बहीखाता
आत्मकथा : देविन्दर कौर
अनुवाद : सुभाष नीरव
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पहला कदम
बचपन की पहली याद के बारे में सोचती हूँ तो मुँह पर ठांय-से पड़े एक ज़ोरदार थप्पड़ की याद आ जाती है। इस थप्पड़ से पहले की कुछ यादें अवश्य हैं, पर वे सभी यादें धुँधली-सी हैं। इसी प्रकार धुँधली-सी स्मृति वह भी है जब मैं गांव कांजली में गुरु ग्रंथ साहिब की ताबिया पर बैठकर पाठ किया करती थी। मेरे नाना जी ने बचपन में ही मुझे बहुत सारी बाणी कंठस्थ करवा दी थी। परंतु यह थप्पड़ वाली याद कुछ अधिक साफ़ है। जब थप्पड़ बजा होगा तो मुझे इस बारे में कुछ भी पता नहीं होगा, पर बाद में शीघ्र ही पता चल गया था कि यह मेरे स्कूल में बजा था। मैं गलत कक्षा में बैठने की कोशिश कर रही थी। मेरी क्लास तो कच्ची की थी, पर मैं सातवीं कक्षा में अपनी बहन के पास बैठने की ज़िद कर रही थी। स्कूल था - खालसा हाॅयर सेकेंडरी स्कूल, चूना मंडी, पहाड़गंज। कोई चार साल की आयु थी मेरी, मगर स्कूल में प्रवेश लेने के लिए पाँच वर्ष की आयु चाहिए थी। स्कूल की अध्यापिका ने स्वयं ही हिसाब लगाकर मुझे पाँच वर्ष की बना दिया था और मुझे दाखि़ला दे दिया था। यही कारण है कि मेरी असल जन्मतिथि 5 नवंबर 1949 के स्थान पर 20 अक्तूबर 1948 बना दी गई थी।
मैं छोटी थी, लाडली तो होऊँगी ही। ज़ाहिर है कि अपनी बहन के साथ ही बैठने की हठ कर रही थी, जो उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। स्कूल में यह मेरा प्रथम दिन था। मेरे लिए यह बिल्कुल परायी दुनिया थी इसलिए स्वाभाविक ही था कि मैं स्वयं को अपनी बहन के पास ही सुरक्षित अनुभव कर रही थी। बहन की स्थिति कुछ अजीब हो गई होगी। हो सकता है कि उसकी सहेलियाँ मुझे लेकर उसको छेड़ भी रही हों। ऐसी ही तो उम्र होती है वो। मुझे याद है कि बहन रुआंसी होकर मुझे क्लास में बिठाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन मंै थी कि उसके साथ ही लिपटी जा रही थी। क्लास के सामने से एक मोटी-भारी औरत गुज़री। मेरी बहन ने उससे शिकायत कर दी। यह औरत कोई अध्यापिका नहीं थी, यह तो स्कूल की माई बलाकी थी। बलाकी ने आकर मुझसे पूछा कि मैं अपनी क्लास में क्यों नहीं बैठती। मैंने ज़िद करते हुए कहा कि मैं अपनी बहन की क्लास में बैठूँगी। बलाकी ने मुझे एक-दो बार प्यार से समझाया। लेकिन मैं अपनी बहन की टांगों में घुसी जा रही थी। बलाकी मुझे बांह से पकड़कर खींचने लगी। मैं फिर भी नहीं चली। उसने एकाएक एक ज़ोरदार थप्पड़ तड़ाक से मेरे मुँह पर जड़ दिया। मेरी चीख निकल गई। उसका दूसरा थप्पड़ खाने लायक मैं थी ही नहीं। वह मुझे रोती-बिलखती को खींचकर मेरी कक्षा में बिठा आई। मैं सारा दिन हिचकियाँ भर भरके रोती-सिसकती रही थी। स्कूल में यह मेरा पहला दिन था।
