पुस्तक समीक्षा - 3 Yashvant Kothari द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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पुस्तक समीक्षा - 3

समीक्षा

पुस्तक :पंच काका के जेबी बच्चे /डा.नीरज दईया /व्यंग्य संग्रह /२०१७ /मूल्य २००रुप्ये,प्रष्ठ ९६ /सूर्य प्रकाशन मंदिर,बीकानेर

पुस्तक;आप तो बस आप ही है /बुलाकी शर्मा /व्यंग्य संग्रह २०१७ /सूर्य प्रका शन मंदिर ,बीकानेर

कवि-आलोचक नीरज जी इन दिनों व्यंग्य में सक्रिय है.इस पोथी में उनके ताज़ा व्यंग्य संकलित है जो उन्होंने विभिन्न पत्र पत्रिकाओं हेतु लिखे हैं.इन व्यंग्य रचनाओं के बारे में सुपरिचित व्यंग्य कार –संपादक सुशिल सिद्धार्थ ने एक लम्बा,सचित्र ब्लर्ब लिखा है जो उनके फोटो के साथ अवतरित हुआ है. संकलन में नीरज जी के चालीस व्यंग्य है, भूमिका महेश चन्द्र शर्मा ने लिखी है जो स्वयं एक बड़े संपादक है.वर्तमान की विसंगतियों पर नीरज की पैनी नज़र है ,वे चीजों को बहुत ध्यान से देखते है फिर पूरी शालीनता के साथ व्यंग्य के रूप में रियेक्ट करते हैं,यहीं आज के व्यंग्य की मूल भूत आवशयकता है ,जिसे लेख लिखने वाले भूल जाते हैं ,मगर कविमना नीरज सब कुछ संजो कर पाठकों के साथ ताल मेल बिठा कर अपनी बात कहते है.व्यंग्य की यही विशेषता होती है.पाठक आपके साथ मिल जाये .

अधिकांश रचनाएँ कलेवर में छोटी है,काश नीरज जी पूरी लम्बाई की रचना लिखते फिर सम्पादित कर अख़बार को देते,क्योंकिअख़बारों में आजकल जगह ख़त्म लेख ख़त्म,प्रभारी ज्यादा मेहनत नहीं करते. नीरज जी पाठकों को गुमराह नहीं करते, वे सीधा संवाद करते हैं.वे लम्बी चोडी नहीं हांकते , बस काम की बात करते है.लगभग सभी रचनाओं में पंच काका उपस्थित है, यह पंच हिंदी का तो है ही अंग्रेजी का भी पंच है.हर रचना में पंच है जो पाठक को झक्जोर देता है.शायद यह लेखक का पहला संकलन है लेकिन उन्हें केन्द्रीय अकादमी का पुरस्कार व् अन्य अनेक पुरस्कार मिले है वे दोनों भाषाओँ में साधिकार लिखते हैं व् कई अछे अनुवाद उनके नाम हैं. ,उनके इन व्यंग्यों में भी मायड भाषा की मिठास है.मास्टरजी का चोला इस संकलन का सबसे अच्छा व्ग्यग्य है.सेल्फी पर भी लेखक ने अच्छा लिखा है.लेखक का वर्तमान परिवेश से अच्छा नाता है ,वे बार बार समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करते हैं.

दाढ़ी पर भी उन्होंने खुबसूरत व्यंग्य लिखा है.नीरज का कवि रूप भी इन रचनाओं में विचरता रहता है.साहित्य सम्बन्धी व्यंग्यों में कटु यथार्थ के दर्शन होते हैं.नीरज के इन व्यंग्यो में बिम्ब है,प्रतीक , है वक्रता है , वे इन ओजारों का जम कर इतेमाल करते हैं.अपने अपने भूत ऐसा ही व्यंग्य है.काश वे कुछ और रचनाओं को शमिल करते ,पुस्तक का कलेवर छोटा है.मूल्य अधिक.

पुस्तक का शीर्षक व्यंग्य पंच काका के जेबी बच्चे कुछ आत्म व्यंग्य की तरह शुरू होता है फिर जाकर सार्वजानिक हो जाता है.यह कला कम ही लेखक साध पाते है.नीरज ने यह कर दिखाया है.कई जगहों पर राजस्थानी मुहावरे है ,जो मन को खुश कर देते है पिताजी के जूते ऐसा ही व्यंग्य है.

अमुख ,प्रमुख और आमुख लेखक एक साहित्यिक व्यंग्य है जिसे लगभग हर लेखक ने जिया है. मानदेय हर सच्चे लेखक की दुख् ती रग है. साहित्यिक मेलो पर भी लेखक ने कलम तोड़ कर रख दी है.कुल मिला कर सुधि पाठक इस संकलन का स्वागत करेंगे.

