परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन प्रगति का सूचक भी है। कुछ चीजों का बदलना सुखद होता है और कुछ चीजें बदलने के साथ दुःख दे जाती हैं। सुख और दुःख भी तो एक सिक्के के दो पहलू हैं। वक़्त भी कब एक जैसा रहता है। मनुष्य भी प्रकृति से निरपेक्ष कब रह पाया है... वह भी बदलता है, ये अलग बात है कि उसके बदलने के साथ काफी कुछ बदल जाता है….. या यूँ कहें कि समूचा परिवेश बदल जाता है।
'हंसते पान, बोलती सुपारी' ये मेरी पसन्दीदा कहानियों में से एक थी। अम्मा के मुँह से कहानियां सुनना मेरा प्रिय शगल था। राजा-रानी, शापित राजकुमारी, परीलोक और जमीन में गढ़े खजाने को तलाशती कहानियां... मैं अम्मा की गोद में सिर रखकर कहानी सुनते हुए सो जाती थी। सपने में कहाँ कहाँ की सैर कर लेती थी। फिर एक दिन अचानक मेरी दुनिया बदल गयी। मुझे अम्मा ने गोद में लेटना तो दूर उन्हें छूने भी नहीं दिया। उस दिन पान मेरे साथ रोये थे और सुपारी गूँगी हो गयी थी।
मुझे कभी समझ में नहीं आता था कि क्यों किसी दिन मम्मी रसोई में नहीं जाती थीं। चाची को भी क्यों कभी कौआ छू जाता था। उन दिनों मेरी जिम्मेदारी बढ़ जाती थी। स्कूल से आकर मुझे ही चाय बनानी होती थी। हर छोटी से छोटी चीज जो उनकी पहुँच में होती थी, फिर भी मुझसे माँगी जाती थी। मैं चिढ़ जाती थी।
"वो कौआ यदि मुझे मिल गया न तो उसकी गर्दन मरोड़ दूँगी.." मेरी बात सुनकर अम्मा गुस्सा हो जाती थीं।
"ऐसा नहीं कहते बिट्टो रानी... बड़ी होकर समझ जाएगी..."
"हुह... ये कौआ कौन सा है जो मम्मी या चाची को ही छू जाता है बार-बार..? आपको क्यों नहीं छूता..? पापा या चाचा को भी नहीं छूता कभी... न ही मुझे या भैया को...."
मुझे मेरे प्रश्नों का उत्तर मिला जब एक दिन अचानक मुझे भी कौआ छू गया।
"बिट्टो! खाने के बाद थाली कटोरी माँजकर रखना... बिट्टो सिर धोकर नहाना और अपने बिस्तर की चादरें धो लेना...."
उफ्फ.... कितने मुश्किल दिन थे वे.... गुस्सा तो बहुत आया, किन्तु संस्कारों की बेड़ियाँ मजबूत थीं। बड़ों की बात बिना तर्क माननी होती थीं। बुआओं का उदाहरण दिया जाता था, मुझे कोफ्त होती थी कि मम्मी से तुलना न करके बुआ से क्यों...? बहुओं और बेटियों का फर्क बाद में समझ आया।
"मम्मी मुझे दोने पत्तल में खाना दे दो, खाकर फेंक दूँगी, किन्तु महरी के होते हुए अपनी थाली नहीं माँजूगी.." अगली दफे मैंने दो टूक एलान कर दिया था। अम्मा के माथे पर आयी लकीरों को नज़रंदाज़ करते हुए मेरा अगला सवाल था.."क्या आपने कभी इन सब बातों की तह में जाने की कोशिश की?"
"तह में जाकर क्या करना, हमारे बड़ो ने जो कहा, हमने मान लिया.."
