Ashadh ka fir vahi ek din - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

आषाढ़ का फिर वही एक दिन - 2

आषाढ़ का फिर वही एक दिन

(कहानी: पंकज सुबीर)

(2)

दूसरा कमरा जिसे ड्राइँग रूम कहा जा सकता है उसमें अब भार्गव बाबू नाश्ते के लिये आ चुके हैं । घड़ी साढ़े आठ के आस पास है । भार्गव बाबू के घर समाचार पत्र नहीं आता । वे सुबह की ख़बरें टीवी से प्राप्त करते हैं । पराँठे के कौर, अचार के मसाले के साथ उदरस्थ करने में जुटे हैं भार्गव बाबू । बीच बीच में किसी नेता को टीवी पर देख लेते हैं तो मुँह ही मुँह में बुदबुदा देते हैं ‘सब चोर हैं...’ और वाक्य में आदत के अनुसार कम से कम दो गालियाँ । भार्गव बाबू का एक पराँठा समाप्त हो चुका है और पत्नी एक कप दूध कर रख गई है । वैसे भार्गव बाबू दोनों पराँठे ख़त्म करने के बाद ही दूध पीते हैं, लेकिन कभी कभी दूसरा पराँठा दूध में डुबो डुबो कर खाते हैं, जैसा आज कर रहे हैं । घड़ी की सुई धीरे धीरे नौ की तरफ बढ़ रही है । भार्गव बाबू का घर से निकलने का समय हो रहा है । पत्नी ने खाने का डिब्बा और पानी की बोतल लाकर मेज पर रख दी है और वहीं पास बैठ गई है । ‘केबल टीवी वाले का पैसा देना है, दो महीने का हो गया है । गैस की सर्विसिंग करवानी है जलते जलते भक-भक करती है । अम्मा की दवा भेजनी है, बीनू आया था । आज दाल ख़ाली राई से बघारी है, जीरा ख़तम हो गया है, दो दिन से और हींग भी नहीं है । आज चीनू का बर्थडे है, उसको विश कर देना ।’ ये सारी सूचनाएँ पत्नी भार्गव बाबू तक पहुँचा रही है । देखने में बिल्कुल नहीं लग रहा है कि वो भार्गव बाबू से ही बात कर रही है । ऐसा लग रहा है जैसे किसी अप्रत्यक्ष को संबोधित कर रही है । घर का सारा सौदा सुलफ, सब्ज़ी-भाजी भार्गव बाबू ही लाते हैं । पत्नी को केवल यही छुटपुट काम करने होते हैं जिनके लिये वो अभी बात कर रही है । ‘महीने में पन्द्रह दिन तो केबल बंद रहता है फिर पूरे महीने के काहे के पैसे । मेरे सामने आये माँगने वाला, दूँगा तीन जूते । और ये विश-टिश करने का काम तुम लोग ही करा करो, अपने बस का नहीं है ये ।’ केबल वाले को अनुप्रास अलंकार में दो सेट गालियाँ भी दीं भार्गव बाबू ने । भार्गव बाबू तीसरी सूचना पर भकभका जाते हैं ताकि आगे की सूचनाएँ आनी बंद हो जाएँ । नाश्ता हो चुका है । मोबाइल को चालू कर लिया है । पानी की बॉटल और लंच बाक्स को सहेज कर बैग में रख रहे हैं अब वे । जेब से कुछ पैसे निकाले, गिने और वहीं टेबल पर रख दिये ‘चार सौ हैं, अब इससे ज़्यादा नहीं हैं मेरे पास अभी ।’ पत्नी को पता है कि चार सौ कह रहे हैं तो ढाई सौ से तीन सौ के बीच में होंगे । इस बात पर शाम को कोई विवाद भी नहीं होगा । इनको पता है कि कम दे रहा हूँ और उनको पता है कि कम मिल रहे हैं ।

