उस रात का सवेरा न हुआ Dr Fateh Singh Bhati द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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उस रात का सवेरा न हुआ

पश्चिम के धोरे (रेत का टीला) को भगवान भास्कर मुकुट बन कर सुशोभित कर रहे थे | थार की धरा जैसे पीत वस्त्र धारण कर चुकी हो | यह संकेत था, शाम की चाय के समय का | 1965-70 का काल | ग्रामीण इलाकों में तब घड़ियों का चलन नहीं था | माँ ने चाय बनाई, मुझे कहा दाता (दादाजी) को देकर तुरन्त वापस आ जाओ | वापस आने पर बोली, अब मजदूरों को दे आओ | मैंने कहा, उन्हें तो खुदाई में सोने के सिक्के मिले थे | वे लेकर घर चले गए | इतना कहकर खेलने के लिए दूसरे बच्चों के साथ भाग गया | माँ ने सोचा खेलने के लिए मैंने कोई कहानी गढ़ ली होगी | वे स्वयं चाय लेकर वहां गई, जहां पर नए कमरे बनाने के लिए नींव खोदी जा रही थी | सदैव सूर्यास्त के पश्चात जाने वाले मजदूर आज सचमुच जा चुके थे | उस स्थान के पास में ही एक साबूत छोटा सा मटका भी पड़ा था | अब उन्हें लगा शायद मेरी बात में कोई सत्यता हो | माँ ने स्वयं उस रेत को थोड़ा इधर उधर किया तो एक सोने का सिक्का मिल गया | संदेह दूर हो चुका था पर मन में अनेकों प्रश्न उठ खड़े हुए थे | सोने के सिक्के हमारे इस कच्चे घर की चारदीवारी में किसके थे ? माँ को विवाह करके इस घर आए कोई दस वर्ष होने आए थे पर कभी किसी ने ऐसी चर्चा तक क्यों नहीं की ? न जाने कितने थे ? सैकड़ों या हजारों ? मजदूर लेकर चले गए अब वापस तो मिलने नहीं | बच्चे ने देखा भी तो उसकी बात पर कौन यकीन करेगा ? माँ मन में ऐसे अनेक प्रश्नों को लिए, ठण्डी चाय लेकर वापस घर में आ गई | संयोग से पिताजी नौकरी से छुट्टी आए हुए थे | मैंने भोजन की थाली ले जाकर उनके सामने रखी | उन्होंने भोजन प्रारम्भ ही किया था कि माँ ने सिक्का उनके सामने रखते हुए पूरी कहानी विस्तार से बताई और युद्ध काल में बेकरार होते सैनिक कि तरह एक एक कर अपने सारे प्रश्न दाग दिए |

भोजन करते हुए वे बोले क्या आप जानती है गाँव में कहते है पड़ा हुआ सोना मिल जाए तो अपशकुन होता है ? उसे छूना भी नहीं चाहिए | तब फिर आप इसे घर में क्यों लाई ? क्या आप अपने घर का अहित चाहती है ?

तो क्या सचमुच ऐसा होता है ? सोना कौन छोड़ता है ? सभी लोग इस तरह से मिले हुए स्वर्ण को जिसका कोई मालिक नहीं उसे स्पर्श भी नहीं करते ? ऐसा क्यों ?

पता नहीं सब लोग क्या करते है पर मेरा व्यक्तिगत मानना है की इस सिक्के को हमें नहीं रखना चाहिए | सुबह मजदूरों के आते ही उन्हें भी बता देना कि घर की सुख शान्ति चाहते है तो ये सिक्के नहीं रखे | जिस गम्भीरता से बात कर रहे थे साफ झलक रहा था की इसके पीछे कोई गहरा रहस्य है | अब माँ और मेरी रूचि सिक्कों से अधिक उस रहस्य को जानने में थी |

