'पांच-पच्चीस का विचित्र चक्र...' अभी-अभी परलोक चर्चाओं की पच्चीसवीं कड़ी समाप्त हुई है। जब कॉलेज में था, एक विदेशी लेखक के उपन्यास का हिन्दी तर्जुमाँ 'पच्चीसवाँ घण्टा' पढ़ा था। उसकी घंटा-ध्वनि की गूँज आज तक श्रवण-रंध्रों में गूंजती है कभी-कभी.…! पिछली पच्चीसवीं क़िस्त पर आकर ठहर गया हूँ और न जाने क्यों 'पच्चीसवें घंटे' की याद आ गई है, जबकि दोनों में कोई साम्य नहीं है--न कथा का, न परिवेश का और न ताने-बाने का। पच्चीसवीं क़िस्त पर रुककर याद करता हूँ कि पाँच दिन की प्रतीक्षा मुझे भी असह्य होती जा रही थी। दिन व्यतीत होने का नाम नहीं ले रहे थे और इन्हीं दिनों में स्वदेशी में हलचल बढ़ गयी थी और सौ झमेले अचानक सिर आ पड़े थे। चालीस दुकानवाली ने पांच दिन की मुहलत दी थी और पांच ही मेरी जन्म-तिथि थी। पांच की पांच आवृत्तियाँ पच्चीस का गुणन-फल देती हैं, जिसकी ओर मेरी आयु तेजी से बढ़ रही थी। मेरे हाथ की दसों उँगलियों के शीर्ष को मैंने ध्यान से देखा है--उनमें पाँच चक्र हैं, पाँच पद्म। मेरी पितामही कहती थीं--'दशों चक्र राजा, दशों पद्म योगी।' पाँच चक्र, पाँच पद्म ने मेरे व्यक्तित्व को ऐसा विभक्त किया कि मैं न राजा हुआ, न योगी। मेरा मन तो इसे मान नहीं रहा था, लेकिन मस्तिष्क सोचने लगा था कि इस पांच के अंक का मेरे जीवन में चक्कर क्या है?
दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस के साप्ताहिक पत्र 'प्रजानीति' के प्रधान संपादक की कुर्सी पर बैठे-बैठे पिताजी को जाने क्या हुआ कि उन्होंने, मिली हुई मुहलत के इन्हीं पांच दिनों में, मुझे एसटीडी फ़ोन करके आदेश दिया कि एक आवेदन-पत्र स्वदेशी के स्वत्वाधिकारी और प्रबंध-निदेशक श्रीराजाराम जयपुरियाजी को लिखूँ और उन्हें व्यक्तिगत रूप से दे आऊँ। आवेदन का मजमून यह होगा कि स्वदेशी की नयी दिल्ली शाखा में स्थानांतरण की मैं प्रार्थना करता हूँ। पिताजी के इस फरमान से मैं चकराया, ऐसा आदेश क्यों? मैं तो कानपुर में खुश था, मस्ती के दिन व्यतीत कर रहा था, आखिर ऐसा क्या हुआ? क्या छोटी बहन की तबीयत बिगड़ गई है या अन्य कोई कारण उपस्थित हुआ है, मैंने व्यग्रता से पिताजी से फ़ोन पर ही पूछा, तो उन्होंने कहा--'यहां सब ठीक है, अभी व्यस्त हूँ, जैसा तुमसे कहा है, बस, वैसा करो।'
मैंने कारण जानने का हठ किया तो पिताजी निर्णायक स्वर में बोले--'तुम्हारे कानपुर-प्रवास के दो वर्ष पूरे होने को आये, तुम्हारी अनुपस्थिति से असुविधा तो होती ही है। अब बहुत हुआ यह प्रवास, तुम्हें दिल्ली वापस आ जाना चाहिए।'