"वही तो कह रही हूँ, मैं विज्ञान पढ़ती हूँ, अब जीवनशैली बदल गयी है, तो इन बंदिशों का कोई औचित्य नहीं है।"
"मेरे बाद जो करना हो करना, मेरे जीते जी यही चलेगा.." अम्मा की कही बात हमेशा ही पत्थर की लकीर होती थी।
उस दिन मेरी सहेली आयी थी नोट्स लेने... भाई की कितनी मन्नते करनी पड़ीं थी, किचन में से पानी के गिलास भर कर देने के लिए.... उससे गिलास लिए, उसी समय हवा मेरी दुश्मन बन गयी, पर्दा उड़ा और बैठक से सहेली ने देख लिया।
"तेरा भाई अच्छा है, सब काम कर देता है.." सहेली की बात सुन मैं शर्म से गड़ गयी थी, मानो सात तालों में बंद मेरा राज उसे पता चल गया हो। अम्मा, मम्मी और चाची के लौटते ही मेरा गुस्सा फट पड़ा था... "यदि ऐसी बंदिशें लगानी हों तो घर पर रहा करो, वरना मैं सब छू दूँगी.." मैं गुस्से में भड़ास तो निकाल लेती, किन्तु घर के बने नियमों को तोड़ने की हिम्मत कभी नहीं कर पायी।
"अम्मा जब आपकी शादी हुई तो आप पनघट जाती थीं न, पानी भरने...." गर्मी की छुट्टियाँ थीं और बुआ, चाची और ताईजी सब अपने परिवार सहित इकट्ठे थे, हम सब कच्चे आंगन में पानी छिटक कर अम्मा को घेरकर बैठे थे। मिट्टी की सौंधी खुशबू गर्मी से तप्त तन मन को भिगो देती थी, मेरी बात से अम्मा पुरानी यादों में भी भीग गयीं थीं।
"हाँ बिट्टो.. हम सब इकट्ठे जाते थे, वो भी क्या दिन थे...." अम्मा की यादों का पिटारा जो खुला तो हम सब पनघट पर भीगे, फिर चूल्हे की मिस्सी रोटियों की महक से तृप्त हुए... अम्मा ने बताया कि किस तरह वह घट्टी पर दालें दलती थीं और ताज़ा दुहा दूध ही एक उबाल देकर सबको पिलाती थीं।
"आज के खाने में न वो स्वाद है न अपनत्व की गरमाई... सिलबट्टे की चटनी का स्वाद अब मिक्सर की चटनी में कभी नहीं आ सकता.. सच अब कितना कुछ बदल गया है देखते ही देखते...." अम्मा को कल से आज में लौटने में तकलीफ हुई।
"वही तो मैं कह रही हूँ अम्मा....." मैं तुरन्त ही मुद्दे की बात पर आ गयी... "तब आपको कितना कठिन श्रम करना पड़ता था, इसीलिए तो ये नियम बने थे कि महिलाओं को 'उन दिनों' में आराम मिले, वैसे तो कोई मानता नहीं, अतः वैज्ञानिक कारणों को धार्मिक बना दिया। अब सब काम चुटकियों में हो जाता है... अब इन लकीरों को पीटने का कोई फायदा नहीं..."
"फायदा नुकसान मुझे मत सिखा, अपने घर जाकर करना मनमानी, यहाँ ऐसे ही चलेगा"
"ये घर मेरा नहीं है....?" मैं गुस्से में उठकर आ गयी थी।
उस दिन से मुझमें एक बदलाव मैंने महसूस किया... अम्मा की लाडली आज्ञाकारिणी से विद्रोहिणी बनने लगी थी।
एक बदलाव और आया था... अब कौआ नहीं छूता था.. अब बाकायदा 'पीरियड्स' आते थे और कॉलेज में झिझक भी नहीं थी, इस बारे में बात करने में। पुराने कपड़ों का स्थान सैनेटरी नैपकिन्स ने ले लिया था।
मैं आज गुजरे कल में विचर रही थी और उसकी वजह थी मेरी बेटी सोना... जिसने आज स्कूल से आते ही मुझसे पूछा था... "मम्मा ये एम सी क्या होता है?"
"क्यों क्या हुआ..?"
"आज स्पोर्ट्स पीरियड में नेहा एक जगह बैठी रही, फिर बोली कि एम सी के कारण नहीं खेल रही.."
"ह्म्म्म, खाना खा ले फिर बात करते हैं.."
