शौर्य गाथाएँ - 11 Shashi Padha द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

शौर्य गाथाएँ - 11

शौर्य गाथाएँ

शशि पाधा

(11)

विदाई

शादी के बाद प्रभा जब पहली बार सैनिक छावनी में अपने पति कैप्टेन हर पाल के साथ आई थी तो सैनिक परिवारों की रीत के अनुसार सब से पहले अन्य अधिकारियों की पत्नियाँ उस नई नवेली दुल्हन को मेरे घर ही लाई थीं |उस छावनी के सर्वोच्च अधिकारी की पत्नी होने के नाते मेरा यह दायित्व भी था कि हर नई दुल्हन का स्वागत मैं अपने घर में ऐसे ही करूँ जैसे एक ससुराल में आने पर सासू माँ करती है |

अत: शगुन, गीत, चुहल, मिठाई भेंट, शरारत आदि का ऐसा वातावरण बना कि प्रभा ऐसे नए और भिन्न परिवेश में थोड़ी सहज हो गई और निसंकोच्च हो कर सब से खुल के बातें करने लगी |

हर नई ब्याही के पास घर सजाने का पूरा सामान भी नहीं होता | सैनिक परिवारों का एक अलिखित नियम सा है कि अन्य अधिकारियों की पत्नियाँ अपने घर के सामान से उसका घर सजा देतीं हैं, कम से कम रसोई और शयन कक्ष ताकि दूसरे शहर में घर बसाने में नव दम्पत्ति को कोई कठिनाई न हो |

उस रात को ही आफिसर्स मेस में प्रभा और हरपाल की शादी की खुशी में रात्रि भोज का आयोजन था | प्रभा बहुत हंसमुख थी | सब के आग्रह पर उसने उस रात पंजाबी गीतों से सब का मन मोह लिया | इस तरह वो नई नवेली हमारे वृहद परिवार की प्रिय सदस्य बन गई |

प्रभा ने गृहस्थी सँभालते ही सैनिक परिवार कल्याण केंद्र का काम भी संभाल लिया | मैंने उसे कम पढ़ी लिखी माताओं के बच्चों को स्कूल में जाने से पहले आरम्भिक शिक्षा देने का भार सौंपा | जल्दी ही वह सारे बच्चों की प्रिय पल्भा आंटी बन गई |इस तरह अपने मायके और ससुराल से बहुत दूर बसे छोटे से पर्वतीय शहर में प्रभा पूर्णतया सैनिक जीवन के रंग में रंग गई |

लगभग चार वर्ष के अंतराल के बाद श्री लंका में तमिल टाईगरों ( श्री लंका में अलग राज्य के लियें माँग कर रही एक स्वघोषित सेना ) और सरकार की सुरक्षा के लिए तैनात सुरक्षा बलों में घमासान युद्ध आरम्भ हो गया |भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का भरपूर प्रयत्न किया किन्तु स्थिति बिगड़ती गई |आखिर श्री लंका की सरकार ने देश में शान्ति स्थापना हेतु सहायता का अनुरोध किया | अत: शान्ति स्थापना के संकल्प से भारतीय सेना की कुछ टुकडियां “शान्ति सेना “ के रूप में श्री लंका भेजी गईं | उन सैनिकों की यूनिटों में मेरे पति की स्पेशल फोर्सिस की यूनिट भी भेजी गई |

उस समय मैं यूनिट से बाहर दिल्ली में रहती थी | मेरे पति सैनिक मुख्यालय नई दिल्ली में कार्यरत थे किन्तु, भारतीय सेना को निर्देश देने हेतु श्री लंका में ही भेजे गए थे |

एक शाम सैनिक मुख्यालय से मुझे टेलीफोन आया | फोन पर एक अधिकारी ने कहा, ” मिसेज पाधा, बहुत दुःख के साथ आपको सूचित कर रहा हूँ कि आज श्री लंका में युद्ध में हमारी यूनिट के कैप्टन सतीश और कैप्टन हरपाल शहीद हो गए हैं | उनके अस्थि कलश कल दिल्ली हवाई

