक रहे थे।
उदास मन से साधना ये पुरस्कार ले तो आईं पर इसकी खबर वो अपने पति नय्यर साहब को कभी नहीं दे पाईं जो सात साल पहले ही इस दुनिया से कूच कर गए थे। नय्यर साहब ये आस अपने मन में ही लिए हुए चले गए कि ज़िन्दगी ने उनकी झोली में एक नायाब हीरा डाला था, मगर फिल्मी दुनिया ने उसकी क़दर उनके जीते जी नहीं जानी।
साधना को ताश खेलने का भी बहुत शौक़ था और अब अकेले रह जाने के बाद सप्ताह में तीन चार दिन दोपहर के समय मित्रों के साथ ताश खेलना उनका शगल बन गया, जिसमें उनका साथ उन्हीं की तरह अकेलेपन से गुज़र रही अभिनेत्रियां आशा पारेख, नंदा, वहीदा रहमान और हेलेन दिया करती थीं।
वैसे देखा जाए तो आशा पारेख ने अपने अकेलेपन के बावजूद अपने को कहीं अधिक फिट और व्यस्त रखा था, वो फ़िल्मों का वितरण संभालने के साथ सामाजिक कार्यक्रमों में भी बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लेती रही थीं और बीच में एक टर्म के लिए फ़िल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष भी बनीं।
साधना और आशा पारेख की व्यावसायिक प्रतिद्वंदिता भी जग जाहिर थी। इन दोनों की फ़िल्मों के नाम तक क्लैश करते थे। साधना की मेरे मेहबूब तो आशा की मेरे सनम, साधना की मेरा साया तो आशा की मेरा गांव मेरा देश, साधना की आप आए बहार आई तो आशा की आए दिन बाहर के, साधना की लव इन शिमला तो आशा की लव इन टोक्यो आदि इसके उदाहरण हैं।
कहते हैं कि इंसान कभी - कभी एक और एक ग्यारह भी बन जाता है तो कभी एक बटा एक बराबर एक भी! रिश्ता ऐसा ही तो होता है।

ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं। ये किसी से कहती है :
"बिगड़ी बात बने नहीं, लाख करो तिन कोय"
तो किसी से कहती है :
"कोशिश करने वालों की हार नहीं होती!"
साधना से उनके अनुभव ने क्या कहा, आइए सुनते हैं।
- "हम आपस में बात नहीं करते। वो उसके रास्ते और मैं मेरे। न वो मुझे बुलाती है और न मैं उसे। फ़िर क्यों जाएंगे! आना- जाना तो दूर की बात है, हम रास्ते में अगर एक दूसरे को मिल जाएं तो भी पहचानते नहीं हैं।"
ये बात साधना ने एक महिला पत्रकार से उस समय कही जब उसने साधना से बबीता के बारे में सवाल किया।
- आप और बबीता जी बहनें हैं, आप दोनों ही कामयाब एक्ट्रेसेज़ हैं। बहुत सारे एक्टर्स भी ऐसे हैं जिनके साथ आप दोनों ने ही काम किया है, फ़िर क्या आप दोनों को किसी प्रोड्यूसर ने साथ में साइन करने की पेशकश नहीं की?
- मुझे नहीं लगता कि हम कभी साथ में काम कर पाएंगे।
- क्यों?
- क्योंकि साथ में काम करने के लिए एक - दूसरे की रेस्पेक्ट होनी चाहिए, एक दूसरे के प्रति समझ होनी चाहिए। कम से कम मन में ये भाव तो होना ही चाहिए कि इससे हमारा अपना व्यक्तित्व उजागर होगा। उसमें ये समझ नहीं है। वो मुझे दुश्मन समझती है।
- लेकिन ऐसा क्यों? इसका कोई कारण।
साधना ने कहा - ये सब छापिएगा मत, इससे लोगों को क्या लेना - देना? पर असल में बात ये है कि उसे एक ग़लतफहमी हो गई है। और वो मुझसे दुश्मनी पाल कर बैठ गई है।
- लेकिन क्या अापने ग़लतफहमी को कभी दूर करने की कोशिश नहीं की? किस बात पर है ये गलतफहमी?
- जाने दीजिए, अब गढ़े मुर्दे उखाड़ने से फायदा भी क्या? साधना ने मानो बात का पर्दा गिराना चाहा।
लेकिन पत्रकार की बेचैनी देखकर उन्हें लगा कि शायद अब उस पत्रकार की दिलचस्पी सिर्फ़ यही जानने में है कि बबीता और साधना में अनबन किस बात को लेकर हुई।
साधना ने उसे सब कुछ बता डाला, कि किस तरह राजकपूर चाहते थे कि वो या तो फ़िल्मों में काम करने का ख़्याल छोड़ दे,या उनके पुत्र रणधीर कपूर से शादी करने का।
- लेकिन इसमें आपकी क्या गलती? आपसे नाराज़गी क्यों हुई। पत्रकार ने कहा।
- मैंने एक बार बस उसे समझाने की कोशिश की थी कि सोच समझ कर आगे बढ़, राजकपूर नहीं मानेंगे। और वो नाराज़ होकर बैठ गई, उसे लगा कि मैं राजकपूर की ग़लत बात का पक्ष ले रही हूं और उसके मन की बात नहीं समझ रही। उसे लगता था कि मैंने भी प्यार किया है और फ़िल्में भी, फ़िर भी मैं उसके दिल की बात नहीं समझ रही, जबकि मैं तो एक बड़ी बहन की तरह उसकी मुश्किलें कम करने की कोशिश ही कर रही थी। नहीं?
- ओह, लेकिन अब उनकी शादी हो जाने के बाद तो उन्हें इन बातों को भूल जाना चाहिए न, वो इसे दिल से क्यों लगा कर बैठी हैं! पत्रकार ने अपनी राय ज़ाहिर की।
साधना ने ज़रा मुस्करा कर कहा- ये उससे कहो जाकर, उसका इंटरव्यू लो, मेरा भी भला हो कुछ!
