शौर्य गाथाएँ - 12 Shashi Padha द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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शौर्य गाथाएँ - 12

शौर्य गाथाएँ

शशि पाधा

(12)

तोलालोंग के रणघोष

( मेजर अजय जसरोटिया )

भारत के उत्तर मे जम्मू-कश्मीर एक ऐसा राज्य है जो अपने प्राकृतिक सौन्दर्य एवं प्रसिद्ध मंदिरों के कारण केवल देश से ही नहीं अपितु विदेश से भी सैलानियों को अपनी ओर आकर्षित करता है| जम्मू का दूसरा नाम ही “मंदिरों का शहर” है और यहाँ के निवासियों का अटल विश्वास है कि त्रिकुटा की पहाड़ियों में निवास करने वाली माँ वैष्णो देवी का इस नगर पर वरद हस्त है |

कश्मीर की बात करें तो किसी कवि के यह शब्द याद आते हैं. “अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है |”

किन्तु कितने खेद की बात है कि प्रकृति ने जिसे अथाह सौन्दर्य से विभूषित किया है उसी कश्मीर घाटी में रक्त की नदियाँ बहने लगी हैं, हिंसा और संहार का तांडव हो रहा है और भारतीय सेना, सीमा सुरक्षा बल, राजकीय पुलिस, तथा अन्य एजंसियाँ वर्षों से इस की सुरक्षा में संलग्न हैं | ना केवल राज्य की सीमाओं पर अपितु आन्तरिक क्षेत्रों में भी अलगाववादी संगठनों ने यहाँ की शांति, उन्नति और व्यापार को हानि पहुँचाई है |

वर्ष 1989 में कश्मीर के स्थाई निवासी कश्मीरी पंडितों का जबरदस्ती निष्कासन आज तक उन्हें विस्थापित अवस्था में रहने को बाध्य कर रहा है | ऐसे में कितने ही वीरों ने इस प्रदेश की रक्षा में अपने जीवन की आहुति दी है | किन्तु आतंकवाद की यह परिस्थिति अभी तक बनी हुई है | शायद इसके लिए किसी महाराज अशोक जैसे अहिंसा के पुजारी के पुन: जन्म लेने की आवश्यकता है |

इस बार जब मेरा जम्मू जाना हुआ तो मन में एक इच्छा यह भी थी कि इस क्षेत्र के वीर शहीदों के परिवारों से अवश्य भेंट करूँ | जब यह बात मैंने अपने देवर “कर्नल सुभाष पाधा (सेवानिवृत)” से की तो उन्होंने मुझे जम्मू में बसे अमर शहीदों के परिवार से मिलाने का प्रबंध किया |(सुभाष भैया ने स्वयं 35 ३५ वर्ष तक भारतीय सेना की “जे एंड के राइफल्स” में सेवाएं दी हैं और वे वो अभी तक भूतपूर्व सैनिकों के पुनर्वास की एक संस्था से जुड़े हुए हैं )

जम्मू क्षेत्र में कई ऐसे परिवार हैं जिनके लगभग सभी पुरुष सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीय सेना को ही अपना कर्मस्थली चुनने में गर्व का अनुभव करते हैं | आज मैं आपको एक ऐसे ही परिवार से परिचित कराती हूँ जिन्होंने वर्ष 1999 में अपने प्यारे और होनहार सदस्य “मेजर अजय जसरोटिया” को आतंकवादियों के साथ हुई क्रूर मुठभेड़ में खो दिया किन्तु सेना के प्रति उनके समर्पण एवं गर्व में रत्ती भर भी कमी नहीं आई | उनके दादा, पिता, चाचा और ननिहाल के सभी सदस्यों ने भारतीय सेना को गौरवान्वित किया है | मेजर अजय के चाचा के दोनों बेटों ने भारतीय सेना में प्रवेश लिया है | इसी परिवार के एक वीर सेनानी मेजर जनरल अनंत सिंह पठानियां ‘महा वीर चक्र’ से विभूषित हो चुके हैं | अजय के दादा लेफ्टिनेंट कर्नल खजूर सिंह और उनके पिता श्री अर्जुन सिंह (बी एस ऍफ़) भी भारतीय सेना में अपनी सेवाएँ दे चुके हैं |

