बाद मुद्दत के वह पुरानी रात लौटी...
दफ़्तर में दूसरा दिन धूसर-सा बीता। अनिद्रा का प्रभाव तो था ही, पिछली रात की बातों का अवसाद भी अंतरात्मा पर छाया था। उस बालक की आत्मा ने जो कुछ कहा/बताया था, उसका बहुलांश तो मेरे लिए भी अजाना था। शैलेन्द्र ने मुझसे सिर्फ घटना का उल्लेख किया था और अपनी त्रासद आंतरिक पीड़ा की बात बतायी थी। आत्मा ने तो पूरी घटना का सत्य सबके सामने उजागर कर दिया था, उसने अपने पुनर्जन्म की बात और शरीर छोड़ने के बाद कुछ बोलने की चेष्टा की बात कहकर मुझे भी आश्चर्य में डाल दिया था। शैलेन्द्र के घर के उस कमरे में इतना रुदन, इतनी बेकली न पसरी होती, तो पुनर्जन्म की बात को मैं और कुरेदता। इस सम्बन्ध में महत्त्व के कुछ और प्रश्न भी पूछता। लेकिन, वह अवसर हाथ से निकल गया था।
एक दिन और बीता। मैं अपेक्षाकृत तरोताज़ा होकर दफ़्तर पहुँचा था। एक-डेढ़ घंटा ही बीता था कि नीचे से मेरे नाम की पुकार हुई। मुझे स्वागत-कक्ष में पहुँचने को कहा गया। मैं यह सोचकर चिंतित हुआ कि कहीं वही बुज़ुर्ग सज्जन फिर तो नहीं आ गए! ख़ैर, आदेश था, तो नीचे जाना भी था। स्वागत-कक्ष में पहुंचा तो शैलेन्द्र को वहाँ प्रतीक्षारत देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। अभी परसों रात ही हम मिले थे, इतनी सारी बातें हुई थीं, फिर ऐसा क्या हुआ कि शैलेन्द्र ५ किलोमीटर चलकर जूही आ गये! मैं उनके पास पहुँचा तो वह बड़ी प्रसन्नता से मिले, हुलसकर मुझसे हाथ मिलाया और बोले--'परसों तो तुमने कमाल ही कर दिया। मैं बस यह कहने आया हूँ कि माता-पिताजी तुमसे मिलने को व्यग्र हैं। आज शाम ही आर्यनगर आओ न।'
शैलेन्द्र जल्दबाज़ी में थे, अपना आग्रह रखकर चले गए। उसी दिन शाम को आर्यनगर जाना संभव नहीं हुआ। संभवतः उसके बाद किसी दिन जब आर्यनगर गया तो शैलेन्द्र के माता-पिता से मिला। दोनों बुज़ुर्गों ने मुझसे बहुत सारी बातें कीं, अनेक प्रश्न पूछे, परा-जगत् से संबंधित अपनी जिज्ञासाएँ शांत करने की चेष्टा की और अंततः मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया। उन दोनों के मन में मेरे प्रति इतनी अधिक कृतार्थता का भाव था, जितने की मेरी पात्रता नहीं थी; मैं उनकी बातों से शर्मसार हुआ जाता था। ठीक विदा होते वक़्त शैलेन्द्र की माँ ने मुझसे कहा--'बेटा, तुमने हम हम सबों का बहुत बड़ा उपकार किया है। मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो तुम्हें दे सकूँ; बस तुम्हें आशीष देती हूँ, खुश रहो !' यह कहकर उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा।
मैंने कहा--'बस, वही चाहिए माताजी!' विदा का वह क्षण आज भी यथावत् आँखों में अंकित है! उनसे दूर होते हुए मैंने पलटकर देखा था, वह आँचल से अपनी आँखें पोंछ रही थीं। मैं सोच रहा था, मनुष्य मोह-ममता की कितनी मजबूत डोर से बँधा रहता है! काल का अनंत प्रवाह पीड़ा की तीव्रता को कम कर सकता है, लेकिन मोह के बंधन ढीले नहीं कर पाता।...