बात तो खत्म हो गई। इंटरव्यू भी पूरा हो गया किन्तु साधना ये कैसे भूल सकती थीं कि उनकी छोटी बहन ने उन्हें "औलाद के लिए तरस जाने" की बददुआ दे डाली थी, और वो कुदरत ने सच भी करके दिखा दी।
इस बात का अचंभा सभी को होता था कि साधना और बबीता कभी कहीं साथ - साथ क्यों नहीं दिखाई देती हैं।
रणधीर कपूर और बबीता की शादी हो गई थी, और धीरे - धीरे बबीता ने कपूर खानदान की उस परिपाटी का पालन भी किया कि अब फ़िल्मों में काम नहीं करना है। बबीता ने नई फ़िल्में साइन करना बंद कर दिया और जो काम हाथ में था, उसे पूरा करने के बाद फ़िल्मों को अलविदा कह दिया था।
किन्तु अब स्थिति कुछ अजीब थी। रणधीर कपूर की फ़िल्में भी चल नहीं रही थीं, और न ही रणधीर को नई फ़िल्में मिल रही थीं।
ये बैठे- बैठे अपने दिखावटी सिद्धांतों के चलते अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था। इसके कारण घर की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ रहा था। इससे बबीता और रणधीर कपूर में भी अनबन रहने लगी। और एक दिन बबीता रणधीर कपूर का घर छोड़ कर अलग फ्लैट में रहने चली आईं।
इस अलगाव में कहीं भी मनभेद नहीं था, केवल विचारों का मतभेद। लेकिन बच्चियों का आसमान बंट गया।
उनकी बेटियां करिश्मा और करीना तब बहुत छोटी थीं।
कहते हैं कि बार- बार की बहस और नसीहतों से आहत होकर रणधीर कपूर के सामने बबीता अपनी बेटियों को एक दिन फ़िल्म स्टार ही बनाने की चुनौती दे बैठीं । रणधीर ने इसे उनके परिवार के खिलाफ बगावत समझा।
ये कपूर खानदान के सिद्धांतों को खुली चुनौती थी।
लेकिन बबीता की कही बात ने सच में एक दिन राजकपूर के सिद्धांतों की धज्जियां उड़ा कर रख दीं।
वैसे भी बबीता एक अंग्रेज़ मां की बेटी थीं, वो इतनी संकीर्ण मानसिकता की बात सहन नहीं कर सकती थीं।
ये सब अपनी जगह सही था पर इससे साधना के अपने दिल पर पड़ी खरोंच तो मिट नहीं सकती थी। तो ये अबोला उम्र भर चला।
यहां तक कि बबीता के घर के मांगलिक अवसरों पर भी वहां साधना नहीं दिखाई दीं।
बबीता की बेटी की शादी के अवसर पर मौसी साधना को निमंत्रित न किए जाने पर एक पत्रिका ने कटाक्ष करता, चुभता हुआ आलेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था - "आखिर सगी मौसी हूं कोई सौतेली मां नहीं"!
साधना के पति आर के नय्यर के अस्थमा अटैक से हुए निधन के बाद साधना कुछ समय तो बहुत मायूस रहीं और बात- बात पर उन्हें याद करती रहीं।
कभी ज़्यादा विचलित हो जाती थीं तो कहती थीं, मुझसे शादी करते ही उनकी फ़िल्म "ये ज़िन्दगी कितनी हसीन है" फ्लॉप हुई।
मैं उनके लिए लकी नहीं रही। हमारी ज़िन्दगी में कितने उतार- चढ़ाव अाए। बाद में उनकी फिल्में पति परमेश्वर और कत्ल भी नहीं चलीं जबकि दोनों ही अच्छे विषय पर थीं।
उनकी बीमारी भी अकस्मात उनकी मौत ही ले आई। हम तो उन्हें अटैक के बाद हस्पताल भी समय पर नहीं पहुंचा सके। वो रास्ते में ही गुज़र गए।
साथ ही साधना ये भी याद करना नहीं भूलती थीं कि फ़िल्मों से संन्यास लेने के बाद ही हमें चैन मिला। हम कुछ अच्छा समय साथ में बिता पाए।
वो कहती थीं - मैं पंद्रह साल की उम्र से काम कर रही थी। कभी छुट्टी नहीं ली। पच्चीस साल की उम्र में ही शादी हो गई।
मेरे पति खाने के बेहद शौक़ीन थे। मैंने यूरोपियन और चाइनीज़ डिशेज उन्हीं के लिए सीखी। पर वो कहते थे घर का खाना सबसे अच्छा।
वो मेरी तारीफ़ करते हुए कहते थे कि घर में इतने कुक़्स अाए और गए, पर मैंने कभी परोसे जाने वाले खाने की क्वालिटी गिरने नहीं दी।
हम घर पर गर्मी - सर्दी - बरसात के मौसम के हिसाब से खाने की तैयारी करते थे। बीसियों तरह की तो मैं उनके लिए दालें बनाती थी।
जिन साधना के लिए कभी राजा मेहंदी अली खान ने लिखा था, "गोरे- गोरे चांद से मुख पर काली - काली आंखें हैं, देख के जिनको नींद उड़ जाए, वो मतवाली आंखें हैं", वही नर्गिसी आंखें 'यू वाइटिस' होने के बाद अपनी चमक इस तरह खो बैठी थीं कि उनकी एक आँख की रोशनी तो बिल्कुल चली गई।
साधना खुद गाड़ी ड्राइव करती थीं। एक आंख खराब होने के बाद कुछ दिन तो उन्हें गाड़ी चलाने में कठिनाई हुई पर जल्दी ही वो फ़िर फ़र्राटा ड्राइविंग करने लगीं। उन्हें मैराथन ड्राइविंग में मज़ा आता था।
साधना कहती थीं लालच का तो कोई अंत नहीं है, अब मुझे मर्सिडीज़ नहीं चाहिए, मैं अपनी छोटी गाड़ी आई ट्वेंटी में खुश हूं।
उनकी सहायक फ्लॉरी अब सहायक,संरक्षक,साथी और दोस्त की तरह हमेशा उनके साथ रहने लगी थी।
उनकी गोद ली हुई लड़की रिया उन्हें नानी कहती थी, क्योंकि उसकी मां भी साधना के पास ही शुरू से काम करती रही। उसकी पढ़ाई, शादी आदि का सारा खर्च साधना ने ही उठाया था। उनका तो अब मानो यही परिवार बन गया था।
साधना का मन लगाने का एक साधन उनका पालतू मिट्ठू भी था।
उनके डॉगी का नाम बोबो था।
वे बतातीं, अकेलापन अब उन्हें बिल्कुल नहीं सालता था क्योंकि उनकी सहेलियां वहीदा रहमान, आशा पारेख, नंदा, हेलेन, शम्मी और शकीला हमेशा उनके सुख - दुःख में उनके साथ थीं।