मैं अपने पाठकों को उन कठिन परिस्थतियों से परिचित करा दूँ जिनमें आतंकवादियों से लोहा लेते हुए भारत माँ के ये शूरवीर पुत्र शहीद हुए थे | वर्ष 1996 मे “13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल्स” में कमीशन लेकर मेजर अजय ने कश्मीर घाटी के सोपोर क्षेत्र में अनगनित अभियानों में भाग लेते हुए बड़ी वीरता के साथ आतंकवादियों के कई ठिकानों को नष्ट किया था| जून 1999 को पुन: इनकी यूनिट को कारगिल के दराज़ क्षेत्र में तैनात किया गया | यह पहाड़ी इलाका है और शत्रु ने छद्म वेश मे आकर यहाँ की ऊँची पहाड़ियों पर अपने मोर्चे जमा लिए थे | ऊँचाई का लाभ उठाते हुए शत्रु बड़ी आसानी से पहाड़ी रास्तों में गुज़रती हुई सेना की गाड़ियों को अपने हथियारों का निशाना बना सकते थे | कश्मीर–लेह जोड़ने वाली सड़क उस समय सामरिक दृष्टि से बहुत ही अहमियत रखती थी | शत्रु इस सड़क को नष्ट करना चाहता था ताकि लेह क्षेत्र तक कश्मीर से आने जाने का साधन ही न रहे और पाकिस्तान उत्तरोत्तर क्षेत्रों में तथा सियाचान की पहाड़ी पर अपना अधिकार जमा सके |

वहीं पर दरास क्षेत्र में पॉइंट 5140, (सेना द्वारा दिया गया नाम) जिसकी ऊँचाई समुद्र से 17, 000 फुट है, पहाड़ी थी जिसके आस –पास शत्रु सेना छिपी हुई थी और वहाँ से भारती सेना पर वार कर रही थी | इस पहाड़ी को अपने अधिकार में करने का निर्णय भारतीय सेना के कमांडरों ने लिया था | इसका क्षेत्रीय नाम तुर्तुक है | इसी पहाड़ी की दो अन्य चोटियों पर मेजर अजय और उनकी टीम ने पहले अभियानों में शत्रु सेना को परस्त करके विजय प्राप्त कर ली थी |

जब उन्हें पॉइंट 5140 शिखर को विजय करने का आदेश मिला तो अजय ने अपनी टीम के साथ इस चोटी पर पुन: चढ़ाई शुरू की | शत्रु पूरी तैयारी के साथ ऊँची चोटियों के पीछे छिपा हुआ था और अब तक उन्हें भारतीय सेना के अभियान मार्ग का भी कुछ–कुछ भेद मिल चुका था | क्योंकि शत्रु सेना के सैनिक ऊँची चोटी पर छिपी हुई थी, वे नीचे से आते हुए हमारे सैनिकों को बहुत आसानी से देख सकते थे |

यह पहाड़ भी ऐसे हैं कि शत्रु से छिपने के लिए कुछ पथरीली चट्टानों के सिवाय और कोई साधन नहीं | इन्हीं पत्थरों की आढ़ लेकर इस पर्वतीय शिखर पर चढ़ते-चढ़ते मेजर अजय और उनकी टीम के सदस्य ऊँचाई पर बैठे पाकिस्तानी सेना के सीधे निशाने पर आ गए | शत्रु के मशीनगन के गोलों ने इनकी टीम पर कहर ढा दिया | अजय अपनी पूरी सूझबूझ और सैनिक प्रशिक्षण के आधार पर अपनी टीम का नेतृत्व करते रहे और घायल साथियों को स्वयं पीठ पर उठा कर सुरक्षित स्थान तक ले जाते रहे |इस घमासान युद्ध में वे स्वयं मशीनगन की गोलियों की चपेट में आकर घायल हो गये |

इनके साथी बताते हैं कि इन्हें अपने घावों की कोई चिंता नहीं थी| वो तो अपनी अंतिम साँस तक अन्य घायल साथियों को सुरक्षित स्थान तक पहुँचाने में लगे रहे | इनके शरीर से रक्त इतना बह गया था कि अंत में वे उसी युद्धस्थल पर शहीद हो गये | मेजर अजय के अदम्य साहस एवं पराक्रम के लिए भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें “सेना मेडल” (मरणोपरांत) से सम्मानित किया | ( मैं अपने पाठकों को यह बता दूँ कि इस पॉइंट 5140 की पर विजय प्राप्त करने का अभियान भारतीय टीवी चैनल लाइव दिखा रहे थे और इसी चोटी पर विजय प्राप्त करते हुए, इसी पलटन के कैप्टन विक्रम बत्रा ने कहा था “दिल माँगे मोर” ) मैं यह विवरण कई बार पढ़ चुकी थी किन्तु इस समय मेरा ध्येय केवल यही था कि उनके परिवार से मिल कर उनके बारे में और जान सकूँ |

