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ठौर ठिकाना - 1

ठौर ठिकाना

(1)

आज दिन भर की भागदौड़ ने बुरी तरह थका दिया था मुझे. घर में घुसते ही पर्स बेड उछाल दिया और सीधे वाशरूम में घुस गई. देर तक गुनगुने पानी से शावर लेने से कुछ राहत मिली.हाउसकोट डाल कर गीले बाल झटकती हुई लाबी में आई तो मुझे देखते ही कमला कहने लगी " अरे दीदी आप सर से नहा ली अब तो ठंड पड़ने लगी है सर पकड़ लेगा तो परेशान हो जायेंगी ".

" तुम गर्मागर्म काफ़ी पिला दो बस कुछ नहीं होगा वो भईया इसबार जो काफ़ी सीड्स लाया था वही बनाना ".

" बस अभी लाई दीदी आपके आते ही हम भिगो दिए थे "

साढ़े आठ बज रहे थे मै बिस्तर पर ही पसर कर बैठ गई. सामने टीवी चल रहा था कुछ ख़ास नहीं था. विक्रम को दिल्ली गए हफ्ता भर हो गया था अभी पन्द्रह दिन और लगेंगे.बेटे के बगैर घर काटता है बस मै और कमला ही रह जाते है अकेले. आज बात भी नहीं हुई अभी डिनर के बाद करती हूँ. काफ़ी का मग ख़तम कर के साइड टेबल पर रखा ही था कि मेरे सेल फोन बजने की आवाज़ आई. उफ़ कहाँ रख दिया यहाँ तो दिख नहीं रहा है तभी कमला की आवाज़ आई.

" लो दीदी आप का फोन बज रहा है बाहर भूल आई थी डाईनिंग टेबिल पर ".

फोन आन करते ही दूसरी तरफ से विक्रम की आवाज़ आई.

" माँ मैम को देखने चली जाइए प्लीज़ उनकी तबियत बहुत खराब है दोपहर से वंदना और मनोज का कई बार फोन आया आप जायेंगी न माँ ".

" विक्की बेटू अभी ? अब तो नौ बजने वाले हैं कैंट दूर भी है क्या हुआ कोई इमरजेंसी है क्या ".

" हां माँ कई क्लासमेट को फोन किया पर शायेद कोई पहुंचा नहीं अभी अभी फिर मनोज का फोन आया मैम की तबियत बिगड़ रही है उन्हें फीवर तेज़ है आप जैसा सोचो माँ ".

" जाती हूँ तू परेशान न हो हाँ पूरा पता वाट्सएप पर या मैसेज से भेजो कुछ करती हूँ

मै वहां दो बार जा तो चुकी हूँ पर रास्ता मुझे याद नहीं.दरअसल गये हुये भी एक अरसा हो गया है.पहली बार विक्रम को कुछ सामान देना था रात के दस बजे थे मैम सो चुकी थी मै कार में ही बैठी रही वह दे कर जल्दी ही वापस आ गया. दूसरी बार भी रात हो गई थी बस कैंट का इलाका है यही समझ में आया गली का ध्यान ही नहीं दिया बेटे के साथ रास्तों का ध्यान ही नहीं रहता.बस इतना जरुर याद है सड़क के किनारे ही वह आश्रम हैं,सामने चैनेल वाला बरामदा और पीछे एक हाल जिससे लगा हुआ बाथरूम जिसे महिलायें और पुरुष दोनों ही उपयोग करते हैं,एक छोटा सा किचन भी है जहाँ बस थोडा बहुत चाय आदि बन सकती है.खाना तो दोनों ही समय टिफिन सर्विस से आता है जिसे किसी सेठ ने लगवा दिया है.

हाल में कुल आठ पलंग पड़ी है महिलाएं और पुरुष दोनों ही वहां समभाव से रहते हैं.उस समय भी चार पुरुष और चार ही औरतें थी कुल मिला कर फुल था वह आश्रम जगह ही बस इतने लोगों की है वहां.

वंदना और मनोज इस ओल्डहोम के मैनेजर या कहिये केयरटेकर हैं,दोनों पति पत्नी बड़े प्रेम और अपनेपन से सबकी देखभाल करते हैं.

विक्की से उनका संपर्क बना रहता है उन्ही से वह अपनी मैम का हाल लेता रहता है.मुझे तो काफ़ी बाद में पता चला जब वह घर से मैम के लिये रोज़मर्रा की जरूरत का सामान उसने मुझसे माँगा.

" माँ कुछ चादरें पुराना तौलिया और आपका गाउन होगा ? हो तो निकाल दीजिये ''.

मैने उससे पूछा क्या करोगे किसके लिये ले जाओगे. बहुत पूछने पर उसने बताया उसके स्कूल की टीचर हैं जो इस हाल में आश्रम में पड़ी है.