ये सब मुंबई के ओटर्स क्लब में साथ में ताश भी खेलती थीं। इनके आपसी मिलने- जुलने के कार्यक्रम भी बनते रहते। कभी किसी के यहां लंच है, तो कहीं जन्मदिन की पार्टी है।
साधना अब फ़ोटो खिंचवाना बिल्कुल पसंद नहीं करती थीं क्योंकि उनका मानना था कि उनकी छवि अपने चाहने वालों के मन में वही रहे जो उनकी शोहरत के दिनों में थी।
सन दो हजार बारह के फ़िल्मफेयर ने जब फ़िल्म इतिहास के 50 सबसे खूबसूरत चेहरों की सूची ज़ाहिर की तो साधना उसमें थीं ही, ये उनके चाहने वालों के लिए कोई अचंभे की बात नहीं थी। यश चोपड़ा तो उन्हें फिल्म जगत की सर्वकालिक दस खूबसूरत हीरोइनों में गिनते थे।
लेकिन ये सब पढ़- सुन कर नई पीढ़ी के लोग जब उन्हें कार्यक्रमों में निमंत्रित करते, तो वो टाल जाती थीं। वो सार्वजनिक कार्यक्रमों में आना- जाना पसंद नहीं करती थीं।
एक बार एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि आप लोगों के यहां गमी या मौत के समय भी नहीं पहुंचती हैं, ऐसा कहा जाता है।
साधना इस सवाल पर एकाएक गंभीर हो गईं। फ़िर धीरे से बोलीं- मुझे फ्यूनरल (अंतिम संस्कार) बहुत भयभीत करते हैं, मैं डर जाती हूं। वैसे मैं बाद में अलग से जाकर संतप्त परिवार से ज़रूर मिलती हूं। राजेश खन्ना की मृत्यु के बाद मैं डिंपल से मिल कर आई। यश चोपड़ा की डेथ पर भी मैं पामेला जी से एक दिन बाद ही जाकर मिली।
कुछ समय पहले देवानंद ने अपनी बहुत पुरानी फ़िल्म "हम दोनों" के पचास साल बीत जाने के बाद उसका रंगीन प्रिंट जारी होने का भव्य समारोह रखा। इस फ़िल्म में देवानंद की दोहरी भूमिका थी, और उनके साथ साधना और नंदा हीरोइनें थीं।
फ़िल्म बेहद कामयाब हुई थी।
किन्तु इस पार्टी का निमंत्रण साधना और नंदा को नहीं दिया गया था। वे इसमें नहीं पहुंचीं।
समारोह के दौरान बहुत से लोग उन दोनों के बारे में पूछते हुए उन्हें ढूंढ़ते रहे। किसी को पता नहीं था कि वो क्यों नहीं आईं।
इस बात का खुलासा तब जाकर हुआ जब निमंत्रित करने के बावजूद वहीदा रहमान उस पार्टी में नहीं आईं। पूछने पर उन्होंने साफ कहा कि जब मेरी उन फ्रेंड्स साधना और नंदा तक को नहीं बुलाया गया है, जिन्होंने इस फ़िल्म में काम किया है, तो मैं आकर क्या करूं?
वैसे ये समारोह बहुत शानदार रहा और इसमें पर्दे पर साधना को देखकर नई पीढ़ी के कई नायक दंग रह गए।
आमिर खान तो इतने प्रभावित हुए कि इसके बाद उन्होंने साधना की कई फ़िल्में डी वी डी में देखीं। उनकी कई भूमिकाओं को आमिर खान ने अद्भुत, आश्चर्यजनक बताया।
रणबीर कपूर ने भी फ़िल्म को बहुत पसंद किया। उसके बाद वो साधना के मुरीद हो गए और एक बार तो साधना को बहुत अनुनय- विनय करके रैंप पर भी ले आए।
आधी सदी गुज़र जाने के बाद भी मानो सिने दर्शक साधना से कहते रहे - "अभी न जाओ छोड़ कर, कि दिल अभी भरा नहीं "!
ये दिल शायद कभी नहीं भरा, क्योंकि आसमान का ये तारा अपने चमकने की घड़ी में ही अपने पुरनूर जलवे समेट कर अस्त हो चला था।
उम्र के इस दौर में साधना पूरी तरह संतुष्ट थीं। वो कहती थीं कि मुझे सब कुछ मिला- दौलत, शौहरत, इज्ज़त। ढेरों महंगे कपड़े, ज्वैलरी, क्या करती इनका?
मेहनत में कभी कोई कमी नहीं की। वो दिन भी देखे, जब "मेरे मेहबूब" के प्रोड्यूसर रवैल अपनी अगली फ़िल्म संघर्ष में मुझे लेने की बात कह कर फ़िर दिलीप कुमार के कहने पर मुकर गए और वैजयंती माला को ले लिया तो भी मैं मन ही मन गर्व से खुश ही हुई थी। जानते हैं क्यों?
क्योंकि एक समर्थ और विश्वसनीय निर्माता ने मुझे कहा था कि दिलीप कुमार तुम्हारे साथ स्क्रीन शेयर करने में घबराते हैं। उन्हें ऐसा कुछ नहीं चाहिए कि लोग किसी दृश्य में उन्हें छोड़ कर किसी और को देखें!
इस बात को सुनकर मैं इतनी अभिभूत हुई थी कि जब मैंने एच एस रवैल को संघर्ष फ़िल्म का साइनिंग अमाउंट लौटाया तो वो नज़रें झुकाए हुए थे, मैं नहीं। वो मुझसे नज़र मिला नहीं पा रहे थे।
यही हाल तब हुआ था जब मैंने पांच दिन शूटिंग करने के बाद पंछी को "अराउंड द वर्ल्ड" का साइनिंग अमाउंट लौटाया। राजकपूर उन पर नाराज़ हुए थे, मुझसे कुछ नहीं कह सके।
ये सब साधना की ज़िंदगी के अदृश्य प्रमाण पत्र थे जिन्हें कोई जानकर ही समझ सकता था। ये फ़िल्मफेयर की बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड ट्रॉफ़ी से कहीं बड़े सनद दस्तावेज़ थे।
और बाद में जब आर के नय्यर "इंस्पेक्टर डाकू और वो" की शूटिंग करने के लिए जंगलों में भटक रहे थे, साधना तब भी उनके साथ किसी युवा सहायक की तरह कंधे से कंधा मिला कर खड़ी थीं। कोई उन्हें देखकर ये कह नहीं सकता था कि ये भारतीय फ़िल्म जगत की वो अभिनेत्री है जिसने पिछले दशक की अपनी उन्नीस फ़िल्मों में से ग्यारह सुपर हिट फ़िल्में दीं। और बीमारी का इलाज करा कर विदेश से लौटने के बाद तीन कामयाब फ़िल्में देने के साथ साथ बाइस नई फ़िल्में साइन कीं।
मानो समूचे फ़िल्म वर्ल्ड को उनका गया वक़्त ये उलाहना दे रहा हो कि "मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं, यूं जा रहे हैं जैसे हमें जानते नहीं"!