अब भार्गव बाबू सड़क पर आ गये हैं । बैग कंधे पर टँगा है । बस स्टॉप तक पैदल जाना है । मोड़ पर हनुमान जी का मंदिर है, भार्गव बाबू का पहला स्टॉप । मंदिर में हाथ जोड़ कर कुछ देर बुदबुदाते हैं, पता नहीं क्या । जब मंदिर से निकलते हैं तो माथे पर सिंदूर का गोल टीका लगा होता है, जिसके बीच में कुछ भभूत लगी होती है । ये टीका भार्गव बाबू का पूरा व्यक्तित्त्व बदल देता है । अब भार्गव बाबू एकदम बमचिक ईमानदार, निष्ठावान, धर्मप्रेमी, कर्त्तव्य परायाण और जाने क्या क्या लग रहे हैं । ये लगना उनके लिये ज़रूरी भी है । सारा खेल तो इसीका है । भार्गव बाबू अब मंदिर से बस स्टॉप की तरफ चल पड़े हैं । अब मोची से जूते पालिश करवाने हैं । भार्गव बाबू पहले कभी जूते पॉलिश नहीं करवाते थे । अब करवाते हैं । इस मोची का कोई काम उनकी टेबल पर फँसा था । मोची के पास देने को पैसे नहीं था । समझौता ये हुआ कि वो काम के बदले में उतनी बार भार्गव बाबू के जूतों पर पॉलिश कर दिया करेगा । ‘उतनी बार’ मतलब कितनी बार ये कुछ तय नहीं था । अभी तक वो ‘उतनी बार’ पूरा नहीं हुआ है । जूते पॉलिश होने तक भार्गव बाबू बाजू की किताब की दुकान के बाहर लटक रहे अख़बारों की हेडिंग पढ़ लेते हैं । वही लटक लटके में । बस स्टॉप पर सुबह भीड़ भाड़ रहती है । दफ़्तर जाने वालों की भीड़ भाड़ । सड़क पर एक भ्रष्टाचार विरोधी रैली निकल रही है । भार्गव बाबू मन ही मन में बुदबुदाये ‘सब साले चोर हैं’ । उनकी इच्छा हो रही है कि रैली में सबसे आगे झंडा लेकर चल रहे व्यक्ति को रोकें और अपने सुप्रसिद्ध ‘तीन जूते’ लगाएँ और कहें कि तुम चला के बता दो इत्ती तनखा में घर । मगर उससे पहले ही बस आ गई है । बस में सवार भार्गव बाबू चल पड़े हैं दफ़्तर की ओर । बस में बैठ कर जब कुछ सेट हो गये तो बैग की चोर जेब में हाथ डाल कर कुछ निकाला और निकाले हुए कुछ में से कुछ अपने मुँह में डाल लिया और चबाने लगे । शेष कुछ हाथ में है । दफ़्तर में जब कोई पार्टी होती है तो ये ड्राय फ्रूट्स की आठ दस मुट्ठियाँ बैग के हवाले कर देते हैं । वही चबा रहे हैं अभी । बस में पूरा समय यही बस एक काम है ।

बस स्टॉप से कुछ दूर तक पैदल और ये आ गया दफ़्तर । भार्गव बाबू की टेबल वैसी ही साफ सुथरी है जैसी वे कल छोड़ कर गये थे । जाते समय अलग अलग दराज़ों में फाइलें जमा कर रख कर जाते हैं वे । किस फाइल का पैसा आ गया है, किसका आधा आया है, किसका नहीं आया है और किसका आएगा भी नहीं । नहीं वाले मामलों से उनको घोर चिड़ है । पिछले महीने वे अपनी सगे साले से कोई काग़ज़ बनवा कर देने के पाँच सौ ले चुके हैं । साले को कहा ‘ऊपर तो देने पड़ते हैं’ और साहब को कहा ‘साले का काम है....’ । मगर फिर भी नहीं वाले सिफारिशी मामले आ ही जाते हैं । साढ़े दस बज चुके हैं । काम का समय हो चुका है । भार्गव बाबू का काम ठीक समय पर ही शुरू होता है । बैग को टेबल के नीचे एक कोने में रख कर वे कुर्सी पर जम गये हैं । झुक कर दराज़ से फाइलें निकाल कर टेबल पर रख रहे हैं । वे फाइलें जिनकी दान दक्षिणा का काम पूरा हो चुका है । जिनका अधूरा है या हुआ ही नहीं है वे वहीं रहेंगी दराज़ में । अब वे ऊपर की दराज़ खोल कर सामान निकाल रहे हैं रजिस्टर, पेंसिल, पिन होल्डर आदि आदि ।