वो बोले जा रहे थे... अपनी चारदीवारी और पूरे गाँव में देखा है आपने ? सब जगह मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े बिखरे पड़े है | गाँव बसे हुए सौ वर्ष भी नहीं हुए | चालीस घर की बस्ती | कभी सोचा इतने सारे ये टुकड़े कहाँ से आए ? सामाजिक परम्परानुसार आप लोग खेतों में नहीं जाती वर्ना अपना जो पार (जहाँ बरसात का पानी इकठ्ठा होता है) है वहां बड़े बड़े पत्थर लगे है वो भी देखती |

माँ बीच में ही बोली | मैंने देखे है एक बार पूरा गाँव वहां जो पाबूजी का मन्दिर है उसमें प्रसाद चढ़ाने गया था तब देखे थे | उन पर बहुत करीने से खुदाई की हुई है और कुछ लिखा हुआ भी है | सुना है वर्षों पहले पालीवालों ने वे पत्थर लगवाए थे |

और कुछ किसी ने बताया पालीवालों के बारे में ?

माँ ने ना में बस गर्दन हिला दी |

खुले आँगन में बैठे पिताजी ने अचानक आकाश की तरफ देखा | दूर तक विस्तीर्ण मरुधरा के इन धवल धोरों पर रात्रि में सितारों को जो भी देखता है अन्तरिक्ष के उस सौन्दर्य में खो जाता है, ह्रदय में एक अजीब सा सुकून भर जाता है | कोई डेढ़ सदी पूर्व चन्द्रमा की रौशनी में आलोकित ऐसी ही एक सुन्दर रात की बात है | उस समय जैसलमेर रियासत पर भाटी राजपूत वंश का शासन था | इसी रियासत में चौरासी गाँव पालीवाल ब्राह्मणों के थे |

दिन में पालीवालों के समाज की बैठक थी | प्रत्येक गाँव से लोग वहां पहुंचे थे | साधनों के नाम पर ऊंट घोड़े ही थे | जैसलमेर का विस्तृत क्षेत्र, इसमें बिखरे अपने-2 गाँवों में पहुँचते हुए शाम हो गई थी | रोज़ मन को सुकून देने वाला तारामंडल उस रात ऐसा लग रहा था जैसे अंगारों से भरा आसमान हो और वे उन पर बरसने वाले है | लगभग यही वक़्त था | किसी के हाथ में भोजन की थाली आ गई थी तो किसी का बच्चा रोटी के लिए रो रहा था, जिसके लिए माँ चूल्हा जलाने में लगी थी | किसी घर में गाय का दूध निकाला जा रहा था | कुछ बछड़ों को अलग कर रहे थे | खेती वाले खेतों से घरों को लौटे ही थे, चूल्हे पर बन रही रोटी की सोंधी महक से उनके मुंह में पानी आ रहा था |

ठीक उसी वक़्त ऐलान हुआ, पंचायत का निर्णय हुआ है की हमारे चौरासी गाँव में से सभी लोग, जो जिस हालत में है अभी इसी वक़्त चल पड़ेगा | कल सूर्योदय होने पर कोई पाँव जैसलमेर की धरती पर नहीं होगा | कानों में ये आवाज़ पहुँचते ही हाथ की थाली गिर गई | खेतों से आए भूख से तड़पते लोगों की भूख मर गई | चूल्हे पर रखी रोटियां जल गई | माताएं भूल गई की भूख से तड़पता उनका लाड़ला रो रहा है | किसी की बेटी का ब्याह तय था तो किसी के घर बहु आने वाली थी पर उस संकट में किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था की कोई क्या करे ?