लंबी बीमारी के इलाज के बाद अमेरिका के बॉस्टन शहर से साधना जब से लौटीं, तब से उनका थायराइड तो नियंत्रण में आ गया था पर आखों के रोग के बाद दवाओं की अधिकता ने अब बढ़ती उम्र के साथ सेहत का तालमेल बैठा पाना ज़रा मुश्किल कर दिया था।
उनकी नियमित देखभाल करने वाले फ़ैमिली डॉक्टर ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अपना हवा - पानी बदलने के लिए कुछ दिन किसी हिल स्टेशन पर जाकर रहना चाहिए।
साधना को हिल स्टेशनों पर रहने वाली भीड़- भाड़ पसंद नहीं थी। लेकिन कश्मीर उन्हें हमेशा से पसंद रहा था जहां अपनी शूटिंग के सिलसिले में उनका कई बार जाना हुआ था।
उनके पति को अस्थमा की तकलीफ़ के चलते वो पहाड़ों पर जाने से बचते थे।
हां, कश्मीर का लद्दाख लेह वाला हिस्सा ऐसा था जहां शांत पहाड़ों के बीच रहने का अपना एक अलग आनंद था।
साधना ने डॉक्टर की सलाह पर कुछ दिन वहां जाकर रहने का मन बनाया।
वैसे भी श्रीनगर की वादियों में तो अब जाकर रहना भावनात्मक रूप से बहुत ही मुश्किल था। वहां उन्होंने झील के मंज़र और किरणों की जो बरसातें देखी थीं उनकी इनायतें और उनके करम किस तरह भुलाए जा सकते थे। और अब तो बेदर्दी बालमा का साथ भी नहीं था।
साधना कुछ दिनों के लिए अज्ञातवास में लेह चली आईं।
यहां अपने होटल से निकल कर सुबह ख़ाली सड़क पर टहलते हुए चारों ओर बर्फ़ से ढके पहाड़ों के बीच उगते सूरज की मंद उनाई का लुत्फ़ सहज ही उठाया जा सकता था।
वे रोज़ सुबह इस सैर का अपरिमित आनंद लेती हुई घंटों बिताती थीं। तबीयत भी मानो इन वादियों में आते ही आप ही संवरने लगी।
एक दिन रोज़ की तरह साधना सफ़ेद फ़र का कोट पहने चली जा रही थीं कि एक मिलिट्री रंग की लंबी सी कार धीरे से आकर उनके करीब ही रुकी।
उसमें से तीन - चार युवक उतर कर उनकी ओर बढ़े।
एक पल को साधना ज़रा ठिठकी और फ़िर ठहर गईं।
जवानों ने आकर उन्हें ज़ोरदार सैल्यूट मारा और बताया कि उन्होंने उन्हें पहचान लिया है।
वे सभी सेना के बड़े अफ़सर थे और उन्हें पता चल गया था कि वो कौन थी।
अगले ही दिन छावनी एरिया में शाम को साधना का एक भव्य सम्मान समारोह और डिनर आयोजित किया गया। इस समारोह में पहले तो बड़े अफ़सरों द्वारा उन्हें उनके वज़न के बराबर का एक गुलदस्ता भेंट किया गया, फ़िर सैनिकों ने खुद साधना के मुंह से उनके अनुभव सुने। कई युवाओं ने उनके ऑटोग्राफ लिए।
कुछ सैनिकों ने उनकी फ़िल्मों के गाने भी सुनाए। और बाद में सामूहिक डिनर हुआ।
वर्षों पहले आकाशवाणी द्वारा एक विशेष कार्यक्रम "जयमाला" प्रसारित किया जाता था, जिसमें कोई फिल्मी हीरो या हीरोइन फ़ौजी भाइयों के लिए अपने मनपसंद गाने सुनवाते थे। कार्यक्रम का नाम था मनचाहे गीत!
कई साल पहले एक बार साधना ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत करते हुए सैनिक भाइयों को अपने मनपसंद गीत सुनवाए थे।
एक सैनिक ने उस कार्यक्रम के अपने अनुभवों के संस्मरण सुनाते हुए बताया कि आज वो अपनी मनपसंद हीरोइन को प्रत्यक्ष देख रहे हैं, और आज उनके मनचाहे गीत उन्हें हम सुनाएंगे।
ये कहते हुए उन्होंने सचमुच साधना की फरमाइश पर उनकी फिल्म का गीत "अहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो, ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो" गाकर सुनाया।
खाने के बाद कुछ लोगों ने साधना के साथ फ़ोटो लेने चाहे जिसके लिए साधना ने बहुत विनम्रता और विवशता से मना कर दिया।
बाद में उनकी फ़िल्म "मेरे मेहबूब" का शो भी वहां रखा गया, जिसमें कुछ देर साधना भी वहां रहीं।
अगले दिन स्थानीय अख़बार में ये खबर छप जाने के बाद साधना ने जल्दी ही वापसी का प्रोग्राम भी बना लिया।
ये समाचार देश के कई अन्य पत्र- पत्रिकाओं में भी तरह - तरह से छपा। मुंबई के एक अख़बार ने लिखा कि देश की सीमा पर सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए एक फ़िल्म हीरोइन सैनिकों के बीच बर्फ़ और खराब मौसम के बावजूद हज़ारों फीट की ऊंचाई पर पहुंचीं।
साधना ने इस समारोह के चित्र तो सैनिकों को नहीं लेने दिए फ़िर भी कुछ साल बाद आए एक बहुचर्चित उपन्यास "अकाब" में ये घटना विस्तार से दर्ज़ हो गई क्योंकि उपन्यास के राइटर को उसी होटल के कमरे में ठहरने पर वर्षों बाद एक रूमब्वॉय से इसका पूरा विवरण उपलब्ध हुआ, जो अपनी किशोरावस्था में छावनी में चाय ले जाने का कार्य करते हुए पूरी घटना का चश्मदीद गवाह बना था।
साधना के लिए सेना के लगाव, या सेना के लिए साधना के लगाव का ये वाकया कोई पहला नहीं था।
इससे पहले भी साधना की शादी वाले दिन पुणे के मिलिट्री इंस्टीट्यूट में जवानों द्वारा सामूहिक मदिरापान अख़बारों की सुर्खियां बन कर चर्चा में आया था।
कुछ लोग इन घटनाओं को इस बात से जोड़ कर भी देखते थे कि उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान से युद्ध के समय सेना के लिए धन जुटाने की मुहिम में साधना ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था।
