ततइया - 1 Nasira Sharma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ततइया - 1

ततइया

(1)

शन्नो बारिन कमर के नीचे चाँदी की चौड़ी करधनी कसे अलता लगे पैरों में पड़ी पायल की मधुर लय के संग जब बाल्टी उठाए गुजरिया बनी म्यूनिस्पैलिटी के नल पर पहुँचती तो घूँघट में छिपे उसके मुख और हाथों में पड़ी लाल-हरी चूड़ियाँ देख बुजुर्ग औरतों को अपने दिन याद आ जाते। घर के सामने बैठी दोना बनाती यु)वीर बारी की माँ एकटक उसी को निहारती हो ऐसा नहीं था, मगर हरे-हरे पत्तों की अंजुली में तिनका खोंसकर
जब वह उन्हें सामने डालती तो अपने आप नज़रें पल-भर के लिए बहू पर जा टिकतीं। आँखों में संतोष-भरी खुशी का उजास भर उठता कि उसका घर भी फ़ल-फ़ूल उठा है।
कभी मन ही मन कह उठती: इस काले बारी परिवार में यह साँवली-सलौनी कहाँ से आ गई |
जब से बहू घर आई है यु)वीर की माँ को चूल्हे-चक्की, झाड़ू-बुहारू से छुट्टी ज़रूर मिल गई है, मगर उसने दोने-पत्तल बनाना नहीं छोड़ा। चबूतरे पर बैठ वह सारे मोहल्ले को ताकती अपना दिल बहलाती हाथ चलाती रहती। मोहल्ले-भर में यही एक नल था। सूरज उगने से पहले ही जमघट लगा होता। नहाना, धोना, कपड़े पछाड़ना, पानी भरना। इस बहाने घर के सामने रौनक लगी रहती थी। कोई बड़ी-बूढ़ी नल पर गगरी, बाल्टी लगा यु)वीर की माँ के पास घड़ी-दो घड़ी बैठ बतिया लेती या कभी कोई जवान औरत अपने बच्चे को वहीं चबूतरे पर लिटा नहाने-धोने में लग जाती, तब यु)वीर की माँ पत्तल-दोने छोड़ उसे चुमकारने-खिलाने लगती थी।
इधर कुछ दिनों से उसे अपना ही मोहल्ला कुछ पराया-पराया-सा लगने लगा था, लोग बदले-बदले नज़र आने लगे थे। नहाते-धोते मर्दों की नज़रें उसको ठीक नहीं लगती थीं। अंदर-अंदर राख में लिपटी चिंगारी की तरह यु)वीर की माँ सुलगती रहती, मगर ऊपर से शांत चेहरा लिए सारा दिन दोने बनाती बैठी रहती और शाम होते ही हलवाई की दुकान पर सदा की तरह पत्तलें गिनवा आती और लौटते समय बहू-बेटे के लिए दोना-भर रबड़ी-मिठाई लाना नहीं भूलती। आखि़र यही तो चाव-चोचले के दिन हैं।
रात को खा-पीकर जब सारा मोहल्ला शांत हो जाता, वह भी खटोले पर थकी टाँगें पसारकर सोचती कि इस नल को हमारे ही द्वारे लगना था | सोती तो सपना देखती कि मोहल्ले के सारे मर्द एकाएक दो-मुँहे साँप की तरह जीभ लपलपाते हुए नल के हौदे के चारों तरफ़ कुंडली मारे बैठे हैं और उनके बीच शन्नो मुँह उघाड़े खड़ी है। वह चौंककर उठ बैठती। माथे का पसीना पोंछती। उठकर आधा लोटा पानी पी जाती फि़र स्वयं को समझातीµअच्छा है जो नल पास है। दूर होता तो वह बहू की चौकसी भी न कर पाती। नन्हीं-सी कोमल जान क्या जाने इन काले कोबरों का विष |
