पढ़ाई में व्यस्तता के कारण कोई दस वर्ष बाद मामा के साथ ननिहाल जा रहा था | दोपहर में टूटी फूटी बस ने गाँव से कोई दो तीन किलोमीटर दूर उतारा, वहां से हम दोनों पैदल चल पड़े | रेगिस्तान में दोपहर का समय, ऐसे में भगवान भास्कर की भृकुटी पूरी तनी हुई थी | प्रचण्ड गर्मी के बीच रास्ते में बड़े रेत के धोरे पर चढ़ते चढ़ते साँसे फूलने लगी, पसीने से नहा लिए तो थोड़ा विश्राम करने की सोची | पास में केर की झाड़ी ही थी, उससे थोड़ा सा भी दूर हो जाओ तो छाया नहीं, चिपक कर खड़े हो तो कुछ ठंडक मिलती पर तब उसके कांटे चुभते | इतने में थोड़ी दूरी पर खड़े दो खेजड़ी के पेड़ों ने मेरा ध्यान अपनी और खींचा | मैंने अपने जीवन में इतने गहरे खेजड़ी के पेड़ पहली बार देखे थे | मामा से कहा इन काँटों को छोड़ वहां चलो, दो घड़ी चैन से तो बैठेंगे |
मामा बोले उन पेड़ों के नज़दीक गलती से भी कभी मत जाना |
क्यों ऐसा क्या हो गया कोई जहरीले पेड़ है ? लगते तो खेजड़ी के ही है |
हां खेजड़ी के ही है पर वहां जाने का अर्थ है स्वयं अपने लिए कुछ अनिष्ट को पालना |
क्या मतलब मैं कुछ समझा नहीं ?
मामा गला खंगारने के बाद दृष्टि को उन्ही पेड़ों में गड़ाते हुए बोले कुछ बरस पहले की बात है | गाँव का लड़का चंदा और उससे दो साल बड़ी लड़की चाँदनी | कद काठी रूप सौन्दर्य ऐसा की दोनों अपने नाम को चरितार्थ करते थे | दिन भर जंगल में दोनों अपनी बकरियाँ चराकर शाम के समय सड़क के उस पार तालाब से मवेशियों को पानी पिला फिर गाँव की तरफ़ चल पड़ते | उस समय तक सूर्यदेव अस्तांचल को चलने लगते थे | मारुत देव लोगों को जला जला कर ठण्डे पड़ चुके होते थे, ऐसे में वे दो घड़ी इस धोरे पर बैठ कर सुस्ताते | कहने को सुस्ताते थे पर असल में एक दूसरे में खो जाते थे | चंदा अपनी बांसुरी निकाल, सुर छेड़ता था और चाँदनी उसमें खो जाती थी | शाम के उस धुंधलके में राधा कृष्ण जीवित हो उठते थे | गाँव के सारे चरवाहे, किसान इधर से ही निकलते थे | किसी ने कभी उनकी देह को निकट आते नहीं देखा और मन को दूर होते नहीं देखा | सब देखते थे पर उनकी कोई हरकत किसी को कभी अंगुली उठाने का अवसर नहीं देती | सब कहते थे ऐसा निश्छल, निर्विकार प्रेम उन्होंने कभी नहीं देखा |
किस्मत और मौसम कब बदल जाए कोई नहीं कह सकता | ऐसा ही कुछ हुआ चंदा के पिता के साथ | दो समर्थ की लड़ाई में भाग्य ने उसको सरपंच बना दिया | बुद्धि तो थी ही भाग्य ने भी साथ दिया तो कुछ ही दिनों में परिवार के दिन फिरने लगे | अब चंदा भेड़ बकरियां छोड़ बड़ी गाड़ी में घूमने लगा | कार्य तो बदल लिया पर दिल नहीं बदल सका, उसमें चाँदनी के प्रेम की लौ वैसी ही जलती रही |