एक धक्का सा लगा सुन कर कान्वेंट की टीचर इस हालत में

मैने बेटे से कहा -

''वो तेरी गुरु है माँ समान है उन्हें अपना पुराना कपड़ा कैसे दे सकते है कल बाजार से गाउन ले आउंगी अभी यह चादर वैगरह ले जाओ ''.

मिस सेन किसी को पहचानती ही नहीं विक्रम को भी नहीं. बताने पर ही याद करती है और थोड़ी देर बाद फिर भूल जाती है और पुरानी बात रटने लगती हैं. हम वहां बस दस पन्द्रह मिनट ही रुके विक्की को कुछ जल्दी थी लेकिन बस उतनी ही देर में वह चार पांच बार एक ही बात बोलती रहीं.

" आपका नाम क्या है ? बैठिये... चाय मंगवाऊं आपके लिये... अच्छा गर्म समोसे खायेंगी ? ".

उनके पास एक रुपया भी नहीं था पर वह औपचारिकता नहीं भूली थी. मुझे बहुत मानसिक पीड़ा हुई थी सोचा था अब हर हफ्ते जाउंगी पर बीमारी के कारण नहीं जा सकी कुछ लापरवाह भी हुई जिसकी आत्मग्लानि भी आज हो रही है.हालाकिं उनकी जरूरत का थोडा बहुत सामान विक्रम से भेजवा देती वैसे तो वह खुद नियम से जाता ही था. आज उनकी खराब हालत सुन कर मन विचलित हो रहा है.
रात हो रही थी पता नहीं लौटने में कितनी देर हो अब यह तो उनकी हालत पर ही निर्भर करता है. मैने ड्राइवर को रुकने को बोल दिया और विक्की ( विक्रम ) के मैसेज का इंतजार करने लगी. कमला से कुछ जरुरी सामान भी टावल, चादर, रबर की शीट, ग्लूकोज़ आदि जो भी उस समय ध्यान आया ले कर गाडी में बैठने को कहा. विक्की का मैसेज आते ही मैने घर लाक़ किया और चल दी.

वृद्ध आश्रम खोजने में ज्यादा मुश्किल नहीं हुई, फिर भी पहुँचते पहुँचते नौ तो बज ही गए.
कैन्टोमेंट का इलाका वैसे भी कोई भीड़भाड़ वाला तो होता नहीं ज्यूँ ज्यूँ रात गहराती है सन्नाटा फैलता जाता है.

कमला और ड्राइवर तो साथ थे ही मुझे अपनी कोई चिंता नहीं थी पर सेन मैम की हालत के बारे में सोच कर बहुत चिंता हो रही थी. अब इतनी रात को डाक्टर कहाँ मिलेगा. मनोज को विक्रम ने कह तो दिया था किसी डाक्टर से बात कर ले. पता नहीं उसने बात की या नहीं इसी फ़िक्र में डूबते उतराते पहुँच गई वहां.

मै जल्दी से अंदर मैम के पास भागी. अंदर लोगबाग थे फिर भी एकदम ख़ामोशी थी. मैम बेड पर लेटी थी उनका हाथ छुआ बुखार बहुत तेज़ था,चादर अस्तव्यस्त थी ठंड के मौसम के हिसाब से ओढने बिछाने के कपड़े चादर कंबल कम लग रहे थे.

मनोज और वंदना दोनों ही मेरे पास खड़े थे. मेरी आँखों में कौंधता सवाल वो दोनों भांप गये. वंदना ने कहा -

" मैडम क्या करें करीब पंद्रह दिन हो गये मिस सेन को बीमार पड़ें अभी तक तो फीवर आ रहा था सुबह शाम चढ़ जाता तो दिन में हल्का रहता कुछ थोडा बहुत खा पी भी लेती थी वह भी बहुत बहला फुसला कर. अब दो दिन से इन्हें डायरिया भी हो गया है. दिन भर बिस्तर खराब होता रहता है, अब तो इन्हें बाथरूम भी बेड पर ही हो जा रही है ".

मनोज को ड्राइवर के साथ डाक्टर के पास भेज दिया था. आधे घंटे हो गये थे न वह आया न ही फोन से कुछ बताया. इधर मैम की हालत बिगडती ही जा रही थी. आँखे तो उन्होंने खोली ही नहीं थी बस नीमबेहोशी की हालत में पड़ी थी. उनका हाथ थाम कर सहलाती तो कभी माथे का पसीना पोछती रमा जी बैठी थी.