सुबह अँधेरे मुँह उठकर नहाती-धोती और आले में लगे तुलसी के पौघे में पानी डाल जब अपने हाथ जोड़ती तो अपने को धिक्कारती कि कैसा पाप चढ़ा रही है अपने माथे सब के बारे में गंदे विचार रख ! फि़र मन की शुि) के लिए वह माथा टेकती कि आगे से वह ऐसी बातें नहीं सोचेगी। उसे विधवा हुए पंद्रह साल बीत गए थे। इन्हीं दोनों-पत्तलों के भरोसे उसने दो लड़कियों और एक लड़के को पाल- पोसकर गृहस्थी की गाड़ी को यहाँ तक खींचा था। दोनों लड़कियाँ अब अपने-अपने घर में सुखी हैं। बारहवाँ पास कर यु)वीर भी बिजली घर में लग गया है। उसे माँ का दोने बनाना अब नहीं भाता। उसके सुख के दिन आए हैं इसलिए वह कई बार माँ को टोक चुका हैµ
”अब तुझे इस खटराग की क्या ज़रूरत है माँ | चैन से लेटकर ललाइन काकी की तरह बहू से हाथ-पैर दबवा न।“
”बौरा गया है क्या | अभी हाथ-गोड़ चलते हैं सो तुझे बुरा लगता है क्या जो मुझे रोगी बनाना चाहता है |“
”तो सारी उम्र काम ही करेगी क्या |“
”काम से छुट्टी कहाँ, कल जो इस घर पोता-पोती होंगे तो दोने-पत्तल छोड़ उन्हें ही गोदी में उठाए-उठाए फि़रूँगी।“ माँ की बात सुन झेंपता यु)वीर उसके पास से उठ जाता।

दशहरे के आगमन से मौसम बदलने लगा था। अंदर-बाहर उत्सव जैसा लगता। शन्नो ने हल्दी लगे हाथ के छापे के संग दीवार पर गेरू से कई आकृतियाँ बना तुलसी के आने के चारों तरफ़ कँगूरा उभार दिया था, घर की दीवारों पर राम-कृष्ण के फ़ोटो वाले कैलेंडर लगाए थे। यु)वीर पन्नी की रंग-बिरंगी झालरें ले आया था, जो दरवाज़े पर पड़ी हवा से थरथराती रहती थीं। आज चूँकि चौकी इस मोहल्ले से उठने वाली थी सो नाली की सफ़ाई में मेहतर कल से जुटे थे। सड़क के दोनों ओर चूना डाल दिया गया था। घरों के सामने भी फ़ैला सामान सिमट गया था। मोहल्ला बदला- बदला-सा लग रहा था। यु)वीर की माँ ने आज दोने-पत्तल नहीं फ़ैलाए थे। अच्छी बढ़िया साफ़ साड़ी पहन रखी थी।
यु)वीर का घर रिश्तेदारों से भरने लगा था, जो चौकी के दर्शन को आए थे। सुबह से सजी-धजी शन्नो सबके पैर पूजती, मिठाई-नमकीन सामने रखती आवभगत में लगी थी। उसका मन-मयूर इस विचार से बार-बार नाच उठता था कि मोहल्ले के दशहरा कमेटी वाले उसे सीता बनाने के लिए कई बार सास की चिरौरी कर चुके थे। वह नहीं मानी थी। शन्नो दिल मसोसकर रह गई थी।
”अभी तो गौना हुआ है भय्या जी, नई-नवेली दुल्हन है।“
”तुझे बहू को यदि नजर लगने का डर है तो उसे हम रावण वाटिका में बिरहणी के रूप में बिठा देंगे, बिलकुल सादी केवल फ़ूलों की एक माला के संग।“ प्रबंधक दशहरा कमेटी, मोहल्ले के लड़कों के उकसाने पर स्वयं कहने चले आए तो इस बार नगर चौकी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाने के इच्छुक थे।
”न बाबू जी, यह तो न होगा।“ इस बार स्वर में कठोरता उभर आई और अंदर-अंदर गाली देकर बोलीµ‘बहू को जी भर देखने का बहाना तो देखो इस बूढ़े खूसट का ! अरे जाओ अपनी माँ-बहन को सजा-धजा सुपर्णनखा बना लो मैं क्या रोकूँगी।’