साधना लद्दाख से लौट कर फ़िर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गईं।
साधना सुबह जल्दी उठने की अभ्यस्त नहीं थीं। सुबह साढ़े नौ बजे के बाद उठने के बाद चाय पी कर अख़बारों से फारिग होने के बाद वो तैयार होती थीं फिर कुछ देर टीवी के साथ बिता कर खाना खाती थीं। यदि लंच कहीं बाहर होता तो उससे निबट क्लब में ताश खेलने के लिए जाती थीं।
शाम को जल्दी ही घर लौटना पसंद करती थीं।
ये दिनचर्या कोई बहुत रचनात्मक नहीं थी, किन्तु वो कोई समाज सेविका नहीं, वरन् हिंदी सिनेमा की चोटी से निवृत्त हुई मशहूर फ़िल्म एक्ट्रेस थीं।
कहते हैं कि सुख- दुःख हर एक की ज़िन्दगी में आते हैं।
बस फर्क ये है कि सुख ढूंढने के लिए हम निकलते हैं और दुःख हमें ढूंढ़ते हुए खुद आते हैं।
साधना सांताक्रुज के जिस बंगले में वर्षों से रह रही थीं वो आशा भोंसले के ससुराल पक्ष की मिल्कियत था। आशा भोंसले का अपने पति से तलाक़ हो जाने के बाद उनका वहां आना जाना तो नहीं था पर उनके पूर्व पति की मृत्यु के बाद उसकी सार संभाल उन्हीं के जिम्मे थी।
साधना इस बंगले के ग्राउंड फ्लोर पर रहती थीं और ऊपर के तल पर दूसरे लोग रहते थे।
कभी- कभी ये विवाद सुनने में आता था कि बंगले के अन्य लोग बंगले के गार्डन पर केवल साधना के हक़ को लेकर आपत्ति जताते थे।
साधना का कहना था कि जब उन्होंने ये बंगला किराए से लिया था तब उसके एग्रीमेंट में ये साफ़ लिखवाया गया था कि बंगले का ये गार्डन या लॉन केवल साधना के परिवार के लिए रहेगा। एक आभिजात्य फिल्मी परिवार होने के चलते उनकी प्राइवेसी के लिए ये निहायत जरूरी भी था।
किन्तु उनके पति की मृत्यु के बाद उनके अकेले रह जाने पर अन्य कुछ लोगों के मन में ये लालच आ गया कि इस बग़ीचे पर भी अपना कुछ हक़ जमाया जाए।
जबकि साधना की दृष्टि से अकेली महिला के लिए ये और भी जरूरी हो गया था कि उनकी प्राइवेसी और सुरक्षा बनी रहे। लिहाज़ा औरों का आना- जाना उनके लिए निरापद नहीं था।
उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी, और ऊपर रहने वाली एक महिला इस बात के लिए जब तब विवाद उठाने लगी।
उस महिला का परिवार, खासकर उसका दामाद साधना के लिए असुविधा और परेशानी पैदा करने लगा।
धीरे- धीरे ये झगड़ा इतना बढ़ा कि उस परिवार ने तरह- तरह से साधना को तंग करना शुरू कर दिया।
यहां तक कि बात आशा भोंसले तक भी पहुंची ! उनके दखल देने पर साधना ने उनसे कहा कि वो जिन लोगों को अनुमति देकर अधिकृत करें उन्हें तो साधना वहां आने देंगी, पर उसे हर ट्रेस्पासर (आने जाने वाले) के लिए आम रास्ता नहीं बनाया जा सकता।
ऊपर रहने वाले परिवार का दामाद वास्तव में एक प्रॉपर्टी बिल्डर था और उसका इरादा किसी भी तरह बंगला खाली कराने का था।
उसने अब साधना को काफ़ी तंग करना शुरू किया और एक दिन घर आकर धमकी दे डाली, कि वो किसी भी हद तक जा सकता है और उसके रास्ते में आने वाले के वो टुकड़े- टुकड़े करवा देगा।
अकेली महिला, वो भी देश की प्रख्यात अभिनेत्री को मिली ये धमकी अख़बारों की सुर्खियां बन गई।
इस धमकी पर साधना ने उसे डांट कर घर से निकल जाने के लिए कहा और हिम्मत कर के तुरंत पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दी। इस बीच स्थिति और भी विकट हो गई जब आशा भोंसले की ओर से भी ये शिकायत दर्ज़ हो गई कि साधना वहां उनके आने - जाने वालों को आने से रोक रही हैं।
लेकिन मीडिया में बात उछल जाने से कई लोग साधना की मदद को आ गए। यहां तक कि अभिनेता सलमान खान तक ने ट्विटर पर ये मुद्दा उठाया और कहा कि साधना फ़िल्म जगत की लीजेंड हैं और उनकी सहायता की जानी चाहिए।
इसके कुछ ही दिन बाद उस प्रॉपर्टी बिल्डर का वकील आकर साधना से मिला और कहा कि उसके मुवक्किल आपसे माफ़ी मांगने के लिए यहां आना चाहते हैं।
साधना ने इसके लिए अनुमति दी और कहा कि ये मामला पुलिस तक पहुंच चुका है इसलिए वो माफी लिखित रूप में मांगें। ऐसा ही हुआ और देश के करोड़ों लोगों के दिलों पर कभी राज करने वाली उस महान शख्सियत को अपने बग़ीचे का राज वापस मिला।
आशा भोंसले ने वो बंगला बेच दिया।
जो आशा भोंसले कभी फ़िल्म के सुनहरे पर्दे पर साधना की आवाज़ बनती थीं, वो ख़ामोश हो गईं।
लेकिन इसके साथ ही एक बात और उभर कर लोगों के सामने आई कि आज पैसे के पीछे पागल होकर अमानवीय बर्ताव करना और पशुवत तौर - तरीकों का प्रयोग करना हमारी फ़िल्में ही शायद लोगों को सिखाती रही हैं।
एक साक्षात्कार के दौरान साधना से पूछा गया कि अगर आपको फिर से सोलह साल का बना कर खुदाई आपसे ये पूछे कि लो, दोबारा जी लो, तो आप इस जीवन और अपने नए जीवन में क्या बदलाव करना चाहेंगी?
साधना ने बिना एक पल भी गवाए कहा- कुछ नहीं!
उनका कहना था कि मुझे जो कुछ मिला वो इतना भरपूर है कि दूसरे जीवन में मैं और क्या मांगू?
बचपन, अपना सपना, प्यार, पैसा, शौहरत, काम,नाम सब तो मिला। और क्या चाहिए। हां, कभी- कभी सोचती हूं कि क्या अगर मेरे बच्चे होते तो मैं ज़्यादा सुखी होती?