इधर चाँदनी भी सयानी होती जा रही थी तो पिता की नज़रें हमेशा अच्छे लड़के की खोज में लगी रहती | ऐसे में उसकी माँ ने सुझाव दिया आप सरपंच साहब से बात करके क्यों नहीं देखते ? वे भी उन दोनों के प्यार के बारे में जानते है | दोनों बच्चे खुश रहेंगे | लक्ष्मी जी की दया से पाँच दस साल से उनके आर्थिक हालात बदल गए है पर जात की हैसियत बराबर ही नहीं आज भी थोड़ी ऊँची ही है हमारी | हालाँकि चाँदनी के पिताजी जानते थे की पैसे के आगे जाति, गौत्र, अच्छा, बुरा, परिवार, खानदान सभी की कोई औकात नहीं है | उनका वहां जाना और बात करना निहायत बेवकूफ़ी भरा कार्य होगा पर पत्नी का मन रखने तथा दिल के किसी कौने में ये लालच की बच्चे एक दूसरे से इतना प्रेम करते है, दम्पति बन जाए तो सुखी रहेंगे, उनके कदमों को स्वतः उधर ले गए |
सरपंच साहब घर के सामने जनता दरबार लगाए बैठे थे | चाँदनी के पिताजी भीड़ छंटने का इंतज़ार करते रहे | शायद सरपंच इस बात को भांप गया था इसलिए एक दो बार नज़रें मिली भी तो उपेक्षित भाव दिखा कर अपने काम में लग जाता | भीड़ छंट जाने के बाद सरपंच के सामने हाथ जोड़ उसने आग्रह किया तो सरपंच बिफ़र पड़ा, औकात देखी है अपनी ? ऐसी साजिशों से पैसा नहीं मिलता | बेटी के सुख की, ऐश-ओ-आराम की इतनी ही चिंता है तो किसी के यहाँ डाका डाल दे, चोरी कर ले पर मुझे माफ़ कर भाई बहुत मेहनत से कमाया है | ऐसे घर रिश्ता करूँगा जहाँ से इस धन में चार पैसे जुड़ते हो | बड़ी मेहनत से यहाँ तक पहुंचा हूँ | ऐसे भूखे नंगों से रिश्ता करूँगा तो मैं भी इनके जैसा हो जाऊंगा | वो उठा और क्षमा मांगते हुए चल दिया |
चन्दा को सब पता तो चल गया पर वह जानता था पिताजी के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं कर पाएगा | वैसे उन दोनों ने विवाह का न तो सोचा था और न ही कभी चर्चा की थी | उनके प्रेम में कोई शर्त न थी | उनका प्रेम तो कभी बकरियों के मिमियाने में अपने सुर मिलाता, कभी तालाब के पानी की छप-छप में तरंगित होता दिखता, कभी बांसुरी के संगीत के माधुर्य में गुंजायमान हो उठता तो कभी अस्त होते सूर्य द्वारा आकाश में सिन्दूरी रंगों में दृष्टिगोचर होता | एक ऐसा प्रेम जिसे न तो रिश्तों से मतलब था और न ही देह से |
आखिर वह समय आया जब शाश्वत प्रेम के रहते हुए देह को दूसरी राह पकड़नी पड़ी | सत्रहवें वर्ष में चाँदनी के पिताजी ने अपने जैसे गरीब परिवार में लड़का ढूंढ कर उसका विवाह संपन्न कर दिया | चन्दा तो अभी पन्द्रह वर्ष का ही था | उसके पिताजी सत्रह अठारह के बाद ही विवाह के पक्ष में थे और मौल भाव में भी काफ़ी समय लगाना चाहते थे ताकि बाद में पछताना ना पड़े |
इस विवाहोपरान्त दोनों के सम्बन्धों में कोई परिवर्तन नहीं आया क्योंकि वह निश्छल प्रेम तो एक दूसरे की तथा दोनों परिवारों की प्रसन्नता में प्रसन्न था | जिन्होंने न तो कभी एक दूसरे को स्पर्श किया और न ही दोनों देह के एकाकार होने के स्वप्न देखे ऐसे में सम्बन्धों में फ़र्क आता भी क्यों ? इसलिए चाँदनी जब भी पिता के घर आती उन दोनों का मिलना बदस्तूर जारी रहा | दोनों अपने अपने जीवन से खुश थे |