अब कुछ बात कालम लेखन की. नीरज जी के ये व्यंग्य किसी कालम की मर्यादा के साथ चलते है ,कालम का अनुशासन या सम्पादक का अनुशासन मानना ही पड़ता है.लेखक को अपनी मजबूरियों को नज़र अंदाज़ कर कालम की मजबुरीयों के साथ जीना पड़ता है या जीना सीखना पड़ता है.लगभग सभी कालम लेखक ये सब भुगतता है ,उसे सम्पादक को बॉस मान कर चलना पड़ता है .यहीं है वो कारण जो एक क्लासिक रचना को रोक देता है.

मैं इस रचना का स्वागत करता हूँ वे खूब लिखे . पुस्तक का कवर प्रतीकात्मक है मगर सुंदर है .
आप तो बस आप ही हैं –सुख लालजी के दुःख

केन्द्रीय साहित्य अकादमी व् राजस्थान साहित्य अकादमी से समादृत बुलाकी जी का यह व्यंग्य संकलन उनकी यात्रा को एक और मंजिल देता है.चेखव की बनदूक के बाद यह संकलन आया है जो उनकी प्रतिभा का विकास है.वे लम्बे समय से कालम लिख रहे है अक्सर उनको पढता रहता हूँ.प्रस्तुत पुस्तक पर व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षरों यथा-सुशिल सिद्धार्थ ,सुरेश कान्त,सुभाष चंदर,जवाहर चौधरी,लालित्य ललित की टिप्पणियाँ हैं जो पुस्तक की गुणवत्ता को साबित करती है.ज्ञानचतुर्वेदी को संकलन समर्पित है.याने सब कुछ श्रेष्ट .

पुस्तक में बुलाकी जी के ४२ छोटे बड़े व्यंग्य है,कोलम लेखन की मजबूरियां यहाँ भी दिखती है,लेकिन समर्थ व्यंग्यकार होने के नाते वे अपने हिसाब से व्यंग्य की पेठ बनाते चलते हैं .बतरस के सहारे वे अपने बात कहते चले जाते हैं ,कई बार वे ललित निबन्ध की और जाकर व्ग्यंग की और आते है.लगभग सभी रचनाओं में सुख् लालजी अवतरित होते रहते हैं ,ये एक पुराणी परम्परा है ,जिस में लेखक एक पात्र गढ़ लेता है और उसके सहारे अपनी बात कहता है.बुलाकी को नए पात्र गढने चाहिए .

खूब कहा एक मुर्दे ने एक ऐसा व्यंग्य जो आदमी को जकझोर देता है.फेसबुक आज कल सब काम में लेते है,बुलाकी ने इस पर भी लिखा है.लेखन पर व्यग्य करते हुए वे स्वतंत्र लेखन व् पराधीन लेखन के बहाने लेखन और अफसरी की पोल खोलते हैं.उज्जेन नगरी के तोते भी प्रभावित करने वाला व्यंग्य है.

आज का समय व्यंग्य का समय है,देश,समाज ,सत्ता ,धर्म सब एक संक्रमण काल से गुजर रहे हैं,इस काल को बुलाकी खूब अच्छी तरह पकड़ते हैं,वे व्यंग्य का ताना बना अपने आसपास की छोटी –मोती घटनाओं से ही उठाते हैं ,यही उनकी विशेषता भी है .

राजस्थानी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है वे इस भाषा की मिठास का भी रसास्वादन कराते हैं .

रचना में कथ्य,भाषा और शैली महत्व पूर्ण होते हैं,बुलाकी के पास ईन् सब पर अपना नियंत्रण है,वे व्यंग्य के व्याकरण ,काव्य शास्त्र व् सौन्दर्य शास्त्र को खूब समझते हैं, वे रचना को सपाट बयानी से बचा ले जाते हैं ,यही लेखक की खूबी होनी चाहिए, वे सपाट बयानी से बचने केलिए अपशब्दों का सहारा नहिं लेते जो आजकल एक फेशन बन गया है.

समाजसेवा के पर्याय व्यंग्य महत्वाकांक्षा के मारे लेखक व् समाजसेवी की दास्ताँ है.पुरस्कारों की राजनीति पर भी लेखक ने कलम चलाई है.

अब एक बात और क्या हम सब लेखक उतने ही नैतिक हैं जैसा दीखते हैं या लिखते हैं?

बुलाकी के इस संकलन का कवर भी प्रतीकात्मक है ,जो अच्छा लगता है, प्रोडक्शन –गेट उप अच्छा है,कागज की क्वालिटी कमजोर. प्रकाशक की अपनी मजबूरियां होती है खासकर छोटे शहर के प्रकाशक की.

इन दोनो संकलनों को पढने के बाद यह कहा जा सकता है की राजस्थान में हिंदी व्यंग्य लेखन का भविष्य उज्जवल है. वे रांगेय राघव , अशोक शुक्ल,भगवती लाल व्यास ,की परम्परा को आगे बढ़ाएंगे .आमीन .

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यशवंत कोठारी ८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बहार ,जयपुर-२

मो-९४१४४६१२०७

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