अड्डे पर पहुँच रहें है | इन्हें यूनिट की छावनी ( लगभग ४०० किलोमीटर दूर हिमाचल के नाहन शहर ) में परसों ले जा रहे हैं | आप भी अस्थि कलश ले जाने वाले वाहन में नाहन तक चलेंगी |”

समाचार सुन कर मैं सुन्न थी | जिन हंसते–खेलते वीर जवानों को कुछ दिन पहले श्री लंका में शान्ति स्थापना हेतु विदा किया था आज उनके अवशेष लेकर जाने की बात से सारा शरीर काँप उठा | मैंने आँखें बंद करके प्रभु से प्राथना की, “ हे ईश्वर मुझे इतनी शक्ति देना कि मैं उस वीर सैनिक की पत्नी तथा उसके परिवार का धीर बंधा सकूँ” |

भगवान ही जाने कि ऐसी कठिन परिक्षा की घड़ी में ऐसी शक्ति कहाँ से आ जाती है ? अगले दिन जब अस्थि कलश नई दिल्ली के हवाई अड्डे पर पहुँछे तो मेरे साथ दो अन्य सैनिक पत्नियां तथा दो अन्य अधिकारी भी वहाँ पहुँच गए थे | एक विशेष स्वागत कक्ष में एक टेबल पर दो कलश रखे हुए थे| दोनों पर फूल मालाएँ बंधी थीं और एक तरफ उनके नाम की अक्षरपट्टी बंधी हुई थी |

देख कर आँखों से गंगा यमुना बह निकली | मैं सोचने लगी, “ दो सप्ताह पहले यह दोनों यहाँ से चलते हुए गए थे और आज छोटे से कलश में कैसे समा गए ? हमने हाथ जोड़ कर, नतमस्तक होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी | स्वागत कक्ष में आए सभी सैनिक अधिकारियों ने उन कलशों को सम्मान देते हुए सलामी दी |

अब समय था उन्हें अगले पड़ाव तक पहुँचाने का | गाडी में बैठते ही मैंने और दीपा ने उन दोनों कलशों को अपनी गोद में रख लिया | गाडी चल रही थी और हम सब चुप चाप इन दोनों कलशों को गोद में लेकर ऐसे सावधानी से बैठे रहे कि इन बच्चों को कोई धक्का, कोई चोट न लगे | बीच-बीच में कोई न कोई हर पाल और सतीश के साथ बीते अपने अपने संस्मरण सुनाता रहा | प्रबोध ने हरपाल ने तो हरपाल का एक प्रिय पंजाबी गाना भी गाया | ऐसे समय बीत रहा था जैसे वे दोनों भी हमारे साथ हों |

छह घंटे की यात्रा के बाद हम “नाहन” पहुँच गए | वहाँ यूनिट के देवस्थान में पहले से ही अन्य सैनिक परिवार प्रतीक्षा में बैठे थे | दोनों अस्थि कलशों को भगवान की मूर्ति के पास रख दिया गया |कैप्टन सतीश की पत्नी मधु कुछ समय के लिए के पहलेसे ही सतीश के गाँव गई हुई थी| अत: उस के अस्थि कलश को लेकर दो अधिकारी हिमाचल में उसके गाँव की ओर चले गए |

अब बहुत ही कठिन घड़ी सामने थी |मुझे प्रभा के घर जाकर उसे मन्दिर तक लाना था | मैंने फिर से देवी दुर्गा की प्रार्थना की और चल पड़ी | घर पहुँचते ही मैंने प्रभा को गले लगाया | वो टकटकी लगा कर मुझे देखती रही| मानो मुझसे कुछ पूछना चाहती हो |उसका पूरा शरीर काँप रहा था | मैंने देखा कि उसने गुलाबी रंग का पंजाबी सूट पहन रखा था जो शायद उसकी

शादी का जोड़ा था | अभी तक उसके किनारों पर गोटा लगा हुआ था |

मैंने धीमे स्वर में उससे कहा, “ मंदिर तक चलो प्रभा, हरपाल को विदा करना है |”