होनी को कौन टाल सकता है ? किसी की खुशियों को ग्रहण पूछ कर थोड़े ही लगता है | कहते तो दयालु है पर उसे भी शायद मनुष्य की तरह किसी की ख़ुशी बर्दास्त नहीं होती है | ऐसी ही ईर्ष्या उस दयालु को चाँदनी से हुई | उसके इशारे से एक तेज आंधी आई और उसके सिंदूर को उड़ा ले गई | गरीब अवश्य था पर उसके जीवन में तो खुशियों का खजाना उसी के होने से था | उस निर्मोही ने वह खजाना लूट लिया | चाँदनी विधवा हो गई | लोगों की नज़रों में वैसे ही गरीब की पत्नी सब की भाभी ऐसे में उसका सौन्दर्य और यौवन जिसे देखकर हर कोई मन ही मन खुश होता है उसके लिए अभिशाप बन गए |
पति का साया उठने के बाद कपड़ों को बेधती भेड़ियों की नज़रों से बचने के लिए पिता के साए में उसने आश्रय लिया | हमेशा की तरह चंदा उसके घर मिलने गया | आज उसके पिता ने बाहर से ही यह कहकर लौटा दिया की अब वो विधवा हो चुकी है और अभी तो छः महीने भी नहीं हुए हुए है, ऐसे में किसी से भी कैसे मिल सकती है ? घर की देहरी तो दूर अपने कमरे की देहरी से बाहर, यहाँ तक की मेरे सामने भी नहीं आ सकती, यही सामाजिक दस्तूर है |
मना करने पर चंदा तो चला गया पर उसका मन वहीँ अटका रहा | उस अँधेरे कमरे में जहाँ उसकी चाँदनी को ग्रहण लग गया था हमेशा के लिए | जहाँ से अब कभी कोई उम्मीद की किरण नहीं निकलनी थी | उसके आहत मन ने बहुत सोचा मन की अंधकार युक्त गुफ़ा में कैसे कोई प्रकाश रश्मि पहुंचे | जितना अधिक सोचता उतना ही अधिक उलझता जाता | उसे लगता जितना वह चाँदनी को खाई से बाहर निकालने की कोशिश करता उससे कहीं ज्यादा समाज के रीती नीति नियम कायदे, अपने पिता और परिवार के इज्ज़त के बारे में विचार, ये सब उसे गहरे कुए में धकेलते | इस सब के बावज़ूद महीनों के मंथन के बाद उसे समझ आया कि अगर वह चाँदनी की लाश को उस अँधेरे कमरे से बाहर नहीं निकालेगा तो अन्तर इतना ही होगा की उसकी लाश कमरे के भीतर बंद होगी और मेरी बाहर खुले में पर जीवन जीना खुशियाँ, चहचहाना, हँसना यह सब तो मेरे लिए भी संभव नहीं होगा |
चार महीने के मंथन में मन ही मन निर्णय लिया और चाँदनी के पिताजी से मिलने के लिए आग्रह किया | समाज के रीती रिवाज़ों में लिपटा पिता का अन्तर्मन तैयार न था पर पिता के कलेज़े से उठी हूक द्रवित होकर आँखों से निकली, उन पनीली आँखों ने बेटी के होठों पर एक स्मित मुस्कराहट देखी तो चाहते हुए भी चन्दा को चाँदनी से मिलने से रोक नहीं पाए | बस इतना ही कहा बेटा किसी से कुछ भी जिक्र मत करना | घर के भीतर ले गए और चाँदनी की माँ के साथ कमरे के भीतर भेज दिया | कुछ देर के मौन के पश्चात महीनों बाद माँ ने भी पुनः अपनी लाड़ली की आवाज़ सुनी तो आँख भर आई | माँ बाप के सामने संतान का ऐसा हाल हो तो उनके दिल पर क्या बीतती है, वह शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता, वह आँखों से बिखरती इन मोतियों की माला से अनुभूत ही किया जा सकता है | वातावरण और ग़मगीन न हो जाए इसलिए माँ चाय लाने का कहकर बाहर निकली और स्वयं को संभाला |