हो भी सकती थी, नहीं भी। अपने कई परिचितों को उनके बच्चों के लिए रोता देखती हूं कि इसने ऐसा किया, उसने वैसा कर दिया, वो ऐसे नहीं करता, वो वैसे नहीं सुनता, तो सोचती हूं कि जो होता है ठीक ही होता है।
दुनिया में ऐसा कुछ नहीं है कि ये हो जाए तो सब ठीक हो जाए। और ऐसा भी कुछ नहीं है कि ये नहीं हुआ तो अब कुछ नहीं हो सकता।
मैं एक परफेक्ट संतुष्ट महिला हूं, जिसने ज़िन्दगी को भरपूर जिया है, साधना कहती हैं।
- अच्छा मैडम, ये बताइए कि आप दुनिया में अपने को किस तरह याद किया जाना चाहेंगी? किस रूप में? ये दिलचस्प सवाल भी एक बार साधना से किया गया था।
साधना ने कहा- जिस रूप में मैं हूं। लोग याद करें कि मैं कैसी थी। मेरी फ़िल्में कैसी थीं। मैंने कैसा काम किया। मेरे व्यक्तित्व की ताज़गी, मेरी मेहनत की लगन, अपना सपना सच करने की मेरी जिजीविषा याद की जाए तो मुझे अच्छा लगेगा। साधना ने उत्तर दिया।
- आप तो खुद एक अभिनेत्री के रूप में करोड़ों लोगों का आदर्श हैं, पर आप बताइए कि आप अपना आदर्श किस अभिनेत्री को मानती हैं? एक बार स्टार एंड स्टाइल की एक पत्रकार ने उनसे पूछा।
साधना बोलीं- मैं जानती हूं कि इस सवाल के जवाब में लोग हॉलीवुड के बड़े - बड़े एक्टर्स के नाम लेते हैं। पर मैं बताऊं, मुझे नूतन बहुत पसंद हैं। मेरा आदर्श वो हैं। मैं चाहती थी कि मैं उन जैसी एक्टिंग करूं।
- क्या कभी आपने ऐसी कोशिश की, कि आपको नूतन के साथ काम करने का मौक़ा मिले?
- ये मेरे हाथ में कहां था। शुरू में बिमल रॉय के साथ काम करते समय तो फ़िर भी ये संभावना थी कि कभी साथ में काम करते। बाद में तो सब कहने लगे कि हमारे रास्ते ही अलग हो गए। फ़िर भी, कभी - कभी मुझे लगता था कि यदि मैं बीमार नहीं हुई होती तो शायद "मैं तुलसी तेरे आंगन की" में नूतन के साथ आशा पारेख की जगह मैं ही होती। साधना ने जैसे कोई रहस्य खोला।
पत्रकार की आंखों में चमक आ गई। उसे साधना के इस कथन में सनसनी फैलाने की अपार संभावनाएं नज़र आईं। उसने साधना के इस कथन को और तीखा बनाने के लिए पूछा- यदि ऐसा होता तब भी क्या आपकी तारीफ़ नूतन से ज़्यादा होती, जैसे आशा पारेख की हुई? उन्हें इस फ़िल्म के लिए बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड भी मिला!
साधना मुस्करा कर रह गईं और बोलीं- क्या होगा, ये ऊपर से लिख कर आता है।
- लोग तो कहते हैं कि यदि आप बीमार नहीं होती तो शायद और अगले दस साल तक हिंदी फ़िल्मों की नंबर एक हीरोइन आप ही रहतीं। पत्रकार ने कहा।
इस सवाल के जवाब में साधना ख़ामोश रह गईं। फ़िर धीरे से इतना ही बोल सकीं- लोगों का काम है कहना!
किसी सोन चिड़िया और बेरहम अकाब की दास्तान ऐसी ही तो होती है। आसमान के ये खूनी परिंदे ज़मीन के भोले निर्दोष पंछियों पर ऐसे ही तो झपटते हैं, कभी लुटेरे बन कर तो कभी रोग बन कर। आजार बाज़ार को खा जाते हैं!

पिछली सदी में खूबसूरत और प्रतिभाशाली अभिनेत्री साधना का सक्रिय कार्यकाल लगभग पंद्रह साल रहा। किन्तु उनके फ़िल्मों से संन्यास के लगभग चालीस वर्ष गुज़र जाने के बाद भी उनकी फ़िल्मों को भुलाया नहीं जा सका।
ये उनका अपना फैसला था कि वो दर्शकों के जेहन में अपनी युवावस्था की वही छवि बरक़रार रखेंगी जब वो फिल्मी दुनिया की चोटी की लोकप्रिय नायिका रहीं।
उन्होंने इस दृष्टि से एक लंबा गुमनाम जीवन बिताया और इस बीच वो सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी उपस्थित नहीं रहीं।
लेकिन ज़िन्दगी में पर्याप्त विश्राम कर लेने के बाद वो अपनी स्मृतियों से ऐसे वाकयात पूरी स्पष्टता और प्रामाणिकता से सुनाती थीं जिससे फ़िल्म जगत ही नहीं बल्कि जगत में भी पुरुष वादी मानसिकता की संकीर्णता उजागर हो जाए।
कहा जाता है कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में बौद्धिक क्षमता कम होती है, और मान्यता ये भी बताई जाती है कि सुन्दर महिलाओं में तो समझदारी का लेवल और भी कम होता है। किन्तु वे अपने फिल्मी जीवन का एक किस्सा सुनाती थीं कि किस तरह पुरुष श्रेष्ठता जताने के जतन करते हैं।
वो बतातीं - एक हीरो की बड़ी अजीब आदत थी। वो साथ में शॉट देते समय हमेशा ये कोशिश करता कि हमें कई टेक देने पड़ें। वह जान बूझ कर दृश्य बिगाड़ता रहता था और रीटेक पर रीटेक करवाता रहता। बाद में मैं जब तक थक कर ऊब जाती और ठीक से अपना सीन नहीं करती, तब वो जनाब सतर्क होकर शॉट देते और इस तरह मन ही मन मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करते।
ऐसे हज़ारों किस्से उनके हज़ारों फैंस दुनिया भर में लिए बैठे थे।
शायद साधना पर मीडिया में आख़िरी तोहफ़ा मार्च दो हजार तेरह में प्रसारित किया गया कार्यक्रम "तलाश" ही था जिसे इंडिया टीवी की टीम ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था।
इसमें उन पर शुरू से आख़िर तक एक बहुरंगी पड़ताल की गई थी।
साधना को सिंधी समाज ने एक बार सम्मानित करके "सिंधी अप्सरा" का खिताब दिया था। उन पर सिंधी भाषा में एक जीवनी भी अशोक मनवानी ने "सुहिणी साधना" शीर्षक से प्रकाशित की थी जिसका तात्पर्य था " ख़ूबसूरत साधना"! एक भव्य समारोह में इस पुस्तक को जारी किया गया।
इसके बाद साधना के एक बेहद संजीदा प्रशंसक सतिंदर पाल सिंह ने साधना के हिंदी फिल्मों को अवदान को लेकर एक किताब अंग्रेज़ी में लिखी जिसका शीर्षक था "साधना - एंचंटिंगली एंचंटिंग एंचंट्रेस ऑफ हिंदी सिनेमा" ( हिंदी सिनेमा को मंत्रमुग्ध करती मंत्रमुग्धकारी मंत्रमुग्धा - साधना)।
इस पुस्तक की प्रति उन्होंने मुंबई में साधना के आवास पर सपरिवार खुद उपस्थित होकर उन्हें भेंट की। इस मौक़े पर साधना ने अपने ही बनाए उस नियम को तोड़ कर उनके परिवार के साथ तस्वीरें खिंचवाई कि वो अब अपना ताज़ा फोटो कभी नहीं खिंचवाएंगी। इस तस्वीर में साधना अपने मनपसंद शफ़्फाक सफेद उस लिबास में आखिरी बार देखी गईं जो उन्होंने "मेरा मन याद करता है" गीत में फ़िल्म आरज़ू में पहना था और जिस परिधान की धवल सफेदी तमाम रंगीनियों पर भारी पड़ी थी।
इंडिया टीवी द्वारा प्रस्तुत "तलाश" कार्यक्रम में साधना के साथ काम कर चुके कई लोगों और उनके अनगिनत प्रशंसकों ने भाग लिया और हिंदी सिनेमा की उस महान अदाकारा के ख़ूबसूरत अतीत की खुशबू को वर्तमान से बांटा।
कहते हैं, इंसान दुनिया में आने के बाद खाता, सोता, घूमता, गाता, कमाता, लुटाता ही तो है फ़िर इस फानी दुनिया में कलेंडरों की अहमियत ही क्या? हम तारीखें क्यों देखें!