उसने बच्चे की तरह मेरा हाथ पकड़ा और कमरे में फ्रेम में लगी हरपाल और अपनी शादी की तस्वीर की ओर कुछ देर तक निहारा और फिर मेरे साथ चल पड़ी | सच कहूँ तो प्रभा का धैर्य देख कर मेरा रोम-रोम रो रहा था किन्तु वो थी कि जड़वत चली जा रही थी और मन ही मन जप जी का पाठ कर रही थी |

देवस्थान के हाल के बीचो बीच लाल कपड़े से बंधा अस्थि कलश एक चौकी पर रखा था | प्रभा धीमे क़दमों से उस तक पहुँची | उसने बड़े प्यार से उस कलश को छुआ और उस पर लगे लाल कपड़े को धीरे धीरे खोलने लगी | साथ में वो अस्फुट स्वरों में कुछ बातें कर रही थी मानो हरपाल से कुछ कह रही हो | प्रभा ने कलश के भीतर हाथ डाला और बहुत देर तक अस्थियों को सहलाती रही | उसने अपनी अंगुली से अपनी शादी की अंगूठी खोली और कलश के अंदर डाल दी | पंडित जी ने एक कपड़े में बंधा हुआ हरपाल का सोने का कडा और उसकी अंगूठी प्रभा को दी | अपने सुहाग के प्रतीक चिन्हों को बड़े धैर्य से ले कर उसने उन्हें अपने वक्षस्थल से लगा लिया |

पंडित जी ने संकेत दिया कि अब विदा का समय है | मैं प्रभा के पास गई और उसके काँधे पर हाथ रख कर मैंने कहा “ हरपाल को विदा करो प्रभा|”

प्रभा ने कलश के अंदर से कुछ रज मुट्ठी में भरी और अपने गुलाबी आँचल के छोर में बाँध ली | कुछ कदम पीछे हट कर वो फिर से कलश के गले लग गई मानो हरपाल के गले लग रही हो | किसी ने उसे उठाया | वो अंतिम प्रणाम करके शून्य की ओर ताकती हुई बोली, “ अब यह आत्मा परमात्मा एक हो गए हैं | अब मैं उसे कैसे ढूँढूँगी? कहाँ जाऊँगी ? कितना लंबा होगा वो रास्ता ?”

और उसकी रुलाई फूट पड़ी | एक बार जाने से पहले फिर से उसने कलश को छुआ और मंदिर की दीवारों को भेदती हुई हृदयविदारक चीख के साथ उसने कहा, ” पालीईईईईइ, तुसी कित्थे ओ, | थोआनु जैदा चोट ते नइं आई न ?” (पाली. आप कहाँ हो, आप को ज़्यादा चोट तो नहीं आई)

हम अब तक नहीं जानते थे कि प्रभा प्यार से हरपाल को ‘पाली’ कहती थी | चार वर्ष का वैवाहिक जीवन और इतनी वीरता, संयम और धैर्य से अपने शूरवीर पति को विदा करने वाली वीरांगना प्रभा के आगे हम सब नतमस्तक हो गए |

दो दिन के बाद हम सब वापिस लौट गए | प्रभा के माता पिता और सासू माँ और युनिट के अन्य सदस्य अब उसके साथ थे | वापिसी में जैसे-जैसे हमारी जीप चल रही थी, सोच रही थी, यह युद्ध क्यों ? जब इस धरती-आकाश को कोई नहीं बाँट सकता, समुद्र के हिस्से नहीं हो सकते, वायु को अपनी परिधियों में कोई रोक नहीं सकता, फिर किस सत्ता के लिए, किस ज़मीन के लिए, इतने भविष्य अन्धकार मय होते हैं ? आज जो दृश्य हमारी पलटन में देखा है, ऐसा न जाने कितने दूर दराज पहाड़ों में, गाँवों में, नगरों में रोज घट रहा होगा |

गाड़ी धीमी गति से चल रही थी | मुझे वो सुखद पल याद आरहे थे जब प्रभा नई नवेली दुल्हन बन कर हमारे पास आई थी | ईश वंदना में मेरे हाथ जुड़ गए और मैं प्रभु से प्रभा के लिए असीम धैर्य और साहस का आशीष माँगती रही |

***