जब कृतज्ञता अश्रु बन छलकी थी...24
पितामही और माता के बाद जीवन के चौबीसवें वसंत को लांघते ही पहली बार किसी ने मुझसे कहा था--'मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ'--चाहे यह वाक्य पराजगत् से आयी चालीस दुकानवाली आत्मा ने ही क्यों न कहा हो। एक अबूझे रोमांच से भरा हुआ था मैं.… लेकिन यह सुरूर यथार्थ पर दृष्टिपात करते ही उतर जाता था, फिर सत्य से विमुख होते ही इस वाक्य के मर्म का ज्वर मुझ पर चढ़ने लगता था। चालीस दुकानवाली से घनिष्ठ रूप से जुड़ने का मेरा उद्देश्य सिर्फ इतना था कि मैं पराजगत् के बारे में अधिकाधिक जान सकूँ, वहाँ के भेद बटोर सकूँ, किसी आत्मा से वैसे ही बातें कर सकूँ जैसे मेरे चाचाजी किया करते थे; लेकिन उठान की उस उम्र में, कल्पना-लोक में विचरण भी सिहरन का विचित्र सुख देता था; फिर भी मन में प्रश्न उठता कि इस वायवीय प्रेम की अर्थवत्ता क्या है? प्रेम की इस स्फुरणा की ज़मीन कहाँ है; लेकिन जैसा चालीस दुकानवाली ने कहा था, मैं मान लेता हूँ कि 'प्रेम तो आत्मा की अमूल्य निधि है ! आत्मा से आत्मा में प्रेम प्रतिष्ठित होता है।' मैं भी अपनी आत्मा में उसकी आत्मा का प्रेम प्रतिष्ठित करने लगा था और ऐसा अनायास हो रहा था, सप्रयास नहीं।…
बहरहाल, जिस रात देर तक चालीस दुकानवाली आत्मा से मेरी बातें हुई थीं और मुझे समस्त जानकारियां उस मज़दूर की बिटिया के बारे में मिली थीं, उसके दूसरे दिन दफ्तर में मजदूर भाई मुझसे मिलने लेख-विभाग में आये। मैं उन्हें साथ लेकर पहले माले से नीचे उतरा और एकांत में उन्हें सारा वृत्तांत सुना दिया। उसमें पिछली पीढ़ी में हुई घटना की कथा को प्रक्षिप्त रखना था, जिसकी हिदायत मुझे चालीस दुकानवाली से ही मिली थी। निवारण का उपाय जानकार वह कुछ चिंतित दिखे। मैंने पूछा--'यह सब करना कठिन तो नहीं है, फिर आप फिक्रमंद क्यों है?'
वह कुछ सोचते हुए बोले--'कोई बात नहीं सर, मैं परिवार में राय-बात कर लूंगा, सब हो जाएगा सर ! फिकर की कोई बात नहीं है।'
मैंने कहा--'हाँ, तो ठीक है। कोई अच्छा दिन देखकर यह कृत्य कर लीजिये। उसके बाद जब फुर्सत मिले, मिल लीजियेगा।'
उन्होंने थोड़े संकोच से पूछा--'इस पूजा के लिए अपनी पत्नी को भी गंगा के घाट पर साथ ले जाऊँ तो कोई हर्ज़ तो नहीं?'
उत्तर में मैंने बस इतना कहा--'हाँ भाई, जरूर ले जाइए, लेकिन जिन सावधानियों को बरतने की बात मैंने कही है, उनका ध्यान रखियेगा।'
मज़दूर भाई ने मुझे आश्वस्त किया और नमस्कार करके चले गए। मैं भी अपनी राह लगा।
उसके बाद १०-११ दिन बीत गए। मज़दूर भाई कहीं दिखे नहीं, कभी मिले नहीं। पिछले दस-एक दिनों में चालीस दुकानवाली आत्मा से मेरी बातें तो होती ही रहीं। मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह अब पहले से अधिक प्रगल्भ और बेतकल्लुफ़ हो गयी थी। वह रस लेकर मीठी बातें करती थी तथा प्रसन्नता से भरी जीवंत (कैसे कह दूँ कि 'फ़ुल ऑफ़ लाइफ' थी?) प्रतीत होती थी। आज उसके बारे में लिखते हुए मुझे मानना पड़ेगा कि मैं उसके प्रबल आकर्षण में आबद्ध हो गया था--उसको लेकर मेरे मन में भी कहीं प्रेम का अंकुर प्रस्फुटित होने लगा था, अच्छी तरह यह जानते हुए भी कि इस अ-लौकिक प्रेम का भविष्य कुछ भी नहीं। लेकिन जानता हूँ और मानता भी हूँ कि उन दिनों मैं प्रगाढ़ प्रेम की राह पर था--एक दिशाहीन राह पर....!