एक सुबह मैं मेजर अजय के पैतृक घर, जो कि जम्मू की सैनिक कालोनी में स्थित है, पहुँच गई | वहाँ उनकी माँ वीणा जी, अजय के बड़े भाई के परिवार के साथ रहती हैं | मैं किसी समाचार पत्र में यह पढ़ चुकी थी कि अजय के पिता को जब बेटे के शहीद होने का समाचार मिला तो उनके आगे सब से बड़ी समस्या यह थी कि वे उनकी माँ को यह दुःखद समाचार कैसे दें |

पति के चेहरे के हाव भाव को देखकर बिना पूछे ही अजय की माँ ने कहा था, “एक माँ ने भारत माँ को एक बेटा दे दिया |” यह शब्द आपने / हमने कई बार पढ़े / सुने होंगे किन्तु जिसने इस कटु सत्य को जिया-भोगा है आज मैं उस वीर की माँ के सामने बैठी थी |

मेरा पहला प्रश्न भी यही था “आपको कैसे यकीन था कि अजय नहीं रहे, वो घायल भी हो सकते थे ?”

बहुत संयत स्वर में उन्होंने कहा, “उन दिनों हर फोन की घंटी से भी डर लगता था | और कारगिल क्षेत्र का यह युद्ध तो हम प्रतिदिन अपने टीवी स्क्रीन पर भी देख ही रहे थे| ऐसी स्थिति में हम सब अपने बेटे और अन्य सेनानियों के कुशल मंगल की कामना ही कर सकते थे|

एक दीर्घ निश्वास के बाद वे कहने लगीं, “ मेरे पति को यह समाचार पहले मिला था | उन्होंने मुझसे कुछ नहीं कहा | किन्तु उन्हें देखते ही – - ” और वो चुप हो गईं | मानो उस अत्यंत दुखद पल को वो पुन: भोग रही हों |

कुछ देर के मौन के बाद मैंने पूछा, “अजय कब सीमा पर गए थे ?”

“29 मार्च को गया था| कुछ दिन पहले ही छुट्टी आया था | पलटन जब कारगिल / दरास क्षेत्र में तैनात हुई तो इसने वापिस लौटने का निर्णय ले लिया | 31 मार्च को उसका जन्मदिन था | माँ हूँ ना, जाते – जाते मैंने बस यही कहा, “ दो दिन बाद चला जाता, जन्मदिन मना लेते |”

गाड़ी में बैठने से पहले हँसते हुए उत्तर दिया, “मामा, सैनिकों के जन्म दिन कहाँ मनाए जाते हैं |” एक लंबी चुप्पी ने बिना कहे ही सब कह दिया था |

फिर शून्य में ताकती हुई बोलीं, “पता नहीं उसने यह क्यों कहा, मुझे अभी तक समझ नहीं आया” | और वो बड़ी देर तक शून्य में ही अपने प्रश्न का उत्तर ढूँढती रहीं | फिर स्वयं ही मेरी और देख कर बोलीं, “बहुत सोशल था, हर किसी के काम करने को सदा तैयार रहता था |”

थोड़ा मुस्कुरा कर आँखों में बसी अजय की मूरत को देखते हुए बोलीं, “बहुत हैंडसम था | स्कूल में उसके कपड़े और चाल– ढाल देखकर उसके साथी उसे ‘रैम्बो’ कह कर पुकारते थे | बॉक्सिंग उसका प्रिय खेल था, उसके लिए नाक की हड्डी भी निकलवाने के लिए तैयार हो गया था | हमारे परिवार की जान था वो, अच्छा ख़ासा जोकर | मिमिकरी ऐसी करता था कि जहाँ भी बैठा हो, हँसी के फव्वारे छूटने लगते थे |”