चंदा के लिए इतना समय बहुत था चाँदनी को समझाने के लिए की वह उससे विवाह करना चाहता है | चाँदनी ने बहुत समझाया की अव्वल तो वह अब जीना ही नहीं चाहती ऊपर से किसी विधवा से विवाह ? समाज तो क्या तुम्हारा और मेरा परिवार भी इसे स्वीकार नहीं करेगा | मेरी तो किस्मत ने धोखा दे दिया पर तुम स्वयं क्यों कुए में कूदना चाहते हो ? परिवार में धन दौलत ऐश्वर्य की कमी नहीं पिताजी का बड़ा नाम है ऐसे में हजारों लोग बेटी का हाथ लेकर तैयार बैठे है बस तुम्हारी हाँ के इंतजार में | तुम हो की इस अभागन से हाथ मिलाना चाहते हो | ऐसा मत करो मुझे लगता है मेरा दुर्भाग्य तुम्हे भी बर्बाद कर देगा |
इन सब बातों का चंदा पर न तो असर होना था और न हुआ | उसने इतनी सी बात कही पांच दिन बाद अक्षय तृतीया है रात तीन बजे आऊंगा या तो मेरे साथ चलना या फिर इसी कमरे में बैठे हुए अगले दिन मेरी मौत की खबर सुनना | अभी तक कुछ सामान्य हो चुकी चाँदनी पसीने से भीग गई, धड़कनें बढ़ गई, गला सूख गया, आँखों के सामने अँधेरा छाने लगा, ये कैसी मुसीबत में फंसना चाहते हो तुम ? कहना चाह रही थी पर बोल नहीं निकल रहे थे, गला रुंध गया था | इतने में चाय लेकर माँ आ गई | चाय पीकर वह चला गया पर चाँदनी के मन में एक तूफ़ान मचा गया जिससे निकलने कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था | न ओर मिल रहा था न छोर | वह भटकती रही रात और दिन, न नींद आती, न भूख लगती | कभी सोचती स्वयं को समाप्त कर लूँ फिर यह सोच कर सहम जाती उसने भी ऐसा कर लिया तो ?
इसी उधेड़बुन के बीच अक्षय तृतीया आ गई | सोना तो उसकी किस्मत में था नहीं, तीन बजे बाहर आहट हुई वह समझ गई | धीरे से दरवाजे की कुण्डी खोली और बाहर निकल गई | चंदा खड़ा था दोनों चल पड़े | कहाँ जाएंगे ? क्या होगा ? उसे कुछ पता नहीं | उसने तो हाथ आगे बढ़ा दिया और चन्दा ने पकड़ लिया | जिसे दिल से चाहा, मन में जो दिनों या महीनों नहीं वर्षों तक बसा रहा उसका स्पर्श कैसा होता है आज पहली बार महसूस किया | सच्चे प्यार के स्पर्श का ही परिणाम था की अब भी अनजान राह पर चल रहे थे, जानती थी तलवार की धार पर चलना है फिर भी कई दिनों से उठ रहा वह तूफ़ान अचानक से शान्त हो गया, किन्चित भी हलचल नहीं, चिन्ता नहीं |
निःशब्द रात्रि और उनके मध्य भी किसी तरह के शब्दों का आदान प्रदान नहीं हुआ | बीच बीच में झिंगुरों की आवाज़ सामान्य अवस्था में जिसे हम सुन भी नहीं पाते आज किसी युद्ध के सायरन जैसा आभास देती | उसी ऊँचे धवल धोरे पर पहुंचे जिस पर बकरियाँ चरा कर वापस लौटते हुए घंटों बतियाते थे | इसी जगह उनके दिलों में प्रेम के पोधे का बीजारोपण हुआ | यहीं पर उस पोधे में कोमल कोंपलें फूटी और फिर उसने ऊंचाई पाई | उसके बाद न तो सूखा न बढ़ा, उसी स्थिति में अटक गया था | आज उसी पोधे को वृक्ष का स्वरुप देने की तैयारी हो रही थी |