मेरे दिमाग में कई प्रश्न अकुला रहे थे--कहीं पिताजी अपना कोई कष्ट छिपा तो नहीं छिपा रहे हैं, वह जीवन के पैंसठवें पायदान पर थे और घोर परिश्रम उनकी आदत थी। उनका एक सुभाषित मुझे बहुत प्रिय था--'परिश्रम करना मानव-जीवन का आध्यात्मिक नियम है।' और अपने ही कथन का वह अक्षरशः पालन करनेवाले व्यक्ति थे, लेकिन इतना तो मैं भी जानता था कि साठोत्तर जीवन में अत्यधिक परिश्रम संकट का कारण भी बन सकता था।
प्रश्न कई थे और उत्तर नदारद था। जो भी हो, पिताजी की अवज्ञा तो संभव ही नहीं थी। आदेश हुआ था तो आवेदन देना ही था। मैंने आवेदन-पत्र लिखा, लेकिन उसे जयपुरियाजी को व्यक्तिगत रूप से देने का संयोग नहीं बन रहा था। वह मिल-मजदूरों के असंतोष और लगातार धरना-प्रदर्शन के कारण उन दिनों मिल-ऑफिस में कम ही आते थे। मैंने इस्टैब्लिशमेंट इंचार्ज दत्ताजी को कह रखा था कि जयपुरियाजी जब कभी मिल ऑफिस में आएं, वह मुझे जरूर सूचना दें।
पांच दिनों में से दो दिन तो जयपुरियाजी की प्रतीक्षा में ही बीत गए। तीसरे दिन दत्ताजी का फ़ोन लेखा-विभाग में मेरे लिए आया। मैंने रिसीवर कान से लगाकर जैसे ही 'हेलो' कहा, दत्ताजी बोल पड़े--'ओझा, जल्दी नीचे आओ, साहब आये हैं, लेकिन तुरंत चले जाएंगे।'
मैंने आवेदन-पत्र उठाया और शीघ्रता से नीचे पहुंचा। पांच मिनट की प्रतीक्षा के बाद मैं जयपुरियाजी के सामने था। मेरा आवेदन-पत्र ध्यान से देखकर उन्होंने कहा--'अच्छा, तुम ही ए.वी.ओझा हो?… हाँ, फ़ोन आया था।… देखता हूँ, क्या हो सकता है।'
मैं उनके कक्ष से बाहर आया तो आश्चर्यचकित था। 'हाँ, फ़ोन आया था'--इस वाक्य का अर्थ मेरी समझ से परे था। मेरे घोर आदर्शवादी पिताजी मेरे स्थानांतरण के लिए जयपुरियाजी को फ़ोन करेंगे, यह तो असंभव था। फिर यह मामला क्या था? मन में चिंताओं का आलोड़न चाहे जितना रहा हो, अपना आवेदन-पत्र स्वयं जयपुरियाजी के हाथों में देकर और पिताजी की आज्ञा का पालन करके मुझे चैन मिला था।
अब एक ही दिन मेरी झोली में निधि-सा बचा था। मैं चाहता था, पाँचवें दिन की रात शाही मेरे साथ भैरव घाट तक चलें और घाट के पहले जो चाय-पान की दूकानें हैं, वहीं किसी बेंच पर वह मेरी तब तक प्रतीक्षा करें, जब तक मैं लौट न आऊँ। लेकिन इसके लिए मुझे बड़ी भूमिका बांधनी थी और ढेर सारी मिन्नतें करनी थीं। मैं जानता था, वह आसानी से इसके लिए तैयार नहीं होंगे। वह सब जानते-समझते हुए मेरे इस कृत्य के प्रबल विरोधी और कठोर आलोचक थे। सोच रहा था कि शाही मेरे आग्रह पर अगर भड़क गए और यदि उन्होंने साफ़-साफ़ इंकार कर दिया तो मैं क्या करूँगा?