दोपहर के ढलते ही चौकियाँ निकलना शुरू हुईं जिनके बीच बाँके जवान तेल से भीगी लाठी का कमाल दिखा, नए-नए पैंतरे बदल देखने वालों का ध्यान खींच रहे थे। पुलिस चौकस थी कि किसी तरह की शरारत बेमतलब झगड़े का रूप न धर ले। चौड़ी सड़क खचाखच भरी थी। देखने वाले लोग केवल मोहल्ले के थोड़े थे। आधा शहर जैसे पंक्तिब) हो पूरे इलाके में फ़ैल गया था। औरतें, बच्चे छतों और खिड़की-दरवाज़ों से श्र)ा के फ़ूल चौकियों पर फ़ेंक रहे थे।
शन्नो सब कुछ भूलकर देवताओं के मुख ताक रही थी। तीर-कमान से सजे सीता के अगल-बगल खड़े राम और लक्ष्मण को देखकर जैसे वह बौरा-सी गई। सर पर पड़ा रेशमी पल्लू सरककर कब कंधों पर आन गिरा उसे पता न चला, बस वह अपने को सीता की जगह खड़ा महसूस कर रही थी। तभी किसी ने उसका हाथ पकड़ अपनी तरफ़ घसीटा। शन्नो सँभलती, कुछ जानती-समझती, उससे पहले वह लंबे-लंबे आदमियों की भीड़ के बीच पहुँच चुकी थी। वह जितना हाथ छुड़ाने की कोशिश करती, पकड़ पहले से और अधिक मज़बूत होती गई। किसी के पैरों पर चढ़ती, कंधों से टकराती, धोती सँभालती, पसीने में डूबी, घबराई जो बाईं तरफ़ वाले मोड़ पर निकली और अचकचाकर उसने हाथ पकड़ने वाले को ताका तो सन्न रह गई। नशे में झूमता एक अधेड़ सामने खड़ा था। लाल-लाल आँखें, बड़े-बड़े बाल और---शन्नो चीख़ना चाहती थी मगर डर कर थर-थर काँापने के अतिरिक्त उसके मुँह से बोल न फ़ूटे।
हारमोनियम साफ़ करते हुए गायक बाबू ने जो यह दृश्य खिड़की से देखा तो लगा जैसे गली के नुक्कड़ पर अनार छूटे हों। जूड़े में घुँघरू वाले काँटे बिंधे थे। गले में चमचमाता सोने का हार, बड़े-बड़े लटकते झुमकों के बीच माथे पर दगदगाती बड़ी-सी टिकुली और माँग में लाल-लाल सिंदूर---साक्षात् सरस्वती माँ की सूरत। उन्होंने ग़ौर से देखा---नाक में पड़ी अनारदाने जैसी लौंग एकाएक चमकी---हाथ का कपड़ा फ़ेंक घर की सीढ़ी उतर भागते हुए सड़क की तरफ़ बड़बड़ाते लपके, ”कुछ गड़बड़ लगती है, आखि़र यह आदमी उस लड़की को इस तरह घसीट क्यों रहा है |“
जब तक गायक बाबू धोती की लाँग में उलझते हुए सँभलते तब तक दोनों पतली गली में लोप हो यह जा, वह जा। वह हक्का-बक्का खड़े रह गए। नाक पर लटक आए चश्मे को ठीक करते हुए कुछ समझ नहीं पाए। फि़र भी एक मोहल्ले की बात दूसरे मोहल्ले से नहीं छुपती, यह तो फि़र अपने मोहल्ले की बात थी। यु)वीर की औरत की सुंदरता का बखान पत्नी, बेटी से सुन चके थे। सो समझ गए हो न हो वही है। मन में शंका उठी कि वह लड़का कैलाश बारी तो नहीं थाµभैरव मंदिर के पास वाला नसेड़ी भाँग-चरस का शौकीन | क़द-काठी कुछ वैसी ही लगती थी। बड़ी देर तक फ़ैसला नहीं कर पाए कि जो देखा है उसे सच मानें और बारिन से जाकर बताएँ या फि़र ऐसे बन जाएँ जैसे कुछ देखा ही नहीं।
यु)वीर बड़ा भला लड़का है। इस मोहल्ले में वही कुछ पढ़ा-लिखा गंभीर है, वरना तो---चलता हूँ स्थिति आँक कर मुँह खोलूँगा। हो सकता है मेरी भूल हो वह लड़की कोई और हो | गायक बाबू ने आँखें मल चश्मा लगाया।