‘बाबूजी मेरा कारड....’ भार्गव बाबू को कुर्सी पर जमते देख एक आ गया और आकर अपना सवाल प्रस्तुत कर दिया । उन्होंने हिकारत के साथ उसकी तरफ देखा और कुछ अनुप्रासों के साथ बोले ‘क्यों गोंई, रात में क्या इधर ही बिस्तर लगा के सो गये थे। सुबह हुई नहीं कि आन ठाड़े हुए माथे पर .....’ आने वाला वाक्य में प्रयुक्त गालियों के बोझ से दबा ‘हें हें हें हें’ करने लगा । ‘चाय लाऊँ बाबूजी ?’ उसने एक बार फिर कोशिश की । ‘अच्छा ? अब हमारे पास यही रह गया है कि तुम्हारी चाय पीएँ ?’ भार्गव बाबू वैसे तो दिन भर चाय पीते ही नहीं लेकिन उनको रिश्वत का कोई भी दूसरा भौतिक संस्करण वैसे भी बिल्कुल पसंद नहीं है । वे ऐसी किसी भी पेशकश को मिलते ही ख़ारिज कर देते हैं, एकाध मोची वाले केस के अपवादों को छोड़कर । उनका ऐसा मानना है कि पाँच रुपल्ली की चाय पिला कर आदमी पाँच सौ देने के बजाय सीधा तीन सौ पर आ जाता है । चाय पीने वाले कभी समझ भी नहीं पाते कि पाँच रुपये की चाय ने दो सौ का नुकसान कर दिया है । ‘क्या मेरे मोड़े से मोड़ी ब्याहनी है तुझे जो चाय पिला रहा है ? हाँ ?’ ऐसे किसी भी प्रयास में भार्गव बाबू एकदम तल्ख हो जाते हैं । विनम्रता ओढ़ी नहीं कि जेब कटी, ये दुनिया घूम घूम कर विनम्र लोगों को ढूँढती है और उनको मूर्ख बनाती है । हालांकि भार्गव बाबू ‘मूर्ख’ के स्थान पर एक दूसरा शब्द उपयोग करते हैं । ‘अब गोंई तुम ज़रा घूम कर तो आओ, हमें ज़रा काम काज समझ लेने दो, भुनसारे से आकर छाती पर मूँग मत दलो ।’ भार्गव बाबू जान गये हैं कि आज ये पैसे लेकर आया है, तभी चाय पिलाने की बात कर रहा है । प्रत्यक्ष में इसीलिये कुछ बेरुखी दर्शा रहे हैं ।