मैं अभिन्न मित्र ईश्वर को भी साथ-संग के लिए मना सकता था, साधिकार उन्हें विवश भी कर सकता था, लेकिन एक तो वह हमारे साथ रहते नहीं थे, दूसरे, अलग किराए के क्वार्टर में, तीन किलोमीटर दूर, एक कॉलोनी में उनका आवास था। वह नियमबद्ध जीवन के अभ्यासी थे, साथ चलने को मान भी गए तो वापसी में उन्हें असुविधा होगी। मन उहापोह में पड़ा था। लिहाज़ा, मैंने शाही को ही पहले मनाने का मन बनाया। उनका और मेरा दिन-रात का साथ-संग था, हम दोनों में गहरी समझ और प्रीति थी, लेकिन उस अक्खड़ आदमी के 'मूड-स्विंग' का ठिकाना नहीं था; जाने कब साथ-साथ आग में कूद पड़ने को सहर्ष तैयार हो जाए और अगर दिमाग फिर गया तो सुन्दर बागीचे में भी साथ जाने को बेलाग-लपेट मना कर दे।
चौथे दिन, दफ्तर से लौटकर हम दोनों साथ बैठकर चाय पी रहे थे, जिसका हमें दीर्घकालिक अभ्यास था। मैंने सकुचाते हुए हठात् शाही से पूछा--'सुनो, तुमने पिछले दिनों बाबूजी को कोई ख़त लिखा था क्या?'
मेरे 'बाबूजी' कहने का अर्थ वह जानते थे--मेरे पिताजी! उन्होंने आश्चर्य-मिश्रित स्वर में कहा--'नहीं तो, क्यों?
मैंने उन्हें पिताजी के फ़ोन, स्थानांतरण के लिए आवेदन और अपने मन की शंकाओं के बारे में विस्तार से बताया। पूरी बात सुनकर उनके माथे पर बल पड़े, वह तत्काल बोल पड़े--"अरे नहीं, मैंने बाबूजी को कोई 'लेटर' नहीं लिखा है भाई! ऐसा मैं कैसे कर सकता हूँ।"
मैंने कहा--'वही तो… मुझे भी विश्वास था, तुमने ख़त नहीं लिखा होगा।'
शाही ने पूछा--"लेकिन तुमने ऐसा सोचा भी कैसे? और, अगर तुम्हारा सच में 'ट्रांसफर' दिल्ली हो गया तो?"
मैंने शीघ्रता से बात सँभाली--'ट्रांसफर की बात तो बाद की है, जब ऐसा होगा, देखा जाएगा, लेकिन मेरे मन में तुम्हारे पत्र लिखने का ख़याल इसलिए आया, क्योंकि तुम भी तो मेरे पराजगत् के संपर्कों और चालीस दुकानवाली के प्रकरण से परेशान होते रहते हो…!'
--'अरे नहीं, मुझे क्या परेशानी, मैं तो तुम्हारी हित-चिंता में रोकता-टोकता हूँ तुम्हें।'
उनके मुंह से सरलता से मैंने वह वाक्य निकलवा लिया था, जिसकी आशा से मैंने इस वार्ता का जाल बुना था।
बातचीत के इसी मोड़ पर मुझे अपना निवेदन शाही के सामने रख देना था, मैंने विलम्ब नहीं किया और तत्काल कहा--'सुनो, कल रात मुझे भैरवघाट जाना है। चालीस दुकानवाली ने मुझे वहाँ मिलने के लिए बुलाया है। मैं चाहता हूँ, तुम भी साथ चलो, घाट के बाहर चाय की दूकान पर रुक जाना, मैं निश्चिन्त रहूँगा और वापसी में तुम्हारा साथ भी हो जाएगा।' मैंने चालीस दुकानवाली आत्मा के सशरीर मिलने की बात भी उन्हें बता दी।
शाही ने गौर से मेरी बात सुनी और गंभीर हो, मौन रहे। मैं चिंता में था कि अब ये भला आदमी जाने क्या कहेगा।
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद सचमुच गंभीरता के साथ उन्होंने मुझे समझाना शुरू किया--'देखो, मैं तुम्हारे रास्ते की रुकावट नहीं बनना चाहता, लेकिन जो ठीक समझूँगा, तुमसे वही कहूँगा। तुम घर से दूर हो, अकेले हो, भगवान् न करे, अगर कुछ ऊँच-नीच हो गई, तो बुज़ुर्ग बाबूजी और परिवार के अन्य लोग क्या करेंगे? उनका क्या हाल होगा, सोचो। तुम यहां कमरे में बैठकर आत्माओं से जो बातें करते हो, यहां तक तो ठीक है, लेकिन अब ऐसा कुछ मत करो कि संकट में पड़ जाओ। मेरी तो यही सलाह है।'
मैंने कहा--'यार, तुम जानते हो कि चालीस दुकानवाली से मेरी कितनी घनिष्ठता हो गई है, मैं उससे वादा कर चुका हूँ और अब वादा करके भी कल उसके पास नहीं पहुंचूंगा तो उसे बहुत निराशा होगी।'
अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए शाही के स्वर में खिन्नता आ गई थी--'तुम तो एक हताश-निराश प्रेमी की तरह बोलने लगे। क्या है यह सब?'