श्र)ा के फ़ेंके फ़ूल कुचल चौकियाँ आगे गुज़र गई थीं। सड़क की भीड़ छँट गई थी। सूरब डूब गया था। झाँकने वाले खिड़की-दरवाज़ा बंद कर घरों में कै़द हो गए थे। यु)वीर और उसकी माँ मेहमानों को विदा कर वहीं चबूतरे पर आन बैठे थे। यही उनका आँगन था, जहाँ बैठे वह ताज़ा हवा के साथ आसमान देख सकते थे। ”एक लोटा पानी दे जा बहू।“ यु)वीर की माँ ने बहू को पुकारा।
”गायब चाचा आप---|“ यु)वीर तेजी से अपनी जगह से उठा और खुशी से भरा उनके पैरों पर झुका।
”मिठाई-नमकीन भी साथ लाना। आज हमारे भाग्य खुले जो यु)वीर के बापू के मित्र घर पधारे।“ बारिन ने खटोला डालते हुए कहा।
बहू कोठरी से जब मिठाई-पानी लेकर नहीं निकली तो यु)वीर यह सोच अंदर गया कि कहीं शन्नो का जी न ख़राब हो गया हो। गायक समझ गए कि अब कहना ठीक होगा वरना कच्ची बात कह सदा के लिए संबंध तोड़ना कहाँ की बुि)मानी है, सो झिझकते-डरते जो देखा था वह सब कह सुनाया।
”अरे वह कोई और नहीं अपनी शन्नो होगी, उसका जैसा रूप सात मोहल्ले में नहीं है देवर जी !“
”क्षमा करना बहन, मैंने तो बस---“ हाथ जोड़ खड़े हो गए।
”हाय दइय्या, कालिख पोत गई मुँह में---“
”माँ वह तो---“ कोठरी, संडास में देख यु)वीर बाहर निकला तो माँ को सर पकड़े बैठा देखा और गायक चाचा को सर झुकाए जाते देखा।
”भाग गई तेरी घरवाली।“ पगलाई-सी बारिन उठी और अंदर कोठरी में आन बैठी और कभी सीना कूटती कभी मुँह पीटती। यु)वीर का चेहरा अपमान से झुलस कर कोयला हो गया था। माँ का वाक्य दोने के मुलायम पत्ते में खुसा नुकीला तिनका बन जैसे हज़ारों की संख्या में उसके दिल में एकाएक खुप गया। समझ न पाया कि माँ की गोद में सर छुपाकर ज़ोर-ज़ोर से रोए या फि़र अपना सर दीवार से टकराकर माथा फ़ोड़ ले।
”क्यों बैठा है मुँह छिपा के, जा देख कहाँ गई है कुलच्छनी---पूरे डेढ़ किलो की करधनी थी। पाँच-छह तोला सोना---सब ले गई नासपीटी---सारी उम्र की कमाई पर झाड़ू फ़ेर गई।“ माँ का क्रोध एकाएक मि)म विलाप में बदल गया।
”शन्नो भाग गई |“ यु)वीर को सहसा विश्वास न हुआ। काँपते शरीर से वह हड़बड़ाया-सा उठा और अचकचाया-सा सड़क पर आन खड़ा हुआ। रात का सन्नाटा सड़क पर फ़ैल गया था। इक्का-दुक्का सवारी आ रही थी। फ़ुटपाथ पर ईंटा जोड़ बाउल के खटाले वाले रिक्शाचालकों ने भात पकाना शुरू कर दिया था। लैंप पोस्ट की पीली रोशनी में चाय वाले मटकू के चूल्हे के आसपास कुत्ते बदन गोल कर ऊँघ रहे थे। यु)वीर अंदर से उठती रुलाई को पीता हुआ धीरे-धीरे चलता नीम के पेड़ के नीचे आन खड़ा हुआ जैसे पूछ रहा हो किधर जाऊँ | किससे पूछूँ |
चौराहे की तीन तरफ़ जाने वाली सड़कों को वह खड़ा देखता रहा और अनुमान लगाने लगा कि चौकियाँ उसके घर से दाहिनी तरफ़ वाली सड़क पर मुड़ी हैं। जहाँ पर लोगों की घंटाघर तक रेलपेल होगी। सामने वाली सड़क पर बड़ी इमारत गिरने से रास्ता बंद है। अब बायाँ रास्ता ही ऐसा है जिधर जाकर ढूँढ़ा जा सकता है। हाथ में पकड़ी साइकिल के संग वह निराश-सा आगे बढ़ा। उसे डर भी लग रहा था। कई तरह की शंकाएँ उसे घेर रही थीं।

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