रोटियाँ सेंकते हुए मैं खुद को बेटी से बात करने के लिए तैयार कर रही थी।
"बेटा! तूने एक बार पूछा था न कि मैंने उस दिन पूजा क्यों नहीं की।"
"हाँ, आपकी तबियत ठीक नहीं थी।"
"ह्म्म्म... सुन तबियत ठीक थी, यही एम सी का चक्कर था, बेटा! बच्चे जब बड़े होते हैं, तो उनमें मानसिक और शारीरिक बदलाव होते हैं। लड़कों की दाढ़ी मूँछ आने लगती है और लड़कियों को एम सी शुरू होता है, इसका फुल फॉर्म है मेंस्ट्रुअल सायकल....."
"अच्छा..." उसे आश्चर्य के साथ उत्सुकता भी थी।
"हाँ बेटा... और यह कोई बीमारी नहीं है, एक स्वाभाविक सी शारीरिक प्रक्रिया है, जिससे घबराने की जरूरत नहीं है।" फिर मैंने बेटी को विस्तारपूर्वक समझाते हुए एक प्रारंभिक किट तैयार करवायी कि कभी भी स्कूल में ऐसी स्थिति आ जाए तो उसे कैसे निबटना होगा।
"मम्मी एक दिन स्कूल में रोली टॉयलेट से आकर रोने लगी थी, फिर मैडम उसे स्टाफ रूम में ले गयीं, उसकी मम्मी को फोन करके बुलाया था, मुझे अब समझ में आया कि उसे क्या हुआ था।"
"हमारे समय काफी भ्रांतियाँ थीं, इसलिए छुआछूत थी, उस समय की जीवनशैली और हाइजीन की जानकारी न होने से यह सब ठीक था, किन्तु अब इन सबका कोई औचित्य नहीं है, मैं किचन में जाती हूँ, किन्तु पुराने संस्कारों से जकड़े होने से मंदिर अभी भी नहीं जाती, बेटा, तुम्हें भी इन सब बातों का ध्यान रखना होगा।"
"ओह! अब समझी.. नानी दादी के यहाँ जो किचन में नहीं जाते, उसकी भी यही वजह है? ओके मम्मा…. आप कितनी अच्छी हो... लव यू.." कहते हुए उसने मेरे गले में बांहे डाल दी।
"लव यू टू बेटा..." मैं खुश थी कि मेरी बेटी मेरी दोस्त है और मैं बदलते जमाने के साथ उसकी अपेक्षाओं पर खरी उतर रही थी।
"मम्मी आज मेरा पेट दुःख रहा है, पीरियड्स आ गए हैं, खाना खाकर सो रही हूँ थोड़ी देर..." एक दिन बेटी ने कॉलेज से लौटकर कहा। तभी मोबाइल बजा... पापा थे... "बेटा मम्मी की तबियत अचानक खराब हो गयी है, मैं और तुम्हारी अम्मा उन्हें तुम्हारे शहर के बड़े हॉस्पिटल में ला रहे हैं, तुम तैयार रहना..."
मैं घबरा गयी, किन्तु बेटी ने हिम्मत दी। घर से आवश्यक सामान लेकर हम हॉस्पिटल पहुँच गए और उनके आने से पहले सारी व्यवस्थाएँ कर लीं।
मम्मी आई सी यू में थी। समय पर उपचार शुरू हो गया और खतरा टल गया था। पतिदेव भी ऑफिस से जल्दी आ गए थे। मुझे घर की चिंता शुरू हो गयी... बेटी किचन तो सम्भाल लेती, किन्तु ऐसे समय में अम्मा को यह नागवार गुजरता। मम्मी को छोड़कर मैं जाना नहीं चाहती थी। मेरी परेशानी जानकर अम्मा बोलीं... "बिट्टो चिंता मत कर, न मुझे बिटिया के घर खाने में परहेज है और न पिरेड के समय सोना के हाथ का... जो बात तब नहीं समझी, अब तेरी भतीजी लाली ने समझा दी।"
आज अम्मा अज्ञानता और भ्रांति की लकीरें मिटाकर जमाने के साथ चलने को तैयार थीं।
©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(14/09/2019)