मैंने उसे समझाया--'हद हो गई, तुम तो अच्छी तरह जानते हो कि ऐसा कुछ नहीं है। हाँ, यह ठीक है कि उसने मुझे अपनी प्रीति के बंधन में बाँध लिया है, लेकिन मैं अकिंचन उसके लिए कर ही क्या सकता हूँ? उसने बुलाया है तो उससे एक बार मिल लूँ, उसे सांत्वना दूँ और उसके लोक के रहस्य उससे पूछूँ। इसके अतिरिक्त मेरा उद्देश्य भला क्या हो सकता है ? कम-से-कम तुम तो मेरी बात समझो।'
अब शाही कांटेदार अवधिया भाषा पर उत्तर आये--'पगला गए हो तुम। नादानी मत करो। आत्मा से प्रेम-व्रेम की बात बेमानी है। ऐसी आत्माएँ ही तुम्हारे-जैसों को फाँस लेती हैं और अपने पास बुलाकर देह से प्राण निकाल लेती हैं। अपनी टोली में शामिल करने की उनके पास यही एक राह होती है। ऐसी कई कहानियाँ सुनी हैं मैंने, समझे न!'
मैंने प्रतिवाद किया--'रहने दो, तुम भी जानते हो चालीस दुकानवाली ऐसी आत्मा नहीं है। घंटे-डेढ़ घंटे में मैं उससे मिलकर तुम्हारे पास लौट आऊँगा। चलो न कल रात, तुम साथ होगे तो मेरी हिम्मत बनी रहेगी।'
अब शाही उग्र हो गए, क्रोध में बोले--'तुम्हारी इस ज़िद में मैं तुम्हारा साथ नहीं दूंगा। तुम समझते क्यों नहीं, इसमें बहुत रिस्क है। तुम्हें मरने का इतना ही शौक़ है, तो अकेले जाओ और मरो। अब तक तो बाबूजी को मैंने कुछ नहीं लिखा है, लेकिन अगर इस झमेले में तुम और पड़े तो मुझे चिट्ठी लिखनी पड़ेगी उन्हें।'
मैं समझ गया कि अब उनसे बहस भारी पड़ेगी, मैं मौन हो रहा। मीठी चाय मुझे कड़वी लगने लगी थी।...
दूसरे दिन दफ्तर में लंच के समय शाही ने यह मसला ईश्वर की उपास्थिति में फिर उठाया। पहले तो ईश्वर ने भी शाही के सुर-में-सुर मिलाते हुए मुझे समझाने की चेष्टा की, लेकिन थोड़े बहस-मुबाहिसे के बाद मैंने कहा--'भाई, कोई मेरे साथ चले, न चले, मुझे तो आज रात वहाँ जाना ही है और मैं जाऊँगा ज़रूर।'
ईश्वर बोले--'यह क्या बात हुई? वहाँ आधी रात में ऐसी मुलाक़ात के लिए अकेले जाना बिलकुल सेफ नहीं है।' फिर वह शाही की ओर मुखातिब होकर बोले--'ओझा को इस मौके पर तुम अकेला नहीं छोड़ सकते यार!'…
शाही कुछ बोले नहीं, लंच की मेज़ से उठकर चल दिए। जानता था, मेरी ही मंगलकामना में उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था।.…
आज की रात जाने क्या होनेवाला था, मन में अजीब हलचल मची थी और जहाँ तक स्मरण है, आज की तारीख भी पच्चीस (२५) ही थी।…
(क्रमशः)