ठीक-ठीक तो स्मरण नहीं, लेकिन शायद बारहवें दिन अर्द्ध रात्रि की वार्ता में अचानक चालीस दुकानवाली ने कहा--'मैंने कहा था न, गंगा के तट पर मेरा बताया अनुष्ठान करने से उस भटकती आत्मा मुक्त को मुक्ति मिल जायेगी। तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए कि उसे मुक्ति मिल गई है।'
मैंने लगभग चौंकते हुए कहा--'मुझे तो कुछ भी ज्ञात नहीं है। वह मजदूर भाई पिछले दस-बारह दिनों से मिले ही नहीं। मिलें, तो पूछूं!'
'ही-ही' करते हुए चालीस दुकानवाली ने कहा--'प्रतीक्षा करो, लौटेंगे वह। वह अपने गॉंव चले गए थे, वहीं की गंगा के तट पर उन्होंने सारा कृत्य विधि-विधान से किया है।'
मैं अपनी उत्सुकता का संवरण नहीं कर सका, हुलसकर पूछ बैठा--'उसकी बिटिया का कष्ट दूर हुआ क्या?'
चालीस दुकानवाली ने फिर 'ही-ही' करते हुए कहा--'तुम अपने मजदूर भाई से ही पूछ लेना। मैं भी देखना चाहूँगी कि उनके मुख से सारा वृत्तांत सुनकर तुम कितने खुश होते हो!'
दो दिन और गुज़र गए। मैं बेसब्री से मज़दूर भाई की प्रतीक्षा करता रहा और उन्होंने भी मेरे सब्र का खूब इम्तेहान लिया। पन्द्रहवें दिन मुझे इल्हाम हो रहा था कि हुज़ूर ज़रूर तशरीफ़ लायेंगे, लेकिन दफ़्तर का सारा वक़्त बीत गया और मज़दूर भाई के दर्शन नहीं हुए। मैं निराश अपने क्वार्टर पर लौट आया। मैंने चाय बनाकर पी ली और एक सिगरेट जलाकर बिस्तर पर लेट गया। मुझे चालीस दुकानवाली आत्मा पर गुस्सा आ रहा था कि उसने क्यों नहीं पूरी बात बताकर इस अध्याय का पटाक्षेप उसी रात कर दिया। कम-से-कम मुझे इस उजलत से छुटकारा तो मिल जाता।
आधी सिगरेट ही अभी फुंकी थी कि द्वार पर दस्तक हुई। मुझे लगा शाही आये हैं। वह ऑफिस से ही बाज़ार चले गए थे। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने मज़दूर भाई खड़े मिले। उनके हाथ में दो पैकेट था। कमरे में प्रविष्ट होते ही उन्होंने टेबल पर दोनों पैकेट रख दिए और किंचित् क्षिप्रता से आगे बढ़कर मेरे दोनों पैर पकड़कर ज़मीन पर ही धम्म-से बैठ गए। उनकी आँखों में आँसू थे और कण्ठ अवरुद्ध था। उनकी भाव-विगलित दशा देखकर मैं घबराया। कन्धों से पकड़कर उन्हें उठाते हुए मैंने कहा--'अरे-अरे यह क्या करते हैं भाई, आप उम्र में मुझसे बड़े हैं। कुछ तो ख़याल कीजिये। उठिए, आराम से ऊपर बैठकर बातें करते हैं।'
लेकिन अपने मेहनतकश हाथों से उन्होंने मेरे चरण न छोड़े और थोड़ी कठिनाई से दो वाक्य बोल सके--'बहुत कृपा है आपकी, बहुत बड़ा उपकार है ओझाजी, बहुत बड़ा…!'
