Nishchhal aatma ki prem-pipasa - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा...- 20

परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...

मुझे सुदूर अतीत में फिर लौटना होगा।...
बहुत दिनों से मेरे कमरे में परलोक-चर्चाएँ नहीं हुई थीं, लेकिन परिसर में उनकी चर्चाओं का बाज़ार गर्म था। ज्यादातर लोग मेरे पीठ पीछे इनकी चर्चाएँ करते थे। जो ज्यादा निकट थे, वे तो मित्रता में अधिकारपूर्वक मुझे 'बाबा भूतनाथ' भी पुकार लेते। मुझ पर इस पुकार का कोई प्रभाव न होता। इसे मैं उनकी प्रीति का पुरस्कार ही मानता था, लेकिन शाही को यह सम्बोधन नागवार गुज़रता। वह प्रायः मुझसे कहते, 'अब यह सब बंद करो, नहीं तो पूरा दफ़्तर और मिल के लोग तुम्हें 'भूतनाथ ही कहने लगेंगे।' मैं मुस्कुराकर उन्हें शांत रहने की सलाह देता।

स्वदेशी क्लब के एक अल्पभाषी मित्र थे--अमित भइया ! वह मिल के स्टोर-प्रबंधक थे और बैचलर क्वार्टर के पीछे बने ऑफिसर्स क्वार्टर में सपत्नीक रहते थे। सुदर्शन युवा थे। उनसे सिर्फ क्लब में मिलना होता। मैं उनके साथ टेबल टेनिस खेलता। हमारी जोड़ी खूब जमती थी। टेबल के दोनों सिरों से हम दूर-दूर खड़े हो जाते और टॉप स्पिन के लम्बे-लम्बे शॉट लगाते रहते। कई बार तो एक-एक सर्विस दस-दस मिनट तक चलती रहती। हम दोनों को एक दूसरे के साथ खेलना प्रिय था। लेकिन यह निकटता क्लब तक ही महदूद थी। बोलते वह बहुत कम थे, उम्र में मुझसे चार-पांच साल ही बड़े होंगे। मैं उन्हें अमित भइया कहता था।
मेरी परलोक चर्चाओं की खबरें उनके कानों तक पहुंची होंगी। एक दिन खेलकर हम दोनों पसीने-पसीने हुए कुर्सियों पर बैठ गए थे। अचानक अमित भइया ने मुझसे पूछा--'तुम्हारे बारे में सुनता हूँ कि तुम मृतात्माओं को बुलाकर उनसे बातें करते हो ?' मैंने प्रश्न का उत्तर न देकर प्रतिप्रश्न किया--'अच्छा, तो ये खबर आप तक भी पहुँच गई! किसने कहा आपसे ?'
अमित भाई बोले--'मिल ऑफिस में ही सुना है। कोई तुम्हारा नामोल्लेख करके यही सब बात कर रहा था। तुम मुझे बताओ, क्या यह सच है ?' मैंने हामी भरी तो वह बोले--'आश्चर्य है, लेकिन यह सब तुम्हें गोपनीय ढंग से करना चाहिए। लोग तुम्हारी चर्चा करने लगे हैं। कहीं ऐसा न हो कि लोग अपनी-अपनी समस्याएँ लेकर तुम्हारे कमरे तक पहुँचने लगें और यह बात प्रबंधन तक पहुँचे।'
मैंने कहा--'आत्माओं का आह्वान तो मैं मध्य रात्रि में ही करता हूँ और इसका उल्लेख भी किसी से नहीं करता, लेकिन मिल गेट पर जो वाक़या हो गया था, उसके बाद ही यह बात लोगों के संज्ञान में आ गई है।'

अमित भइया का उठना-बैठना मिल के बड़े अधिकारियों के बीच होता था। उन्होंने मुझे सचेत किया--'बड़े अधिकारियों के कानों तक ये बातें न पहुंचें, इसका ख़याल रखना।' मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि 'मैं तो इन बातों की चर्चा किसी से नहीं करता, लेकिन अब और एहतियात बरतूँगा।'
चलते-चलते अमित भइया ने कहा--'मैं चार-पांच दिन क्लब नहीं आ सकूँगा। दिल्ली से मेरे माता-पिताजी आनेवाले हैं।' मैंने औपचारिकतावश उनसे पिताजी का नाम पूछ लिया। अमित भइया बोले--'वह जाने-माने साहित्यकार हैं। तुम तो हिंदी में रुचि रखते हो, तुमने उनका नाम अवश्य सुना होगा। उनका नाम है--श्रीविष्णु प्रभाकर।'
उनसे यह जानकार मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई थी कि वह स्वनामधन्य विष्णु प्रभाकरजी के सुपुत्र हैं। मैंने हुलसकर कहा--'वह तो मेरे पिताजी निकट मित्र हैं। १९७१ में उनसे मेरी एक मुलाकात भी हुई है--सस्ता साहित्य मण्डल कार्यालय में--कनॉट प्लेस में। संभव है, उन्हें इसका स्मरण न हो, लेकिन आप मेरे पिताजी का नाम लेंगे तो वह निश्चय ही पहचान लेंगे।'
अमित भाई ने मेरे पिताजी का नाम पूछा। मैंने पिताजी का पूरा नाम बताकर उनसे कहा--"आप उनसे सिर्फ 'मुक्तजी' कहेंगे तो भी वह पहचान जायेंगे।"

