मेरा साया.. एक आसमान.. Tarun Kumar Saini द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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मेरा साया.. एक आसमान..

मेरा साया.. एक आसमान..

जो महसूस होता है, हर पल, हर जगह, क,मेरा अपना है, एक हमदद क तरह, सदा मेरे साथ है, यक, यही एक मेरा, अपना है... एक मेरा साया.. पर कभी, महसूस कया है, इसके बदलते, आकार को, इसके बदलते, वहार को, एक सुबह, जब लािलमा, जो ताजगी सी, देती है, उस अँधेरे को, दूर कर, ये साया, तब आने, लगता है, सुबह के सूरज क, उन करण के, एक ताजा, एहसास म, ये अचानक, पहली रौशनी म, सबसे पहले, सबसे बड़े, वप म, आता है, ये साया आपका, उन सुंदर पलो ने, सबसे पहले, सबसे बड़े, आकार म, जब अँधेरा, दूर सा, औझल सा, हो जाता है, अचानक, उस एक लािलमा, के आवरण म, क अब, ये अँधेरा, ढलने वाला है, वो रौशनी, आने वाली है दुःख से, उस सुख,के वेश म, आपके साये, का,पहला वेश, यो यो, उस उजाले क, तपन बढ़ती है, यो यो, उस दन का, संघष बढ़ता है, य य, इस साये का,बदलता आकार, इस साये का, बदलता वहार, आपको महसूस, नही हो पाता, साया तो मेरा, अपना है,
हाँ.. ये साया मेरा, अपना ह, जो मेरी साँस, क तरह, मेरे साथ है, मेरे शरीर, क तरह, मेरे साथ है, म यह, नही देख पाता, तब, क उस दोपहरी, संघष के चरम पर, वो अपने, सबसे छोटे, आकार म, जैसे क, मेरा साथ, छोड़ रहा है, कोई, उन संघष, म अकेले, छोड़, वो ना, जाने य, कही छुपने क,कौिशश म, अपने को, िसकुड़ता चला, जाता है, वो.. लेकन, यो यो, सूरज नीचे, क और, जाता है, एक साँझ से, पहले, जैसे क, संघष अब, कम हो जायगे, वो फर से, अपने आकार, को बढ़ाता, चला जाता है, क एक वही, मेरा अपना है, क एक वही, मेरा अपना है, और अपने, बढ़ते आकार से, मुझे, एहसास करवाता है, क म, कतना बड़ा ँ, इसिलए तो, साया मेरा, अपना है, मेरी उन साँस, क तरह, जो हर पल, मेरे साथ है, मेरे इस शरीर, क तरह, ये साया फर, अपने सबसे, बड़े वप, म आता है, उस साँझ से, ठीक पहले, जब जीवन, फर से, मनमोहक म, समा जाता है, मगर तब अचानक, उस ढलते सूरज, क तरह, अँधेरे क, आहत को, वो शायद, सबसे पहले,
पहचान लेता है, और अचानक, अदृय सा, हो जाता है, उस अँधेरे क,पहली आहत म ही, जो कुछ, छण पहले, अपने सबसे, बड़े वप म, मेरा साथ था, अब दुःख क, जाने या आहत है, अब संघष क, जाने या आहत है, िवलु हो गया, मेरा अपना साया, इस अंधेरी सी, रात म, तब अचानक मेरा, यान इस आसमान, क और जाता है,जो अब भी, मेरे साथ, चल रहा है, और कुछ अँधेर को, कम कर रहा है, कभी चाँद लाता है, और संग, ये तार क बारात भी, लेकन, मुझे भी, न जाने या, डर रहता है, इस खुले से आसमान से क छत को ढूँढता ँ, इस खुले से आसमान से, बचने के िलये,ये वही आसमान है, िजसने, हर बदलते व म, मुझे उसी आकार, उसी वप म, देखा है, हर पल, और म, अब भी, उस अँधेरे म, इस खुले, आसमान से, डर रहा ँ, ये अँधेरा, जब भी औझल होगा, वो उजाला, जब भी लौटेगा, तब मेरा साया, फर से, उसी सबसे बड़े, आकार म, सबसे पहले, मेरे सुख म, लौटेगा, िजसने, अँधेरा आने पे, उन दुःखो म, सबसे पहले, मेरा साथ, छोड़ा था.. शायद ये, आसमान ही, मेरा साया होगा, ना क ये, हर वत के साथ, बदलता, मेरा अपना साया..

©तण कुमार सैनी ”मृदु”