बलाकी द्वारा मारे गए थप्पड़ के निशान मेरी गाल पर से तो शायद शीघ्र ही मिट गए होंगे, पर मेरे मन में कहीं गहरे गड़ गए। इस तरह कि मुझे अभी भी वे पल हू-ब-हू याद हैं। इसका मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा, वह अभी तक कायम है। वह यह कि बाहरी किसी व्यक्ति के सामने ज़िद नही करनी चाहिए। मैं घर में ज़िद्दी थी, बहन और पिता के साथ छोटी छोटी ज़िद करके अपनी मांग मनवा लेती थी, मगर बलाकी ने यह सबक दिया कि घर से बाहर पैर रखते ही अपनी हठ को भूल जाना चाहिए। यही कारण है कि मेरे स्वभाव में एक ज़िद दबी रहती है। यही कारण है कि कोई मेरी ओर हमलावर होकर आगे बढ़े तो मैं दुबक जाती हूँ जैसे कोई शिकार शिकारी के सिर पर आ खड़े होने पर करता है। जैसे कोई मल्लाह अपनी किश्ती तूफान के हवाले कर देता है। बलाकी ने मेरे मन में आत्म-समर्पण के ऐसे अंश बो दिए कि वे उम्रभर ताजे़ रहे। बलाकी के उस थप्पड़ ने मेरे से पलटकर थप्पड़ मारने की शक्ति छीन ली। माँ-बाप की लाड़ली थी, विशेष रूप से अपने नाना की, परंतु किसी का भी लाड़ इस शक्ति को मेरे अंदर पुनः न भर सका।
माई बलाकी अधेड़ उम्र की विधवा थी। यह एक धड़ल्लेदार औरत थी। इसके हाथ देखकर ही बच्चे डर जाते थे। जिसने इसका थप्पड़ खा रखा होता, वह तो धुनखी (रुई धुनने वाला) के कव्वे-सा उसे देखकर छिप ही जाता। सभी बच्चे माई से डरते थे, थप्पड़ तक शायद मैं ही पहुँची थी। हो सकता है, मेरे जैसे अन्य बच्चे भी हों, पर मुझे तो अपना थप्पड़ ही याद था और अंदर से मैं उस थप्पड़ से दुःखी भी थी और डरी हुई भी। वैसे उसकी ड्यूटी बच्चों की देखभाल करने की थी। बच्चों को शरारतें करने से वह रोकती। यदि कोई बच्चा अधिक ही तंग करता तो वह उसकी शिकायत उसके माँ-बाप से लगा देती। बच्चों पर उसका इतना दबदबा था कि कोई भी बलाकी की किसी भी ज्यादती की शिकायत करने का साहस नहीं रखता था। दूसरी बात यह भी थी कि स्कूल के सभी अध्यापक और बच्चों के माँ-बाप माई बलाकी से बहुत खुश थे। उस पर विश्वास भी करते थे। अपने बच्चों से अधिक उन्हें माई बलाकी पर यकीन था। मुझे यह बात भी अंदर ही अंदर खाती रहती कि यदि माई बलाकी की शिकायत की तो घर वाले मेरे पर नहीं माई बलाकी पर ही अधिक विश्वास करेंगे। पर क्या किया जा सकता था, केवल सहन ही किया जा सकता था और वह मैं कर रही थी।
मैं अपने नाना की कुछ अधिक ही लाड़ली थी। जैसा कि मैंने बताया है कि उन्होंने मुझे तीन वर्ष की आयु में ही पाठ करना सिखा दिया था। मेरा जन्म ही कांजली गांव, ज़िला-कपूरथला का है जहाँ मेरे नाना जी गं्रथी थे। गुरद्वारे की वह इमारत अभी भी मेरी धुँधली स्मृतियों का हिस्सा है। एक बड़ी-सी हवेली थी। इसमें घुसते ही नाना जी की रिहाइश पड़ती थी। गुरद्वारा ऊपर