इसके बाद दो दिन बीत गए। अमित भइया के क्लब में दर्शन न हुए। मैं समझ गया कि वह अपने माता-पिताजी के साथ व्यस्त होंगे। मेरे मन में यह इच्छा अवश्य थी कि एक बार फिर विष्णु प्रभाकरजी के दर्शन होते। दूसरे दिन शाम के वक़्त अमित भाई ने अपने सेवक को मेरे पास भेजा और सूचित किया कि पिताजी चाहते हैं, कल सुबह की चाय मैं उनके साथ पियूं। मैं प्रफुल्लित हो उठा और सेवक से मैंने कल आने की स्वीकृति भेज दी।

सुबह तैयार होकर मैं पहली बार अमित भइया के घर पहुँचा। उस दिन विष्णु प्रभाकरजी से मिलकर परमानन्द हुआ। वह सौम्य-मूर्ति, संयत-सम्भाषी और अति स्नेही व्यक्ति थे। वह पिताजी से महज़ एक वर्ष छोटे थे, लेकिन पिताजी का बड़े भाई की तरह बड़ा आदर-सम्मान करते थे। उस पीढ़ी के लोगों में आचार-व्यवहार की यह मानक परम्परा थी और लोग इसका पालन बहुत सावधानी से किया करते थे। १९४८ में दोनों ने एक साथ आकाशवाणी में हिंदी-सलाहकार के पद का कार्य-भार सम्हाला था--पिताजी ने पटना में और प्रभाकरजी ने संभवतः दिल्ली में। पिताजी और प्रभाकरजी की मित्रता उन्हीं दिनों की थी। यह उसी मित्रता का प्रभाव था कि उस दिन वह बहुत प्रेम से मिले, पिताजी और मेरे काम-धंधे के बारे में पूछते रहे। इसी बीच अमित भाई बोल पड़े--'आनंद तो यहाँ बड़े साहस का काम कर रहे हैं। आत्माओं को बुलाते हैं और उनसे बातें करते हैं। पिछले दिनों ऐसा ही एक प्रसंग मिल के गेट पर उपस्थित हुआ था और तब से इनकी बहुत ख्याति हो गई है!'
विष्णु प्रभाकरजी ने मुझसे पूछकर वह पूरा प्रसंग सुना था, फिर ठीक पिताजी की तरह ही मुझसे कहा था--"मनुष्य को प्रकाश की तरफ बढ़ाना चाहिए, अंधकार की ओर नहीं। परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है और एक अँधेरी दुनिया में भटकने का कोई लाभ नहीं है। संभव है, इससे किसी का हित हो जाए, किसी को मनःशांति मिले, लेकिन किसी की हानि भी तो हो सकती है। इस दुविधापूर्ण दिशा में बढ़ने का क्या लाभ?'

मैं संकोच से गड़ा जा रहा था, शांत था; लेकिन चाहता था कि किसी तरह बात की दिशा बदल जाए। तभी बड़ा अच्छा हुआ कि श्रीमती प्रभाकर (पूजनीया चाचीजी) अपनी बहूजी के साथ चाय-नाश्ता लेकर आयीं। मैंने उनके चरण छुए और उनका आशीष पाकर धन्य हुआ। अब बात की दिशा स्वतः बदल गई थी। चाचीजी बहुत मृदुभाषिणी महिला थीं। उन्होंने आग्रहपूर्वक मुझे बहुत कुछ खिलाया और चाय पिलाई। जब चलने को हुआ तो बोलीं--'तुम मेस का भोजन करते हो न, कैसा खाना बनता है वहाँ?' मैंने कहा--'ठीक-ठाक, उदर-पूर्ति हो जाती है।'

मेरे उत्तर से उन्होंने जाने क्या अभिप्राय ग्रहण किया कि तत्काल मुझसे कहा--'तो ठीक है, आज रात का खाना तुम हमारे साथ ही कर रहे हो--घर का भोजन ! तुम्हें खाने में क्या पसंद है, मैं वही बनाऊँगी, बोलो !' उनकी सहज और अनन्य प्रीति से मैं अभिभूत हो उठा था। मैंने कहा--'आप जो भी बनाएंगी, मैं प्रसन्नता से खाऊँगा।'
उनकी ममतामयी मूर्ति देखकर और उनकी बातें सुनकर मुझे अपनी माँ की याद आ रही थी।

अमित भइया के यहाँ रात के भोजन के वक़्त भी अमित आनंद हुआ। उन दिनों प्रभाकरजी की पुस्तक 'आवारा मसीहा' बहुत चर्चा में थी। वहाँ से परम तृप्त और आप्यायित हुआ जब लौटने लगा तो मैंने उनसे अपने लिए 'आवारा मसीहा' की एक प्रति मांगी तो बोले--'यहां तो प्रतियाँ हैं नहीं, तुम जब दिल्ली आओगे, तो उसकी प्रति तुम्हें अवश्य दूँगा। '
दो दिनों में श्रद्धेय विष्णु प्रभाकरजी के दो बार दर्शन पाकर और उनके सान्निध्य से मन बहुत प्रसन्न हुआ था, लेकिन उनकी वर्जना के शब्द कानों में निरंतर गूँज रहे थे--'मनुष्य को अन्धकार की ओर नहीं, प्रकाश की दिशा में बढ़ना चाहिए और…परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...!' मेरे मन की विचित्र दशा थी, वह दुविधा में पड़ा था।....
(क्रमशः)

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