फिर पूरे अड़तीस साल गुज़र गए। ज़िन्दगी टेढ़ी-तिरछी राहों से निकलती, जाने कहाँ की कहाँ आ गयी। कितने तीखे मोड़ों, संकरे रास्तों, सर्पिल राहों, शूल-काँटों भरे रपटों से बढ़ती ज़िन्दगी युवावस्था का लिबास उतार आई थी और उसने पहन लिया था अधेड़ावस्था का मटमैला सर्वोदयी कुरता-पायजामा। अड़तीस साल--एक समूची ज़िन्दगी का तकरीबन आधा हिस्सा! काली दाढ़ी, काले केश अब श्वेतवर्णी हो गए थे और मैं एक बार फिर कानपुर की धरती पर था--पिछले वर्ष (२०१४) अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह में ! ऐसा नहीं कि इन अड़तीस वर्षों में कभी कानपुर जाना ही न हुआ हो, पटना से अपनी ससुराल जाते हुए बीच का पड़ाव कानपुर ही होता था और बाद के दिनों में कानपुर में एक रिश्तेदारी भी हो गई थी, लेकिन जब गया, एक मुसलसल दौड़ में रहा। यह पहला मौका था कि दो दिनों का खाली वक़्त हाथ में था, जब मुझे अपनी गृहस्वामिनी के अस्वस्थ और वृद्ध माता-पिता को अपने साथ पूना लिवा लाना था। वे मेरे साढ़ू भाई (सुनील कुमार तिवारी) के हर्षनगर स्थित आवास पर ठहरे हुए थे, जो आर्यनगर से महज़ एक-डेढ़ किलोमीटर के फ़ासले पर था।
एक दिन सुबह दस बजे पुरानी यादें ताज़ा करने मैं आर्यनगर की सैर पर अकेला निकला। रिक्शे से उतर कर मैं उसी तिराहे पर घूमता रहा, जहां वर्षों पहले मटरगश्तियां कर गुज़रा था। परिवर्तन की आंधी ने वहाँ बहुत कुछ नहीं बदला था। तिराहे से शाही की गली तक गया और उन लंबवत् सीढ़ियों को देख आया, जो शाही के बड़े पापा के घर ले जाती थी। जानता था, अब वहाँ कोई नहीं है। शाही स्वदेशी के लखनऊ ऑफिस में स्थानांतरित हो गए थे। उनकी सुदर्शना बड़ी माँ का निधन हो चुका था। शेष सारा परिवार लखनऊ जा बसा था। उस जानी-पहचानी गली से निकला तो मन में एक हूक उठी। शाही तो दूरभाषिक संपर्क में रहे, लिहाज़ा उनके बारे में ताज़ा जानकारियाँ मुझे थीं, लेकिन अन्य मित्रों से कोई सम्पर्क नहीं रह गया था। मैं नहीं जानता था कि वे सब मित्र कहाँ, किस हाल में हैं।
स्मृतियों का हाल यह था कि शैलेन्द्र का नाम भी पूरी तरह विस्मृत हो चुका था। स्मृति पर बहुत जोर डालने पर कई नाम मस्तिष्क में उभरते, लेकिन मन किसी एक नाम पर स्थिर नहीं होता। तिराहे का तीनों कोना आज भी वैसा ही था। बस, दुमंज़िले-तिमंज़िले मकानों के नीचे नयी दुकानें बन गयी थीं। शैलेन्द्र के मकान को चिन्हित कर लेने में मुझे विभ्रम नहीं हुआ। मैं ठीक उस दुमंजिले मकान के नीचे खड़ा था, मन उत्कंठा से भरा था। इच्छा हो रही थी, नीचे बनी मिठाई के एक दूकानदार से शैलेन्द्र के बारे में पूछूँ; लेकिन ठिठका हुआ था कि क्या-कैसे पूछूँ ! भले आदमी का नाम तो विस्मृति के धुंधलके में जा छुपा था। मैं वहीं खड़ा अभी सोच ही रहा था कि दुकानदार की आवाज़ कानों में पड़ी--'कहिये, क्या चाहिए आपको?'
मैं जैसे तन्द्रा से जागा। मैंने कहा--'भाई, मैं दुविधा में हूँ। ३५-३८ साल पहले इसी मकान के ऊपरी माले पर मेरे एक मित्र रहते थे, मैं इस भवन को तो ठीक-ठीक पहचान रहा हूँ, लेकिन उन मित्र का नाम ही भूल गया हूँ। अब ऊपर कौन रहते हैं?'