चंदा ने कुछ सूखी लकड़ियाँ इक्कट्ठी की | जेब से माचिस निकली और अग्नि देव को साक्षी बनाया | दोनों ने मिल कर अक्षय तृतीया के चन्द्रमा और तारों भरे आकाश की उपस्थिति में सप्तपदी की रस्म पूरी की | सुबह होते होते एक झोपड़ा भी बना दिया गया | वे दोनों तो भीतर बैठ गए पर बाहर सूर्य के प्रकाश के साथ, प्रकाश के वेग से ही यह समाचार दौड़ने लगा | घरों के भीतर जहाँ प्रकाश अभी तक नहीं पहुंचा था पर चाय की चुस्कियों के साथ लोगों की जीभ पर यह बात पहुँच चुकी थी | सरपंच साहब के बेटे चंदा ने विधवा चाँदनी से विवाह कर लिया | नाक कट चुकी थी केवल सरपंच ही नहीं चाँदनी के परिवार वालों की भी और पूरे समाज की | मन ही मन सरपंच से कुढने वालों को इससे बेहतर अवसर कभी मिल नहीं सकता था |
वही धर्म, वही जाति, उन दोनों का विवाह हो सकता था | पर अब वह विधवा है, जिसे ईश्वर ने दण्ड दिया है वह फिर से विवाह का सोच भी कैसे सकती है ? समाज की बैठक आहूत की गई | सरपंच मुंह छुपाकर गायब हो गया | विरोधियों ने इशारों ही इशारों में निर्णय तो कर लिया था पर जब तक सामने सरपंच नहीं आए, उसको बेज्ज़त कर के समाज से बाहर न किया जाए तब तक के लिए चुप रहना बेहतर समझा | तय हुआ, सरपंच को ढूंढ कर कल सामने लाया जाएगा फिर निर्णय सुनाएंगे | इसके साथ ही बैठक समाप्त हो गई |
अगले दिन सूर्योदय से पूर्व कुछ लोगों ने देखा उस झोपड़ी से आग की लपटें निकल रही है | लोग दौड़ कर पहुंचे पर तब तक झोंपड़े के साथ चंदा और चाँदनी भी राख में तब्दील हो चुके थे | उन दो प्रेमियों के अरमान और जीवन तो राख हुए ही थे, कुछ निश्छल लोगों ने देखा समाज के ठेकेदारों के अरमानों और सरपंच की नाक की राख भी उसमें मिली थी |
सच क्या था ? कोई नहीं जानता | कुछ लोग कहते है सरपंच ने नाक बचाने के लिए आग लगवा दी तो कुछ कहते है उसके विरोधियों ने अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसा किया और इलज़ाम सरपंच के सिर मढ़ दिया | कारण कुछ भी रहा हो चंदा और चाँदनी का प्रेम, दो ज़िंदगियाँ जिनके कुछ अरमान थे, कुछ साँसें बाकि थी, वो स्वाहा कर दी गयी थी | चंदा ने शायद ठीक कहा था मेरा दुर्भाग्य तुम्हे भी बर्बाद कर देगा |
कुछ समय बाद जब पहली बारिस हुई तो धोरा हरियाली से आच्छादित हुआ तभी लोगों ने देखा उस राख में से भी दो बीजों का प्रस्फुटन हुआ और देखते ही देखते कुछ वर्षों में पेड़ बन गए | इस उजाड़ रेगिस्तान में बूढ़ी या जवान किसी आँख ने आज तक ऐसे गहरे खेजड़ी के पेड़ नहीं देखे | इस घटना को अंजाम देने वाले दुष्टों के साथ सच में कोई अनहोनी हुई या अपने किए दुष्कर्मों ने उन्हें भयाक्रांत किया, राम जाने परन्तु उन्होंने कहना शुरू कर दिया वहां जो भी जाता है उसका अहित होता हैं उस पर विपत्ति आती है | अपने अहित के भय से तब से आज तक कोई हिम्मत नहीं जुटा पाया है उनकी गहरी छाँव में जाने की |