इस समय वो पूरे हृदय से अजय के साथ थीं और मैं एक मूक श्रोता |

कहने लगीं, “मॉडलिंग की बहुत ऑफर आईं, लेकिन एक पल के लिए भी आकर्षित नहीं हुआ | बस फौज में भर्ती होना है, यही उसके जीवन का ध्येय था |”

थोड़ा रुक कर अपने को ही दिलासा देतीं हुईं कहने लगीं, “यह तो होना ही था, उसने पीढ़ी दर पीढ़ी यही तो देखा /सुना था |”

अब वो चुप थीं | मैंने पूछा, “अचानक जब वो चला गया तो आपने उसके बिना जीने का निर्णय लिया होगा, उसकी याद में कुछ करने का सोचा होगा ?”

“जी हाँ, जम्मू के ‘S O S Village’ जिसमें गरीब और अनाथ बच्चों का पालन पोषण हो रहा है, मैंने वहाँ जाना शुरू किया | वहीं पर दो बच्चों को गोद ले लिया है और उनकी पढ़ाई आदि का प्रबंध मैं ही करती हूँ | एक लड़का है ‘दिनेश सिंह’ और एक लड़की ‘लवली’ | दोनों को पढ़ने में सहायता करती हूँ | अजय का जन्म दिन भी S O S Village में ही मनाती हूँ | बस दिल लग जाता है |”

‘दिल लगा जाता है’ यह एक बहुत दिलासा दिलाने वाला वाक्य था | मैं यह बात अच्छी तरह जानती हूँ कि भारतीय सेना की पलटनें शहीदों के परिवारों के साथ सदैव सम्बन्ध बनाए रखती हैं और प्रत्येक स्थापना दिवस पर उन्हें सादर आमंत्रित किया जाता है | फिर भी यह तो वर्ष में एक या दो बार ही होता है| एक प्रश्न जो मुझे बार – बार बेध रहा था कि बाकी समय में गाँवों में या दूर दराज़ के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने वाले सैनिक परिवारों की सहायता के लिए क्या वहाँ की सरकार या आम जनता कुछ विशेष करती है या केवल विजय दिवस पर ही उन्हें याद किया जाता है |

यही प्रश्न मैंने वीणा जी से भी किया, “आप भारतीय सेना को छोड़ कर किसी ऐसे संगठन अथवा संस्था के विषय में जानती हैं जो इन वीरों के परिवारों से सम्पर्क रखता है या उनके सुख-दुःख बाँटता है ?”

इसके उत्तर में वीणा जी ने जो बताया वो मेरे लिए भी बहुत उत्साह वर्धक बात थी | कहने लगीं, “वर्ष 2006 में बालक योगेश्वर नाम के एक योगी ने हमसे संपर्क किया | ये योगी हर वर्ष अमर शहीदों के नाम से एक महायज्ञ करते हैं | पहला यज्ञ इन्होने वर्ष 2007 में वीरों की बलिदान स्थली कारगिल / दरास क्षेत्र में ‘तोलालोंग’ की पहाड़ी के सामने किया था | हिमाचल, हरियाणा, पंजाब और जम्मू के वीर शहीदों के चालीस परिवार आमंत्रित थे | यज्ञशाला शहीदों की तस्वीरों से सजी होती है और हवन भी उनका नाम लेकर किया जाता है | खाना–पीना रहना भी उनके प्रबंध से होता है |

मुझे लगा कि भगवान दुःख देता है तो उसे सहने के विभिन्न उपाय भी बना देता है | वीणा जी ने मुझे बहुत से ऐसे शहीदों के परिवारों के बारे में बताया जिनसे वो इस यज्ञ के अनुष्ठान में मिल चुकी हैं | वहीं पर वो एक अन्य शहीद मेजर अधिकारी की माँ से भी मिलीं | इस वर्ष शहीद हेमराज की पत्नी से मिलीं | भारत की उत्तरी सीमा की सुरक्षा में तैनात, नायक हेमराज को पकड़ कर पाकिस्तानी सेना के जवानों ने बड़ी बर्बरता से उनका गला काट कर, धड़ को सीमा के इस पार छोड़ कर चले गये थे | वीणा जी ने बताया कि उनकी युवा पत्नी को संभालना बहुत कठिन था |