था। नाना जी की रिहाइश में से निकलकर ही गुरद्वारे में पहुँचा जा सकता था। ऊपर पहुँचते ही बहुत खुली छत थी और उससे आगे गुरद्वारे का आयताकार कमरा था जिसमें गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ का प्रकाश होता था। गुरद्वारा छोटा-सा ही था। इस गांव के बहुत सारे लोग पाकिस्तान से उजड़कर आए थे। मेरे नाना जी भी पाकिस्तान से आकर हिंदुस्तान में व्यवस्थित होने का प्रयास करते करते इस गांव में आ पहुँचे थे। चूँकि बाकी लोग भी पाकिस्तान से आए थे इसलिए उनकी गांव के लोगों से बनती भी खूब थी। जब मैं थोड़ा बड़ी हुई तो दिल्ली में रहते हुए नाना जी कांजली गांव की बहुत सारी बातें सुनाया करते। नाना जी पाठ बहुत संुदर करते थे। गांव के लोग उनके पाठ को सुनकर निहाल हो जाते। उनकी हर समय पालथी मारकर बैठने की मुद्रा और दोनों हाथ जोड़कर रखने की आदत, एक तस्वीर की भाँति मेरी स्मृतियों में कहीं गहरे अंकित हुई पड़ी है।
मेरा जन्म इसी गांव का था। इसकी भी कुछ अजीब-सी कहानी थी। यह वो समय था कि जब गर्भवती स्त्री के दिन पूरे होने की कोई निश्चित तारीख़ नहीं हुआ करती थी। सबकुछ अंदाज़न ही चलता था। मेरी माँ की भी ऐसी हालत थी। ऐसा ही हुआ कि वह अपने माता-पिता से मिलने कांजली गांव गई हुई थी कि मैं पैदा हो गई। मेरे जन्म के बाद जब माँ की सेहत सफ़र करने योग्य हुई तो वह मुझे लेकर दिल्ली आ गई। दिल्ली में ही मेरी परवरिश होने लगी, पर मेरी माँ प्रायः कांजली जाती रहती थी। सो, यह स्वाभाविक ही था कि मेरा भी आना-जाना बना रहता। मैं गांव की स्त्रियों के सम्मुख जब पाठ करती तो वे हैरान रह जाती। नाना जी मुझ पर गर्व करते हुए मुझे गोदी में उठा लेते। कांजली जाने का सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक मेरे नाना जी उस गांव में रहे। फिर वह दिल्ली आ गए। या यूँ कह लो कि मेरे माता-पिता दिल्ली ले आए।
मेरा पूरा परिवार पाकिस्तान से आया था। पाकिस्तान में उनका घरबार तो छूट ही गया था, और भी बहुत कुछ वे पीछे छोड़ आए थे। मेरा एक बड़ा भाई पाकिस्तान से आते हुए राह में ही पूरा हो गया था। मेरी माँ उसको सारी उम्र याद करके कलपती रही। मेरे नाना नानी ही अपनी विधवा बहू को संग लेकर इस तरफ पहुँचे थे। माँ भी अपने नौ भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटी, मगर लाड़ली बहन थी। बेबे और भाइया जी की ज़िम्मेदारी ने मेरी माँ का सारा लाड़ उससे छीन लिया। जब मेरे आठ मामा और दो मौसियाँ छोटी आयु में ही ईश्वर को प्यारे हो गए और बहनों-भाइयों में सबसे छोटी लाड़ली मेरी माँ अपने माता पिता को विवाह के पश्चात भी छोड़कर ससुराल न जा सकी, तो मेरे भापा जी (पिता) को मेरे नाना नानी ने घर-दामाद बनाकर अपने पास ही रख लिया। पाकिस्तान में नाना नानी का घर