आदमी सकुचाया हुआ वहीं खड़ा है । उसका हाथ जेब में चला गया है जहाँ से कुछ निकालते-निकालते वो बार बार रुक रहा है । ‘वो...ये....मैं....’ आदमी ने जेब से हाथ को बाहर निकाल अनकहा सा कुछ कहा । भार्गव बाबू ने हाथ में पकड़ी हुई गाँधी जी की छवियों को देखा और अनुमान से जान लिया कि पूरे हैं । ‘लाओ’ उल्टे हाथ को आगे बढ़ा कर उसकी चारों उँगलियों को अंदर बाहर करते हुए इशारा किया । भार्गव बाबू हमेशा उल्टे हाथ से ही रिश्वत लेते हैं, उनका मानना है कि ईश्वर ने सारे ग़लत काम करने के लिये उल्टा हाथ बनाया है । आदमी ने अपने हाथ को उनके हाथ पर खाली कर दिया । भार्गव बाबू ने अपने हाथ को पैर के पास रखे बैग की आगे की जेब में ख़ाली कर दिया । भार्गव बाबू का पूरा काम ‘खुल्ला खेल फ़रुक्काबादी’ है, जब हर शाम साहब के कक्ष में जाकर हिसाब के साथ उनका हिस्सा देते हैं तो किससे डरें ? ‘जाओ अब लंच बाद आना, कार्ड ले जाना ।’ आदमी चला गया हाथ जोड़ कर । भार्गव बाबू ने उसकी फाइल को भी दराज से निकाल कर टेबल वाली फाइलों में रख दिया । अब वे फाइलों में जल्दी जल्दी नोटिंग वगैरह कर रहे हैं । इतने व्यस्त हैं कि सिर भी ऊपर नहीं कर रहे हैं । यदि देवतागण इस दृश्य को देख लें तो तुरंत बादलों के किनारे पर खड़े होकर फूल बरसाने लगें । कितना कर्त्तव्य पारायण जीव है ये । घड़ी की सुइयाँ सरक रही हैं, भार्गव बाबू काम में लगे हैं । दूसरे सेक्शन के लोग भी आने लगे हैं, दफ़्तर धीरे धीरे हलचल से भर रहा है । साढ़े ग्यारह बज गये हैं । साहब आ गये हैं । भार्गव बाबू कुर्सी से उठ कर खड़े हो गये हैं नमस्कार करने के लिये । साहब अंदर चले गये हैं । अब भार्गव बाबू को ‘टिंग-टाँग’ की प्रतीक्षा है । इस प्रतीक्षा में वे फाइलों पर जल्दी-जल्दी काम कर रहे हैं। दस पन्द्रह मिनट बाद ‘टिंग-टाँग’ हुई । भार्गव बाबू सचेत हो गये । चपरासी ने उधर से ही इशारा किया साहब बुला रहे हैं । भार्गव बाबू सारी फाइलों को समेट चल पड़े ।

‘कितनी फाइलें हैं ?’ साहब व्यस्त दिखने का प्रयास कर रहे हैं । भार्गव बाबू को पता है कि ये केवल प्रयास ही है, हक़ीक़त में वे ऑफिस में उतने ही व्यस्त हो सकते हैं जितने भार्गव बाबू चाहें । ‘पच्चीस फाइलें हैं, पन्द्रह तो प्रमाण पत्र के लिये हैं और दस लाइसेंस की हैं । और बाकी ये पाँच ।’ भार्गव बाबू का स्वर मुलायम हो चुका है । अदब से भरी मुलामियत । मुलायिमत जो मुलाजिमत की सबसे आवश्यक शर्त है । ‘ये पाँच.....?’ साहब की भृकुटियाँ कुछ ऊपर की और खसक गईं हैं । ‘जी ये जन सेवा खाते में हैं, दो मंत्रीजी के पहचान वाले हैं, दो बड़े साहब के हैं और एक के लिये बाई साहब जी का फोन आया था ।’ बाई साहब जी मतलब साहब की धर्मपत्नी । साहब पत्नी का नाम आते ही धीमे से मुस्कुराये ‘हूँ हूँ...जनसेवा खाता...’ । भार्गव बाबू सकपका गये ‘नहीं वो बाई जी साहब वाला नहीं, वो तो....’ । ‘लाइये लाइये दिखाइये फाइलें...’ साहब ने भार्गव बाबू को असहज होते हुए देखा तो बोले ।