उनकी बातें सुन कर मेरे शरीर में भी कंपकपी होने लगी | कैसे देते होंगे ये सब आपस में सांत्वना ! आँसुओं से भीगी होती होगी कोई भाषा |

बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने बताया, “अब हमने एक ट्रस्ट बनाया है | जो गरीब परिवार हैं उनके बच्चों की पढ़ाई एवं लड़कियों की शादी के लिए हम इस ट्रस्ट से योगदान देते हैं | परस्पर मिलने में से ही बहुत सी कठिनाइयों का समाधान मिल जाता है |”

मुझे इस बात का पता था कि जम्मू के लोगों के आग्रह पर राजकीय सरकार ने गांधी नगर की एक सड़क को ‘मेजर अजय’ का नाम दिया है और सैनिक कालोनी में एक पार्क भी बनवाया है जिसमें अजय की आदमकद मूर्ति स्थापित है |

मैंने उनसे पूछा, “ क्या उस पार्क में आती जाती हैं ?”

उत्तर में एक दीर्घ निश्वास लेकर उन्होंने कहा, “मैं पार्क में मूर्ति लगवाने के पक्ष में नहीं थी | क्यूँकि उसकी साफ़-सफ़ाई की व्यवस्था और देखभाल कौन करेगा ? शायद यह मेरी अपनी सोच थी, क्योंकि अजय स्वच्छता पर बहुत ध्यान रखता था |”

यह एक माँ की अपने पुत्र के प्रति ममत्व की भावना थी और मैं उनकी इस कोमल भावना के प्रति नतमस्तक हो गई |

समय कैसे बीत गया था पता ही नहीं चला | जैसे ही विदा की घड़ी आई, सुभाष भैया ने उनसे कहा, “मैम, आप भाभी जी को अजय का कमरा भी दिखा दीजिए |”

वीणा जी मुझे दूसरी मंजिल पर बने हुए एक कमरे में ले गईं | वहाँ पर उनके विद्यार्थी जीवन की ट्राफियां, बाक्सिंग के ग्लव्स, गिटार, उनकी प्रिय पुस्तकें, और उनके 27 साल के जीवन में बड़े चाव से सहेजी हुईं ना जाने कितनी चीज़ें थी | एक किनारे में उनकी सैनिक वर्दी, टोपी, जूते आदि रखे हुए थे | दीवारों पर कई तस्वीरें थीं, जिनमें अजय के विभिन्न रूप प्रतिबिंबित थे | मैंने उस कमरे में बहुत समय बिताया | मुझे लगा जैसे मैं उस अमर शहीद से साक्षात् रूप में मिल रही हूँ | मैंने पंडित नेहरु का संग्रहालय, गांधी जी का संग्रहालय और ना जाने कितने संग्रहालय देखे हैं किन्तु आज इस अमर सेनानी के कमरे में खड़े हुए मेरे मन में श्रद्धा और गर्व के मिले-जुले भाव थे |

मैंने हाथ जोड़ कर, नतमस्तक हो कर भारी हृदय से उस अमर वीर से और धैर्य की मूर्ति उनकी माँ से विदा ली |

उन्होंने बस यही कहा, “अच्छा लगा आप आईं, इसी बहाने अजय के बारे में खुल के बात कर सकी | अगली बार अवश्य मिलें |”

मैंने “इंडियन एक्प्रेस” समाचार पत्र में मेजर अजय के विषय में यह पढ़ा था कि ट्रेनिंग के बाद जब उनकी नियुक्ति “13 जम्मू कश्मीर राइफल्स” में हुई तो उनके मित्रों ने उन्हें छेड़ते हुए कहा था कि 13 का अंक उनके लिए कहीं अशुभ न हो | यह सुनते ही अजय ने गर्व के साथ कहा, “देखना एक दिन मैं इसी पलटन के गौरव पूर्ण इतिहास में अपना नाम लिखवाऊँगा |”

कारगिल युद्ध के बाद 13 जम्मू कश्मीर रायफल्स को भारत के राष्ट्रपति ने Bravest Of The Brave के सर्वोच्च सम्मान से विभूषित किया | उनके घर से लौटते हुए मेरे मन में यही विचार आया कि अजय ने बड़े आत्मविश्वास और गर्व से अपने मित्रों से जो शब्द कहे थे, आज वो तोलालोंग की विजित पहाड़ियों पर गूँज रहे होंगे |

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