बहुत खामोश बहुत उदास सी रमा बंसल जो मिस सेन से पांच छह साल छोटी है यही रहती है.
मै बार बार बेचैनी से दरवाजे की ओर देख रही थी अभी तक मनोज डाक्टर को लेकर नहीं आया. फोन किया तो पता चला कोई डाक्टर आने को तैयार ही नहीं, वही लाकर दिखाने को कह रहे है. थोड़ी देर बाद वह वापस आ गया बस पेरासिटामोल की दो गोलियां ले कर कहने लगा -

" मैम दस बारह जगह गये एक भी डाक्टर आने को राजी नहीं हुआ यहाँ तक गली के नुक्कड़ पर बैठा कंपाउंडर जो आजकल डाक्टर साहब बना है उसने भी मना कर दिया जबकि वह मुझे पहचानता है अच्छी तरह जान रहा था कोई बुज़ुर्ग ही बीमार होगा. पता नहीं क्यों ऐसा कर रहें है हो सकता है रात ज्यादा हो गई है इसीलिए. पास वाले नर्सिंगहोम की डाक्टर मंजू आहुजा ने यह गोलियां दी और सुबह आने को कहा है ".

''अरे सुबह तक तो बहुत परेशानी हो जायेगी पता नहीं रात कटेगी भी या नहीं साँसे भी खर्र खर्र चल रही हैं.केवल बुखार ही होता तो भी चिंता कम होती साथ में डायरिया भी है शरीर शिथिल पड़ता जा रहा है अब क्या करें मनोज ? ''.

मुझे बहुत क्रोध आया और समझ में भी नहीं आ रहा था क्या करें. वहां सभी परेशान हो गए
फिर सब ने बहुत सोचा अब हाथ पर हाथ रखे सुबह का इंतजार नहीं किया जा सकता कुछ तो करना ही होगा.

तुरंत मेडिकल स्टोर से क्रोसिन मंगवाई वह कम से कम बुखार तो उतार देगी रात कट जाये बस सुबह तो डाक्टर आ ही जायेगी.

क्रोसिन की गोली पानी में घोल कर चम्मच से पिला दी गई और माथे पर ठंडी पट्टी रखी गई ,बीच बीच में चीनी नमक का घोल भी मुंह में डालते रहे.रमा जी लगातार बैठी पट्टी बदलती रही.
ग्यारह बारह बजने को आये पर उस रात सब बैठे रहे कोई नहीं सोया, भगत जी,गुप्ता जी, रामलखन भईया, और किनारे वाली बेड के बाबू जी हों किसी ने कौर भी नहीं तोड़ा पहाड़ वाली अम्मा और दया माँ भी खामोश थी.सब के चेहरे पर चिंता झलक रही थी.

देर रात बुखार हल्का हुआ उन्होंने आँखे खोली तब लगा खतरा टल गया, ग्लूकोज़ के दो बिस्किट खिला कर उन्हें डायरिया की भी गोली दी गई. रात बहुत हो गई थी मनोज ने कहा अब आप घर जाइए हम दोनों ही आज यही रुकेंगे. दो चार घूंट चाय भी अपने सामने पिला कर हम करीब एक बजे घर वापस आ गये.आते समय मनोज ने कहा कल जल्दी आ जाइएगा सुबह ही तो डाक्टर मंजू आहुजा को बुला लायेंगे एक बार देख कर दवा दे देंगी तो तसल्ली रहेगी.

सभी आँखों में एक अनुरोध था कल जल्दी आइयेगा बिन संवाद के ही सब पढ़ने में आ रहा था मेरा कलेजा जैसे कचोट रहा हो इन आँखों की भाषा पढ़ कर इन चेहरों की लकीरों में पसरी हुई बेबसी देख कर काश इतना बस होता तो सब चुन लेती सारी उदासियों को और डेढ़ इंच ही सही मुस्कान सज़ा देती इन चेहरों पर.

यह भरे पुरे परिवारों वाले चेहरे हैं इनमे माँ झलकती है कभी बहन यहाँ पिता भी है और बड़े भाई भी. यही परिवार है इन सबका कहने को कोई अनाथ नहीं सब का कोई न कोई है बेटे बहू,लड़की दामाद,नाती पोते सब है.पर नहीं है तो उनके घरों में इनके लिये कोई कोना नहीं है.यह अवांछित है.रिटायर्ड है घर की रद्दी और पुराने फर्नीचर की तरह. अगर इन्हें वह बेच सकते तो बेच देते कबाड़ी को.पर नहीं कर पाये वरना सब कुछ तो ले ही लिया अब इनको बेच कर भी चार पैसे खड़े कर लेते.

सोच कर भी ऐसे रिश्तों से वितृष्णा हो गई और मन भी आशंकित होने लगा. अगर जीवन की परणित यही है तो क्यूँ हम सन्तान की कामना करें, भाई बहनों की क्या जरूरत ? आखिर रहना तो यहीं है.वैराग्य सा होने लगा.

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