मेरी बात सुनकर दुकानदार बंधु ने तत्काल कहा--'ऊपर तो शैलेन्द्र दीक्षित रहते हैं, लेकिन अभी तो वह काम पर गए होंगे।'
'शैलेन्द्र दीक्षित' नाम सुनते ही मेरे दिमाग़ की बत्तियां जल उठीं। मैंने कहा--'हाँ, हाँ, वह शैलेन्द्र दीक्षित ही हैं। वह कब मिलेंगे ?'
'शाम पांच-छह बजे तक आ जाते हैं। आप शाम के वक़्त आएं, तो उनसे मिलना हो जाएगा।'
मैंने हामी भरी और नमस्कार करके चलने को हुआ तो दुकानदार भाई ने कहा--'ज़रा ठहरिये। शायद शैलेन्द्रजी के बेटे हों घर पर, मैं पुछवा लेता हूँ।'
उन्होंने अपनी दूकान के एक बच्चे को ऊपरी माले पर भेजा। थोड़ी ही देर में वह बालक लौट आया और बोला--'भइया बोले कि आ रहे हैं।'
पाँच मिनट बाद ही गठीली देह-यष्टि के एक सुदर्शन युवा सीढ़ियों से नीचे उतरे और मेरे समीप पहुंचकर बोले--'कहिये, क्या मुझसे मिलना है ?' मैं कुछ कहूँ, उसके पहले ही दुकानदार मित्र उनसे बोले-- 'अरे, ये तुम्हारे पिताजी के पुराने दोस्त हैं, बहुत सालों बाद पूना से आये हैं और उनसे मिलना चाहते हैं। तुम इनकी पापा से बात करवा दो।'
यह जानकार कि मैं शैलेन्द्र का मित्र हूँ, युवक ने मुझे नमस्ते की और मोबाइल से अपने पिताजी से संपर्क साधा, बात की, फिर मेरा ज़िक्र करके सेल मुझे पकड़ा दिया। मैंने पूछा--'तुम वही शैलेन्द्र दीक्षित हो न? मैं ओझा हूँ, पहचाना मुझे ?'
यह सुनते ही शैलेन्द्र तड़पकर बोले--'कौन? स्वदेशीवाले हर्षवर्धन ओझा?'
मैंने कहा--'हर्षवर्धन नहीं, आनंदवर्धन ओझा!'
बोले--'हाँ, वही, ओझा न ?'
मेरी स्वीकृति पाते ही वह हर्ष-विह्वल, मुग्ध-विस्मित, शत-मुख हो उठे। कहने लगे--'कहाँ छुप गए थे तुम कठोर? इतने वर्षों बाद याद आई है मेरी ? ऊपर घर में जाओ बेटे के साथ, कुछ खाओ, चाय पियो और शाम में मिलो।'
मैंने कहा--'सुबह का जलपान हो चुका है, अभी चाय की इच्छा भी नहीं और कल सुबह की ट्रेन से पूना लौट जाना है। बहुत-सी पैकिंग भी करनी है, मौका मिला तो तुमसे मिलकर जाना चाहूँगा।'
शैलेन्द्र ने कहा--'तुम्हें कसम है, बिना मिले मत चले जाना। बहुत-सी बातें करनी हैं तुमसे।शाम में मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।'
मैंने सेल उनके सुपुत्र को लौटा दिया। सुपुत्र भी संस्कारवान युवा लगे, चलते वक़्त उन्होंने मेरे पाँव छुए। रिक्शे पर बैठकर हर्ष नगर के लिए चला तो मन प्रफुल्लित था और आश्चर्यचकित भी कि शैलेन्द्र की स्मृति में इतने वर्षों बाद आज भी कहीं छिपा बैठा था मैं।...
