दो बाल्टी पानी - 3 Sarvesh Saxena द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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दो बाल्टी पानी - 3

कहानी के पिछले भाग में आपने पढ़ा खुसफुस पुर में पानी ना आने के कारण ठकुराइन मिश्राइन और वर्माइन पानी भरते हुए पूरे गांव की पंचायत करने लगती हैं और वापस अपने घर आतीं हैं, घर आकर मिश्राइन और मिश्रा जी की नोकझोंक होती है |
अब आगे….

" अरे स्वीटी…. अभी तक सो रही है, अब उठ ना.. " ठकुराइन पानी की बाल्टी रखते हुए चिल्लाने लगीं |
"हे भगवान.. भैंस पता नहीं कब तक सोएगी, गांव की सबइ लड़कियां अपनी मां का कितना हाथ बटाटी हैं, पर यहां देखो, अब हम पानी भर भर के मरी जा रहीं है और ये महारानी , अभी तक….., यह भी नहीं चाय चढ़ा देती"|

ठकुराइन ऐसे ही बड़ बढ़ाती, रसोई घर में जाने लगी, तभी ठाकुर साहब बोले," अरी भागवान काहे सुबह-सुबह अपनी जबान जला रही हो, बच्ची है.. सोने दो", यह सुनकर ठकुराइन का बचा खुचा गुस्सा और भी भड़क गया और वह बोली," हाँ .. हाँ.. तुम्हीं ने बच्ची है, बच्ची है बोलकर बिगाड़ा है, और यह आज भी बच्ची बनी घूमती है, खा खाकर भैंस की बच्ची हो गई है, पता नहीं ससुराल में क्या करेगी"|

ठाकुर साहब कुछ धीमी आवाज में बोले, "हां भागवान.. सही कहती हो, भैंस की तो बच्ची है ही" | यह कहकर वो कुछ मुस्कुराए और स्वीटी को जगाने लगे, ठकुराइन अब जाकर ठाकुर साहब की बात का मतलब समझी तो फिर बोली," हां.. हां.. मैं तो हूं भैंस… अरे मेरे बाप ने माल खिला खिला कर जो भेजा है, उन्हें भी पता था ना कि इस घर में नौकरानी जो बनना है मुझे, बड़े आए… थोप थोप के सब को खिलाओ और सबकी सुनो.. हूह, भैंस हूं मैं, अरे जब इसके लिए लड़का देखने जाओगे तब पता चलेगा बड़े आए भैंस वाले "|

ठाकुर साहब -" अरे तुम कहो तो हम चाय बना दे, अरे तुम दिन भर इतना काम करती हो तो का हम तुम्हारे लिए एक चाय नहीं बना सकते"

ठकुराइन हल्का मुस्कुराते हुए -" हां हां बस करो, नहीं पीनी तुम्हारे हाथ की चाय, पिछली बार पी थी आज भी जुबान का स्वाद खराब है, शाम को मेरे लिए रबड़ी ले आना बस, और हां दोबारा मुझे भैंस ना बोलना समझे"|

यह कहकर ठकुराइन अपनी साड़ी को कमर में खोंसकर आँगन में झाड़ू लगाने लगी |


" अरे माँ … माँ कहां जा रही हो तुम, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ… माँ मैं भी चलूंगा..", आठ साल के गोपी ने वर्माइन की साड़ी खींचते हुए कहा | वर्माइन ने गोपी के हाथ झटकते हुए गुस्से में कहा, " मरने जा रही हूं.. चलेगा.., कहां जा रही, हो कहां जा रही हो, अरे कहां जाऊंगी?? पानी भरने गई थी, और कहां गई थी, और वैसे भी इस नर्क में आकर अब कहां जाऊंगी, पता नहीं कौन सा सनीचर सवार था जो यहां चली आई, और हां रे गोपी कितनी बार तुझे कहा है माँ ना कहा कर, मम्मी बोला कर पड़ोस के सब बच्चे अपनी अम्मा को मम्मी बोलते हैं, मम्मी थोड़ा शहर वाला लगता है समझा, अगर अबकी बार तूने मां बोला तो मार खाएगा मुझसे"|

वर्मा जी -" अरे काहे फुलझड़ी से अनार हो रही हो सुबह-सुबह, बच्चा है, उसे ये गांव शहर का सिखा रही हो, बड़ा होगा तब सब सीख जाएगा, मां कहने में क्या बुराई है और वैसे भी तुम सुबह-सुबह लाली लिपस्टिक लगा कर घूमोगी तो बच्चा क्या गांव वालों को भी यही लगेगा कि तुम कहीं जा रही हो " |

वर्माइन अपना गला साफ करते हुए बोली," हां.. हां.. सुबह-सुबह और कोई काम तो है नहीं मुझे तो बस तैयार होकर बैठी रहती हूं, तुमने घर में इतने नौकर चाकर जो लगा रखे हैं,..

मिश्राइन और ठकुराइन को देखो कैसे जच के रहती हैं, उनके आदमी तो खुश होते हैं, इन्हें देखो बीवी का सजना सवरना ही नहीं देखा जाता सही बात मेरी तो किस्मत ही फूट गई, किस्मत हो तो बनिया के घर वाली जैसी कैसे घूमती है और मनमर्जी के कपड़े पहनती है, जलवे काटती है, यहां सुबह से रात तक चाकरी करते रहो फिर भी सब की नाक भौंहे सुकड़ी रहती है "|

वर्मा जी मुस्कराते हुए - " अरे का अनाप-शनाप बोल रही हो, हम तो कहते हैं कि तुम्हें तो सजने सवरने की जरूरत ही नाही है, तुम तो ऐसे ही जचती हो" |

वर्माइन -" हां हां अब ज्यादा ना बनो हमें पता है, यह कहकर वर्माइन मुस्कुराते हुए गुसल खाने में घुस गईं |


आगे की कहानी अगले भाग में