कुछ दिन के लिए घर छोड़ कर जाता है वह भी कितना दुखदायी होता है ? अपना देश, अपनी माटी, जिन घरों को बनाने में उनकी पीढियां खप गई, जहाँ पर उनकी कई पीढ़ियों की यश गाथाएँ पत्थरों पर उत्कीर्ण की हुई थी, सिर्फ पत्थरों पर ही नहीं बल्कि सचमुच में अपने मेहनतकश हाथों से जैसलमेर रियासत का भाग्य लिखा था, उसे अभी इसी वक़्त सदैव के लिए छोड़ना था | जो जैसलमेर कभी केवल अकाल की त्रासदी के लिए जाना जाता था, जहाँ दो बूंद पानी के लिए सिर कट जाते थे, उन्ही सूखे धोरों में उन्होंने अपनी बुद्धि और चातुर्य से वर्षा जल को इक्कट्ठा करके खड़ीन बनाए जिससे ग्वार बाजरा ही नहीं गेंहूँ, सरसों, जीरा तथा विभिन्न सब्जियां तक उपजाई जाने लगी । जिस मरुस्थल में दूर तक पेड़ का नामोनिशान तक नहीं था वहां हरियाली से आच्छादित धोरे दिखने लगे, जिस माड़धरा को वनस्पति के लिए बाँझ माना जाता था उसमें लोगों ने रंग बिरंगे पुष्पों को प्रस्फुटित होते देखा । व्यापार से धन कैसे कमाया जाता है पहली बार देखा । इनके व्यापार की प्रसिद्धि सिंध और अफगानिस्तान में पाँव फैला चुकी थी | हिन्दुस्तान के कई छोटे-2 राज्यों से अधिक तो एक-2 व्यवसायी की आय थी | पड़ोस के समृद्ध राज्य भी जैसलमेर के इस सौभाग्य से इर्ष्या रखने लगे थे |

आज मातृभूमि की इस सेवा का कैसा प्रतिफल मिला था उन्हें ? नियति भी कैसे कैसे भाग्य लिखती है ! कोई कितना ही ज्ञानी हो आज तक समझ नहीं पाया | आज वह साबित करने को तुली हुई थी की कर्म के सिद्धांत, प्रारब्ध, सब कुछ सिद्धांत भर है | गृह नक्षत्र, सारी गणनाएँ मनुष्य करता रहे पर समय का चक्र कैसे घूमेगा यह तो नियति ही तय करेगी | चौरासी गाँवों का एक साथ, एक जैसा भाग्य ? वो भी ऐसे लोग जिन्होंने अपने कर्म से जिस रियासत के दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदला आज उन्ही के भाग फूट गए ? कोनसे बुरे कर्म किए थे ? क्या अपराध किए थे उन्होंने ? गाँव में कोई अनजान राहगीर भी आया तो उसे अपने प्रिय की तरह भोजन, पानी, रहने की सुविधा सदैव उनकी परम्परा रही | पशु भी आया तो अपने पशुओं के साथ चारा पानी दिया | इससे अधिक धर्मभीरु कोई क्या होगा ? विधाता द्वारा उन्हें यह दण्ड किस लिए दिया जा रहा था ? किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था | अब सोचने समझने का समय था भी नहीं, उनकी पंचायत निर्णय कर चुकी थी |

उस अदृश्य शक्ति द्वारा अमिट स्याही से जो लिखा जा चुका था उसे मिटाने के सारे प्रयत्न वे कर चुके थे पर राम और राज दोनों रुष्ट हो तो सुनवाई कौन करता ? जब और कोई राह नहीं बची तो पलायन के इस निर्णय को क्रियान्वित करना ही अन्तिम विकल्प था | जो जिस स्थिति में था, थोड़े बहुत रुपये पैसे, खाने की सामग्री और बच्चों को लिया बाकि सब कुछ अपने सुन्दर घर, जिन्हें बनाने में कितनी ही पीढ़ियों की मेहनत लगी थी, बर्तन भांडे, सामान, दुधारू गायें, भैंसें, बकरियां, ऊँटों के टोले, लहराते हुए खेत, सब कुछ उसी हालत में छोड़ निकल पड़े, सदैव के लिए | पर मन कहाँ मानता है ? कैसे मान लेता की उस देश, मातृभूमि से जहाँ उनकी पीढ़ियों की स्मृतियाँ बसी थी, लौट कर कभी नहीं आएँगे | मन की इसी मजबूरीवश कुछ लोगों ने अपनी स्वर्ण मुद्राएँ बर्तनों में डाल कर जमीन में गाड़ दी | इस विश्वास से की ये बुरे दिन भी कल शायद फिरेंगे, इस रात का सवेरा भी कभी तो होगा, हम नहीं तो हमारे बच्चे आकर इन घरों में रहेंगे तब यह गड़े हुए सिक्के उनके काम आएंगे | पर मानव की बनाई योजनाएं कब क्रियान्वित हुई है ? वह रचियता किससे क्या चाहता है ? कोई नहीं जानता | कितने ही सम्राटों को रोटी के लिए मोहताज़ कर दिया तो कितने ही अनाथों को नाथ बना दिया |

