प्रिय क्षितिज,
असीम स्नेहाशीष
तुम अवश्य ही आश्चर्यचकित हो रहे हो कि अभी हमारे साथ जन्मदिन का केक काटकर गये हो और मोबाइल क्रांति के इस दौर में जब मीलों दूर रहकर भी एक नजदीकी का अहसास हर पल रहता है तो मैंने यह पत्र क्यों लिखा है? बेटा! कुछ बातें हम रूबरू नहीं कह पाते और न ही मोबाइल के द्वारा सम्प्रेषित कर पाते हैं। पत्र एक ऐसा माध्यम है कि हम सोच समझ कर अपनी बात कह देते हैं, बिना उसका प्रभाव और त्वरित प्रतिक्रिया जाने और आज मैं सिर्फ अपनी बात तुम तक पहुँचाना चाहती हूँ।
आज जब तुमने एक नवोदित पिता की तरह अपने जन्मदिन का केक अपनी दस दिन की बेटी को गोद में लेकर काटा तो अनायास ही मुझे पाँच वर्ष पूर्व की हमारी पहली मुलाकात याद आ गयी। उस दिन मेरी बेटी अक्षरा का जन्मदिन था। यूँ तो वह हमारे साथ बीस जन्मदिन मना चुकी थी, लेकिन इक्कीसवां जन्मदिन कुछ खास था, क्योंकि तुम उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुके थे और वह तुम्हें हमारी जिंदगी में शामिल करना चाहती थी। तुमसे मिलकर अच्छा लगा था। वापिस लौटते हुए मैं चहक रही थी, तभी मैंने नोटिस किया कि अक्षरा के पापा बिल्कुल खामोश थे... गहन सोच में डूबे हुए चुपचाप कार ड्राइव कर रहे थे। उत्साह के अतिरेक में मैंने ध्यान ही नहीं दिया था कि डिनर के समय भी वे हमारे साथ थे, किन्तु हमारी बातों में शामिल नहीं थे। उस दिन मुझे महसूस हुआ था कि माँ की सोच भावुक और पिता की सोच व्यवहारिक होती है।
तुम और अक्षरा अपनी जिंदगी साथ बिताना चाहते थे। मुझे अक्षरा और तुम्हारा प्रेम दिख रहा था किंतु उसके पापा को उसके भावी जीवन का संघर्ष... तुम भी शायद इस बात को समझते थे... शायद हर पुरूष की सोच इतनी व्यापक होती है कि वे जिंदगी के अहम फैसले कोरी भावुकता के आधार पर नहीं करते हैं। तुमने अक्षरा के जिद्दी स्वभाव को बरकरार रखने की सलाह दी थी उसे, कहा था कि.. "तुम्हारी यह जिद भविष्य में हमें सपोर्ट करेगी, जब तुम्हारे डैडी हमारे सम्बन्ध को आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे।" एक पत्नी और माँ की लड़ाई में जीत माँ की हुई थी। बेटी की जिद के आगे विवश पिता ने समर्थन तो दिया किन्तु मन में और रिश्तों में एक गाँठ पड़ गयी थी।
प्यार के इंद्रधनुषी सपने यथार्थ के धरातल से टकराकर बिखरने लगे थे। तुम्हारे अहम से अक्षरा की जिद अकसर टकरा जाती और मुझे लगता कि एक माँ एक पत्नी से हार गयी... मैं सोचती.. काश! मैंने पति की बात पर गौर किया होता कि जिंदगी सिर्फ प्यार से नहीं चलती। बेटी का जरा सा भी दुःख उसके पिता से बर्दाश्त नहीं होता और मैं अपराध बोध से भर जाती।
आज पहली बार तुमसे मिलकर तुम्हारे श्वसुर खुश हुए थे। तुम्हारी बेटी शायद तुम दोनों के बीच की कड़ी बनकर आयी है। मुझे अच्छा लगा था। तुम्हारे जाने के बाद वे बोले कि... "आज मैं अपने दामाद से नहीं, बल्कि एक बेटी के पिता से मिला हूँ, अब वह मेरा दर्द समझ पाएगा।" मुझे अनायास ही मेरे स्वर्गीय पिताजी की याद आ गयी थी।
बेटा मैं चाहती हूँ कि मेरी बेटी को इतना लंबा इंतजार न करना पड़े पति और पिता के रिश्ते को समझने के लिए.... इस बार गाँठ खुल गयी, अगली बार गाँठ लगने ही मत देना... मुझे विश्वास है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे.....!
सस्नेह आशीर्वाद...
तुम्हारी भी माँ...