लो समय आ गया बिछड़ने का
कर न सके हम कुछ अपनी बात।
गई शाम आ गया प्रभात
फैली अरूणिम आभा चहुं ओर।
स्वर्णमय हो गया संसार
ऐसे सुंंदर अवसर पर
लो समय आ गया बिछुड़ने का।
पहल कभी न की मैंने
मुझमें भी थी लोक ल।ज।
तुम भी मुझसे कह न सके
तुम में भी था गर्व अभि मान।
इसी कशमकश में कट गए दिन
रह गई दिल की दिल में बात।
लो समय आ गया बिछुड़नें का
कर न सके हम कुछ अपनी बात।
भुला न सकूंगी मैं तुमको
लौट के तुम जल्दी।
तुम बिन बिंदिया सूनी है
मैं भी तुम बिन अधूरी हूं।
फिर कैसे कहूं तुम्हे जाने को
क्या कहूं इस आने को।
ऐसी विषम परिस्थिति में
लो समय आ गया बिछुड़ने का
कर न सके हम कुछ अपनी बात।
****************~✍️निमिषा~
ये मेरी वर्षों पहले की लिखी हुई कविता है।उम्मीद है आप सब को पसंद आएगी।
बेटी
बेटों को मिलता हक सम्मान
बेटी वंचित रह जाती है।
ऐसा भी क्या पाप किया
जिसकी सजा वह पाती है।
तुम तो पराई हो ये गूंज वह
बचपन से सुनती आती है।
यदि बेटी है पराई! फिर काम
कर्म मान मर्यादा की क्यों
अपेक्षा उससे ही की जाती है।
अपने मतलब को देख क्यों
बंदिशे उस पर लादी जाती हैं।
गुलाम नहीं है वह किसी की
फिर क्यों अत्याचार की भागी है।
जो शक्ति लाई है बेटों को
उसने बेटी भी बनाई है।
नहीं किसी को कोई हक है
उसके हक को लेने का।
स्वतंत्र भारत में जन्मी
स्वतंत्रता से ही वंचित है बेटी।
स्वतंत्रता के खोखले पिंजरे में
पलकर भी अपने जीने का
अधिकार नहीं वह पाती है।
उसको भी दो जीने का हक
उसकी भी कुछ इच्छाएं हैं।
आखिर उसने भी धड़कने
जीवन की कुछ पाई हैं।
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प्यार के ऊपर एक और कविता मेरी लिखी हुई ।ये भी मैंने वर्षों पहले ही लिखी थी।
आपकी नज़र ने कुछ यूं कहा हमसे।
आप हैं मेरे हमनवाज न जाने कब से।।
नज़र ही नज़र में दास्तां बन गई।
कुछ हमारी कुछ आपकी जुबां कह गई।।
पर समझो मेरे दिल के मालिक
दिल वालों का दुश्मन ज़माना है न जाने कब से।।
अनजाने में दिल की गहराइयों में उतर गए
आप हमारे हम आपके हमनशी बन गए।।
आपके जाने के बाद होश आया, तो पाया
हमने बेहोशी का खुमार था न जाने कब से।।
आपकी नज़र ने कुछ यूं कहा हमसे।
आप हैं मेरे हमनवाज़ न जाने कब से।।
~✍️निमिषा~
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कभी सुबह तो कभी शाम
आपसे रूबरू होते हैं।
न मिलकर भी दिल के
करीब होते हैं।
मिल ना पाने की बेबसी को क्या कहें
समाज के बंधनों में जकड़े रहते हैं।
कहने को दुनिया हसीं है मगर
चारों तरफ नज़ारे बेरंग दिखते हैं।
कभी सुबह तो कभी शाम
आपसे रूबरू होते हैं।
~✍️निमिषा~
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आखिर क्यों मैं,
खुद को धोखा दिया करती हूं
अपनी ही ज़िन्दगी से खेला करती हूं।
ये कैसा रिश्ता बना है दुनिया तेरे मेरे बीच में
तू मुझे और मैं तुझे बेवकूफ़ कहा करती हूं।
महत्वाकांक्षाएं है ज़ेहन में बहुत
चाह कर भी इनके लिए कुछ कर नहीं पाती हूं।
बेबस हो अपमान का घूंट पीती रहती हूं,शायद
कल मैं बदल सकूं अपने आप को,यही सोचकर
एक दिन और जी लिया करती हूं।
दर्द मैं अपना कहूं किससे,कभी कभी
बस खुद से बातें कर लिया करती हूं।
मुसाफ़िर हूं अकेली इस सफर में
यही सोचकर होंठ सी लिया करती हूं।
आखिर क्यों मै
खुद को धोखा दिया करती हूं।
~✍️निमिषा~