पर ऐसी क्या बात हो गई जो पंचायत को अचानक ऐसा निर्णय लेना पड़ा, हुकम ? माँ बोली

बात ऐसी ही कुछ थी, कोई भी स्वाभिमानी इन्सान या समाज अपनी इज्ज़त, मान-मर्यादा के लिए यही निर्णय लेता | उस वक़्त जैसलमेर का दीवान था सालम सिंह मोहता | कहते है हजारों दुष्ट मरे होंगे तब एक सालम पैदा हुआ था | वैसे भी राजा जब अक्षम और मौन हो जाता है तो मंत्री निरंकुश होते ही है | यही महारावल मूलराज के राज में हुआ | उनकी कायरता की बदोलत सारी शक्तियां दीवान ने अपने हाथ में ले ली | वह इतना अत्याचारी, अय्याशी, भोगी था की प्रजा त्रस्त हो गई | एक तो अकाल की मार, ऊपर से वह नए-2 कर लगाए जा रहा था | कोई विरोध करता तो कुचल दिया जाता या कुछ दिनों बाद वह गायब हो जाता, कहाँ गया कोई नहीं जानता | यह राज सालम, उसके कुछ विश्वासपात्र लोग और ईश्वर के सिवाय कोई भी नहीं जान पाता | प्रजा अपना दुखड़ा किसे सुनाती ? महारावल तो होते हुए भी थे नहीं | जो कुछ था वह दीवान, वही विधायिका, वही कार्यपालिका, और वही न्यायपालिका इसलिए फ़रियाद का कोई अर्थ नहीं था |

सिर्फ अपनी अय्याशी के लिए उसने हवेलियाँ बनवाई | जिनमें अँधेरा होते ही दीपक जल उठते, मदिरा और मृगनयनी का खेल प्रारम्भ होता और उस खेल में कई घरों के दीपक बुझ जाते | कुछ तो दिल के टुकड़े की जिन्दा लाश को लेकर जहर का घूंट पी कर जीने को मजबूर थे तो कुछ को तब पता लगता जब जैसलमेर के गड़ीसर तालाब में उसका शव दिखाई देता | कुछ कन्याएँ उसके मन को भा जाती पर उनके साथ इस तरह खेलना निरापद नहीं लगता, उसके लिए उसने बहुपत्नी परम्परा प्रारम्भ कर दी | तरीका कुछ भी अपनाना पड़े राजी मन से, बलात या विवाह करके पर यह तय था की जो कन्या उसकी आँखों को भा गई वह उसकी सेजों पर पहुंचनी चाहिए |