खूब भरा-पूरा था। यद्यपि उनके लगभग सभी बच्चे छोटी आयु में ही मर गए थे, पर एक बेटा किसी तरह बच गया था और उसके विवाह से पूरे घर में रौनक हो गई थी। बहू-बेटा थे और तीन पोते-पोतियाँ। ईश्वर की करनी ऐसी थी कि पहले बारी बारी से तीनों पोते-पोतियाँ मृत्यु का ग्रास बनीं, बाद में उनके पीछे पीछे ही उनका पुत्र यानी मेरा मामा का भी निधन हो गया। मेरी विधवा मामी अकेली रह गई। इस प्रकार, मेरे नाना-नानी जवान विधवा बहू को लेकर हिंदुस्तान आ गए। इधर पहुँचकर मेरे नाना ने तो मामी से कह दिया था कि वह चाहे तो दूसरा विवाह करवा सकती है, परंतु घर में मिलते प्यार और सम्मान को देखते हुए मेरी मामी ने निर्णय कर लिया था कि वह सारी उम्र विधवा ही रहेगी और शेष उम्र उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगा देगी। मैं कांजली जाती तो मेरी मामी मुझे अपनी गोद से ही न उतारती। जब मैं स्कूल जाने लगी तो मेरी माँ एक प्रकार से बंध-सी गई। अब वह पहले की तरह कांजली नहीं जा सकती थी। इधर मेरी माँ उन लोगों को याद करती रहती और उधर वे तड़पते रहते। आखि़र, उन सबको दिल्ली ले आया गया।
मेरी मामी बहुत ही हसीन औरत थी। गोरा-चिट्टा रंग था उसका। हर तरह का कपड़ा उस पर फबता था। वह बारीक किनारी वाला सफ़ेद मलमल का दुपट्टा लिए रहती जो कि उस पर बहुत जंचता था। वह अक्लमंद थी और हर काम में निपुण भी। जो भी उससे मिलता, उसकी प्रशंसा करता। मेरी माँ उसको भाबो कहा करती थी, वह उसकी खूबसूरती पर वारी-वारी जाती थी। उससे इतना मोह करती कि उसको घर का काम भी न करने देती। मामी हम दोनों बहनों को खूब प्यार करती थी। हमारी अधिकतर देखभाल वही करती।
माई बलाकी का थप्पड़ खाकर मैं अपनी कक्षा में बैठने लग पड़ी थी। हालाँकि बलाकी मुझे अब प्यार करने लग पड़ी थी, पर अंदर ही अंदर थप्पड़ ने मुझे सहज न होने दिया। अब बहन मुझे स्कूल में छोड़ जाती। धीरे धीरे मेरा अपनी कक्षा में दिल लगना प्रारंभ हो गया। पंजाबी तो मुझे पहले ही पढ़नी आती थी। नाना ने सिखा दी थी। मेरी अध्यापिका ने जब मुझे ‘ऊड़ा-ऐड़ा’(गुरुमुखी लिपि के प्रथम अक्षर) सिखाना शुरू किया तो मैंने पूरी की पूरी पंजाबी की वर्णमाला लिखकर दिखा दी। यही नहीं, अक्षर जोड़कर भी दिखा दिए। हमारी कक्षा की अध्यापिका चकित रह गई और उसने झट से मुझे कच्ची से पहली कक्षा में कर दिया। जब यह ख़बर मेरे भापा जी अर्थात मेरे पिता को मिली तो उनकी आँखों में खुशी के आँसू आ गए। मेरे पिता ही नहीं पूरा परिवार ही बहुत खुश था और इस खुशी का इज़हार पूरे मुहल्ले में लड्डू बाँटकर किया गया था। मुझे इस बात की बड़ी हैरानी होती कि मेरे स्कूल जाने पर पिता जी मुहल्ले में लड्डू बाँट रहे थे। इसका अर्थ यद्यपि उस वक्त मैं नहीं जानती थी, पर अच्छा अवश्य लगता था।
(जारी…)