सच मानिये, मुझे बलपूर्वक उन्हें अपने पांवों से विलग करना पड़ा था और भूमि से उठाकर शाही की चौकी पर बिठाना पड़ा था। उन्होंने संयत होने में दस-एक मिनट लगा दिए। मेरे कुशल-क्षेम पूछने पर उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया--
"उस दिन आपसे बात करके जब मैं घर पहुँचा तो अपनी घरवाली को मैंने सारी बात बताई थी। दो दिन यही सोचते बीत गए कि आपकी बतायी पूजा कहाँ करूँ। कानपुर के सब घाटों पर तो हमेशा हलचल रहती है। फिर पत्नी ने ही गाँव चलने की सलाह दी। मेरे गांव से एक मील की दूरी पर ही गंगा की धारा है। मैं मिल से पंद्रह दिनों की छुट्टी लेकर अपने गाँव चला गया था। जैसा आपने बताया था, उसका पूरी तरह पालन करते हुए वहीं मैंने पत्नी और बेटी के साथ पूजा की थी। आज दोपहर में ही गाँव से लौटा हूँ। पूजा के बाद दस दिनों तक गाँव में रहा। इन दस दिनों में मेरी बेटी ने फिर कभी वह दृश्य नहीं देखा--न काला धुआँ, न उसके बीच घूमती किसी महिला की छाया। आपने सच में मेरे परिवार का बड़ा उपकार किया है ओझा साहब! मेरी घरवाली भी आपका दर्शन करना चाहती थी, लेकिन इस कॉलोनी में आने के लिए मुझे ही साहब का स्वांग रचना पड़ता है, उसे साथ कैसे लाता? किसी दिन मिल के गेट पर ही वह आपको प्रणाम करने आ जायेगी सर!"
मैंने कहा--'अरे भाई, इसकी क्या आवश्यकता है? आप नाहक मुझे सिद्ध-वृद्ध बनाये दे रहे हैं। मैं तो एक सामान्य युवक हूँ। आपसे और भाभी साहिबा से बहुत छोटा...!'
कुछ और बातों के बाद वह जाने को उठ खड़े हुए। दरवाज़े से निकलने के पहले ठिठके, ठहरे, अपनी जेब से उन्होंने एक छोटा-सा लिफ़ाफ़ा निकाला। उसे पहले से रखे हुए दो पैकेटों के ऊपर रखकर बाहर निकलने को उद्धत हुए। मैंने उन्हें रोका और पूछा--'इस लिफ़ाफ़े में क्या है भाई? और अपने ये पैकेट तो आप यहीं छोड़े जा रहे हैं।'
वह बहुत संकुचित हुए और हिचकिचाते हुए बोले--'सर, मुझ गरीब के पास है ही क्या। मैं तो आपकी किसी सेवा के लायक भी नहीं हूँ। बस, बहुत थोड़े से रुपये हैं लिफाफे में और ये डब्बे भी आपके लिए मेरी घरवाली ने भेजे हैं।' वह शर्मिंदगी से सिर झुकाये खड़े थे और मैं हतप्रभ था।
मैंने लिफ़ाफ़ा खोलकर देखा, उसमें एक सौ एक रुपये थे, एक डब्बे में सफ़ेद धोती और दूसरे डब्बे में मिठाइयाँ थीं। मैंने धोती और लिफ़ाफ़ा उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा--'मैं इस विद्या का व्यवसाय नहीं कर सकता, ऐसा ही मेरे गुरु का आदेश है। इसे तो आप ले जाएँ, हाँ मैं थोड़ी-सी मिठाइयाँ इस डब्बे से अपने लिए रख लेता हूँ।' इतना कहकर मैं एक प्लेट उठाने के लिए बढ़ा ही था कि मज़दूर भाई ने आगे बढ़कर मुझे रोक दिया और भावुक होते हुए बोले--'यह सबकुछ मैं आपके लिए ही लाया था, लेकिन आपने ऐसी बात कह दी है कि मैं मजबूर हो गया हूँ। लेकिन मिठाई का डब्बा भी अगर लौटाकर ले गया तो.… !'
इतना कहते-कहते उनका गला रुंध गया। उनकी सारी कृतज्ञता आँसू बनकर आँखों में छलक आयी। मैं उनकी दशा देखकर स्तंभित था। घबराकर मैंने कहा--'ठीक है भाई, मिठाई का डब्बा मैं रख लेता हूँ। अब तो ठीक है न?' वह कुछ बोले नहीं, एक बार फिर झुककर उन्होंने मेरे पैर छूने का प्रयत्न किया। मैंने पीछे हटकर अपने चरणों की रक्षा करते हुए कहा--'बस, बस भाई! प्रसन्न रहिये, आपकी बिटिया स्वस्थ-सानंद रहे। प्रभु से यही प्रार्थना है।'
वह कृतज्ञ-भाव से भरे लौट गए और मैं देर तक यही सोचता रहा कि क्या इसी कमरे में, यहीं कहीं हवा में तैरती चालीस दुकानवाली आत्मा ने भी यह सब दृश्य देखा होगा…? उसकी 'ही-ही' मेरे कानों में घंटी-सी बजने लगी और मुझे रोमांच हो आया। मैं उसके प्रति कृतज्ञता से आकंठ भरा जा रहा था। उसने जो कुछ कहा था, अक्षरशः सत्य सिद्ध हुआ था। ...
(क्रमशः)