शाम सात के बाद शैलेन्द्र के एक-के-बाद एक फ़ोन आने लगे। वह मिलने को बेचैन थे और व्यग्रता से मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने सामान की अव्यवस्था को सहेजने का जिम्मा श्रीमतीजी को सौंपा और रिक्शे पर जा बैठा। पंद्रह-बीस मिनट की रिक्शा-यात्रा में भी शैलेन्द्र मेरे सेल की घंटी लगातार बजाते रहे। उनके घर के नीचे रिक्शा रुका, तो ऊपर की खिड़की से झांकते शैलेन्द्र दिखे, मुझे आवाज़ लगाते हुए।
सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचा तो वह प्रवेशद्वार पर खड़े मिले। पास पहुंचते ही उन्होंने मुझे बाहों में भर लिया। वह अपनी भावुकता पर अंकुश नहीं रख सके और विलाप करने लगे। उनके आँसुओं में अड़तीस वर्षों का संचित संताप था। उन्होंने मुझे उसी कमरे में बिठाया, जिसमें मैंने कभी उनके दिवंगत अनुज को बुलाया था और बातें की थीं। अब उनके परिवार में सिर्फ तीन प्राणी थे--शैलेन्द्र स्वयं, उनकी पत्नी और सुपुत्र। माता-पिता दिवंगत हो चुके थे। वह मुझे अंदर ले गए--माता-पिता के चित्रों के सम्मुख, जिनपर मालाएं चढ़ी थीं। मैंने हाथ जोड़कर अपनी श्रद्धा निवेदित की। विह्वल स्वर में शैलेन्द्र बोले--'देखो माँ, ओझा आ गया है। तुम्हें शिकायत रहती थी न उससे... स्वयं देख लो, यह भूला नहीं है हमें।'
शैलेन्द्र कातर हुए जा रहे थे। मैं उन्हें बलात् वहाँ से खींच लाया। फिर बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आधी रात के बाद तक चलता रहा। हम दोनों अब साठोत्तर जीवन जी रहे थे, दोनों के पास पास अपने-अपने अनुभव के कोश थे और सिर्फ एक रात में उनका आदान-प्रदान संभव नहीं था। उन्होंने विगत वर्षों का इति-वृत्त सुनाया और कहा--'तुम नहीं जानते आनंद, मेरे परिवार में और जीवन में तुम कितना बड़ा परिवर्तन करके चले गए थे। माँ शेष जीवन में जब भी छोटे भाई की याद करतीं, तुम्हारी चर्चा करना नहीं भूलतीं। सच कहूँ तो मुझसे बहुत ज्यादा उन्होंने तुम्हें याद किया था। तुम्हारे आते ही मैं तुम्हें उनके चित्र के पास इसीलिए ले गया था।'
मैं जानता था, शैलेन्द्र मातृ-भक्त बालक थे, लेकिन जीवन में घटी एक अकल्पनीय दुर्घटना ने उन्हें माता-पिता का कोपभाजन बना दिया था और वह सबों से दूर होते चले गए थे। शैलेन्द्र ने इसी मुलाकात में मुझे बताया था कि उस एक रात की परलोकचर्चा ने उनके भावी जीवन में किस तरह स्थितियों को परिवर्तित कर दिया था। ऐसा परिवर्तन जो विश्वसनीय नहीं है, लेकिन है सच। कालान्तर में शैलेन्द्र माता-पिता दोनों के सर्वाधिक प्रिय पुत्र बने थे और उन्होंने दोनों की भरपूर सेवा की थी। उन्होंने मुझसे कहा था--'जाते-जाते छोटे भाई की आत्मा ने मुझसे जो कहा था, उसे मैं कभी भूल नहीं सका।' बात करते-करते वह बार-बार रो पड़ते थे और इस व्यापक परिवर्तन का श्रेय मुझे दे रहे थे, जबकि सच तो यह था कि मैंने जो कुछ किया, जो कुछ मेरे प्रयत्न से उस रात हो गया, वह सिर्फ उमंग-उत्साह में किया गया एक सामान्य प्रयोग ही था। हाँ, उसमें मित्र की हित-कामना भी कहीं समाहित अवश्य थी।...
शैलेन्द्र की पत्नी और पुत्र, जो मुझे (और जिन्हें मैं) पहली बार देख रहे थे, चकित थे। सोच रहे थे, ये कौन-से, कब के मित्र आ मिले हैं, जिनसे चल रही वार्ता ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। आधी रात के बाद ही शैलेन्द्र के सुपुत्र मुझे अपनी मोटर साइकिल से गंतव्य पर छोड़ आये। शैलेन्द्र के घर से लौटते हुए मुझे लगा था, अरसे बाद वही अड़तीस साल पुरानी रात फिर लौट आई है।
सुबह-सुबह यात्रा पर निकलना था। शैलेन्द्र के घर से लौटकर नींद नहीं आ रही थी। मैं शय्या पर लेटा-लेटा सोचा रहा था कि युवावस्था की तरंग में की हुई मेरी परलोक-चर्चाओं से यदि एकमात्र शैलेन्द्र के जीवन में सुख-शांति लौट आई थी तो मेरा वर्षों का प्रयत्न निष्फल नहीं गया था।.…
(क्रमशः)