एक दिन वह पालीवालों के गाँव में राजकार्य से गया | कार्य कुछ भी हो कामी की नज़र तो कामिनी ढूंढती रहती है | अर्धशतक पूर्ण कर चुके उस दरिन्दे की दृष्टि एक षोडशी पर पड़ी, अप्रतीम सौन्दर्य ! कोई भी देखे तो ठगा रह जाए | उसने सहयोगियों को इशारा किया | पता चला पालीवालों की बेटी है, इनमें एकता इतनी की किसी एक के कहने से इनके चौरासी गाँव एक होने को तैयार हो जाएंगे, ऊपर से आर्थिक रूप से इतने सक्षम की राज्य के खजाने में जितना धन नहीं होगा उससे ज्यादा इनके पास होगा, नेक और सज्जन, अपणायत इतनी की सभी जातियों के लोग इनका सम्मान करते है | आवश्यकता होने पर भाटी भी इनके सहयोग से पीछे नहीं हटेंगे ऐसे में उसे बलात उठाकर लाना किसी बड़ी विपत्ति को आमन्त्रण देने से कम नहीं है | दीवान को भय तो लगा पर भोग ऐसा रोग है जिसके कारण इन्द्र ने अपना सिंहासन तक गँवा दिया | उसने साथियों से सलाह मशविरा करके विवाह का प्रस्ताव रखना उचित समझा | उसके पिता को बुलाया गया, बात की गई, वे बोले एक तो हम ब्राह्मण और आप वैश्य, दूसरा मेरी बिटिया की आयु सोलह वर्ष और आप मेरे से भी बड़े, पचास पार कर चुके है यह सम्भव नहीं है, यह अपराध है | अगर मैं हाँ भी करता हूँ तो मेरी और आपकी कई पीढियां जान बूझकर किए इस अपराध का दण्ड भुगतेगी, यह असम्भव है | आप बड़े है, दीवान है, पितातुल्य है, मेरी विनती है आप इस बात को इसी समय भूल जाएं और हमारे पर दया करें | दीवान और उसके दुष्ट सहयोगियों ने बहुत समझाया, राजपुरुषों की कोई जाति, कोई उम्र नहीं होती है, ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएँगे पर इन सब बातों का कोई असर नहीं होता देखा तो उसे बहुत बुरे परिणाम के लिए तैयार रहने को कह कर चले गए |

शाम को गाँव के सब पंचों को बुलाया गया | कन्या के पिता ने उनके सामने बात रखी | सभी ने एकमत से उसकी पीठ थपथपाई, कहा बहुत अच्छा किया | इज्ज़त मिट्टी में मिला कर जीने से तो अच्छा है हम मर जाएं | जो भी मुसीबत आएगी देखा जाएगा | कहने को तो कह दिया पर दीवान को सभी जानते थे | किसी विषधर पर पैर रखना तो फिर भी सुरक्षित हो सकता है पर सालम सिंह बदला लिए बिना रहने वाला नहीं था | यह बात भीतर ही भीतर सभी जानते थे इसलिए भयभीत भी थे और सावधान भी |

अगले ही दिन सालम सिंह द्वारा समाज के पंचों को जैसलमेर बुला कर सहमती की कोशिश की गई | कई लालच दिए गए, धमकियाँ दी गई, पर वे नहीं माने | तब वर्षों से पड़ रहे भयंकर अकाल के बावजूद पूरे समाज पर अर्थदण्ड के रूप में भारी कर की घोषणा की गई, नहीं चुकाने पर राज द्वारा बलात वसूली की जाएगी तथा कहा गया राज और भी बहुत कुछ कर सकता है | पुनः एक बार सोच लेना | सोचने के लिए कुछ दिन का समय दिया गया | पंच इकट्ठे थे ही, वहां से गाँव गए | वहीँ निर्णय हुआ, अब यहाँ रहना सुरक्षित नहीं है | कर तो एक बहाना है, असली कारण सब जानते थे | सब की राय यही थी, की कर चुका भी देंगे तो कल फिर नई मांग आएगी | हालांकि राजा बदल चुके थे और महारावल मूलराज के विपरीत नए महारावल से बहुत आशाएं भी थी पर वे राज्य से बाहर थे | दीर्घकाल तक लौटने की कोई उम्मीद नहीं थी | जहाँ पल पल भारी पड़ रहा हो वहां इतना इन्तजार संभव नहीं था | इसलिए ह्रदय को विदीर्ण करने वाला कठोर निर्णय हुआ | वह निष्ठुर प्रभात आए जब राज के सिपाही बलात हमारी बेटी को उठा कर ले जाएं या कर के नाम पर हमें बेईज्ज़त करने, कुचलने आए उससे पूर्व चौरासी गाँवों का एक ही रात्रि में सामूहिक पलायन | जैसलमेर की धरा, इस मातृभूमि को, जिसे सदा चन्दन समझा, ललाट पर लगा कर, सजल नयनों से अलविदा कहना होगा | सभी कहते है हर रात का एक सवेरा होता है परन्तु एक सदी बीत गई पर आज दिन तक उस रात का सवेरा न हुआ |