साहब के साथ भी भार्गव बाबू का एक अजीब सा रिश्ता है । बिल्कुल साफ हिसाब किताब का । भार्गव बाबू ने हर साहब के साथ यही रिश्ता रखा है । जानते हैं कि साहब गिनता जाता है कि वो कितनी फाइलों पर साइन कर रहा है । दो प्रमाण पत्र, तीन लाइसेंस, चार स्वीकृति पत्र । मतलब पाँच सौ प्लस तीन हज़ार प्लस दो हज़ार, कुल जमा पाँच हज़ार पाँच सौ । जैसे ही साहब के हिसाब के ठीक अनुरूप राशि हाथ में धरी, साहब हुए मुरीद । जनसेवा खाते के काम इसीलिये वे अलग से गिना देते हैं, ताकि साहब उसे जोड़ में शामिल न करें । भार्गव बाबू जानते हैं कि ऊपर से भले ही कोई साहब ये दिखाये कि उसे कोई परवाह नहीं है कितनी फाइलें साइन हो रही हैं, किन्तु, अंदर ही अंदर सब गिनते हैं । भार्गव बाबू की सबसे बड़ी सफलता यही है कि वो साहब की गिनती को कभी भी ग़लत नहीं होने देते । ‘ये रामचरण वाले मामले में तो हमने पहले आपत्ती लगा दी थी न ?’ साहब ने एक फाइल पर नाम देख कर क़लम रोक दी । ‘जी सर मगर वो अब एनओसी ले आया है, ये लगी है पीछे ।’ भार्गव बाबू ने फाइल के पीछे लगा एक काग़ज़ खोल कर दिखाया । साहब संतुष्ट हो गये साइन कर दिया । ‘आज मैं लंच के बाद नहीं आऊँगा, कुछ काम है। जो काम है सब लंच से पहले करवा लेना ।’ मतलब ये कि पैसों का हिसाब भी लंच से पहले कर देना । साहबों की बातों के दूसरे अर्थ भार्गव बाबू खूब जानते हैं । उन्हें कोई चिंता नहीं है क्योंकि वे सारा काम कैश में ही करते हैं । जिस फाइल का पूरा पैमेंट आ न गया हो उसे साहब के सामने पेश ही नहीं करते हैं । पेश करने का मतलब है साहब की गिनती में आ जाना ।

साहब एक बार पूरी फाइल को देखते हैं, साथ के सारे डाक्यूमेंट्स चैक करते हैं और फिर भार्गव बाबू की ऊँगली जहाँ रखा जाती है वहाँ-वहाँ साइन कर देते हैं । यह एक धीमी प्रक्रिया है । भार्गव बाबू इस दौरान कुर्सी लेकर बैठते नहीं है । साहब के ठीक बाजू में खड़े रहते हैं । उनके अनुसार सदाशयता दिखाने के लिये साहब लोग भले ही कह देते हैं कि बैठ जाइये, मगर हक़ीक़त ये है कि साहब लोगों को पसंद रहता है उनका अधीनस्थ उनके सामने बैठे नहीं । इसलिये वे कभी नहीं बैठते, घंटे-घंटे भर खड़े रहते हैं । इस दौरान यदि साहब ने दो बार चाय मँगा कर पी ली है और भार्गव बाबू से भी पीने का पूछ लिया तो वे उसके लिये भी विनम्रता पूर्वक एसीडिटी का बहाना बना कर टाल देते हैं । किसी साहब के साथ चाय नहीं पी है उन्होंने । सुबह घर पर चाय पीने के बाद दिन भर चाय नहीं पीने का नियम बनाया ही इसलिये है । उनकी सिद्धांत पुस्तक में ये भी लिखा है कि कोई साहब ये पसंद नहीं करता कि उसका अधीनस्थ उसके साथ में चाय पिये । भार्गव बाबू अपनी इस सिद्धांत पुस्तक के हिसाब से ही चलते हैं और आज तक कभी भी फेल नहीं हुए हैं । साहबों के साथ एक विशिष्ट दूरी बना कर रखने की कला वे जानते हैं ।

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