लेकिन लोग ये कैसे भूल सकते थे कि फ़िल्म "मेरे मेहबूब" से दुनिया को अपने हुस्न का जलवा दिखाने वाली हुस्ना की छवि ने पूरी आधी सदी पार कर ली थी। 1963 अब 2013 था।
लोगों ने वो लम्हे याद किए।
मनोज कुमार ने कहा- मैंने साधना को पहली बार खार से अंधेरी जाते हुए एक लोकल ट्रेन में खिड़की के सहारे बैठे हुए देखा था, उनके माथे की लटें हवा से उड़ रही थीं। मैंने मन में सोचा, ऐसी बेमिसाल ख़ूबसूरती को तो फ़िल्मों में होना चाहिए...चंद साल बीते कि वो हिंदी सिनेमा के शिखर पर थी।
विश्वजीत ने कहा - उसके चेहरे के क्लोज़-अप शहर भर की चर्चा के विषय बनते थे।
अरुणा ईरानी ने कहा- क्या सूरत थी, लोग तो पागल हो गए।
धीरज कुमार ने बताया- उसे सब चाहते थे, उसका जादू राजेश खन्ना से कम नहीं था।
डांस डायरेक्टर सरोज खान बोलीं- वो ? क्या इंसान थी बाबा! "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में" गाने की शूटिंग के बाद उसने मुझे लटकने वाले बेहद ख़ूबसूरत झुमके तोहफ़े में दिए।
अभिनेत्री सीमा देव ने कहा- कितना प्यारा चेहरा था, किसने नज़र लगा दी जो ऐसे मुखड़े पर थायरॉइड ने हमला कर दिया, ओह, बाद में वो लड़की कैमरे से डरने लगी!
पंडरी जुकर (साधना की मेकअप आर्टिस्ट) भी बोलीं- उन्हें मेकअप की ज़रूरत कहां थी? वो तो वैसे ही दमकती थीं।
निर्माता निर्देशक मोहन कुमार ने कहा- उन्होंने पति की मृत्यु के बाद अवसाद को साहस से झेला, अब अकेली हैं !
ये एक फ़िल्म का दृश्य था :
लड़की: आपके कमरे में औरत जात की तस्वीर नहीं?
पुरुष : औरत धोखे और छल की गठरी होती है!
लड़की : आपने सीता मैया, सती अनुसूया, सावित्री का नाम नहीं सुना?
पुरुष : ये सब पिछले युग की औरतें हैं, आजकल नहीं होती।
लड़की : पर बाबूजी, पिछले युग के मर्द भी अब कहां दिखते हैं? न राम, न लक्ष्मण, न अर्जुन, न भीम !
पुरुष: .....!
ये दृश्य शम्मी कपूर और साधना पर फिल्माया गया था।
कई संवाद लेखक बताते हैं कि साधना कई बार ऐसे दृश्य लेखक को खुद सुझाती थीं ( पाठक अपनी जिज्ञासाओं का समाधान कर सकते हैं कि दिलीप कुमार ने उनके साथ कोई फ़िल्म क्यों नहीं की? राजकपूर ने केवल एक फ़िल्म के बाद उनसे दूरी क्यों बनाली? देवानंद अपनी फ़िल्म को रंगीन बनाने के प्रीमियर में उन्हें बुलाना क्यों भूल गए? राजकुमार के साथ उनकी फ़िल्म दो दशक में जाकर क्यों पूरी हो सकी)
उनकी आख़िरी फ़िल्म महफ़िल का एक दृश्य!
वो जिस कोठे पर नाचती है उसी पर एक रात उसके पिता (अशोक कुमार) चले आए।
लड़की: मैंने अपने जन्म की भीख तो नहीं मांगी थी, फ़िर ये जहन्नुम मुझे क्यों दे दिया?
पिता: बेटी मुझे माफ़ कर दे...ले ..ले ये रुपया सब तेरा है, जितना चाहे ले ले!
लड़की : ये ? ये तो यहां हर रात मेरी ठोकर पर बरसता है हुज़ूर! ये क्या मेरा उजड़ा बचपन लौटा सकता है? ... जाइए जाइए... शर्म नहीं आती बेटी से सौदा करते?
और फ़िर आया 2014
साधना की फ़िल्म "वो कौन थी" के पचास बरस पूरे हुए।
मई 2014 में मुंबई में आयोजित एक कार्यक्रम में "कैंसर और एड्स पीड़ितों" की सहायता के लिए तिहत्तर वर्षीय साधना एक बार फ़िर रैंप पर आने के लिए तैयार हो गईं। सुनहरी गुलाबी साड़ी में सजी साधना तीन दशक का एकांतवास छोड़ कर अभिनेता रणबीर कपूर के साथ दर्शकों से मुखातिब होने मंच पर चली आईं।
तालियां बजाते, किलकारियां भरते उन्मादी दर्शकों के बीच गर्दन को ज़रा खम देकर जो उन्होंने महीन पल्ला गिराया तो पार्श्व से बज उठा- लग जा गले कि फ़िर ये हसीं रात हो न हो !
