कचहरी - शांति की पुकार Ajay Amitabh Suman द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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कचहरी - शांति की पुकार

(1)शांति की पुकार

ये कविता गौतम बुद्ध द्वारा अपने शिष्य महाकाश्यप को बुद्धत्व की प्राप्ति की घटना पर आधारित है। ये घटना अपने आपमें इसलिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि गौतम बुद्ध ने बिना कुछ कहे हीं महाकश्यप को गयाब प्रदान कीट था।


किसी मनोहर बाग में एक दिन ,
किसी मनोहर भिक्षुक गाँव ,
लिए हाथ में पुष्प मनोहर ,
बुद्ध आ बैठे पीपल छाँव .

सभा शांत थी , बाग़ शांत था ,
चिड़ियाँ गीत सुनाती थीं .
भौरें रुन झुन नृत्य दिखाते ,
और कलियाँ मुस्काती थी .

बुद्ध की वाणी को सुनने को ,
सारे तत्पर भिक्षुक थे ,
हवा शांत थी ,वृक्ष शांत सब,
इस अवसर को उत्सुक थे .

उत्सुक थे सारे वचनों को ,
जब बुद्ध मुख से बोलेंगे ,
बंद पड़े जो मानस पट है ,
बुद्ध वचनों से खोलेंगे.

समय धार बहती जाती थी ,
बुद्ध कुछ भी न कहते थे ,
मन में क्षोभ विकट था अतिशय ,
सब भिक्षुक जन सहते थे .

इधर दिवस बिता जाता था ,
बुद्ध बैठे थे ठाने मौन ,
ये कैसी लीला स्वामी की ,
बुद्ध से आखिर पूछे कौन ?

काया सबकी बाग में स्थित ,
पर मन दौड़ लगाता था ,
भय ,चिंता के श्यामल बादल ,
खींच खींच के लाता था.

तभी अचानक जोर से सबने ,
हँसने की आवाज सुनी ,
अरे अकारण हँसता है क्यूँ ,
ओ महाकश्यप, महा गुणी .

गौतम ने हँसते नयनों से ,
महाकश्यप को दान किया ,
कुटिया में जाने से पहले ,
वो निज पुष्प प्रदान किया .

पर उसको न चिंता थी न,
हँसने को अवकाश दिया ,
विस्मित थे सारे भिक्षुक क्या,
गौतम ने प्रकाश दिया .

तुम्हीं बताओ महागुणी ये ,
कैसा गूढ़ विज्ञान है ?
क्या तुम भी उपलब्ध ज्ञान को ,
हो गए हो ये प्रमाण है?

कहा ठहाके मार मार के ,
महाकश्यप गुणी सागर ने ,
परम तत्व को कहके गौतम ,
डाले कैसे मन गागर में?

शांति की आवाज सुन सको ,
तब तुम भी सब डोलोगे ,
बुद्ध तुममें भी बहना चाहे ,
तुम मन पट कब खोलोगे?

(2)

भारतीय न्याय व्यवस्था पर व्ययंगात्मक तरीके से चोट करती हुई एक कविता।


कचहरी


जहाँ जुर्म की दस्तानों पे ,
लफ़्ज़ों के हैं कील।
वहीं कचहरी मिल जायेंगे ,
जिंदलजी वकील।

लफ़्ज़ों पे हीं जिंदलजी का ,
पूरा है बाजार टिका,
झूठ बदल जाता है सच में,
ऐसी होती है दलील।

औरों के हालात पे इनको,
कोई भी जज्बात नही,
धर तो आगे नोट तभी तो,
हो पाती है डील।

काला कोट पहनते जिंदल,
काला हीं सबकुछ भाए,
मिले सफेदी काले में वो,
कर देते तब्दील।

कागज के अल्फ़ाज़ बहुत है,
भारी धीर पहाड़ों से,
फाइलों में दबे पड़े हैं,
नामी मुवक्किल।

अगर जरूरत राई को भी ,
जिंदल जी पहाड़ कहें,
और जरूरी परबत को भी ,
कह देते हैं तिल।

गीता पर धर हाथ शपथ ये,
दिलवाते हैं जिंदल साहब,
अगर बोलोगे सच तुम प्यारे,
होगी फिर मुश्किल।

आईन-ए-बाजार हैं चोखा,
जींदल जी सारे जाने,
दफ़ा के चादर ओढ़ के सच को,
कर देते जलील।
उदर बड़ा है कचहरी का,
उदर क्षोभ न मिटता है,
जैसे हनुमत को सुरसा कभी ,
ले जाती थी लील।

आँखों में पट्टी लगवाक़े,
सही खड़ी है कचहरी,
बन्द आँखों में छुपी पड़ी है,
हरी भरी सी झील।

यही खेल है एक ऐसा कि,
जीत हार की फिक्र नहीं,
जीत गए तो ठीक ठाक ,
और हारे तो अपील।