शहर के इस भव्य फ़ैशन शो के दर्शक पुकार उठे- कि दिल अभी भरा नहीं!
और फ़िर आया 2015
यानी फ़िल्म "आरज़ू" और "वक़्त" का पचासवां स्वर्ण जयंती साल!
अख़बार, पत्रिकाएं और टी वी चैनल अब साधना की खबरें छाप रहे थे। उत्सव धर्मी लोग जश्नों की संभावनाएं खोज रहे थे।
लेकिन मिस्ट्री गर्ल की फितरत कुछ और कह रही थी।
कैलेण्डर क्या केवल सुखों के होते हैं? दुखों के नहीं होते?
यही तो वो साल था जब पचास साल पहले वर्षांत तक साधना की शादी की सुगबुगाहट शुरू हुई। यही वो साल था जब आधी सदी पहले साधना के शरीर पर थायरॉइड की हल्की दस्तक शुरू हुई।
उस सब को याद करते, उसकी आशंका की चिंता करते हुए साधना की तबीयत गिरने लगी। वर्षों से अकेलापन झेलती साधना ज़बरदस्त तनाव में आ गईं।
डॉक्टरों ने बताया कि आंखों की बीमारी और थायरॉइड ने मिल कर उनके मुंह के एक हिस्से पर भी असर डाला है और यदि जल्दी ही ऑपरेशन नहीं हुआ तो मुंह में कैंसर विकसित हो जाने के भी संकेत हैं।
ऐसे समय जब इस खबर पर घर के सारे सदस्य चारों ओर खड़े हो जाते हैं और देश दुनिया से रिश्तेदार देखने आने लग जाते हैं, साधना अकेली थीं। उन्हें लगता साथ में कोई है तो बस, मेरा साया।
कहने को शहर में एक बहन थी। समर्थ, सक्षम और समृद्ध!
लेकिन वो न जाने किस बात का इंतकाम ले रही थी? देखने तक न आई।
जब अपना ही वक़्त साथ न दे तो कोई क्या करे! जग की सच्चाई यही तो है। दिल दौलत दुनिया सब साथ छोड़ जाते हैं।
खबर छपी कि साधना के मुंह का एक ऑपरेशन किया गया है किन्तु वो पूरी तरह ठीक नहीं हैं। इधर स्वास्थ्य और उधर मकान को लेकर कोर्ट कचहरी के चक्कर और झमेले।
कुछ महीने इसी तरह निकले, कभी घर में तो कभी हस्पताल में।
और एक दिन लोगों ने ये भी सुना और पढ़ा कि उनकी तबीयत ज़्यादा बिगड़ी है और उन्हें मुंबई के रहेजा हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है।
उनका घर वीरान पड़ा था। वहां लोग आते ज़रूर थे, किन्तु उन्हें सहारा देने नहीं, बल्कि खबर जानने ताकि वो दुनिया को बता सकें कि वक़्त है फूलों की सेज, वक़्त है कांटों का ताज।
बड़े लोगों की बातें बड़ी।
बड़ा दिन ! 25 दिसंबर 2015 को सुबह लोगों ने ये खबर सुनी कि साधना इस दुनिया में नहीं रहीं। सुबह सात बजे हस्पताल में उनका निधन हो गया।
खबर सुन कर जहां मीडिया के तमाम फोटोग्राफर्स और रिपोर्टर्स ने उनके घर का रुख किया, वहीं कुछ गिनी चुनी फ़िल्म हस्तियों ने भी उनके घर का रुख किया।
जो भी गाड़ी आकर वहां रुकती छायाकार ये जानने और चित्र लेने पहुंचते कि कौन आया।
युवा पीढ़ी के लोग तो अब ये जानते भी नहीं थे कि साधना की फ़िल्मों में अपने ज़माने में हैसियत क्या थी।
जब तबस्सुम वहां पहुंचीं तो उन्होंने भरे गले और भीगी आंखों से लोगों को याद दिलाया कि वो कौन थी।
अपने ज़माने में तबस्सुम ने एक बार अपने कार्यक्रम "फूल खिले हैं गुलशन गुलशन" में साधना पर बहुत अच्छी जानकारी भी लोगों को दी थी।
साधना की मौत की खबर पर वहां पहुंचने वालों में रजा मुराद, अन्नू कपूर, पूनम (श्रीमती शत्रुघ्न सिन्हा) तबस्सुम ,वहीदा रहमान, हेलेन, दीप्ति नवल आदि थे।
साधना की एक मित्र ने प्रेस के लिए एक छोटी सी ब्रीफिंग की कि साधना को कैंसर नहीं था, कृपया ऐसी खबर न छापें। उन्हें तेज़ बुखार के बाद हस्पताल में भर्ती किया गया था। सुबह उन्होंने चाय भी पी और उसके बाद उनका निधन हो गया।
कुछ लोग वहां ये भी कहते देखे गए कि साधना पिछले कुछ समय से बहुत परेशान और अकेली थीं। किन्तु इस बात का खंडन पूनम ने ये कह कर किया कि ऐसा नहीं था वो कुछ दिन पहले काफ़ी खुश देखी गई थीं।
पूनम सिन्हा मूल रूप से एक सिंधी महिला होने के नाते शादी से पहले से ही साधना से अच्छा परिचय रखती रही थीं।
अगले दिन सांताक्रुज मोक्षधाम में साधना का अंतिम संस्कार कर दिया गया, वो संस्कार, जिससे खुद साधना बहुत डरती थीं।
लेकिन इस दुनिया से उस दुनिया की गाड़ी वहीं से तो लेनी होती है, आग की लपटों पर सवार होकर दहकते शरारे उड़ाते हुए!
आसमान में जा बसना तो साधना के लिए सहज ही रहा होगा क्योंकि अपने जीवन के अठारहवें वसंत में ही सितारों सी हैसियत तो वो पा ही चुकी थीं।
फ़िर महायात्रा के इस सफ़र में ये आस भी उन्हें बंधी रही होगी कि उस लोक में शायद उनके प्रेमी पति हमसफ़र रम्मी भी उन्हें कहीं दिख जाएं जिनके लिए उन्होंने छोटी सी उमर में अपने माता पिता को छोड़ा।
उनकी सुनहरी राहों के तमाम हमसफ़र राजेन्द्र कुमार,सुनील दत्त, शम्मी कपूर, देवानंद, राजकपूर भी तो सब उस दुनिया के वाशिंदे ही बन चुके थे। अपने दुनियावी अकेलेपन से वहां निजात क्यों न मिलेगी?
और जिस मौत के रस्मो रिवाज से वो डरा करती थीं, वो भी तो दोबारा किसी को नहीं आती!
जाने में फ़िर कैसा डर ???

- प्रबोध कुमार गोविल

( समाप्त)

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